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नंदनजी के बारे में साथियों की रुचि देखकर मैं यहाँ उनकी कुछ कवितायें पोस्ट कर रहा हूँ। शुरू की तीन कवितायें एकदम ताजी हैं।
अहसास का घर
एक नाम अधरों पर आया
घोषणापत्र
मैंने पहाड़ से मांगा:
अपनी स्थिरता का थोडा अंश मुझे दे दो
पहाड़ का मन न डोला।
मैंने झरने से कहा
दे दो थोडी सी अपनी गति मुझे भी
झरना अपने नाद में मस्त रहा
कुछ न बोला।
-कन्हैयालाल नंदन
अहसास का घर
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,याद का आसरा
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।
मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।
जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।
जिंदगी चाहिए मुझको मानी* भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।
जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर** चाहिए।
*- सार्थक
**-नम आँख
तेरी याद का ले के आसरा ,मैं कहाँ-कहाँ से गुज़र गया,मुहब्बत का घर
उसे क्या सुनाता मैं दास्ताँ, वो तो आईना देख के डर गया।
मेरे ज़ेहन में कोई ख़्वाब था
उसे देखना भी गुनाह था
वो बिखर गया मेरे सामने
सारा गुनाह मेरे सर गया।
मेरे ग़म का दरिया अथाह है
फ़क़त हौसले से निबाह है
जो चला था साथ निबाहने
वो तो रास्ते में उतर गया।
मुझे स्याहियों में न पाओगे
मैं मिलूंगा लफ़्ज़ों की धूप में
मुझे रोशनी की है जुस्तज़ू
मैं किरन-किरन में बिखर गया।
उसे क्या सुनाता मैं दास्ताँ, वो तो आईना देख के डर गया।
तेरा जहान बड़ा है,तमाम होगी जगहआत्मबोध
उसी में थोड़ी जगह मेरी मुकर्रर कर दे
मैं ईंट गारे वाले घर का तलबगार नहीं
तू मेरे नाम मुहब्बत का एक घर कर दे।
मैं ग़म को जी के निकल आया,बच गयीं खुशियाँ
उन्हें जीने का सलीका मेरी नज़र कर दे।
मैं कोई बात तो कह लूँ कभी करीने से
खुदारा! मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे!
अपनी महफिल से यूँ न टालो मुझे
मैं तुम्हारा हूँ तुम तो सँभालो मुझे।
जिंदगी! सब तुम्हारे भरम जी लिये
हो सके तो भरम से निकालो मुझे।
मोतियों के सिवा कुछ नहीं पाओगे
जितना जी चाहो उतना खँगालो मुझे।
मैं तो एहसास की एक कंदील हूँ
जब जी चाहो जला लो ,बुझा लो मुझे।
जिस्म तो ख्वाब है,कल को मिट जायेगा,
रूह कहने लगी है,बचा लो मुझे।
फूल बनकर खिलूँगा बिखर जाऊँगा
खुशबुओं की तरह से बसा लो मुझे।
दिल से गहरा न कोई समंदर मिला
देखना हो तो अपना बना लो मुझे।
यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ!
आसमान टूटा,
उस पर टंके हुये
ख्वाबों के सलमे-सितारे
बिखरे.
देखते-देखते दूब के दलों का रंग
पीला पड़ गया
फूलों का गुच्छा सूख कर खरखराया.
और ,यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया.
एक नाम अधरों पर आया
एक नाम अधरों पर आया,सृजन का दर्द
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
बोल है कि वेद की ऋचायें
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी
पूजा का एक जतन हो गया.
पानी पर खीचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं
अग्निबिंदु और सघन हो गया.
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
अजब सी छटपटाहट,सूरज की पेशी
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है
अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.
आंखों में रंगीन नजारेअग्निधर्म
सपने बङे-बङे
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.
बहके हुये समंदर
मन के ज्वार निकाल रहे
दरकी हुई शिलाओं में
खारापन डाल रहे
मूल्य पङे हैं बिखरे जैसे
शीशे के टुकङे.
अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें ऐसे करें गवाही
जैसे परदेसी
सरेआम नीलाम रोशनी
ऊंचे भाव चढे.
नजरों के ओछेपन
जब इतिहास रचाते हैं
पिटे हुये मोहरे
पन्ना-पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर पहरे तगङे
आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भारी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.
अंगारे को तुमने छुआइंद्रधनुष
और हाथ में फफोला नहीं हुआ
इतनी सी बात पर
अंगारे पर तोहमत मत लगाओ.
जरा तह तक जाओ
आग भी कभी-कभी
आपद्धर्म निभाती है
और जलने वाले की क्षमता देखकर जलाती है.
