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निरंतर- पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढ़ो
By फ़ुरसतिया on August 9, 2006
….और ये रहा निरंतर का नवीनतम अंक-पूरे साल भर बाद!
दो दिन पहले की बात है। इधर पूना से हमारे देबाशीष जुटे थे निरंतर की कड़ियाँ जोड़ने में इधर हम कानपुर से उनको ठेल रहे थे -ये फोटो ठीक करो,ये नहीं दिख रही। इसका लिंक ये होगा उसकी वर्तनी वो होगी। अगला बेचारा जुटा था- अभी करता हूँ कहते हुये। तब तक उधर अबूधाबी से पूर्णिमा वर्मन जी आनलाइन हुईं। हमने जैसी थी वैसी निरंतर उनके सामने पेश कर दी। देखिये। और वो देखने लगीं। बहुत देर तक कोई जबाब नहीं आया तो हमें लगा कुछ काम में व्यस्त हो गयी होंगी। कुछ देर बात जबाब आया-माफ करना मैं पत्रिका पढ़ने में डूब गयी। बहुत अच्छी निकली है-शाबास!
हमें लगा कि हमारी मेहनत सफल हुई।
निरंतर जब पिछले साल बंद हुई थी तो इससे जुडे़ लगभग सभी लोगों को दुख हुआ था। साथ ही पाठक भी अक्सर पूछते रहते थे कि पत्रिका बंद क्यों हुई? पूर्णिमा वर्मन जी तो अक्सर कहती रहतीं थी -कैसे तुम लोग इतने सक्षम होते हुये भी अपनी बंद किये पढ़े हो!
देबाशीष के लिये यह एक व्यक्तिगत दुख की तरह था कि पत्रिका का प्रकाशन स्थगित हो गया। रवि रतलामी को भी लगता रहा कि यह एक ब्रह्महत्या की तरह है जिसका पाप उनके सिर होगा क्योंकि उनके संपादकत्व में ही पत्रिका का प्रकाशन स्थगित हुआ।
गतवर्ष जब पत्रिका बंद हुई थी तो हमारे साथी ब्लागर इतना व्यस्त भी नहीं थे जितना आज हैं। न तब नारद था न परिचर्चा न ही आलोक लाइवजर्नल या शून्य में व्यस्त थे लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि मामला पहले टांय-टांय हुआ और फिर जैसा कि सब जानते हैं-फिस्स हो गया।
फिर जब मैं पूना गया तो देबाशीष से बहुत विस्तार से बात हुई। देबाशीष को निरंतर के बंद होने का बहुत दुख था। यह बात उनको बार-बार कचोटती थी कि वे अपना ‘ड्रीमप्रोजेक्ट’पूरा न कर पाये। इसे फिर से निकालने की अपनी मंशा भी जाहिर की।
देबाशीष ने यह भी बताया कि रमणकौल ने निरंतर डोमेन लेकर रखा है तथा सूचित किया है कि अगर पत्रिका निकालनी है तो इसे जारी रखा जाये। हमारे साथियों में रवि रतलामी,रमणकौल,आलोक,विनय ,अनूप भार्गव आदि कुछ लोग हैं जो बिना किसी हो-हल्ले के ,बिना किसी ताम-झाम के हिंदी में जो बन सकता है वो करने में जुटे रहते हैं। यह उन लोगों के लिये उदाहरण बन सकते हैं जिनके लिये ठोस काम के बजाय उछल-कूद की हवा फैलाना ज्यादा पसंदीदा आइटम है।
फिर मामला आया संपादक मंडल चुनने का। नये जुड़ने वाले लोगों में सुनील दीपक देबाशीष की पहली पसंद थे। आलोक चूँकि अब भारत आ गये थे लिहाजा वे भी हमारी टीम में आ गये। पुराने लोगों में सभी लोग साथ लिये गये। कोई छोड़े जाने लायक नहीं था। नये लोगों में ई-स्वामी को लेने की जिद अतुल की थी। स्वामी के तेवर कुछ ज्यादा ही औघड़ हैं। लिहाजा देबाशीष जैसे संभ्रांत संपादकाचार्य के मन में इनको शामिल करने कुछ स्वाभाविक हिचक थी। लेकिन हमने अपने ‘बड़भैया’ के पद का दुरुपयोग करते हुये स्वामी को घुसा दिया टीम में।
