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व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है- हरिशंकर परसाई
By फ़ुरसतिया on August 19, 2006
[व्यंग्य क्या होता है? व्यंग्य की सामाजिक भूमिका
क्या है तथा आदि प्रश्नों के बारे में परसाई जी ने अपने विचार अक्सर प्रकट
किये हैं। १९६२ में अपने व्यंग्य लेखों के संग्रह 'सदाचार का ताबीज' की भूमिका लिखते हुये परसाई जी ने इस बारे में विस्तार से लिखा है। यह भूमिका मैं अपने साथियों के लिये यहाँ पेश कर रहा हूँ।]
एक मेरे पाठक(अब मित्रनुमा) मुझे दूर से देखते ही इस तरह हँसी की तिड़तिड़ाहट करके मेरी तरफ बढ़ते हैं,जैसे दिवाली पर बच्चे’तिड़तिड़ी’ को पत्थर पर रगड़कर फेंक देते हैं और वह थोड़ी देर तिड़तिड़ करती उछलती रहती है। पास आकर अपने हाथों में मेरा हाथ ले लेते हैं। मजा आ गया। उन्होंने कभी कोई चीज मेरी पढ़ी होगी। अभी सालों से कोई चीज नहीं पढ़ी ,यह मैं जानता हूँ।
एक सज्जन जब भी सड़क पर मिल जाते हैं,दूर से ही चिल्लाते हैं-’परसाईजी नमस्कार!मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना!’ बात यह है कि किसी दूसरे आदमी ने कई साल पहले स्थानीय साप्ताहिक में एक मजाकिया लेख लिखा था,‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना।’ पर उन्होंने ऐसी सारी चीजों के लिये मुझे जिम्मेदार मान लिया है। मैंने भी नहीं बताया कि वह लेख मैंने नहीं लिखा था। बस,वे जहाँ मिलते हैं-’मेरा पथ प्रदर्शक पाखाना कहकर मेरा अभिवादन करते हैं।
बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि तुमने मेरे मामा का, जो फारेस्ट अफसर है,मजाक उड़ाया है। उसकी बदनामी की है। मैं तुम्हारे खानदान का नाश कर दूँगा। मुझे शनि सिद्ध है।
कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता ,कुलाँचे मारता,उछलता मिलूँगा और उनके मिलते ही जो मजाक शुरू करूँगा तो सारा दिन दाँत निकालते गुजार देंगे। मुझे वे गम्भीर और कम बोलने वाला पाते हैं। किसी गम्भीर विषय पर मैं बात छेड़ देता हूँ। वे निराश होते हैं। काफी लोगों का यह मत है कि मैं निहायत मनहूस आदमी हूँ।
एक पाठिका ने एक दिन कहा-आप मनुष्यता की भावना की कहानियाँ क्यों नहींलिखते?
और एक मित्र मुझे उस दिन सलाह दे रहे थे- तुम्हें अब गम्भीर हो जाना चाहिये। इट इज़ हाई टाइम!
व्यंग्य लिखने वाले की ट्रेजिडी कोई एक नहीं हैं। ‘फ़नी’ से लेकर उसे मनुष्यता की भावना से हीन तक समझा जाता है।’मजा आ गया’ से लेकर ‘गम्भीर हो जाओ’ तक की प्रतिक्रयायें उसे सुननी पढ़ती हैं। फिर लोग अपने या अपने मामा,काका के चेहरे देख लेते हैं और दुश्मन बढ़ते जाते हैं। एक बहुत बड़े वयोवृद्ध गाँधी-भक्त साहित्यकार मुझे अनैतिक लेखक समझते हैं। नैतिकता का अर्थ उनके लिये शायद गबद्दूपन होता है।
लेकिन इसके बावजूद ऐसे पाठकों का एक बड़ा वर्ग है,जो व्यंग्य में निहित सामाजिक-राजनीतिक अर्थ संकेत को समझते हैं। वे जब मिलते हैं या लिखते हैं तो मजाक के मूड में नहीं। वे उन स्थितियों की बात करते हैं,जिन पर मैंने व्यंग्य किया है,वे उस रचना के तीखे वाक्य बनाते हैं। वे हालातों के प्रति चिन्तित होते हैं।
आलोचकों की स्थिति कठिनाई की है। गम्भीर कहानियों के बारे में तो वे कह सकते हैं कि संवेदना कैसे पिछलती आ रही है,समस्या कैसे प्रस्तुत की गयी -वगैरह। व्यंग्य के बारे में वह क्या कहे?अक्सर वह कहता है-हिंदी में शिष्ट हास्य का अभाव है।(हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे,तब भी लेखकों के बेटे से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिंदी में हास्य -व्यंग्य का अभाव है),हां वे यह और कहते हैं-विद्रूप का उद्घाटन कर दिया,परदाफाश कर दिया है,करारी चोट की है,गहरी मार की है, झकझोर दिया है। आलोचक बेचारा और क्या करे?जीवन बोध,व्यंग्यकार की दृष्टि, व्यंग्यकार की आस्था,विश्वास आदि बातें समझ और मेहनत की मांग करती हैं। किसे पड़ी है?