एक सलोना झोंकाचुनाव
भीनी-सी खुशबू का,
रोज़ मेरी नींदों को दस्तक दे जाता है।एक स्वप्न-इंद्रधनुष
धरती से उठता है,
आसमान को समेट बाहों में लाता है
फिर पूरा आसमान बन जाता है चादर
इंद्रधनुष धरती का वक्ष सहलाता है
रंगों की खेती से झोली भर जाता है
इंद्रधनुष
रोज रात
सांसों के सरगम पर
तान छेड़
गाता है।
इंद्रधनुष रोज़ मेरे सपनों में आता है। पारे जैसे मन का
कैसा प्रलोभन है
आतुर है इन्द्रधनुष बाहों में भरने को।
आक्षितिज दोनों हाथ बढ़ाता है,
एक टुकड़ा इन्द्रधनुष बाहों में आता है
बाकी सारा कमान बाहर रह जाता है।
जीवन को मिल जाती है
एक सुहानी उलझन…
कि टुकड़े को सहलाऊँ ?
या पूरा ही पाऊँ?
सच तो यह है कि
हमें चाहिये दोनों ही
टुकड़ा भी,पूरा भी।
पूरा भी ,अधूरा भी।
एक को पाकर भी दूसरे की बेचैनी
दोनों की चाहत में
कोई टकराव नहीं।
आज रात इंद्रधनुष से खुद ही पूछूंगा—
उसकी क्या चाहत है
वह क्योंकर आता है?
रोज मेरे सपनों में आकर
क्यों गाता है?
आज रात
इंद्रधनुष से
पहाड़ी के चारों तरफखारेपन का अहसास
जतन से बिछाई हुई सुरंगों पर
जब लगा दिया गया हो पलीता
तो शिखर पर तनहा चढ़ते हुए इंसान को
कोई फर्क नहीं पड़ता
कि वह हारा या जीता।
उसे पता है कि
वह भागेगा तब भी
टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा
और अविचल होने पर भी
तिनके की तरह बिखर जायेगा
उसे करना होता है
सिर्फ चुनाव
कि वह अविचल खड़ा होकर बिखर जाये
या शिखर पर चढ़ते-चढ़ते बिखरे-
टुकड़े-टुकड़े हो जाये।
खारेपन का अहसास
मुझे था पहले से
पर विश्वासों का दोना
सहसा बिछल गया
कल ,
मेरा एक समंदर
गहरा-गहरा सा
मेरी आंखों के आगे उथला निकल गया।
घोषणापत्र
किसी नागवार गुज़रती चीज परयाचना
मेरा तड़प कर चौंक जाना,
उबल कर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
कमज़ोरी नहीं है
मैं जिंदा हूं
इसका घोषणापत्र है
लक्षण है इस अक्षय सत्य का
कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी
ये चिंगारियां हैं उसी की
जो यदा कदा बाहर आती हैं
और
जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर
धड़क रही है-
यह सारे संसार को बताती हैं।
शायद इसीलिए जब दर्द उठता है
तो मैं शरमाता नहीं, खुलकर रोता हूं
भरपूर चिल्लाता हूं
और इस तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं
वरना
देर क्या लगती है
पत्थर होकर ईश्वर बन जाने में
दुनिया बड़ी माहिर है
आदमी को पत्थर बनाने में
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास
जो चारणी प्रशस्ति गान से
आराधना तक जाती हैं
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं
और पत्थर की तरह सदियों जीने का
सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।
अगर कुबूल हो आदमी को
पत्थर बनकर
सदियों तक जीने का दर्द सहना
बेहिस,
संवेदनहीन,
निष्पंद……
बड़े से बड़े हादसे पर
समरस बने रहना
सिर्फ देखना और कुछ न कहना
ओह कितनी बड़ी सज़ा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना!
नहीं,मुझे ईश्वरत्व की असंवेद्यता का इतना बड़ा दर्द
कदापि नहीं सहना।
नहीं कबूल मुझे कि एक तरह से मृत्यु का पर्याय होकर रहूं
और भीड़ के सैलाब में
चुपचाप बहूं।
इसीलिये किसी को टुच्चे स्वार्थों के लिये
मेमने की तरह घिघियाते देख
अधपके फोड़े की तपक-सा मचलता हूं
क्रोध में सूरज की जलता हूं
यह जो ऐंठने लग जाते हैं धुएं की तरह
मेरे सारे अक्षांश और देशांतर
रक्तिम हो जाते हैं मेरी आंखों के ताने-बाने
फरकने लग जाते हैं मेरे अधरों के पंख
मेरी समूची लंबाई
मेरे ही अंदर कद से लंबी होकर
छिटकने लग जाती है
….और मेरी आवाज में
कोई बिजली समाकर चिटकने लग जाती है
यह सब कुछ न पागलपन है, न उन्माद
यह है सिर्फ मेरे जिंदा होने की निशानी
यह कोई बुखार नहीं है
जो सुखाकर चला आयेगा
मेरे अंदर का पानी!