स्वामी की तात्कालिक प्रतिक्रयायें कभी-कभी बहुत चोट पहुंचाने की हद तक मुंहफट हो जाती हैं जिनको असर बहुत तीखा होता है। लेकिन फिर भी हमें अपने मुंहफट बच्चे पर ,बाबजूद तमाम और खुराफातों के,कुछ ज्यादा ही भरोसा है। असल में मुझे यह लगता कि ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत की तरह( ऊर्जा न बनाई जा सकती है न नष्ट की जा सकती है,केवल उसका रूप परिवर्तन किया जा सकता है) व्यक्ति के गुणों के संरक्षण का सिद्धांत भी होता है। बुरे गुणों की बुराई करने की बजाये अगर अच्छे गुणों की तारीफ की जाये तो बुरे गुण अपने-आप दब जायेंगे।
लिहाजा हमारी जमानत पर स्वामीजी अंदर हो गये।
देबाशीष ने भी अपने साथ तमाम सक्षम लोगों को जोड़कर,स्वीकार करके बेहतर समझ का मुजाहिरा किया।
जब सुनील जी शामिल हुये तो उन्होंने सबसे पहला सवाल किया- “हैं ये क्या? यहाँ तो कोई महिला संपादक है ही नहीं!” हम बोले अब क्या करें? यह भी जरूरी होता है यह तो पता ही नहीं है।
फिर खोज शुरू हुई महिला संपादक की। महिला संपादक की जरूरत इसलिये भी थी कि हम गणों की उदंडता को नियंत्रित रखने के लिये कोई रिंगमास्टर टाइप आइटम चाहिये। रिंगमास्टर ऐसा चाहिये कि जो महिला हो, समझदार हो तथा निरंतर के प्रकाशन में सहयोग कर सके। समझदारी पर बिना कुछ कहे यही बताना जरूरी है कि प्रत्यक्षा हमारे संपादकीय दल में दल में जुड़ गयीं। प्रत्यक्षा के शामिल होने का फायदा हुआ कि कविता,कहानी चयन का बोझ हमारे हिस्से से कम हो गया। इलाप्रसाद की कहानी खिड़की तथा खुद प्रत्यक्षा की कहानी लालपरी इसी लिये जुड़ी क्योंकि वे हमारी टीम में आ गईं।
लालपरी कहानी शुरू तो की है प्रत्यक्षा ने लेकिन अब आगे बढ़ेगी पाठकों के इशारे पर। अपनी राय भेजिये कि आगे कहानी कैसे मुड़े!
जब देबाशीष ने निरंतर के पुनर्प्रकाशन की घोषणा की थी पाठकों ने स्वागत किया था। प्रेमलता जी ने आर्थिक सहयोग का भी आश्वासन दिया था।
देबाशीष ने निरंतर मित्र बनाने की बात कहीं थी। अभी तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो पाई है लेकिन बिना जनजुड़ाव के कोई भी पत्रिका सफल नहीं हो सकती। लेखक,पाठक,शुभचिंतक का सक्रिय सहयोग पत्रिका की निरंतरता के लिये जरूरी हैं।
इस मामले में अभिव्यक्ति का उदाहरण हमारे सामने है। अभिव्यक्ति हर हफ्ते निकलती है। पूर्णिमाजी दो महीने पहले से लेख की मांग करना शुरू कर देती हैं। लगभग हर शहर में हिंदी में रुचि रखने वालों के वे निरंतर संपर्क में रहती हैं। हमारे प्रयास और उनके प्रयासों कोई मतभेद नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि आगे अभिव्यक्ति के अनुभवों तथा संपर्कों का लाभ निरंतर को भी मिलगा तथा समय-समय पर उचित सलाह तथा मार्गदर्शन मिलता रहेगा।
निरंतर कैसी है इसका निर्णय तो पाठक करेंगे। लेकिन हम लोगों को इसका सुकून है कि हमने सामूहिक प्रयास से इसे दोबारा शुरू किया। पिछली बार यह बंद हो गई थी लेकिन इस बार हमें लगता है कि यह निकलती रहेगी।
निरंतर के लेखों तथा अन्य स्तंभों पर अलग से लेख लिखे जायेंगे। लेकिन एड्स पर लिखे सुनील दीपक , रमणकौल ,रवि रतलामी तथा अविजित मुकुल किशोर के लेख किसी लिहाज से इन विषयों पर कहीं भी लिखे लेखों से उन्नीस नहीं हैं।