-अच्छा, तो तुम लोग व्यंग्यकार क्या अपने ‘प्राफे़ट’ को समझते हो? ‘फनी’ कहने पर बुरा मानते हो।खुद हँसाते हो और लोग हँसकर कहते हैं-मजा आ गया,तो बुरा मानते हो और कहते हो-सिर्फ मजा आ गया? तुम नहीं जानते कि इस तरह की रचनायें हल्की मानी जाती हैं और दो घड़ी के लिये पढ़ी जाती हैं। [यह बात मैं अपने-आपसे कहता हूँ,अपने-आपसे ही सवाल करता हूँ।]
-लेकिन यार,इस बात से क्यों कतराते हो कि इस तरह का साहित्य हल्का ही माना जाता है?
-माना जाता है तो मैं क्या करूँ? भारतेन्दु युग में प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुन्द गुप्त जो व्यंग्य लिखते थे ,वह कितनी पीडा़ से लिखा जाता था। देश की दुर्दशा पर वे किसी भी कौम के रहनुमा से ज्यादा रोते थे। हाँ,यह सही है कि इसके बाद रुचि कुछ ऐसी हुई कि हास्य का लेखक विदूषक बनने को मजबूर हुआ । ‘मदारी और डमरू’,'टुनटुन’जैसे पत्र निकले और हास्यरस के कवियों ने ‘चोंच’ और ‘काग’ जैसे उपनाम रखे। याने हास्य के लिये रचनाकार को हास्यास्पद होना पड़ा। अभी भी यही मजबूरी बची है। तभी कुंजबिहारी पाण्डे को ‘कुत्ता’ शब्द आने पर मंच पर भौंककर बताना पड़ता है और काका हाथरसी को अपनी पुस्तक के कवर पर अपना कार्टून छपाना पड़ता है। बात यह है कि हिन्दी-उर्दू की मिश्रित हास्य-व्यंग्य परम्परा कुछ साल चली,जिसने हास्य रस को भडौ़आ बनाया। इसमें बहुत कुछ हल्का है। यह सीधी सामन्ती वर्ग के मनोरंजन की जरूरत से पैदा हुई थी। शौकत थानवी की एक पुस्तक का नाम ही ‘कुतिया’ है। अज़ीमबेग चुग़ताई नौकरानी की लड़की से ‘फ्लर्ट’ करने की तरकीबें बताते हैं! कोई अचरज नहीं कि हास्य-व्यंग्य के लेखकों को लोगों ने हल्के ,गैरजिम्मेदार और हास्यास्पद मान लिया हो।
-स्त्री से मजाक एक बात है और स्त्री का उपहास दूसरी बात। हमारे समाज में कुचले हुये का उपहास किया जाता है। स्त्री आर्थिक रूप से गुलाम रही ,उसका कोई व्यक्तित्व नहीं बनने दिया गया,वह अशिक्षित रही,ऐसी रही-तब उसकी हीनता का मजाक करना ‘सेफ’ हो गया। पत्नी के पक्ष के सब लोग हीन और उपहास के पात्र हो गये-खासकर साला,गो हर आदमी किसी न किसी का साला होता है। इसी तरह घर का नौकर सामन्ती परिवारों में मनोरंजन का माध्यम होता है। उत्तर भारत के सामन्ती परिवारों की परदानशीन दमित रईस-जादियों का मनोरंजन घर के नौकर का उपहास करके होता है। जो जितना मूर्ख , सनकी और पौरुषहीन हो ,वह नौकर उतना ही दिलचस्प होता है। इसलिये सिकन्दर मियाँ चाहे काफी बुद्धिमान हों,मगर जानबूझकर बेवकूफ बन जाते हैं क्योंकि उनका ऐसा होना नौकरी को सुरक्षित रखता है। सलमा सिद्धीकी ने सिकन्दरनामा में ऐसे ही पारिवारिक नौकर की कहानी लिखी है। मैं सोचता हूँ सिकन्दर मियाँ अपनी नजर से उस परिवार की कहानी कहें,तो और अच्छा हो।
-तो क्या पत्नी,साला,नौकर,नौकरानी आदि को हास्य का विषय बनाना अशिष्टता है?
