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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
अथ कम्पू ब्लागर भेंटवार्ता
सबेरे का समय । फोन बजा। फिर बजी आवाज जीतेंदर चौधरी की। कानपुर से ही
थे। घर से आई.आई.टी. जाने वाले थे। बोले आयेंगे लौटते में। हमने कहा आओ।
बोले, मोबाइल आन रखना । हमने सोचा तुरंत आफ कर दें। लेकिन उसकी जरूरत ही
नहीं पड़ी। दो दिन पहले ही उसकी समय सीमा समाप्त हो गयी थी।हालांकि
जीतेंदर ने कहा था कि दोपहर के पहले तक घर आयेंगे मिलने लेकिन मुझे उनके न
आने का पूरा भरोसा था। शाम हो गयी। मेरे विश्वास की रक्षा हुई। जीतेंदर के
दर्शन नहीं हुये। हालांकि हमें लग रहा था कि शायद अगले ने मोबाइल पर फोन
किया हो और सेवायें बंद देखकर वापस चला गया हो। लेकिन इस सोच को हमने
ज्यादा लिफ्ट नहीं थी। यह सोचकर कि जो शख्स सबेरे ‘लैंड लाइन’ पर फोन कर
सकता है वह बाकी दिन भी कर सकता है।
यह बताने की बात नहीं है कि हमने भी जीतू से उनका फोन नम्बर लिया था मोबाइल का लेकिन उसे तुरंत इतने विश्वास से सहेज के रखा कि वह फिर दुबारा नहीं मिला। खोया तो ऐसा खोया कि दुबारा मिला ही नहीं। अब हर कागज प्रेमपीयूष तो नहीं होता कि जब दिखने की सारी सम्भावनायें खत्म हो जायें तब वे कविता लेकर प्रकट हो जायें।
शाम होने तक जब जीतू नहीं आये तो मुझे लगा कि यह बंदा कुछ शराफ़त भी रखता है अपने व्यवहार के अकाउंट में। डरा दिया लेकिन आया नहीं।बहरहाल इस चक्कर में हुआ यह कि हमें उस दिन कुछ नाश्ता और कुछ खाना भी कुछ बढ़िया सा मिल गया। घर में कारण पूछने पर बताया गया -तुम्हारे दोस्त आ रहे हैं न!
बहरहाल फिर मैंने सोचा कि शायद जीतू चले गये हों। यह विचार आते ही मैं आराम की मुद्रा में आ गया। कुछ-कुछ लग रहा था कि मुलाकात होती तो बढ़िया था लेकिन बच जाने की खुशी ने मुलाकात के अभाव के दुख को पटक कर मार दिया। छोटी खुशियां बड़े दुख को निपटा देती हैं।
लेकिन हमारी खुशी बहुत देर तक कायम नहीं रही। अगले दिन देखा कि जीतेंद गूगल टाक पर जमें थे। हमने सोचा कि यह हमसे मोबाइल बंद रखने के बारे में कुछ कहे इसके पहले ही आये क्यों नहीं? कहाँ रह गये? बहुत इंतज़ार किया- घराने के पांच-दस संवाद अदा कर दिये। जीतू ने बताया कि वे हमेशा की तरह बहुत व्यस्त हो गये थे। इस लिये नहीं आ पाये।पता चला था कि अभी तक कानपुर में ही थे।
अब जब कुवैती कनपुरिया कानपुर में हो तो ‘कनपुरिया ब्लागर प्रोटोकाल’ के तहत हमें जीतेंदर को मिलने का निमंत्रण देने को बाध्य होना पड़ा। यह भी सोचा गया कि बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी। इतवार को मिलने की बात तय हुयी। जगह तथा समय के बारे में पूछने पर जीतेंदर को बताया मैंने कि मिलना सबेरे है तो जगह अभी रात को तय करने का कउन तुक? जगह तय हो जायेगी तो रातों-रात प्रसिद्ध न पा लेगी! और फिर रात भर किसी जगह के बारे में सोचते हुये सोना सप्ताहांत के दूसरे सपनों के पेट काटता है।
सबेरे उठे तो मिलन स्थल तय किया गया। जगह कानपुर की खास जगह-ठग्गू के लड्डू की दुकान में मिला जायेगा तथा वहां से आगे के कार्यक्रम तय होंगे। समय तय हुआ सबेरे दस बजे। हमें कोई जल्दी नहीं थी फिर भी पता नहीं कैसे हम दस बजे तैयार हो गये। तथा घर से उस समय निकल लिये जब हमें ‘ठग्गू के लड्डू’ की दुकान पर पहुंच जाना चाहिये था।
रास्ते में कुछ और देर की। फिर जब चल ही दिये तो टाइम बरवाद करने के लिये रास्ते से सोचा कि जीतू को फोन कर दिया जाय। हम फोन के लिये पहुंचे पी.सी.ओ.। नंबर मिलाया-फोन व्यस्त । दुबारा मिलाया -फिर बिजी। पांच बार यही हुआ। पीसीओ वाला बोला साहब आप जो नम्बर मिला रहे हैं वह गलत है। आठ अंक नहीं होते मोबाइल में। हमने कहा हम तो दस मिला रहे हैं। फिर पता चला कि जीतू के फोन में १ का अंक भी था जो कि फोन में गड़ब़ड़ था इसी लिये कम अंक दिख रहे थे