क्या तुम चाहते हो
कि कोई मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचने से रोक दे
और मैं कुछ न बोलूं?
कोई मुझे अनिश्चय के अधर में
दिशाहीन लटका कर छोड़ दे
और मैं अपना लटकना
चुपचाप देखता रहूं
मुंह तक न खोलूं!
नहीं, यह मुझसे हो नहीं पायेगा
क्योंकि मैं जानता हूं
मेरे अंदर बंद है ब्रह्मांड का आदिपिंड
आदमी का आदमीपन,
इसीलिए जब भी किसी निरीह को कहीं बेवजह सताया जायेगा
जब भी किसी अबोध शिशु की किलकारियों पर
अंकुश लगाया जायेगा
जब भी किसी ममता की आंखों में आंसू छलछलायेगा
तो मैं उसी निस्पंद ईश्वर की कसम खाकर कहता हूं
मेरे अंदर बंद वह जिंदा आदमी
इसी तरह फूट कर बाहर आयेगा।
जरूरी नहीं है,
कतई जरूरी नहीं है
इसका सही ढंग से पढ़ा जाना,
जितना ज़रूरी है
किसी नागवार गुजरती चीज़ पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना
उबलकर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
आदमी हूं और जिंदा हूं,
यह सारे संसार को बताना!
मैंने पहाड़ से मांगा:
अपनी स्थिरता का थोडा अंश मुझे दे दो
पहाड़ का मन न डोला।
मैंने झरने से कहा
दे दो थोडी सी अपनी गति मुझे भी
झरना अपने नाद में मस्त रहा
कुछ न बोला।
मैंने दूब से मांगी थोड़ी से पवित्रता
वह अपने दलों में मुस्कराती रही।
मैंने फ़ूलों से मांगी जरा सी कोमलता
और चिडिया से
उसका चुटकी भर आकाश
लहरों से थोड़ी- सी चंचल सरलता
धूप से एक टुकड़ा उजास।
ओक में भरने को खड़ा रहा देर तक
कहीं से कुछ न पाया
याचना अकारथ जाते देख
आहत मन लौट आया
तरस खाया हवा ने
हौले से कान में बोली:
नाहक हो उदास
अपने लिये मांगने से बाहर निकलो
निश्छल, सहज हो जाओ
यह सब प्रचुर है तुम्हारे पास।
मांगने से कुछ नहीं मिलेगा
देने से पाओगे,
जितना ही हरियाली बांटोगे
अन्दर हरे हो जाओगे।
-कन्हैयालाल नंदन
वह अपने दलों में मुस्कराती रही।
मैंने फ़ूलों से मांगी जरा सी कोमलता
और चिडिया से
उसका चुटकी भर आकाश
लहरों से थोड़ी- सी चंचल सरलता
धूप से एक टुकड़ा उजास।
ओक में भरने को खड़ा रहा देर तक
कहीं से कुछ न पाया
याचना अकारथ जाते देख
आहत मन लौट आया
तरस खाया हवा ने
हौले से कान में बोली:
नाहक हो उदास
अपने लिये मांगने से बाहर निकलो
निश्छल, सहज हो जाओ
यह सब प्रचुर है तुम्हारे पास।
मांगने से कुछ नहीं मिलेगा
देने से पाओगे,
जितना ही हरियाली बांटोगे
अन्दर हरे हो जाओगे।
-कन्हैयालाल नंदन
-कन्हैयालाल नंदन
प्रेमलता पांडे
सोच का परिन्दा उड़ाने के लिए
धन्यवाद, माननीय हिंदी ब्लोगर महोदय की तरह ही बहुत सी कवितायें मैने भी पहली बार पढीं। बहुत सुंदर हैं।
Internet par bahut saari kavitaae websites/ blogs / e-groups mein uplabdh hain -parantu koi ek aisa resource nahi hai jahan Internet par uplabdh sabhi rachnaao ko ek sthaan par ekatrit kiya gaya ho… Log jab ghazals dhoondna chaahte hain to URDUPOETRY.COM par ek saath hazaaro ghazal mil jaati hain…
URDUPOETRY.COM ki hi tarah ka ek resource main taiyyar karne ki koshish kar raha hoon… yah ek WIKI hai -so koi bhi user yahan aa kar kavitaae swayam post kar sakta hai…
Kya main Kanhaiyya Lal Nandan ji aur anya kaviyon ki kavitaae aapke Fursatiya se copy karke Kavita Kosh ka hissa bana sakta hoon?
Kavita Kosh dekhne ke liye link hai http://hi.literature.wikia.com
Dost
Lalit
रंजना. की हालिया प्रविष्टी..आन बसो हिय मेरे