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उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए
By फ़ुरसतिया on July 1, 2009
आज कुछ पसंदीदा रचनायें पेश हैं। संयोग यह है कि आज इन कविताओं
के रचयिताओं का जन्मदिन है। नन्दनजी अपनी स्वास्थ्य संबंधी तमाम जटिलताओं
के बावजूद सृजनरत हैं । प्रियंकर जी को हमें पिछले कई महीनों मिस करने का ही सौभाग्य
मिला है। आज हालांकि उन्होंने रचनात्मक होने का वायदा किया है। इस वायदे
को अमल में न आने तक मैं इसे उनका रचनात्मक झांसा ही मान रहा हूं लेकिन
आशावादी भी हूं।
नन्दनजी और प्रियंकरजी को जन्मदिन की मंगलकामनायें।
सृजन का दर्द
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है
अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.
अहसास का घर
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।
मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।
जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।
जिंदगी चाहिए मुझको मानी* भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।
जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर** चाहिए।
*- सार्थक
**-नम आँख
कन्हैयालाल नन्दन
संबंधित कड़ियां:
१.कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा
२. कन्हैयालाल नंदन की कवितायें
३. बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
पृथ्वी मांग लेगी
अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी
किसी भी गलती को सुधारने का
क्रोध में कांपती हुई कह देगी
जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई
यह भारत के भुज बनने का समय होगा
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब नदी लागू कर देगी नया विधान
कि अबसे सभ्यताएं
अनुज्ञापत्र के पश्चात ही विकसित हो सकेंगी
अधिकृत सभ्यता-नियोजक ही
मंजूर करेंगे बसावट और
वैचारिक बुनावट के मानचित्र
यह नवप्रवर्तन की नसबंदी का दिन होगा
भारत और पाकिस्तान के बीच
विवाद का नया विषय होगा
सहस्राब्दियों से बाकी
सिंधु सभ्यता के नगरों को आपूर्त
जल के शुल्क का भुगतान
मुद्रा कोष के संपेरों की बीन पर
फन हिलाएंगी खस्ताहाल बहरी सरकारें
राष्ट्रीय गीतों की धुन तैयार करेंगे
विश्व बैंक के पेशेवर संगीतकार
आर्थिक कीर्तन के कोलाहल की पृष्ठभूमि में
यह बंदरबांट के नियम का अंतरराष्ट्रीयकरण होगा
शास्त्र हर हाल में
आशा की कविता के पक्ष में है
सत्ता और संपादक को सलामी के पश्चात
कवि को सुहाता है करुणा का धंधा
विज्ञापन युग में कविता और ‘कॉपीराइटिंग’ की
गहन अंतर्क्रिया के पश्चात
जन्म लेगी ‘विज्ञ कविता’
यह नई विधा के जन्म पर सोहर गाने का दिन होगा
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब जुड़वां भाई
भूल जाएगा मेरा जन्म दिन
यह विश्वग्राम की
नव-नागरिक-निर्माण-परियोजना का अंतिम चरण होगा ।
तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो
भले किसी और की हो जाएं
ये गहरी काली आंखें
वे सितारे मेरी स्मृति के अलाव में
रह-रह कर चमकते रहेंगे जो
उस छोटी-सी मुलाकात में
चमके थे तुम्हारी आंखों में
भटकाव के बीहड़ वन में
वे ही होंगे पथ-संकेतक
गहन अंधियारे में
दिशासूचक ध्रुवतारा
तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो
अभौतिक अक्षांसों के
अलौकिक फेरे
संभव नहीं हैं तुम्हारे बिना
जीवन लालसा के तट पर
हांफ़ते रहने का नाम नहीं
किंतु अब निर्वाण भी
प्राथमिकता में नहीं है
मोक्ष के बदले
रहना चाहता हूं
तुम्हारी स्मृति के अक्षयवट में
पर्णहरित की तरह
स्नेह की वह सुनहरी लौ
नहीं चाहता – नहीं चाहता
वह बेहिसाब उजाला
अब तुम्हें पाने की
कोई आकांक्षा शेष नहीं
जगत-जीवन के
कार्य-व्यापार में
प्रेम का तुलनपत्र
अब कौन देखे !