और लाइन ‘टूँ-टूँ ‘ करके दम तोड़ दे रही थी। बहरहाल दबा-दबा के जब सारे नंबर मिला लिये तब भी हालात में कोई बदलाव नहीं आया। हमने सवालिया निगाह दे ताका मालिक को। वो बोला ये नंबर कहां का है? हमने बताया – बंगलौर का। उसने जवाब में जिस तरह हमें घूरा उससे हमें लगा कि यह जान गया है कि हम जीतेंदर के दोस्त हैं। उसने मेरी तरफ दूसरा फोन सरकाया । बोला बाहर के फोन इससे करो। आप जिससे मिला रहे वह लोकल फोन है। लेकिन दूसरा फोन भी पहले का बिरादर निकला । फोन नहीं मिलना था ,नहीं मिला।
बहरहाल हम सफलता पूर्वक कुछ समय बरबाद करके आगे बढ़ लिये। बड़ा चौराहा की तरफ। जब ठग्गू के लड्डू की दुकान पहुंचे तो वहां कोई भी संदिग्ध व्यक्ति दिखाई नहीं दिया। सब निहायत शरीफ लोग दिखाई दे रहे थे। हमने सोचा शायद जीतू आये ही न हों या आकर चले गये हों।
हमें किसी की खोज में चेहरा नचाते देखकर दुकान वाले ने बताया कि एक साहब काफी से यहां इंतजार कर रहे थे। अभी-अभी गये हैं। हमें कुछ सुकून का अनुभव सा हुआ। लेकिन मैंने सोचा कन्फर्म कर लिया जाये । घर फोन किया । पता चला कि जीतेंदर का फोन गया था। कुछ देर पहले कि वे वापस जा रहे हैं काफी देर इंतजार करने के बाद। जीतेंदर ने अपना मोबाइल नंबर भी दिया था।
हमने सोचा कि सागर चंद नाहर का बदला हमने चुका लिया। सागर को जीतू ने हैदराबाद में गोली दी । हमने जीतू को उनके मायके में टोपी पहना दी। ऐन कानपुर में दौड़ा दिया। यह खुशी मन में समेटे हुये हमने ठग्गू के लड्डू की दुकान के सारे जुमले दोबारा-तिबारा पढ़ डाले। वहां लिखा था:-
१.ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं।
२.मेहमान को मन खिलाना वर्ना टिक जायेगा।
३.बदनाम कुल्फी-खाते ही जेब और जुबाँ की गर्मी गायब।
४.बिकती नहीं जो फुटपाथ पर,कैसे होती टाप पर।
५.हमारा नेता कैसा हो,दूध का पेड़ा जैसा हो-पूर्ण पवित्र,उज्जवल चरित्र।
यह सब बांचने के बाद हम घर लौटने के बारे में सोच रहे थे कि हमें सर्वथा नये विचार ने घेर लिया। हमें लगा कि हम जिस बालक से बच के खुश हो रहे हैं कहीं वही हमसे मिले बिना खुशी -खुशी न भागा जा रहा हो। यह विचार होते ही हमारे मन ने कहा-पकड़ो,मत जाने दो। हमने तुरंत पास के पीसीओ से जीतेंदर को फोन किया। इस बार नंबर सही था। पहले हमे आखिरी के ९ अंक की जगह १ मिलाते रहे थे। बहरहाल हमने जीतू से कहा जहां हो वहीं रुक जाओ वर्ना तुम्हारे ब्लाग पर टिप्पणी बंद कर दुंगा। धमकी ने असर किया। वे तुरंत ‘हाल्ट ‘ हो गये। बताया कि होटल पंडित के सामने हैं,वहीं मिलना तय हुआ।
हम घटना स्थल पर पहुंचे तो वहां जीतू अंदर बैठे थे। कुछ ऐसे ही जैसे लोकल ट्रेन में डेली पैंसेजर अपने साथी के लिये रुमाल बिछाकर सीट रोक लेते हैं तथा साथी के आने पर हाथ हिलाकर उसे अपने पास बुला लेते हैं,हमें जीतू ने बुला लिया।
जाते ही हम मिले गले,गरदन ,हाथ तथा कुछ पेट भी। फिर कुर्सी की मर्यादा का ख़्याल करते हुये उन पर बैठ गये। जीतेंदर ने मीनू हमारी तरफ किया हमने बिना देखे कहा-हम तो केवल चाय पीयेंगे। लेकिन जीतेंदर को बिना नमक मिर्च के मजा नहीं आता सो कचौड़ी भी मंगा ली।
चाय पीते-पीते ‘कनपुरिया ब्लागर मीट’का फीता कट गया तथा बातें होने लगीं। कुछ समय उस दिन के सबसे ‘बिपासा बसू आइटम’ ‘सागर-सन्यास’को दिया गया। जीतू बोले- अरे यार पता नहीं किस लिये लोग फालतू में लड़कर टाइम बरबाद करते हैं? यह समझदारी की बात सुनकर हमें कुछ झटका लगा कि यही असली जीतेंदर है या कोई और!