हरसूद के लेखक विजय तिवारी का साक्षात्कार हमारे देश की विकास नीति की पर सोचने को बाध्य करता है।
बेबारू तथा विकीपीडिया पर लिखे लेख अपने आपमें सम्पूर्ण हैं। इनको पढ़ने के बाद लगता है कि काश तकनीकी विषयों पर इसी भाषा तथा अंदाज में लेख लिखे जाते रहें।
देबाशीष बताना चाहते थे कि वे खाली संपादक ही नहीं हैं धांसू लेखक भी हैं। यह दिखाने के लिये लेख लिखा -हंसे न हंसे हम । लेकिन खुद छापने के बजाय पहले संपादक मंडल से पास कराया तब छापा। पुस्तक का तो पता नहीं लेकिन पुस्तक समीक्षा बढ़िया है,पठनीय है। वैसे पुस्तक के बारे में भी आश्वस्त हुआ जा सकता है। क्योंकि जो शख्स रागदरबारी तथा आधा गांव जैसी किताबें तीन महीने तक बिना पढ़े रखे रहे वो शख्स अगर किसी किताब को पूरी पढ़ ले रहा है तो किताब वास्तव में पठनीय होगी।
मस्त रहो न यार! में दो शीर्षक भी आ गये। रजनी भार्गव लिखती हैं :
प्रतीक पाण्डेय अपने शीर्षक में लगता है कि हमारे मन की बात कह रहे हैं:-
वैसे मेरा विचार यह भी था कि नियमित रूप से ऐसे सवालों के जवाब अपने ब्लाग में दिया करूं। लेकिन प्रत्यक्षा जी ने अपना मत दिया कि इससे निरंतर की ‘यूनीकनेस’प्रभावित होगी। लिहाजा हमने अपना ‘यूनीक’ इरादा तत्क्षण त्याग दिया। हम अपनी पत्रिका की ‘यूनीकनेस’ प्रभावित करने वाला कोई काम नहीं करेंगे।
निधि तथा आशीष का परिचय लिखना मेरे लिये चुनौती का काम था। आशीष से तो मैं पहले से ही परिचित तथा प्रभावित था। उनके परिचय में मुझे कुछ खास मेहनत नहीं करनी पड़ी। लेकिन निधि का परिचय लिखने में बहुत सोचना पड़ा तथा दो बार लोगों ने इसे खारिज कर दिया।
यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि निधि तथा आशीष दोनों का लेखन तथा व्यवहार से मैं बहुत प्रभावित हूँ। दोनों के लेखन में ईमानदारी है,बिंदासपन है । अब व्यवहार के स्तर पर ये लोग चाहे जितना लापरवाह होने का मुजाहिरा करते रहें लेकिन मुझे लगता है कि इनमें बेहद जिम्मेदारी ,समझदारी तथा लगाव का एहसास है। दोनों, आशीष तथा निधि ,बेचारे संस्कार के मारे हैं जो किसी भी तरह से उसको चोट पहुँचाने की कल्पना भी नहीं कर पाते जिनसे ये जुड़ाव महसूस करते हैं।
मुझे आशा है कि लेखन में निधि की गतिविधियाँ नियमित रहेंगी तथा आशीष हिंदी की समृद्धि के लिये अपनी ‘कल्लो बेगम’ से नाता बनाये रखेंगे।
इंटरनेट पर हिंदी के बढ़ावे में निरंतर का योगदान तो समय तय करेगा। उसके बारे में हम अभी सोचते भी नहीं। लेकिन यह मन जरूर है कि हम इसको जारी रख सकें। तथा मन में यह चोर-कामना भी है कि जब कभी नेट पर हिंदी की भव्य इमारत खड़ी हो तो उसकी नींव में कम से कम एक ईंट निरंतर की जरूर हो।
फिलहाल तो हमारा यही अनुरोध है कि आप कृपया निरंतर पढ़ें। तथा अपनी राय बतायें। राय का मतलब तारीफ ही नहीं है। आप आलोचना करें,सुझाव दें,शिकायत करें,उलाहना दें ।कुछ भी करें लेकिन प्रतिक्रिया अवश्य दें । आपका यही योगदान हमारे लिये अमूल्य होगा। बकौल अंसार कंबरी:-