-’वल्गर’ है। इतने व्यापक सामाजिक जीवन में इतनी विसंगतियाँ हैं। उन्हें न देखकर बीबी की मूर्खता बयान करना बडी़ संकीर्णता है।
-अक्सर ‘शिष्ट’ हास्य की माँग वे करते हैं,जो शिकार होते हैं। भ्रष्टाचारी तो यही चाहेगा कि आप मुंशी की या साले की मजाक का शिष्ट हास्य करते रहें और उस पर चोट न करें। हमारे यहाँ तो हत्यारे’भ्रष्टाचारी’ पीड़क से भी ‘शिष्टता’ बरतने की माँग की जाती है-’अगर जनाब बुरा न माने तो अर्ज है कि भ्रष्टाचार न किया करें। बड़ी कृपा होगी सेवक पर।’ व्यंग्य में चोट होती ही है। जिन पर होती है वह कहते हैं-’इसमें कटुता आ गयी। शिष्ट हास्य लिखा करिये।’ मार्क ट्वेन की वे रचनायें नये संकलनों में नहीं आतीं,जिनमें उसने अमेरिकी शासन और मोनोपोली के बखिये उधेड़े हैं। वह उसे केवल शिष्ट हास्य का मनोरंजन देने वाला लेखक बताना चाहते हैं- ‘ही डिलाइटेड मिलियन्स’।
-हाँ,व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है,जीवन की आलोचना करता है,विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफाश करता है।
-यह नारा हो गया।
-नारा नहीं है। मैं यह कह रहा हूँ कि जीवन के प्रति व्यंग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है ,जितनी गम्भीर रचनाकार की- बल्कि ज्यादा ही,वह जीवन के पति दायित्व का अनुभव करता है।
-यह कहना तो इसी तरह हुआ कि डाक्टर से कहा जाये कि तुम रुग्ण मनोवृत्ति के आदमी हो। तुम्हें रोग ही रोग दीखते हैं। मनुष्य के बारे में आशा न होती ,तो हम उसकी कमजिरियों पर क्यों रोते? क्यों उससे कहते कि यार तू जरा कम बेवकूफ ,विवेकशील,सच्चा और न्यायी हो जा।
- जिंदगी बहुत जटिल चीज है। इसमें खालिस हँसना या खालिस रोना-जैसी चीज नहीं होती। बहुत सी हास्य रचनाओं में करुणा की अन्तर्धारा होती है। चेखव की कहानी’ क्लर्क की मौत’ क्या हँसी की कहानी है? उसका व्यंग्य कितना गहरा,ट्रेजिक और करुणामय है। चेखव की ही एक कम प्रसिद्ध कहानी है-’किरायेदार।’ इसका नायक ‘जोरू का गुलाम’ है-बीबी के होटल का प्रबन्ध करता है। अपनी नौकरी छोड़ आया है। अब बीबी का गुलाम उपहास का पात्र होता है न! मगर इस कहानी में यह बीबी का गुलाम अन्त में बड़ी करुणा पैदा करता है। अच्छा व्यंग्य सहानुभूति का सबसे उत्कृष्ट रूप होता है।
-कोई सुधर जाये तो मुझे क्या एतराज है। वैसे मैं सुधार के लिये नहीं,बदलने के लिये लिखना चाहता हूँ। याने कोशिश करता हूँ-चेतना में हलचल हो जाये,कोई विसंगति नजर के सामने आ जाये।इतना काफी है। सुधरने वाले खुद अपनी चेतना से सुधरते हैं। मेरी एक कहानी है-’सदाचार का तावीज’। इसमें कोई सुधारवादी संकेत नहीं हैं। कुल इतना है कि तावीज बाँधकर आदमी को ईमानदार बनाने की कोशिश की जा रही है,(भाषणों और उपदेशों से)। सदाचार का तावीज बाँधे बाबू दूसरी तारीख को घूस लेने से इंकार कर देता है मगर २९ तारीख को ले लेता है-’उसकी तन्ख्वाह खत्म हो गयी । तावीज बंधा है, मगर जेब खाली है।’ संकेत मैं यह करना चाहता हूँ कि बिना व्यवस्था परिवर्तन किये,भ्रष्टाचार के मौके को खत्म किये और कर्मचारियों को बिना आर्थिक सुरक्षा दिये, भाषणों ,सर्कुलरों, उपदेशों,सदाचार समितियों,निगरानी आयोगों के द्वारा कर्मचारी सदाचारी नहीं होगा। इसमें कोई उपदेश नहीं है। उपदेश का चार्ज वे लोग लगाते हैं, जो किसी के प्रति दायित्व का कोई अनुभव नहीं करते। वह सिर्फ अपने को मनुष्य मानते हैं और सोचते हैं कि हम कीड़ों के बीच रहने को अभिशप्त हैं। यह लोग तो कुत्ते की दुम में पटाखे की लड़ी बाँधकर उसमें आग लगाकर कुत्ते के मृत्यु-भय पर भी ठहाका लगा लेते हैं।