लेकिन भगवान झूठ न बुलाये मुझे सारे लफड़े की जड़ में जीतेंदर का हाथ लगता है। जब वे हैदराबाद स्टेशन पर अपने को जीतू का जुड़वा भाई बताकर फूट लिये तो सागर को कुछ गुस्सा आया होगा(नाहर हैं आखिर)। बाद में रही-सही कसर स्वामी -अतुल की टिप्पणियों ने पूरी कर दी।
यहां मैं कुछ बात इस पर भी कहना चाहूंगा। यह मानते हुये भी कि शायद स्वामी को इतनी बेलौस बिंदास सी लगने वाली टिप्पणी सागर के ब्लाग में नहीं करनी चाहिये थी लेकिन फिर भी मैं यह नहीं मान पा रहा हूं कि यह बात इतनी बड़ी है कि लिखना छोड़ने का निर्णय लिया जाय। स्वामी-अतुल को बहुत अच्छी तरह जानने के नाते मैं यह कहना चाहता हूँ कि अनजाने में भले, अंदाज न होने के कारण, उनकी कोई बात बुरी लग गयी होगी सागर भाई को लेकिन मन से कोई भी सागर को चोट नहीं पहुंचाना चाहता है,न ही उनका उपहास उड़ाना चाहता था।इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ। फिर भी अगर सागरजी को लगता है कि ये लोग उनका उपहास उड़ाना रहे थे तब तो लिखना छोड़ना और भी गलत है। तब तो इन लोगों को जवाब देना और भी जरूरी है। निर्णय करना सागर का काम है,मैं अनुरोध ही कर सकता हूं कि वे यह समझने का प्रयास करें कि दो लोगों की मात्र दो टिप्पणियाँ न पूरे रूप में उनका प्रतिनिधित्व करती हैं और न ही समूचे चिट्ठा जगत को। यह समझदारी ही होगी कि बिना किसी देरी के अपनी खुटुर-पुटुर शुरू कर दें। शुरुआत यहाँ टिप्पणी से करें। अपने आत्मसम्मान की रक्षा की बात वहाँ लागू होती है जहाँ सामना अपने से मजबूत से ,दुश्मन से हो। यहाँ तो तुम्हें मनाने वाले लोगों लाइन लगी है। ऐसे में अपने निर्णय पर पुनर्विचार न करके अपनी बात पर टिके रहना बहादुरी तो कतई नहीं है यह जरूर है लगेगा कि किसी की परवाह नहीं इस वीर बालक को। इस अवसर पर बहुत पहले हरिद्वार के एक मंदिर में लिखा शेर याद आ रहा है:-
फिर जीतेंदर ने बंगलौर में प्रेमपीयूष से मुलाकात के बारे में बताया। देबू का फोनालाप।आगे की यात्रा के बारे में। हमारे ऊपर डोरे डाले कि हम गुलाबी शहर चलें। हमने कहा देखेंगे-मगर दूर से।
कुछ चर्चा महाब्लाग के बारे में भी हुयी। बता दें कि महाब्लाग कुछ इस तरह का विचार है जिसमें सारे हिंदी के ब्लाग एक ही जगह होंगे। हमारे महारथी इस महाब्लाग योजना को अमली जामा पहनाने के लिये जम्हुआने के बाद जागने की हालत में पहुंच चुके हैं।अतुल इस बारे में कुछ बेहतर बतायेंगे। आजकल इस योजना की गेंद उनके ही पाले में है।
हमने जीतू के इस बारे में विचार जानना चाहे तो वे बोले जैसे किसी पनवाडी की दुकान पर कश्मीर समस्या की बात चलने पर दुकान वाला बोले -यार विचार तो अच्छा है अगर अमल में लाया जा सके।
हमने यह भी कहा कि ये तुम क्या परिचर्चा की दुकान खोल के बैठ गये? टिप्पणी कम हो गयीं तुम्हारी! जवाब में पुराने सेल्स मैंन की आत्मा ने कहा-यार,ये तो विचार है,सबको ठीक लगेगा तो चलेगा नहीं लगेगा बंद हो जायेगा।
बातें और भी तमाम सारी हुई। बताया जीतू ने कि हम जो कविता-सविता लिखते हैं उससे हमारे ब्लाग की पहचान बरवाद हो रही है। यह हमारे हित में है कि हम हल्ला-फुल्का हेंहेंहें टाइप फुरसतिया लेखन करते रहें। हमें समझ नहीं आया कि हमारे गंभीर पाठक सही हैं या यह कुवैती जो चाय के पैसे जबरियन दे रहा है ,क्योंकि ज्यादा मंहगी नहीं है, यह बहाना बताते हुये कि कानपुर उसका भी शहर है तथा वह कुर्सी पर ज्यादा वजन डाल के ज्यादा देर से बैठा है।
फिर जीतेंदर ने अपनी तारीफ की -यार,हम तो ऐसा लिखते हैं जो कि सबके समझ में आ जाये। फायदा क्या कि कुछ ही लोग समझ पायें टाइप किये हुये को?