पुनश्च:-1. अभी-अभी हमारे पास फोन आया कुवैत से श्रीमती जीतेंद्र चौधरी का। बोली, ‘भाई साहब हमारे ये सबेरे से उदास हैं ।पता नहीं क्या हुआ?’ हम समझ गये कि जीतेंद्र का नाम रह गया। इसी से उदासी का नाटक कर रहे हैं। इस बौड़म को हम अभी तक यह समझा नहीं पाये कि लेख,लेख होता है कोई कालपात्र नहीं कि दुबारा नाम न डाला जा सके।काश जीतेंदर में भी पंकज और दूसरे लोगों की तरह समझदारी होती।
बहरहाल,ये सूचित किया जाता है कि जीतू इस अंक के प्रकाशन की तैयारी के दौरान भारत में थे तथा परिचर्चा ,नारद में कुछ ज्यादा ही व्यस्त थे इसलिये शीर्षक प्रतियोगिता के फोटो देने तथा सवालों के अलावा कोई खास योदगान नहीं कर पाये( लोग कहते हैं इसीलिये अंक बढ़िया निकल गया) ।आगे के लिये वे अपने पूरे ताम-झाम (मय ही,ही,ही) के साथ मौजूद होंगे। अतुल भी कुछ पारिवारिक कारणों से उतना सक्रिय नहीं रह पाये जितना आगे वो रहेंगे तथा उनके लेखकीय जौहर देखने को मिलेंगे।
2.निरंतर के इस अंक के लिये कवितायें ज्यादा नहीं मिल पाईं। केवल रत्नाजी की कविता मिली जिसे कि देबाशीष अब पोस्ट कर पाये हैं। हमारा भारत कैसा हो के जवाब में यह सबसे पहले मिलने वाली प्रतिक्रिया थी। आशा है आगे के अंकों में कविताओं का अकाल नहीं होगा।
दो दिन पहले की बात है। इधर पूना से हमारे देबाशीष जुटे थे निरंतर की कड़ियाँ जोड़ने में इधर हम कानपुर से उनको ठेल रहे थे -ये फोटो ठीक करो,ये नहीं दिख रही। इसका लिंक ये होगा उसकी वर्तनी वो होगी। अगला बेचारा जुटा था- अभी करता हूँ कहते हुये। तब तक उधर अबूधाबी से पूर्णिमा वर्मन जी आनलाइन हुईं। हमने जैसी थी वैसी निरंतर उनके सामने पेश कर दी। देखिये। और वो देखने लगीं। बहुत देर तक कोई जबाब नहीं आया तो हमें लगा कुछ काम में व्यस्त हो गयी होंगी। कुछ देर बात जबाब आया-माफ करना मैं पत्रिका पढ़ने में डूब गयी। बहुत अच्छी निकली है-शाबास!
हमें लगा कि हमारी मेहनत सफल हुई।
मुझे
लगता है कि हिंदी के ज्यादातर पाठक प्रतिक्रिया देने में कुछ संकोची या
ज्यादा सही होगा यह कहना कि मुँहचुप्पा होते हैं। पढ़ लेगें लेकिन उस पर
अपनी राय नहीं बतायेंगे।
फिर और लोगों ने भी बताया कि पत्रिका बहुत अच्छी लगी। पिछली के मुकाबले
बहुत सुधार है। कुछ लोगों ने लेखों में अपनी टिप्पणियां भी दी हैं। फिलहाल
तो अभी तक टिप्पणियाँ लिखने वालों में लगभग सभी लोग हमारे साथी चिट्ठाकार
हैं। नये लोगों तक शायद अभी यह पत्रिका पहुँची नहीं या पहुँची भी तो लोगों
ने अभी तक अपनी प्रतिक्रिया दी नहीं। वैसे भी मुझे लगता है कि हिंदी के
ज्यादातर पाठक प्रतिक्रिया देने में कुछ संकोची या ज्यादा सही होगा यह कहना
कि मुँहचुप्पा होते हैं। पढ़ लेगें लेकिन उस पर अपनी राय नहीं बतायेंगे।
अपने विचार रखने के पहले लगता बहुत विचार करते हैं। जनमंच पर जब हमने अपने ‘हमारा भारत कैसा हो?’ पर विचार लिखने के लिये कहा तो केवल दो प्रतिक्रयायें मिलीं। निरंतर जब पिछले साल बंद हुई थी तो इससे जुडे़ लगभग सभी लोगों को दुख हुआ था। साथ ही पाठक भी अक्सर पूछते रहते थे कि पत्रिका बंद क्यों हुई? पूर्णिमा वर्मन जी तो अक्सर कहती रहतीं थी -कैसे तुम लोग इतने सक्षम होते हुये भी अपनी बंद किये पढ़े हो!