-इसलिये कि राजनीति बहुत बड़ी निर्णायक शक्ति हो गयी है। वह जीवन से बिल्कुल मिली हुई है। वियतनाम की जनता पर बम क्यों बरस रहे हैं? क्या उस जनता की कुछ अपनी जिम्मेदारी है? यह राजनीतिक दाँव-पेंच के बम हैं। शहर में अनाज और तेल पर मुनाफाखोरी कम नहीं हो सकती,क्योंकि व्यापरियों के क्षेत्र से अमुक-अमुक को चुनकर जाना है।राजनीति -सिद्धान्त और व्यवहार की- हमारे जीवन का एक अंग है। उससे नफरत करना बेवकूफी है। राजनीति से लेखक को दूर रखने की बात वही करते हैं,जिनके निहित स्वार्थ हैं,जो डरते हैं कि कहीं लोग हमें समझ न जायें। मैंने पहले भी कहा है कि राजनीति को नकारना भी एक राजनीति है।
-लेबिल का क्या डर! दूसरों को देशद्रोही कहने वाले,पाकिस्तान को भूखे बंगाल का चावल ‘स्मगल’ करते हैं। ये सारे रहस्य मुझे समझ में आते हैं। मुझे डराने की कोशिश मत करो।
-हरिशंकर परसाई
१९६२ में प्रकाशित सदाचार का ताबीज से साभार
हरिशंकर परसाई
एक सज्जन अपने मित्र से मेरा परिचय करा रहे थे-यह परसाईजी हैं। बहुत अच्छे लेखक हैं। ही राइट्स फनी थिंग्स।एक मेरे पाठक(अब मित्रनुमा) मुझे दूर से देखते ही इस तरह हँसी की तिड़तिड़ाहट करके मेरी तरफ बढ़ते हैं,जैसे दिवाली पर बच्चे’तिड़तिड़ी’ को पत्थर पर रगड़कर फेंक देते हैं और वह थोड़ी देर तिड़तिड़ करती उछलती रहती है। पास आकर अपने हाथों में मेरा हाथ ले लेते हैं। मजा आ गया। उन्होंने कभी कोई चीज मेरी पढ़ी होगी। अभी सालों से कोई चीज नहीं पढ़ी ,यह मैं जानता हूँ।
एक सज्जन जब भी सड़क पर मिल जाते हैं,दूर से ही चिल्लाते हैं-’परसाईजी नमस्कार!मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना!’ बात यह है कि किसी दूसरे आदमी ने कई साल पहले स्थानीय साप्ताहिक में एक मजाकिया लेख लिखा था,‘मेरा पथ-प्रदर्शक पाखाना।’ पर उन्होंने ऐसी सारी चीजों के लिये मुझे जिम्मेदार मान लिया है। मैंने भी नहीं बताया कि वह लेख मैंने नहीं लिखा था। बस,वे जहाँ मिलते हैं-’मेरा पथ प्रदर्शक पाखाना कहकर मेरा अभिवादन करते हैं।
कुछ पाठक समझते हैं कि मैं हमेशा उचक्केपन और हल्केपन के मूड में रहता हूँ। वे चिट्ठी में मखौल करने की कोशिश करते हैं!
कुछ पाठक समझते हैं कि मैं हमेशा उचक्केपन और हल्केपन के मूड में रहता
हूँ। वे चिट्ठी में मखौल करने की कोशिश करते हैं! एक पत्र मेरे सामने है।
लिखा है- कहिये जनाब बरसात का मजा ले रहे हैं न! मेढकों की जलतरंग सुन रहे
होंगे। इस पर भी लिख डालिये न कुछ।बिहार के किसी कस्बे से एक आदमी ने लिखा कि तुमने मेरे मामा का, जो फारेस्ट अफसर है,मजाक उड़ाया है। उसकी बदनामी की है। मैं तुम्हारे खानदान का नाश कर दूँगा। मुझे शनि सिद्ध है।
कुछ लोग इस उम्मीद से मिलने आते हैं कि मैं उन्हें ठिलठिलाता ,कुलाँचे मारता,उछलता मिलूँगा और उनके मिलते ही जो मजाक शुरू करूँगा तो सारा दिन दाँत निकालते गुजार देंगे। मुझे वे गम्भीर और कम बोलने वाला पाते हैं। किसी गम्भीर विषय पर मैं बात छेड़ देता हूँ। वे निराश होते हैं। काफी लोगों का यह मत है कि मैं निहायत मनहूस आदमी हूँ।
एक पाठिका ने एक दिन कहा-आप मनुष्यता की भावना की कहानियाँ क्यों नहींलिखते?