अब हम कैसे समझाते कि हमारे मामाजी ने कभी समझाया था कि लेखन में कुछ तो ऐसा होना चाहिये कि पाठक भी साथ चलकर समझने का प्रयास करे। अगर सब कुछ खुला-खुला होगा तो जिज्ञासा नहीं रहेगी पाठक को। एक बार पढ़कर दुबारा नहीं पढ़ेगा वह रचना को।
कुछ और लिखूं इसके पहले बयान कर दिया जाय कि हमारे दोनों के घर वालों ने ब्लागर मीट के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाया। इससे हमारी औकात पता चलती है कि हमारे घर वाले ब्लागिंग को बाहियात और गैरआकर्षक सी चीज मानते हैं। अगर कुछ लोग साथी का मन रखते हुये साथ जाने की हिम्मत भी दिखाते हैं तो वे किनारे चुपचाप खड़े रह जाते हैं बेचारे-मूक श्रोता बनकर।। (संदर्भ: कृत्या में लेखकों की भेंटवार्ता बकलम- रति सक्सेना)
मकान-सकान के जिक्र के बाद हमने कहा यार,तुम इतना बिलखते हो देश की याद में। धीरे से भारत काहे नहीं आ जाते बंगलौर-संगलौर।
इस पर जीतू ने कुछ वही बातें बताईं जो बताई जा सकतीं हैं। वैसे भी नौकरी पेशा का इस बीच की उमर में आना-जाना उतना आसान नहीं होता जितना सोचने में लगता है। कानपुर में बसने की बात के जिक्र में जीतेंदर ने बताया कि उन्हें धूल से एलर्जी है। हमें लगा कानपुर धूल,धुआँ,धक्कड़ का शहर है। यहाँ के रहने वाले को धूल से एलर्जी है-बहुत बेइन्साफी है।
इस बीच जीतू अपनी घड़ी को घुमाते हुये बहाने से ताक चुके थे कुछ इस अंदाज में जैसे लोग मौसम देखने के बहाने बस स्टाप पर सौन्दर्य ताकते हैं।समय हो रहा था उनके जाने का। हम लोगों ने अपने कैमरे उसी तरह से निकाल कर चलाने शुरू कर दिये जिस तरह भारत-पाकिस्तान समझौता वार्ता के बाद दोनों देशों की तोपें चलने लगती हैं।
आखिरी फोटो जो हमने जीतू की ली उसमें अनायास उनकी उंगलियाँ ‘वी’ के आकार में बरामद हुईं। शायद वे हमारे ब्लागिंग के सफर की कामयाबी का झंड़ा पहराते हुये कह रहीं थीं हम होंगे कामयाब एक दिन!
अब यह बात अलग है कि वापस घर पहुंचते ही हमारा झंडा कुछ झुक गया जब हमें सुनने को मिला-छुट्टी के दिन भी यह नहीं कि घर में रहो कुछ काम-धाम करो। हमें समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें,क्या न करें? हमें लग रहा है कि काश हमें भी आ जाय गुस्सा और हमकुछ दिन के लिये अलविदा चिट्ठाजगत का बोर्ड लगा के शटर गिरा दें। लेकिन गुस्सा है कि आता ही नहीं। हर एक के बस की बात भी नहीं इसे निबाहना। है कि नहीं?
अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आज दिल्ली में हिंदी के ब्लागरों की मुलाकात होने का कार्यक्रम है। अमेरिका के लोगों तथा ब्लागर साथियों को शुभकामनायें,बधाई!
यह बताने की बात नहीं है कि हमने भी जीतू से उनका फोन नम्बर लिया था मोबाइल का लेकिन उसे तुरंत इतने विश्वास से सहेज के रखा कि वह फिर दुबारा नहीं मिला। खोया तो ऐसा खोया कि दुबारा मिला ही नहीं। अब हर कागज प्रेमपीयूष तो नहीं होता कि जब दिखने की सारी सम्भावनायें खत्म हो जायें तब वे कविता लेकर प्रकट हो जायें।
शाम होने तक जब जीतू नहीं आये तो मुझे लगा कि यह बंदा कुछ शराफ़त भी रखता है अपने व्यवहार के अकाउंट में। डरा दिया लेकिन आया नहीं।बहरहाल इस चक्कर में हुआ यह कि हमें उस दिन कुछ नाश्ता और कुछ खाना भी कुछ बढ़िया सा मिल गया। घर में कारण पूछने पर बताया गया -तुम्हारे दोस्त आ रहे हैं न!