अपने अधूरे प्रेम के
जलयान में शांत मन
चला जाना चाहता हूं
विश्वास के उस अपूर्व द्वीप की ओर
जहां मेरी और तुम्हारी कामनाओं
के जीवाश्म विश्राम कर रहे हैं ।
प्रियंकर
संबंधित कड़ियां:
१. प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात
२. किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकालीन सृजन
नन्दनजी और प्रियंकरजी को जन्मदिन की मंगलकामनायें।
सृजन का दर्द
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है
अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.
अहसास का घर
हर सुबह को कोई दोपहर चाहिए,
मैं परिंदा हूं उड़ने को पर चाहिए।
मैंने मांगी दुआएँ, दुआएँ मिलीं
उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए।
जिसमें रहकर सुकूं से गुजारा करूँ
मुझको अहसास का ऐसा घर चाहिए।
जिंदगी चाहिए मुझको मानी* भरी,
चाहे कितनी भी हो मुख्तसर, चाहिए।
लाख उसको अमल में न लाऊँ कभी,
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।
जब मुसीबत पड़े और भारी पड़े,
तो कहीं एक तो चश्मेतर** चाहिए।
*- सार्थक
**-नम आँख
कन्हैयालाल नन्दन
संबंधित कड़ियां:
१.कन्हैयालाल नंदन- मेरे बंबई वाले मामा
२. कन्हैयालाल नंदन की कवितायें
३. बुझाने के लिये पागल हवायें रोज़ आती हैं
सबसे बुरा दिन
सबसे बुरा दिन वह होगाजब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
पृथ्वी मांग लेगी
अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी
किसी भी गलती को सुधारने का
क्रोध में कांपती हुई कह देगी
जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई
यह भारत के भुज बनने का समय होगा
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब नदी लागू कर देगी नया विधान
कि अबसे सभ्यताएं
अनुज्ञापत्र के पश्चात ही विकसित हो सकेंगी
अधिकृत सभ्यता-नियोजक ही
मंजूर करेंगे बसावट और
वैचारिक बुनावट के मानचित्र
यह नवप्रवर्तन की नसबंदी का दिन होगा
भारत और पाकिस्तान के बीच
विवाद का नया विषय होगा
सहस्राब्दियों से बाकी
सिंधु सभ्यता के नगरों को आपूर्त
जल के शुल्क का भुगतान
मुद्रा कोष के संपेरों की बीन पर
फन हिलाएंगी खस्ताहाल बहरी सरकारें
राष्ट्रीय गीतों की धुन तैयार करेंगे
विश्व बैंक के पेशेवर संगीतकार
आर्थिक कीर्तन के कोलाहल की पृष्ठभूमि में
यह बंदरबांट के नियम का अंतरराष्ट्रीयकरण होगा
शास्त्र हर हाल में
आशा की कविता के पक्ष में है
सत्ता और संपादक को सलामी के पश्चात
कवि को सुहाता है करुणा का धंधा
विज्ञापन युग में कविता और ‘कॉपीराइटिंग’ की
गहन अंतर्क्रिया के पश्चात
जन्म लेगी ‘विज्ञ कविता’
यह नई विधा के जन्म पर सोहर गाने का दिन होगा
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब जुड़वां भाई
भूल जाएगा मेरा जन्म दिन
यह विश्वग्राम की
नव-नागरिक-निर्माण-परियोजना का अंतिम चरण होगा ।
तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो
भले किसी और की हो जाएं
ये गहरी काली आंखें
वे सितारे मेरी स्मृति के अलाव में
रह-रह कर चमकते रहेंगे जो
उस छोटी-सी मुलाकात में
चमके थे तुम्हारी आंखों में
भटकाव के बीहड़ वन में
वे ही होंगे पथ-संकेतक
गहन अंधियारे में
दिशासूचक ध्रुवतारा
तुम मेरे मन का कुतुबनुमा हो
अभौतिक अक्षांसों के
अलौकिक फेरे
संभव नहीं हैं तुम्हारे बिना
जीवन लालसा के तट पर
हांफ़ते रहने का नाम नहीं
किंतु अब निर्वाण भी
प्राथमिकता में नहीं है
मोक्ष के बदले
रहना चाहता हूं
तुम्हारी स्मृति के अक्षयवट में
पर्णहरित की तरह
स्नेह की वह सुनहरी लौ
नहीं चाहता – नहीं चाहता
वह बेहिसाब उजाला
अब तुम्हें पाने की
कोई आकांक्षा शेष नहीं
जगत-जीवन के
कार्य-व्यापार में
प्रेम का तुलनपत्र
अब कौन देखे !