और एक मित्र मुझे उस दिन सलाह दे रहे थे- तुम्हें अब गम्भीर हो जाना चाहिये। इट इज़ हाई टाइम!
व्यंग्य लिखने वाले की ट्रेजिडी कोई एक नहीं हैं। ‘फ़नी’ से लेकर उसे मनुष्यता की भावना से हीन तक समझा जाता है।’मजा आ गया’ से लेकर ‘गम्भीर हो जाओ’ तक की प्रतिक्रयायें उसे सुननी पढ़ती हैं। फिर लोग अपने या अपने मामा,काका के चेहरे देख लेते हैं और दुश्मन बढ़ते जाते हैं। एक बहुत बड़े वयोवृद्ध गाँधी-भक्त साहित्यकार मुझे अनैतिक लेखक समझते हैं। नैतिकता का अर्थ उनके लिये शायद गबद्दूपन होता है।
लेकिन इसके बावजूद ऐसे पाठकों का एक बड़ा वर्ग है,जो व्यंग्य में निहित सामाजिक-राजनीतिक अर्थ संकेत को समझते हैं। वे जब मिलते हैं या लिखते हैं तो मजाक के मूड में नहीं। वे उन स्थितियों की बात करते हैं,जिन पर मैंने व्यंग्य किया है,वे उस रचना के तीखे वाक्य बनाते हैं। वे हालातों के प्रति चिन्तित होते हैं।
आलोचकों की स्थिति कठिनाई की है। गम्भीर कहानियों के बारे में तो वे कह सकते हैं कि संवेदना कैसे पिछलती आ रही है,समस्या कैसे प्रस्तुत की गयी -वगैरह। व्यंग्य के बारे में वह क्या कहे?अक्सर वह कहता है-हिंदी में शिष्ट हास्य का अभाव है।(हम सब हास्य और व्यंग्य के लेखक लिखते-लिखते मर जायेंगे,तब भी लेखकों के बेटे से इन आलोचकों के बेटे कहेंगे कि हिंदी में हास्य -व्यंग्य का अभाव है),हां वे यह और कहते हैं-विद्रूप का उद्घाटन कर दिया,परदाफाश कर दिया है,करारी चोट की है,गहरी मार की है, झकझोर दिया है। आलोचक बेचारा और क्या करे?जीवन बोध,व्यंग्यकार की दृष्टि, व्यंग्यकार की आस्था,विश्वास आदि बातें समझ और मेहनत की मांग करती हैं। किसे पड़ी है?
-अच्छा, तो तुम लोग व्यंग्यकार क्या अपने ‘प्राफे़ट’ को समझते हो? ‘फनी’ कहने पर बुरा मानते हो।खुद हँसाते हो और लोग हँसकर कहते हैं-मजा आ गया,तो बुरा मानते हो और कहते हो-सिर्फ मजा आ गया? तुम नहीं जानते कि इस तरह की रचनायें हल्की मानी जाती हैं और दो घड़ी के लिये पढ़ी जाती हैं। [यह बात मैं अपने-आपसे कहता हूँ,अपने-आपसे ही सवाल करता हूँ।]
विसंगति
की क्या अहमियत है ,वह जीवन में किस हद तक महत्वपूर्ण है,वह कितनी व्यापक
है, उसका प्रभाव कितना है-ये सब बातें विचारणीय हैं। दाँत निकाल देना उतना
महत्वपूर्ण नहीं है।
-जवाब: हँसना अच्छी बात है। पकौड़े जैसी नाक को देखकर भी हँसा जाता
है,आदमी कुत्ते -जैसे भौंके तो भी लोग हँसते हैं। साइकिल पर डबल सवार गिरें
,तो भी लोग हँसते हैं। संगति के कुछ मान बजे हुये होते हैं- जैसे इतने
बड़े शरीर में इतनी बड़ी नाक होनी चाहिये। उससे बड़ी होती है ,तो हँसी आती
है। आदमी आदमी की ही बोली बोले,ऐसी संगति मानी हुई है। वह कुत्ते-जैसा
भौंके तो यह विसंगति हुई और हंसी का कारण। असामंजस्य,अनुपातहीनता,विसंगति
हमारी चेतना को छोड़ देते हैं। तब हँसी भी आ सकती है और हँसी नहीं भी आ
सकती-चेतना पर आघात पड़ सकता है। मगर विसंगतियों के भी स्तर होते हैं। आदमी
कुत्ते की बोली बोले -यह एक विसंगति है। और वनमहोत्सव का आयोजन करने के
लिये पेड़ काटकर साफ किये जायें,जहाँ मन्त्री महोदय गुलाब के ‘वृक्ष’ की
कलम रोपें -यह भी एक विसंगति है। दोनों में भेद है,गो दोनों से हँसी आती
है। मेरा मतलब है-विसंगति की क्या अहमियत है ,वह जीवन में किस हद तक
महत्वपूर्ण है,वह कितनी व्यापक है, उसका प्रभाव कितना है-ये सब बातें
विचारणीय हैं। दाँत निकाल देना उतना महत्वपूर्ण नहीं है।-लेकिन यार,इस बात से क्यों कतराते हो कि इस तरह का साहित्य हल्का ही माना जाता है?