देबाशीष के लिये यह एक व्यक्तिगत दुख की तरह था कि पत्रिका का प्रकाशन स्थगित हो गया। रवि रतलामी को भी लगता रहा कि यह एक ब्रह्महत्या की तरह है जिसका पाप उनके सिर होगा क्योंकि उनके संपादकत्व में ही पत्रिका का प्रकाशन स्थगित हुआ।
गतवर्ष जब पत्रिका बंद हुई थी तो हमारे साथी ब्लागर इतना व्यस्त भी नहीं थे जितना आज हैं। न तब नारद था न परिचर्चा न ही आलोक लाइवजर्नल या शून्य में व्यस्त थे लेकिन कुछ ऐसा हुआ कि मामला पहले टांय-टांय हुआ और फिर जैसा कि सब जानते हैं-फिस्स हो गया।
फिर जब मैं पूना गया तो देबाशीष से बहुत विस्तार से बात हुई। देबाशीष को निरंतर के बंद होने का बहुत दुख था। यह बात उनको बार-बार कचोटती थी कि वे अपना ‘ड्रीमप्रोजेक्ट’पूरा न कर पाये। इसे फिर से निकालने की अपनी मंशा भी जाहिर की।
देबाशीष ने यह भी बताया कि रमणकौल ने निरंतर डोमेन लेकर रखा है तथा सूचित किया है कि अगर पत्रिका निकालनी है तो इसे जारी रखा जाये। हमारे साथियों में रवि रतलामी,रमणकौल,आलोक,विनय ,अनूप भार्गव आदि कुछ लोग हैं जो बिना किसी हो-हल्ले के ,बिना किसी ताम-झाम के हिंदी में जो बन सकता है वो करने में जुटे रहते हैं। यह उन लोगों के लिये उदाहरण बन सकते हैं जिनके लिये ठोस काम के बजाय उछल-कूद की हवा फैलाना ज्यादा पसंदीदा आइटम है।
हमारे
साथियों में रवि रतलामी,रमण कौल, आलोक, विनय, अनूप भार्गव आदि कुछ लोग हैं
जो बिना किसी हो-हल्ले के,बिना किसी ताम-झाम के हिंदी में जो बन सकता है
वो करने में जुटे रहते हैं।
बहरहाल देबाशीष ने हमसे सहयोग मांगा-हम बोले तथास्तु। न सिर्फ तथास्तु बोले बल्कि अइसा चढ़ाया पानी पर कि बबुआ अब चाहे भी तो उतर नहीं सकते।फिर मामला आया संपादक मंडल चुनने का। नये जुड़ने वाले लोगों में सुनील दीपक देबाशीष की पहली पसंद थे। आलोक चूँकि अब भारत आ गये थे लिहाजा वे भी हमारी टीम में आ गये। पुराने लोगों में सभी लोग साथ लिये गये। कोई छोड़े जाने लायक नहीं था। नये लोगों में ई-स्वामी को लेने की जिद अतुल की थी। स्वामी के तेवर कुछ ज्यादा ही औघड़ हैं। लिहाजा देबाशीष जैसे संभ्रांत संपादकाचार्य के मन में इनको शामिल करने कुछ स्वाभाविक हिचक थी। लेकिन हमने अपने ‘बड़भैया’ के पद का दुरुपयोग करते हुये स्वामी को घुसा दिया टीम में।
स्वामी की तात्कालिक प्रतिक्रयायें कभी-कभी बहुत चोट पहुंचाने की हद तक मुंहफट हो जाती हैं जिनको असर बहुत तीखा होता है। लेकिन फिर भी हमें अपने मुंहफट बच्चे पर ,बाबजूद तमाम और खुराफातों के,कुछ ज्यादा ही भरोसा है। असल में मुझे यह लगता कि ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत की तरह( ऊर्जा न बनाई जा सकती है न नष्ट की जा सकती है,केवल उसका रूप परिवर्तन किया जा सकता है) व्यक्ति के गुणों के संरक्षण का सिद्धांत भी होता है। बुरे गुणों की बुराई करने की बजाये अगर अच्छे गुणों की तारीफ की जाये तो बुरे गुण अपने-आप दब जायेंगे।
ऊर्जा
संरक्षण के सिद्धांत की तरह व्यक्ति के गुणों के संरक्षण का सिद्धांत भी
होता है। बुरे गुणों की बुराई करने की बजाये अगर अच्छे गुणों की तारीफ की
जाये तो बुरे गुण अपने-आप दब जायेंगे।
दूसरी बात कुछ यह भी है कि हमें स्थापित लोगों के महिमामंडित प्रभामंडल के बजाय अपने से छोटे लोगों के गुण ज्यादा ही प्रभावित करते हैं।
खासतौर पर अतुल, स्वामी और दूसरे लोग भी जिनकी इमेज नाक पर गुस्से
वाली,मुंहफट जैसी हो लेकिन मूलत: ये सब अभी तक अपने संस्कारों से मुक्त
नहीं हो पाये हैं। ऐसा कई बार हुआ जब इन लोगों ने अपने को सही मानने के
बावजूद हमारे कहने पर तमाम झगड़े बंद कर दिये। कई बार बिना शर्त उससे
दुबारा संवाद स्थापित किया जिससे कभी संपर्क न करने की कसम खा चुके थे। ऐसे