बहरहाल फिर मैंने सोचा कि शायद जीतू चले गये हों। यह विचार आते ही मैं आराम की मुद्रा में आ गया। कुछ-कुछ लग रहा था कि मुलाकात होती तो बढ़िया था लेकिन बच जाने की खुशी ने मुलाकात के अभाव के दुख को पटक कर मार दिया। छोटी खुशियां बड़े दुख को निपटा देती हैं।
लेकिन हमारी खुशी बहुत देर तक कायम नहीं रही। अगले दिन देखा कि जीतेंद गूगल टाक पर जमें थे। हमने सोचा कि यह हमसे मोबाइल बंद रखने के बारे में कुछ कहे इसके पहले ही आये क्यों नहीं? कहाँ रह गये? बहुत इंतज़ार किया- घराने के पांच-दस संवाद अदा कर दिये। जीतू ने बताया कि वे हमेशा की तरह बहुत व्यस्त हो गये थे। इस लिये नहीं आ पाये।पता चला था कि अभी तक कानपुर में ही थे।
अब जब कुवैती कनपुरिया कानपुर में हो तो ‘कनपुरिया ब्लागर प्रोटोकाल’ के तहत हमें जीतेंदर को मिलने का निमंत्रण देने को बाध्य होना पड़ा। यह भी सोचा गया कि बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी। इतवार को मिलने की बात तय हुयी। जगह तथा समय के बारे में पूछने पर जीतेंदर को बताया मैंने कि मिलना सबेरे है तो जगह अभी रात को तय करने का कउन तुक? जगह तय हो जायेगी तो रातों-रात प्रसिद्ध न पा लेगी! और फिर रात भर किसी जगह के बारे में सोचते हुये सोना सप्ताहांत के दूसरे सपनों के पेट काटता है।
सबेरे उठे तो मिलन स्थल तय किया गया। जगह कानपुर की खास जगह-ठग्गू के लड्डू की दुकान में मिला जायेगा तथा वहां से आगे के कार्यक्रम तय होंगे। समय तय हुआ सबेरे दस बजे। हमें कोई जल्दी नहीं थी फिर भी पता नहीं कैसे हम दस बजे तैयार हो गये। तथा घर से उस समय निकल लिये जब हमें ‘ठग्गू के लड्डू’ की दुकान पर पहुंच जाना चाहिये था।
रास्ते में कुछ और देर की। फिर जब चल ही दिये तो टाइम बरवाद करने के लिये रास्ते से सोचा कि जीतू को फोन कर दिया जाय। हम फोन के लिये पहुंचे पी.सी.ओ.। नंबर मिलाया-फोन व्यस्त । दुबारा मिलाया -फिर बिजी। पांच बार यही हुआ। पीसीओ वाला बोला साहब आप जो नम्बर मिला रहे हैं वह गलत है। आठ अंक नहीं होते मोबाइल में। हमने कहा हम तो दस मिला रहे हैं। फिर पता चला कि जीतू के फोन में १ का अंक भी था जो कि फोन में गड़ब़ड़ था इसी लिये कम अंक दिख रहे थे
और लाइन ‘टूँ-टूँ ‘ करके दम तोड़ दे रही थी। बहरहाल दबा-दबा के जब सारे नंबर मिला लिये तब भी हालात में कोई बदलाव नहीं आया। हमने सवालिया निगाह दे ताका मालिक को। वो बोला ये नंबर कहां का है? हमने बताया – बंगलौर का। उसने जवाब में जिस तरह हमें घूरा उससे हमें लगा कि यह जान गया है कि हम जीतेंदर के दोस्त हैं। उसने मेरी तरफ दूसरा फोन सरकाया । बोला बाहर के फोन इससे करो। आप जिससे मिला रहे वह लोकल फोन है। लेकिन दूसरा फोन भी पहले का बिरादर निकला । फोन नहीं मिलना था ,नहीं मिला।
बहरहाल हम सफलता पूर्वक कुछ समय बरबाद करके आगे बढ़ लिये। बड़ा चौराहा की तरफ। जब ठग्गू के लड्डू की दुकान पहुंचे तो वहां कोई भी संदिग्ध व्यक्ति दिखाई नहीं दिया। सब निहायत शरीफ लोग दिखाई दे रहे थे। हमने सोचा शायद जीतू आये ही न हों या आकर चले गये हों।
हमें किसी की खोज में चेहरा नचाते देखकर दुकान वाले ने बताया कि एक साहब काफी से यहां इंतजार कर रहे थे। अभी-अभी गये हैं। हमें कुछ सुकून का अनुभव सा हुआ। लेकिन मैंने सोचा कन्फर्म कर लिया जाये । घर फोन किया । पता चला कि जीतेंदर का फोन गया था। कुछ देर पहले कि वे वापस जा रहे हैं काफी देर इंतजार करने के बाद। जीतेंदर ने अपना मोबाइल नंबर भी दिया था।
हमने सोचा कि सागर चंद नाहर का बदला हमने चुका लिया। सागर को जीतू ने हैदराबाद में गोली दी । हमने जीतू को उनके मायके में टोपी पहना दी। ऐन कानपुर में दौड़ा दिया। यह खुशी मन में समेटे हुये हमने ठग्गू के लड्डू की दुकान के सारे जुमले दोबारा-तिबारा पढ़ डाले। वहां लिखा था:-