-माना जाता है तो मैं क्या करूँ? भारतेन्दु युग में प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुन्द गुप्त जो व्यंग्य लिखते थे ,वह कितनी पीडा़ से लिखा जाता था। देश की दुर्दशा पर वे किसी भी कौम के रहनुमा से ज्यादा रोते थे। हाँ,यह सही है कि इसके बाद रुचि कुछ ऐसी हुई कि हास्य का लेखक विदूषक बनने को मजबूर हुआ । ‘मदारी और डमरू’,'टुनटुन’जैसे पत्र निकले और हास्यरस के कवियों ने ‘चोंच’ और ‘काग’ जैसे उपनाम रखे। याने हास्य के लिये रचनाकार को हास्यास्पद होना पड़ा। अभी भी यही मजबूरी बची है। तभी कुंजबिहारी पाण्डे को ‘कुत्ता’ शब्द आने पर मंच पर भौंककर बताना पड़ता है और काका हाथरसी को अपनी पुस्तक के कवर पर अपना कार्टून छपाना पड़ता है। बात यह है कि हिन्दी-उर्दू की मिश्रित हास्य-व्यंग्य परम्परा कुछ साल चली,जिसने हास्य रस को भडौ़आ बनाया। इसमें बहुत कुछ हल्का है। यह सीधी सामन्ती वर्ग के मनोरंजन की जरूरत से पैदा हुई थी। शौकत थानवी की एक पुस्तक का नाम ही ‘कुतिया’ है। अज़ीमबेग चुग़ताई नौकरानी की लड़की से ‘फ्लर्ट’ करने की तरकीबें बताते हैं! कोई अचरज नहीं कि हास्य-व्यंग्य के लेखकों को लोगों ने हल्के ,गैरजिम्मेदार और हास्यास्पद मान लिया हो।
हमारे
समाज में कुचले हुये का उपहास किया जाता है। स्त्री आर्थिक रूप से गुलाम
रही ,उसका कोई व्यक्तित्व नहीं बनने दिया गया,वह अशिक्षित रही,ऐसी रही-तब
उसकी हीनता का मजाक करना ‘सेफ’ हो गया।
-और ‘पत्नीवाद’ वाला हास्यरस! वह तो स्वस्थ है ? उसमें पारिवारिक-सम्बन्धों की निर्मल आत्मीयता होती है?-स्त्री से मजाक एक बात है और स्त्री का उपहास दूसरी बात। हमारे समाज में कुचले हुये का उपहास किया जाता है। स्त्री आर्थिक रूप से गुलाम रही ,उसका कोई व्यक्तित्व नहीं बनने दिया गया,वह अशिक्षित रही,ऐसी रही-तब उसकी हीनता का मजाक करना ‘सेफ’ हो गया। पत्नी के पक्ष के सब लोग हीन और उपहास के पात्र हो गये-खासकर साला,गो हर आदमी किसी न किसी का साला होता है। इसी तरह घर का नौकर सामन्ती परिवारों में मनोरंजन का माध्यम होता है। उत्तर भारत के सामन्ती परिवारों की परदानशीन दमित रईस-जादियों का मनोरंजन घर के नौकर का उपहास करके होता है। जो जितना मूर्ख , सनकी और पौरुषहीन हो ,वह नौकर उतना ही दिलचस्प होता है। इसलिये सिकन्दर मियाँ चाहे काफी बुद्धिमान हों,मगर जानबूझकर बेवकूफ बन जाते हैं क्योंकि उनका ऐसा होना नौकरी को सुरक्षित रखता है। सलमा सिद्धीकी ने सिकन्दरनामा में ऐसे ही पारिवारिक नौकर की कहानी लिखी है। मैं सोचता हूँ सिकन्दर मियाँ अपनी नजर से उस परिवार की कहानी कहें,तो और अच्छा हो।
-तो क्या पत्नी,साला,नौकर,नौकरानी आदि को हास्य का विषय बनाना अशिष्टता है?