में मुझे समझ में नहीं आता कि कैसे इन लोगों पर भरोसा न करें!लिहाजा हमारी जमानत पर स्वामीजी अंदर हो गये।
देबाशीष ने भी अपने साथ तमाम सक्षम लोगों को जोड़कर,स्वीकार करके बेहतर समझ का मुजाहिरा किया।
जब सुनील जी शामिल हुये तो उन्होंने सबसे पहला सवाल किया- “हैं ये क्या? यहाँ तो कोई महिला संपादक है ही नहीं!” हम बोले अब क्या करें? यह भी जरूरी होता है यह तो पता ही नहीं है।
फिर खोज शुरू हुई महिला संपादक की। महिला संपादक की जरूरत इसलिये भी थी कि हम गणों की उदंडता को नियंत्रित रखने के लिये कोई रिंगमास्टर टाइप आइटम चाहिये। रिंगमास्टर ऐसा चाहिये कि जो महिला हो, समझदार हो तथा निरंतर के प्रकाशन में सहयोग कर सके। समझदारी पर बिना कुछ कहे यही बताना जरूरी है कि प्रत्यक्षा हमारे संपादकीय दल में दल में जुड़ गयीं। प्रत्यक्षा के शामिल होने का फायदा हुआ कि कविता,कहानी चयन का बोझ हमारे हिस्से से कम हो गया। इलाप्रसाद की कहानी खिड़की तथा खुद प्रत्यक्षा की कहानी लालपरी इसी लिये जुड़ी क्योंकि वे हमारी टीम में आ गईं।
लालपरी कहानी शुरू तो की है प्रत्यक्षा ने लेकिन अब आगे बढ़ेगी पाठकों के इशारे पर। अपनी राय भेजिये कि आगे कहानी कैसे मुड़े!
जब देबाशीष ने निरंतर के पुनर्प्रकाशन की घोषणा की थी पाठकों ने स्वागत किया था। प्रेमलता जी ने आर्थिक सहयोग का भी आश्वासन दिया था।
देबाशीष ने निरंतर मित्र बनाने की बात कहीं थी। अभी तक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो पाई है लेकिन बिना जनजुड़ाव के कोई भी पत्रिका सफल नहीं हो सकती। लेखक,पाठक,शुभचिंतक का सक्रिय सहयोग पत्रिका की निरंतरता के लिये जरूरी हैं।
इस मामले में अभिव्यक्ति का उदाहरण हमारे सामने है। अभिव्यक्ति हर हफ्ते निकलती है। पूर्णिमाजी दो महीने पहले से लेख की मांग करना शुरू कर देती हैं। लगभग हर शहर में हिंदी में रुचि रखने वालों के वे निरंतर संपर्क में रहती हैं। हमारे प्रयास और उनके प्रयासों कोई मतभेद नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि आगे अभिव्यक्ति के अनुभवों तथा संपर्कों का लाभ निरंतर को भी मिलगा तथा समय-समय पर उचित सलाह तथा मार्गदर्शन मिलता रहेगा।
निरंतर कैसी है इसका निर्णय तो पाठक करेंगे। लेकिन हम लोगों को इसका सुकून है कि हमने सामूहिक प्रयास से इसे दोबारा शुरू किया। पिछली बार यह बंद हो गई थी लेकिन इस बार हमें लगता है कि यह निकलती रहेगी।
निरंतर के लेखों तथा अन्य स्तंभों पर अलग से लेख लिखे जायेंगे। लेकिन एड्स पर लिखे सुनील दीपक , रमणकौल ,रवि रतलामी तथा अविजित मुकुल किशोर के लेख किसी लिहाज से इन विषयों पर कहीं भी लिखे लेखों से उन्नीस नहीं हैं।
हरसूद के लेखक विजय तिवारी का साक्षात्कार हमारे देश की विकास नीति की पर सोचने को बाध्य करता है।
बेबारू तथा विकीपीडिया पर लिखे लेख अपने आपमें सम्पूर्ण हैं। इनको पढ़ने के बाद लगता है कि काश तकनीकी विषयों पर इसी भाषा तथा अंदाज में लेख लिखे जाते रहें।
देबाशीष बताना चाहते थे कि वे खाली संपादक ही नहीं हैं धांसू लेखक भी हैं। यह दिखाने के लिये लेख लिखा -हंसे न हंसे हम । लेकिन खुद छापने के बजाय पहले संपादक मंडल से पास कराया तब छापा। पुस्तक का तो पता नहीं लेकिन पुस्तक समीक्षा बढ़िया है,पठनीय है। वैसे पुस्तक के बारे में भी आश्वस्त हुआ जा सकता है। क्योंकि जो शख्स रागदरबारी तथा आधा गांव जैसी किताबें तीन महीने तक बिना पढ़े रखे रहे वो शख्स अगर किसी किताब को पूरी पढ़ ले रहा है तो किताब वास्तव में पठनीय होगी।
मस्त रहो न यार! में दो शीर्षक भी आ गये। रजनी भार्गव लिखती हैं :
कँधों पे बोझ,उनके इस हायकू से मानसी के खुलासे -”अनूप दादा अपनी कवितायें रजनी भाभी से लिखवाते हैं” को सच मानने का मन करता है।
ज़िन्दगी ये संघर्ष,
मुस्कराओ न.