१.ऐसा कोई सगा नहीं जिसको हमने ठगा नहीं।
२.मेहमान को मन खिलाना वर्ना टिक जायेगा।
३.बदनाम कुल्फी-खाते ही जेब और जुबाँ की गर्मी गायब।
४.बिकती नहीं जो फुटपाथ पर,कैसे होती टाप पर।
५.हमारा नेता कैसा हो,दूध का पेड़ा जैसा हो-पूर्ण पवित्र,उज्जवल चरित्र।
यह सब बांचने के बाद हम घर लौटने के बारे में सोच रहे थे कि हमें सर्वथा नये विचार ने घेर लिया। हमें लगा कि हम जिस बालक से बच के खुश हो रहे हैं कहीं वही हमसे मिले बिना खुशी -खुशी न भागा जा रहा हो। यह विचार होते ही हमारे मन ने कहा-पकड़ो,मत जाने दो। हमने तुरंत पास के पीसीओ से जीतेंदर को फोन किया। इस बार नंबर सही था। पहले हमे आखिरी के ९ अंक की जगह १ मिलाते रहे थे। बहरहाल हमने जीतू से कहा जहां हो वहीं रुक जाओ वर्ना तुम्हारे ब्लाग पर टिप्पणी बंद कर दुंगा। धमकी ने असर किया। वे तुरंत ‘हाल्ट ‘ हो गये। बताया कि होटल पंडित के सामने हैं,वहीं मिलना तय हुआ।
हम घटना स्थल पर पहुंचे तो वहां जीतू अंदर बैठे थे। कुछ ऐसे ही जैसे लोकल ट्रेन में डेली पैंसेजर अपने साथी के लिये रुमाल बिछाकर सीट रोक लेते हैं तथा साथी के आने पर हाथ हिलाकर उसे अपने पास बुला लेते हैं,हमें जीतू ने बुला लिया।
जाते ही हम मिले गले,गरदन ,हाथ तथा कुछ पेट भी। फिर कुर्सी की मर्यादा का ख़्याल करते हुये उन पर बैठ गये। जीतेंदर ने मीनू हमारी तरफ किया हमने बिना देखे कहा-हम तो केवल चाय पीयेंगे। लेकिन जीतेंदर को बिना नमक मिर्च के मजा नहीं आता सो कचौड़ी भी मंगा ली।
चाय पीते-पीते ‘कनपुरिया ब्लागर मीट’का फीता कट गया तथा बातें होने लगीं। कुछ समय उस दिन के सबसे ‘बिपासा बसू आइटम’ ‘सागर-सन्यास’को दिया गया। जीतू बोले- अरे यार पता नहीं किस लिये लोग फालतू में लड़कर टाइम बरबाद करते हैं? यह समझदारी की बात सुनकर हमें कुछ झटका लगा कि यही असली जीतेंदर है या कोई और!
लेकिन भगवान झूठ न बुलाये मुझे सारे लफड़े की जड़ में जीतेंदर का हाथ लगता है। जब वे हैदराबाद स्टेशन पर अपने को जीतू का जुड़वा भाई बताकर फूट लिये तो सागर को कुछ गुस्सा आया होगा(नाहर हैं आखिर)। बाद में रही-सही कसर स्वामी -अतुल की टिप्पणियों ने पूरी कर दी।
यहां मैं कुछ बात इस पर भी कहना चाहूंगा। यह मानते हुये भी कि शायद स्वामी को इतनी बेलौस बिंदास सी लगने वाली टिप्पणी सागर के ब्लाग में नहीं करनी चाहिये थी लेकिन फिर भी मैं यह नहीं मान पा रहा हूं कि यह बात इतनी बड़ी है कि लिखना छोड़ने का निर्णय लिया जाय। स्वामी-अतुल को बहुत अच्छी तरह जानने के नाते मैं यह कहना चाहता हूँ कि अनजाने में भले, अंदाज न होने के कारण, उनकी कोई बात बुरी लग गयी होगी सागर भाई को लेकिन मन से कोई भी सागर को चोट नहीं पहुंचाना चाहता है,न ही उनका उपहास उड़ाना चाहता था।इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ। फिर भी अगर सागरजी को लगता है कि ये लोग उनका उपहास उड़ाना रहे थे तब तो लिखना छोड़ना और भी गलत है। तब तो इन लोगों को जवाब देना और भी जरूरी है। निर्णय करना सागर का काम है,मैं अनुरोध ही कर सकता हूं कि वे यह समझने का प्रयास करें कि दो लोगों की मात्र दो टिप्पणियाँ न पूरे रूप में उनका प्रतिनिधित्व करती हैं और न ही समूचे चिट्ठा जगत को। यह समझदारी ही होगी कि बिना किसी देरी के अपनी खुटुर-पुटुर शुरू कर दें। शुरुआत यहाँ टिप्पणी से करें। अपने आत्मसम्मान की रक्षा की बात वहाँ लागू होती है जहाँ सामना अपने से मजबूत से ,दुश्मन से हो। यहाँ तो तुम्हें मनाने वाले लोगों लाइन लगी है। ऐसे में अपने निर्णय पर पुनर्विचार न करके अपनी बात पर टिके रहना बहादुरी तो कतई नहीं है यह जरूर है लगेगा कि किसी की परवाह नहीं इस वीर बालक को। इस अवसर पर बहुत पहले हरिद्वार के एक मंदिर में लिखा शेर याद आ रहा है:-