अपने अधूरे प्रेम के
जलयान में शांत मन
चला जाना चाहता हूं
विश्वास के उस अपूर्व द्वीप की ओर
जहां मेरी और तुम्हारी कामनाओं
के जीवाश्म विश्राम कर रहे हैं ।
प्रियंकर
१. प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात
२. किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकालीन सृजन
शास्त्रों में भी कहा गया है ” जब दर्द नहीं था सीने में , तब खाक मज़ा था जीने में ”
दोनों महानुभावों को जन्मदिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं !इसी के साथ आप लोगों का कीमती समय ज्यादा न लेते हुए मैं अपनी बात को यहीं विराम देता हूँ . धन्यवाद .
जय हिन्द !
और बिना दिये कर
जी हां जी हां सर
बिल देगा यदि सूरज भेज
तो नदियां भी देंगी अपना प्रिंटर खोल
और हवा क्यों रहेगी पीछे
वो भी पीटेगी ढोल
बेतोले ही भेजेगी बिल अनमोल
प्राकृतिक नियामतें भेजेंगी गर बिल
तो कहां छिपेगा इंसान
नहीं मिलेगा कहीं ऐसा बिल।
वो तो प्रकृति का ही है दिल
जो नहीं भेजतीं, न भेजेंगी बिल
वो तो इंसान ही भेजेगा और
भेजता है सदा
लेकर नाम प्रकृति का
खुद लेता है भरपूर मजा
और सब भुगतते हैं सजा।
पर इसमें भी रखनी पड़ती है सबको रजा
यदा कदा नहीं, सदा सर्वदा।
रामराम.
@अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.
निकानोर पार्रा की एक कविता की प्रतिक्रिया में मैंने सृजन को कुछ इस तरह महसूस किया था-
बस कोरे कागज को बेहतर बना देना है?
यह शर्त छोटी नहीं।
काफ़ी कुछ मांगती है कविता;
अपने जन्म से पहले
इसका अंकुर फूटता है
हृदय की तलहटी में,
जब अंदर की जोरदार हलचल
संवेगों का सहारा पाकर धर लेती है रूप
एक भूकंप का;
जो हिला देता है गहरी नींव को,
गिरा देता है दीवारें,
विदीर्ण कर देता है अन्तर्मन के स्रान्त कलश,
बिंध जाता है मर्मस्थल,
तन जाती हैं शिरायें,
फड़कती हैं धमनियाँ
जब कुछ आने को होता है।
यह सिर्फ़ बुद्धि-कौशल नहीं;
आत्मा को पिरोकर
मन के संवेगो से
इसे सिंचित करना पड़ता है।
देनी पड़ती है प्राणवायु
पूरी ईमानदारी से,
ख़ुदा को हाज़िर नाजिर जानकर,
अपने पर भरोसा कायम रखते हुए;
भोगे हुए संवेगों को
जब अंदर की ऊष्मा से तपाकर
बाहर मुखरित किया जाता है,
तो कविता जन्म लेती है।
माँ बच्चे को जन्म देकर,
जब अपनी आँखों से देख लेती है
उसका मासूम मुस्कराता चेहरा,
तो मिट जाती है उसकी सारी थकान,
पूरी हो जाती है उसकी तपस्या
खिल जाता है उसका मन।
लेकिन प्रसव-वेदना का अपना एक काल-खण्ड है
जो अपरिहार्य है।
कविता पूरी हो जाने के बाद, वह
मंत्रमुग्ध सा अपलक देखता रहता है
उस कोरे काग़ज को,
जिसे अभी-अभी बेहतर बना दिया है
उसके भीतर उठने वाले ज्वार ने;
जो छोड़ गया है
कुछ रत्न और मोती
इस काग़ज के तट पर।
या, उसने गहराई में डूबकर
निकाले हैं मोती।
किन्तु जो वेदना उसने सही है
उसका भी एक काल-खण्ड है।
फिर कैसे कहें,
कविता में हर बात की इज़ाजत है?
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.
बेहद खूबसूरत! कमाल की पंक्तियाँ .
और आपकी Flickr गैलरी का भी जवाब नहीं!
सत्य वचन!
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
ओर ये जैसे आने वाले समय को इशारा ………..
पृथ्वी मांग लेगी
अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी
किसी भी गलती को सुधारने का
ये पंक्तिया ….जैसे मानवीय संवेदनाओं ओर भागती दौड़ती जिंदगी पे सवाल उठाती है…
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब जुड़वां भाई
भूल जाएगा मेरा जन्म दिन
नंदन जी तो खैर आपके प्रिय कवि रहे ही है….