प्रतीक पाण्डेय अपने शीर्षक में लगता है कि हमारे मन की बात कह रहे हैं:-
पूछिये फुरसतिया से के जवाब हमेशा की तरह हड़बड़ी में लिखे गये। सवाल के जवाब में कुछ सवाल आये तथा टिप्पणी में कुछ जवाब भी आ गये। स्वामी का कहना है कि अंतिम जवाब ‘हिलेरियस’ था वहीं प्रत्यक्षा का विचार था कि जवाब कुछ लंबे हो गये हैं इससे जवाबों की ‘विट’ कुछ छिप सी गई है। कुछ लोगों ने कुछ व्यक्तिगत सवाल पूछे थे। निरंतर में व्यक्तिगत सवाल शामिल करने का हमारा विचार नहीं है लिहाजा उनको छोड़ दिया गया। लेकिन व्यक्तिगत सवाल पूछने वाले निराश न हों उनके जवाब मिलेंगे हो यहीं फुरसतिया पर कभी।
कोई चिट्ठा पढ़े, न पढ़े
टिप्पणियों की संख्या बढ़े, न बढ़े
लेकिन लिखते रहो बार-बार
मस्त रहो न यार।
बंद हुई थी तो क्या हुआ
पाठकों ने पहले इसे कम छुआ
लेकिन ख़ूब चलेगी इस बार
मस्त रहो न यार।
वैसे मेरा विचार यह भी था कि नियमित रूप से ऐसे सवालों के जवाब अपने ब्लाग में दिया करूं। लेकिन प्रत्यक्षा जी ने अपना मत दिया कि इससे निरंतर की ‘यूनीकनेस’प्रभावित होगी। लिहाजा हमने अपना ‘यूनीक’ इरादा तत्क्षण त्याग दिया। हम अपनी पत्रिका की ‘यूनीकनेस’ प्रभावित करने वाला कोई काम नहीं करेंगे।
निधि तथा आशीष का परिचय लिखना मेरे लिये चुनौती का काम था। आशीष से तो मैं पहले से ही परिचित तथा प्रभावित था। उनके परिचय में मुझे कुछ खास मेहनत नहीं करनी पड़ी। लेकिन निधि का परिचय लिखने में बहुत सोचना पड़ा तथा दो बार लोगों ने इसे खारिज कर दिया।
यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि निधि तथा आशीष दोनों का लेखन तथा व्यवहार से मैं बहुत प्रभावित हूँ। दोनों के लेखन में ईमानदारी है,बिंदासपन है । अब व्यवहार के स्तर पर ये लोग चाहे जितना लापरवाह होने का मुजाहिरा करते रहें लेकिन मुझे लगता है कि इनमें बेहद जिम्मेदारी ,समझदारी तथा लगाव का एहसास है। दोनों, आशीष तथा निधि ,बेचारे संस्कार के मारे हैं जो किसी भी तरह से उसको चोट पहुँचाने की कल्पना भी नहीं कर पाते जिनसे ये जुड़ाव महसूस करते हैं।
मुझे आशा है कि लेखन में निधि की गतिविधियाँ नियमित रहेंगी तथा आशीष हिंदी की समृद्धि के लिये अपनी ‘कल्लो बेगम’ से नाता बनाये रखेंगे।
इंटरनेट पर हिंदी के बढ़ावे में निरंतर का योगदान तो समय तय करेगा। उसके बारे में हम अभी सोचते भी नहीं। लेकिन यह मन जरूर है कि हम इसको जारी रख सकें। तथा मन में यह चोर-कामना भी है कि जब कभी नेट पर हिंदी की भव्य इमारत खड़ी हो तो उसकी नींव में कम से कम एक ईंट निरंतर की जरूर हो।
मन में यह चोर-कामना भी है कि जब कभी नेट पर हिंदी की भव्य इमारत खड़ी हो तो उसकी नींव में कम से कम एक ईंट निरंतर की जरूर हो।
अगर आपको हमारे प्रयासों में जरा सा भी ईमानदारी लगती है तथा आप इससे