इक ज़रा सी बात पर वर्षों के याराने गये,
पर चलो अच्छा हुआ कुछ लोग पहचाने गये।
फिर जीतेंदर ने बंगलौर में प्रेमपीयूष से मुलाकात के बारे में बताया। देबू का फोनालाप।आगे की यात्रा के बारे में। हमारे ऊपर डोरे डाले कि हम गुलाबी शहर चलें। हमने कहा देखेंगे-मगर दूर से।
कुछ चर्चा महाब्लाग के बारे में भी हुयी। बता दें कि महाब्लाग कुछ इस तरह का विचार है जिसमें सारे हिंदी के ब्लाग एक ही जगह होंगे। हमारे महारथी इस महाब्लाग योजना को अमली जामा पहनाने के लिये जम्हुआने के बाद जागने की हालत में पहुंच चुके हैं।अतुल इस बारे में कुछ बेहतर बतायेंगे। आजकल इस योजना की गेंद उनके ही पाले में है।
हमने जीतू के इस बारे में विचार जानना चाहे तो वे बोले जैसे किसी पनवाडी की दुकान पर कश्मीर समस्या की बात चलने पर दुकान वाला बोले -यार विचार तो अच्छा है अगर अमल में लाया जा सके।
हमने यह भी कहा कि ये तुम क्या परिचर्चा की दुकान खोल के बैठ गये? टिप्पणी कम हो गयीं तुम्हारी! जवाब में पुराने सेल्स मैंन की आत्मा ने कहा-यार,ये तो विचार है,सबको ठीक लगेगा तो चलेगा नहीं लगेगा बंद हो जायेगा।
बातें और भी तमाम सारी हुई। बताया जीतू ने कि हम जो कविता-सविता लिखते हैं उससे हमारे ब्लाग की पहचान बरवाद हो रही है। यह हमारे हित में है कि हम हल्ला-फुल्का हेंहेंहें टाइप फुरसतिया लेखन करते रहें। हमें समझ नहीं आया कि हमारे गंभीर पाठक सही हैं या यह कुवैती जो चाय के पैसे जबरियन दे रहा है ,क्योंकि ज्यादा मंहगी नहीं है, यह बहाना बताते हुये कि कानपुर उसका भी शहर है तथा वह कुर्सी पर ज्यादा वजन डाल के ज्यादा देर से बैठा है।
फिर जीतेंदर ने अपनी तारीफ की -यार,हम तो ऐसा लिखते हैं जो कि सबके समझ में आ जाये। फायदा क्या कि कुछ ही लोग समझ पायें टाइप किये हुये को?
अब हम कैसे समझाते कि हमारे मामाजी ने कभी समझाया था कि लेखन में कुछ तो ऐसा होना चाहिये कि पाठक भी साथ चलकर समझने का प्रयास करे। अगर सब कुछ खुला-खुला होगा तो जिज्ञासा नहीं रहेगी पाठक को। एक बार पढ़कर दुबारा नहीं पढ़ेगा वह रचना को।
कुछ और लिखूं इसके पहले बयान कर दिया जाय कि हमारे दोनों के घर वालों ने ब्लागर मीट के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाया। इससे हमारी औकात पता चलती है कि हमारे घर वाले ब्लागिंग को बाहियात और गैरआकर्षक सी चीज मानते हैं। अगर कुछ लोग साथी का मन रखते हुये साथ जाने की हिम्मत भी दिखाते हैं तो वे किनारे चुपचाप खड़े रह जाते हैं बेचारे-मूक श्रोता बनकर।। (संदर्भ: कृत्या में लेखकों की भेंटवार्ता बकलम- रति सक्सेना)
मकान-सकान के जिक्र के बाद हमने कहा यार,तुम इतना बिलखते हो देश की याद में। धीरे से भारत काहे नहीं आ जाते बंगलौर-संगलौर।
इस पर जीतू ने कुछ वही बातें बताईं जो बताई जा सकतीं हैं। वैसे भी नौकरी पेशा का इस बीच की उमर में आना-जाना उतना आसान नहीं होता जितना सोचने में लगता है। कानपुर में बसने की बात के जिक्र में जीतेंदर ने बताया कि उन्हें धूल से एलर्जी है। हमें लगा कानपुर धूल,धुआँ,धक्कड़ का शहर है। यहाँ के रहने वाले को धूल से एलर्जी है-बहुत बेइन्साफी है।
इस बीच जीतू अपनी घड़ी को घुमाते हुये बहाने से ताक चुके थे कुछ इस अंदाज में जैसे लोग मौसम देखने के बहाने बस स्टाप पर सौन्दर्य ताकते हैं।समय हो रहा था उनके जाने का। हम लोगों ने अपने कैमरे उसी तरह से निकाल कर चलाने शुरू कर दिये जिस तरह भारत-पाकिस्तान समझौता वार्ता के बाद दोनों देशों की तोपें चलने लगती हैं।
आखिरी फोटो जो हमने जीतू की ली उसमें अनायास उनकी उंगलियाँ ‘वी’ के आकार में बरामद हुईं। शायद वे हमारे ब्लागिंग के सफर की कामयाबी का झंड़ा पहराते हुये कह रहीं थीं हम होंगे कामयाब एक दिन!