-’वल्गर’ है। इतने व्यापक सामाजिक जीवन में इतनी विसंगतियाँ हैं। उन्हें न देखकर बीबी की मूर्खता बयान करना बडी़ संकीर्णता है।
इतने व्यापक सामाजिक जीवन में इतनी विसंगतियाँ हैं। उन्हें न देखकर बीबी की मूर्खता बयान करना बडी़ संकीर्णता है।
-और ‘शिष्ट’ और ‘अशिष्ट’ क्या है?-अक्सर ‘शिष्ट’ हास्य की माँग वे करते हैं,जो शिकार होते हैं। भ्रष्टाचारी तो यही चाहेगा कि आप मुंशी की या साले की मजाक का शिष्ट हास्य करते रहें और उस पर चोट न करें। हमारे यहाँ तो हत्यारे’भ्रष्टाचारी’ पीड़क से भी ‘शिष्टता’ बरतने की माँग की जाती है-’अगर जनाब बुरा न माने तो अर्ज है कि भ्रष्टाचार न किया करें। बड़ी कृपा होगी सेवक पर।’ व्यंग्य में चोट होती ही है। जिन पर होती है वह कहते हैं-’इसमें कटुता आ गयी। शिष्ट हास्य लिखा करिये।’ मार्क ट्वेन की वे रचनायें नये संकलनों में नहीं आतीं,जिनमें उसने अमेरिकी शासन और मोनोपोली के बखिये उधेड़े हैं। वह उसे केवल शिष्ट हास्य का मनोरंजन देने वाला लेखक बताना चाहते हैं- ‘ही डिलाइटेड मिलियन्स’।
इतने
मार्क ट्वेन की वे रचनायें नये संकलनों में नहीं आतीं,जिनमें उसने अमेरिकी
शासन और मोनोपोली के बखिये उधेड़े हैं। वह उसे केवल शिष्ट हास्य का
मनोरंजन देने वाला लेखक बताना चाहते हैं
-तो तुम्हारा मतलब यह है कि मनोरंजन के साथ व्यंग्य में समाज की समीक्षा भी होती है?-हाँ,व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है,जीवन की आलोचना करता है,विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफाश करता है।
-यह नारा हो गया।
-नारा नहीं है। मैं यह कह रहा हूँ कि जीवन के प्रति व्यंग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है ,जितनी गम्भीर रचनाकार की- बल्कि ज्यादा ही,वह जीवन के पति दायित्व का अनुभव करता है।
व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार कराता है,जीवन की आलोचना करता है,विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखण्डों का परदाफाश करता है।
-लेकिन वह शायद मनुष्य के बारे में आशा खो चुका होता है।
निराशावादी हो जाता है। उसे मनुष्य की बुराई ही दीखती है। तुम्हारी रचनाओं
में देखो-सब चरित्र बुरे ही हैं।-यह कहना तो इसी तरह हुआ कि डाक्टर से कहा जाये कि तुम रुग्ण मनोवृत्ति के आदमी हो। तुम्हें रोग ही रोग दीखते हैं। मनुष्य के बारे में आशा न होती ,तो हम उसकी कमजिरियों पर क्यों रोते? क्यों उससे कहते कि यार तू जरा कम बेवकूफ ,विवेकशील,सच्चा और न्यायी हो जा।
जिंदगी
बहुत जटिल चीज है। इसमें खालिस हँसना या खालिस रोना-जैसी चीज नहीं होती।
बहुत सी हास्य रचनाओं में करुणा की अन्तर्धारा होती है।
-तो तुम लोग रोते भी हो। मेरा तो ख्याल था कि तुम सब पर हँसते हो।- जिंदगी बहुत जटिल चीज है। इसमें खालिस हँसना या खालिस रोना-जैसी चीज नहीं होती। बहुत सी हास्य रचनाओं में करुणा की अन्तर्धारा होती है। चेखव की कहानी’ क्लर्क की मौत’ क्या हँसी की कहानी है? उसका व्यंग्य कितना गहरा,ट्रेजिक और करुणामय है। चेखव की ही एक कम प्रसिद्ध कहानी है-’किरायेदार।’ इसका नायक ‘जोरू का गुलाम’ है-बीबी के होटल का प्रबन्ध करता है। अपनी नौकरी छोड़ आया है। अब बीबी का गुलाम उपहास का पात्र होता है न! मगर इस कहानी में यह बीबी का गुलाम अन्त में बड़ी करुणा पैदा करता है। अच्छा व्यंग्य सहानुभूति का सबसे उत्कृष्ट रूप होता है।