जुड़ाव महसूस करते हैं तो इस अभियान में आप भी हमारे साथ शामिल हो सकते
हैं। जिस रूप में भी सहयोग कर सकते हों करें। फिलहाल तो हमारा यही अनुरोध है कि आप कृपया निरंतर पढ़ें। तथा अपनी राय बतायें। राय का मतलब तारीफ ही नहीं है। आप आलोचना करें,सुझाव दें,शिकायत करें,उलाहना दें ।कुछ भी करें लेकिन प्रतिक्रिया अवश्य दें । आपका यही योगदान हमारे लिये अमूल्य होगा। बकौल अंसार कंबरी:-
पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढ़ो,तो आइये पढ़ते हैं निरंतर ,नये रूप में ,नये कलेवर में। आप अपना मौन और संकोच तोड़िये तथा अपनी राय से हमें अवगत कराइये। आपकी राय हमारे आगे के रास्ते की दिशा तथा दशा तय करेगी।
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो।
क्या नहीं कर सकूंगा तुम्हारे लिये,
शर्त ये है कि तुम कुछ कहो तो सही!
पुनश्च:-1. अभी-अभी हमारे पास फोन आया कुवैत से श्रीमती जीतेंद्र चौधरी का। बोली, ‘भाई साहब हमारे ये सबेरे से उदास हैं ।पता नहीं क्या हुआ?’ हम समझ गये कि जीतेंद्र का नाम रह गया। इसी से उदासी का नाटक कर रहे हैं। इस बौड़म को हम अभी तक यह समझा नहीं पाये कि लेख,लेख होता है कोई कालपात्र नहीं कि दुबारा नाम न डाला जा सके।काश जीतेंदर में भी पंकज और दूसरे लोगों की तरह समझदारी होती।
बहरहाल,ये सूचित किया जाता है कि जीतू इस अंक के प्रकाशन की तैयारी के दौरान भारत में थे तथा परिचर्चा ,नारद में कुछ ज्यादा ही व्यस्त थे इसलिये शीर्षक प्रतियोगिता के फोटो देने तथा सवालों के अलावा कोई खास योदगान नहीं कर पाये( लोग कहते हैं इसीलिये अंक बढ़िया निकल गया) ।आगे के लिये वे अपने पूरे ताम-झाम (मय ही,ही,ही) के साथ मौजूद होंगे। अतुल भी कुछ पारिवारिक कारणों से उतना सक्रिय नहीं रह पाये जितना आगे वो रहेंगे तथा उनके लेखकीय जौहर देखने को मिलेंगे।
2.निरंतर के इस अंक के लिये कवितायें ज्यादा नहीं मिल पाईं। केवल रत्नाजी की कविता मिली जिसे कि देबाशीष अब पोस्ट कर पाये हैं। हमारा भारत कैसा हो के जवाब में यह सबसे पहले मिलने वाली प्रतिक्रिया थी। आशा है आगे के अंकों में कविताओं का अकाल नहीं होगा।
Posted in बस यूं ही, सूचना | 10 Responses
रिंगमास्टर से सर्कस का रिंगमास्टर ध्यान आया । तब से हम चाबुक खोज रहे हैं
चलो अच्छा किया बता दिया, नही तो हम इसी उदासी मे दिन काट लेते।
वैसे बहुत अच्छा एडवर्टाइजिया लेख लिखे हो। हमे भी ठेका मिला है एडवर्टाइजिया लेख लिखने का, लो झेलो | देखो बातों बातों में हमने तुमको पैसा कमाने का गुर दे दिया। पहली कमाई का हिस्सा देना मत भूलना।
सही कहा आपने. एड्स के विज्ञापन का लगभग सारा माल उन्होंने नए सिरे से , बहुत बढ़िया लिखा है.
हमेशा की तरह ही यह लेख भी बहुत बढियां रहा, आपको बहुत बधाई.
शुभकामनाओं सहित,
समीर लाल
शुभकामनाएं