अब यह बात अलग है कि वापस घर पहुंचते ही हमारा झंडा कुछ झुक गया जब हमें सुनने को मिला-छुट्टी के दिन भी यह नहीं कि घर में रहो कुछ काम-धाम करो। हमें समझ नहीं आ रहा है कि क्या करें,क्या न करें? हमें लग रहा है कि काश हमें भी आ जाय गुस्सा और हमकुछ दिन के लिये अलविदा चिट्ठाजगत का बोर्ड लगा के शटर गिरा दें। लेकिन गुस्सा है कि आता ही नहीं। हर एक के बस की बात भी नहीं इसे निबाहना। है कि नहीं?
अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आज दिल्ली में हिंदी के ब्लागरों की मुलाकात होने का कार्यक्रम है। अमेरिका के लोगों तथा ब्लागर साथियों को शुभकामनायें,बधाई!
Posted in बस यूं ही | 25 Responses
हँसते हँसते बुरा हाल हो गया, क्या लिखा है। तस्वीरें अच्छी हैं, आप दोनों के भिंचे हुए चेहरे जून की कनपुरिया गर्मी को बयान कर रहे हैं, क्या पानी वानी नही बरसा अभी तक। मुम्बई तो सुना फिर परेशान हो गई।
वैसे अपनी गोल तोंद भी कुछ कम नहीं है।
बहुत अच्छा लिखा हैं. उपरा-उपरी निपटा नहीं पाया, पुरा पढ़ने के लिए मजबुर हो गया था.
मुलाकात के बावजूद ऐसी खिंचाई. बहुत नाइंसाफी है
जीतेन्द्र भाई थोड़ा थके हुए दिख रहे हैं. शायद ठग्गू की दुकान में लंबे इंतजार का असर हो.
आपका आदेश सर आंखों पर,सब से पहले मैं यहीं टिप्पणी कर रहा हुँ।
मैं अब और आप लोगों को दुखी नहीं करना चाहता, इस सारे प्रकरण मैं मुझे जो फ़ायदा हुआ वह बयाँ नहीं कर सकता, इतना प्रेम करने वाले अनूप जी, सुनील जी, संजयभाई, विजय वडनेरे जी, राजीव टंडन जी, जीतू भाई, अतुल जी और खासकर ईस्वामी जी जैसे भाई मिले। इन सब ने चिठ्ठे पर टिप्पणी लिखने के साथ मुझे प्रत्यक्ष मेल लिखा, प्रतीक पांडे ने गूगल मेल पर बात की, मिले रत्ना जी जैसी बहन मिली, आप सब के इतने प्रेम से मैं गदगद हो गया हूँ, अब कॊई नाराजगी नहीं, कोई शिकवा नहीं, बस प्रेम ही प्रेम, हिन्दी चिठ्ठा जगत जिन्दाबाद
सागर चन्द नाहर
पुनश्चय: अनूप भाई साहब वो मेरी कविता ” हमाली बोछकी मिली या नहीं”?
क्या वे वाकई जीतू भाई ही थे… है भगवान
बहुत बेलाग रूप मे “एक छोटी सी ब्लागर भेंटवार्ता” के प्रस्तुतीकरण के लिये धन्यवाद। हास्य के सम्पुट, कनपुरिया लहज़ा और आपके द्वारा दी हुई चुनिन्दा उपमाओं ने इस वृतांत को रोचक बना दिया ।
और हां – सागर जी का पुनरागमन के लिये इस भेंटवार्ता का परोक्ष सहयोग सराहनीय है। 4 जुलाई – अमरीका का स्वतंत्रता दिवस, इसी दिन ही सागर जी की वापसी, और आपका यह चिठ्ठा – क्या यह मात्र संयोग है, या फिर कोई सुनिश्चित योजना?
संदर्भ के लिये बता दूँ कि सुपर हिट फि्लम बँटी बबली मे भी यही ठग्गू की दुकान दिखी थी और उसके एक गाने की शुरूआत “चल चल चलत चल ..” में भी इसी सूत्र वाक्य का प्रयोग हुआ है।
दोबारा-तिबारा पूरे मिलन समारोह को पढ डाला…
रही सही कसर चित्र पूरा कर रहे है..
बहुत रोचक विवरण लगा ! खासकर जिस हास्य के पुट बिखेरे हैं आपने अपने विवरण में।
हाँ एक बात समझ नहीं आई की आपने परिचर्चा को दुकान की संज्ञा क्यों दी?
मनीष :परिचर्चा को दुकान कहने का मतलब यही कि यह उनका कार्यस्थल है। बुरा मानने की कोशिश न करें। पहली टिप्पणी भी मैंने देखी थी लेकिन पता नहीं कैसे मेरी गलती से शायद मिट गई।
जयपुर पहुँचना, आरम्भिक मौज-मस्ती, रावत की प्याज़ कचौड़ी, जंतर-मंतर और शाही महल
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