वैसे अमेरिका से लेंडिंग कब हुई ?
शानोशौकत का सामाँ मगर चाहिए।
bahut achchhe….!
जगत-जीवन के
कार्य-व्यापार में
प्रेम का तुलनपत्र
अब कौन देखे !
अपने अधूरे प्रेम के
जलयान में शांत मन
चला जाना चाहता हूं
विश्वास के उस अपूर्व द्वीप की ओर
जहां मेरी और तुम्हारी कामनाओं
के जीवाश्म विश्राम कर रहे हैं ।
bahut khoob…! aap ki pasanda hamesha achchhi hoti hai..!
aisi rachanaeN likhne vale dono kavi shatjivi hoN
इतनी अच्छी रचनाओं की प्रस्तुति के लिए धन्यवाद!
यह वह लोग है जो एक ही बार आते है इस दुनिया में ,और छा जाते है
- लावण्या
कृतज्ञ हूं मैं
जैसे आसमान की कृतज्ञ है पृथ्वी
जैसे पृथ्वी का कृतज्ञ है किसान
कृतज्ञ हूं मैं
जैसे सागर का कृतज्ञ है बादल
जैसे नए जीवन के लिए
बादल का आभारी है नन्हा बिरवा
कृतज्ञ हूं मैं
जिस तरह कृतज्ञ होता है अपने में डूबा ध्रुपदिया
सात सुरों के प्रति
जैसे सात सुर कृतज्ञ हैं
सात हज़ार वर्षों की सुदीर्घ काल-यात्रा के
कृतज्ञ हूं मैं
जिस तरह सभ्यताएं कृतज्ञ हैं नदी के प्रति
जैसे मनुष्य कृतज्ञ है अपनी उस रचना के प्रति
जिसे उसने ईश्वर नाम दिया है .
***
अनेकानेक आभार !
प्रियंकर
आपका कृष्ण मोहन
पता चला कानपूर में हैं . अमेरिका से कब लौटे ? .
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सरस सुन्दर पोस्ट के लिए बहुत बहुत आभार.
सृजन में पीड़ा के अनुभूति की अनिवार्यता.. और
सृजक का आत्मपीड़न एकालाप निर्विवादित रहेगी ।
सँकलन उत्कृष्ट है, और फुरसतिया व्यक्तित्व का एक अलग पहलू उजाकर करता है ।
नँदन जी को अधिक जानने की इच्छा रहती है, पर उनकी आत्मकथा बहुत मँहगी है ।
नन्दन जी ने मेरे गज़ल संग्रह ‘चीखता है मन’( अयन प्रकाशन 1999)की भूमिका लिखी है. हुआ यूं कि मेरा पहला कविता संग्रह ‘नक़ाबों के शहर में’ 1995 में प्रकाशित हुआ ( उसकी भूमिका वरिष्ठ हिन्दी कवि केदार नाथ सिंह जी ने लिखी थी). समीक्षा के लिये नन्दन जी को एक प्रति भेजी. नन्दन जी उन दिनों दैनिक जागरण मे ‘मेरी पसन्द’ नाम से एक लघु कालम लिखते थे ( यह उनके मुख्य कालम’जरिया-नज़रिया’ में समाहित होता था) .मेरी पुस्तक ‘नक़ाबों के शहर में’ में से नन्दन जी को एक कविता पसन्द आयी ,उन्होने मेरे परिचय के साथ वह कविता अपने कालम ‘मेरी पसन्द’ में छापी. मैं उनके घर मिलने गया. साथ ही अनुरोध भी किया कि अगली पुस्तक ( गज़ल संग्रह ) की भूमिका वह लिखें. नन्दन जी राज़ी हो गये. मेरी उसी कविता ने बाद में प्रकाशित नन्दन जी की पुस्तक “..इन्द्रधनुष” ( डायमंड बुक्स द्वारा प्रकाशित)में भी स्थान पाया. जब में भविष्य निधि एंक्लेव,मालविय नगर में रहता था,तो नन्दन जी एक बार वहां भी पधारे.
आपकी पोस्ट में नन्दन जी का ज़िक्र पढ्कर मुझे कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं. पिछले वर्ष एक कविता समारोह में नन्दन जी के साथ एक मंच से पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.मैं धन्य हो गया.
मैं आपके ब्लोग की पुरानी पोस्ट ढूंढ ढूंढ कर पढ़ रहा हूं विशेषकर कानपुर से सम्बन्धित.