अच्छा व्यंग्य सहानुभूति का सबसे उत्कृष्ट रूप होता है।
-अच्छा यार, तुम्हें आत्म-प्रचार का मौका दिया गया था। पर तुम
अपना कुछ न कहकर जनरल ही बोलते जा रहे हो। तुम्हारी रचनाओम को पढ़कर कुछ
बातें पूछी जा सकती हैं। क्या तुम सुधारक हो?तुममें आर्य समाजी-वृत्ति देखी
जाती है।-कोई सुधर जाये तो मुझे क्या एतराज है। वैसे मैं सुधार के लिये नहीं,बदलने के लिये लिखना चाहता हूँ। याने कोशिश करता हूँ-चेतना में हलचल हो जाये,कोई विसंगति नजर के सामने आ जाये।इतना काफी है। सुधरने वाले खुद अपनी चेतना से सुधरते हैं। मेरी एक कहानी है-’सदाचार का तावीज’। इसमें कोई सुधारवादी संकेत नहीं हैं। कुल इतना है कि तावीज बाँधकर आदमी को ईमानदार बनाने की कोशिश की जा रही है,(भाषणों और उपदेशों से)। सदाचार का तावीज बाँधे बाबू दूसरी तारीख को घूस लेने से इंकार कर देता है मगर २९ तारीख को ले लेता है-’उसकी तन्ख्वाह खत्म हो गयी । तावीज बंधा है, मगर जेब खाली है।’ संकेत मैं यह करना चाहता हूँ कि बिना व्यवस्था परिवर्तन किये,भ्रष्टाचार के मौके को खत्म किये और कर्मचारियों को बिना आर्थिक सुरक्षा दिये, भाषणों ,सर्कुलरों, उपदेशों,सदाचार समितियों,निगरानी आयोगों के द्वारा कर्मचारी सदाचारी नहीं होगा। इसमें कोई उपदेश नहीं है। उपदेश का चार्ज वे लोग लगाते हैं, जो किसी के प्रति दायित्व का कोई अनुभव नहीं करते। वह सिर्फ अपने को मनुष्य मानते हैं और सोचते हैं कि हम कीड़ों के बीच रहने को अभिशप्त हैं। यह लोग तो कुत्ते की दुम में पटाखे की लड़ी बाँधकर उसमें आग लगाकर कुत्ते के मृत्यु-भय पर भी ठहाका लगा लेते हैं।
मैं
सुधार के लिये नहीं,बदलने के लिये लिखना चाहता हूँ। याने कोशिश करता
हूँ-चेतना में हलचल हो जाये,कोई विसंगति नजर के सामने आ जाये।इतना काफी है।
सुधरने वाले खुद अपनी चेतना से सुधरते हैं।
-अच्छा यार, बातें तो और भी बहुत -सी करनी थीं। पर पाठक बोर हो जायेंगे। बस एक बात बताओ-तुम इतना राजनीतिक व्यंग्य क्यों लिखते हो?-इसलिये कि राजनीति बहुत बड़ी निर्णायक शक्ति हो गयी है। वह जीवन से बिल्कुल मिली हुई है। वियतनाम की जनता पर बम क्यों बरस रहे हैं? क्या उस जनता की कुछ अपनी जिम्मेदारी है? यह राजनीतिक दाँव-पेंच के बम हैं। शहर में अनाज और तेल पर मुनाफाखोरी कम नहीं हो सकती,क्योंकि व्यापरियों के क्षेत्र से अमुक-अमुक को चुनकर जाना है।राजनीति -सिद्धान्त और व्यवहार की- हमारे जीवन का एक अंग है। उससे नफरत करना बेवकूफी है। राजनीति से लेखक को दूर रखने की बात वही करते हैं,जिनके निहित स्वार्थ हैं,जो डरते हैं कि कहीं लोग हमें समझ न जायें। मैंने पहले भी कहा है कि राजनीति को नकारना भी एक राजनीति है।
राजनीति को नकारना भी एक राजनीति है।
-अच्छा तो बात को यहीं खत्म करें! तुम अब राजनीति पर चर्चा करने लगे । इससे लेबिल चिपकते हैं। -लेबिल का क्या डर! दूसरों को देशद्रोही कहने वाले,पाकिस्तान को भूखे बंगाल का चावल ‘स्मगल’ करते हैं। ये सारे रहस्य मुझे समझ में आते हैं। मुझे डराने की कोशिश मत करो।
-हरिशंकर परसाई
१९६२ में प्रकाशित सदाचार का ताबीज से साभार
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चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..जय हे गांधी ! हे करमचंद !! (कविता)