http://web.archive.org/web/20140419220103/http://hindini.com/fursatiya/archives/1848
पिछले दिनों समीरलाल की किताब ’देख लूँ तो चलूँ’ प्रकाशित हुई!
ज्ञानरंजन जी ने उसका विमोचन किया। कई लोगों ने समीक्षायें लिखीं और इस
उपन्यासिका के बारे में अपनी राय लिखी। उपन्यासिका के बारे में ज्ञानरंजन
जी ने अपने विचार व्यक्त करते हुये कहा था
समीरलाल की ब्लॉगिंग की शुरुआत कविताओं से हुई। इसके बाद गद्य लेखन की तरफ़ आये। हालांकि समीरलाल को कवितायें लिखना शायद ज्यादा पसंद है और वे जब तब कविता लिख मारते हैं। लेकिन मुझे कविताओं के मुकाबले उनके लेख ज्यादा अच्छे लगते हैं। उनके तमाम लेखों का सहज हास्य बोध बहुत अच्छा है। कुछ हल्की-फ़ुल्की कविताओं और मुंडलिया के अलावा मुझे उनकी कवितायें ज्यादातर कम मजेदार लगी। ऐसा शायद इसलिये भी हो कि उनकी ज्यादातर कविताओं में अपार दुख, अथाह पीड़ा , दर्शन और आध्यात्म बहुत ज्यादा लगता है मुझे। अपार दुख, अकेलापन, पीड़ा, प्रवासी विरह, बुजुर्गों के प्रति संवेदना समीरलाल की कविताओं की कविताओं की कोर कम्पीटेंसी है। उनकी कुछ कविताओं आध्यात्म और दर्शन की ऊंचाई देखकर तो जी दहल जाता है। संभव है उनकी कवितायें कम पसंद करने के पीछे शायद मेरी अपनी कविता की कच्ची समझ भी कारण रही हो। शायद यही कारण रहा हो कि उनकी जिस कविता पंक्ति मेरी मां लुटेरी थी को लोगों ने सबसे बेहतर और लाजबाब माना मेरी समझ में वह उस कविता की सबसे कमजोर पंक्ति थी। इस बारे में मैंने उस समय समीरलाल विस्तार से लिखा भी था।
समीरलाल अक्सर गम्भीर लेखन करते हैं लेकिन मेरी समझ में उनके हास्य व्यंग्य ज्यादा सहज और ज्यादा पठनीय हैं। उनकी इसी क्षमता के चलते मैंने उन पर लिखे एक लेख हास्य व्यंग्य के किंग: समीर लाल में लिखा था:
ब्लागपोस्टों विषय आसपास की छोटी मोटी रोजमर्रा की बातें हैं। उनसे शुरू करके फ़िर हल्के-फ़ुल्के अंदाज में रुचिकर तरीके से पाठक को पूरी पोस्ट पढ़वा ले जाना समीरलाल के लेखन की खास बात है। ये अत्याचारी लड़कियां ले ये अंश देखिये:
हालांकि यह लेखक का अपना अधिकार है कि वह अपनी रचनाओं को अपने पाठकों के सामने किस तरह पेश करता है लेकिन चूंकि मैंने सारी पोस्टें भी पढ़ी हैं और यह उपन्यासिका भी तो मुझे यह लगता है कि इन पोस्टों को उपन्यासिका के रूप में पेश करने से पोस्टों की सुन्दरता कम हुई है। लगभग सभी पोस्टें अपने में पूरी थीं और एक दूसरे से मुक्त लेकिन शायद कथाकार (लघु कथा संग्रह- मोहे बेटवा न कीजो), कवि (काव्य संग्रह- बिखरे मोती)के बाद ब्लागर समीरलाल अपने नाम के साथ उपन्यासकार भी जोड़ना चाहते होंगे इसलिये इन पोस्टों को मिलाकर एक उपन्यासिका लिख डाली।
यह भी शायद संयोग ही होगा कि पुस्तक में लेखक या किसी परिचय लेखक ने यह संकेत नहीं किया कि यह उपन्यासिका समीरलाल की चार साल के समयान्तराल में लिखी गयी उनकी ब्लागपोस्टों में कुछ का संकलन है।
उपन्यासिका में शामिल लेख अलग-अलग समय में लिखे गये। लेख एक सिलसिले में नहीं लिखे गये। न जब शुरुआत हुई होगी तो उपन्यासिका जैसा कुछ लिखने की बात मन में रही होगी ( सिवाय इसके कि इनको भी कभी छपवाया जायेगा)। 2006 का लेख 2008 के लेख के बाद है। मई का लेख जुलाई के लेख के पीछे खड़ा है। इससे साफ़ पता चलता है कि लेखों की असेम्बली का काम सितम्बर 2010 के आसपास कभी शुरु हुआ ( जब समीरलाल ने इस उपन्यासिका का ट्रेलर दिखाया)
उपन्यासिका में हालांकि ज्यादातर पोस्टें पूरी की पूरी ली गयीं हैं। शुरु या अंत की एकाध लाइनें जोड़ी – घटाई गयीं हैं। एकाध जगह ऐसा भी हुआ है कि उपन्यासिका से मेल न होने के चलते पोस्ट का वह अंश छांट दिया गया जो शायद पोस्ट का सबसे संवेदनशील अंश था और जिस पर पाठकों की बेहद आत्मीय प्रतिक्रियायें आयीं थीं। ऐसी ही एक पोस्ट थी- आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!! इस पोस्ट के जिस अंश में पापा का बेहद आत्मीय जिक्र है। पाठकों की बेहद संवेदनशील प्रतिक्रियाये हैं। उन प्रतिक्रियाओं को पढ़कर लेखक की आंख में आंसू तक आ गये। लेकिन इस पर उपन्यासिका के खांचे में फ़िट न हो पाने के चलते इसको उसमें शामिल नही किया जा सका।
इसको देखकर परसाई जी का लिखा वाक्य याद आ गया- वृक्षारोपण कार्यक्रम के लिये हरे पेड़ काट दिये गये।
मेरी समझ में पेज 19-22 पर लंबी कविता शामिल करने के मोह से बचकर इस तरह के अंश शामिल करने में थोड़ी मेहनत करनी चाहिये थी समीरलाल को।
ब्लॉगपोस्टों को उपन्यासिका के रूप में प्रकाशित करने के मोह में बेहतरीन पोस्टों का प्रभाव कम हुआ है। पोस्टें अपने आप में मुकम्मल थीं। उनको उसी रूप में छपवाते शायद तो बेहतर रहता। ब्लागिंग विधा में सिद्धार्थ त्रिपाठी की किताब के बाद एक और बेहतर किताब ब्लागपोस्टों की आती। शायद उनकी ब्लॉगपोस्टों पर छपी किताब पढ़कर लोग ब्लागजगत के बारे में अच्छी राय बनाते क्योंकि लगभग सभी लेख अच्छे लेख हैं। लेकिन अगर ऐसा होता तो फ़िर यह एक नया प्रयोग कैसे कहलाता? फ़िर लेखक मात्र ब्लागर बना रहता उपन्यासकार नहीं कहलाता।
ज्ञानरंजन जी ने केवल किताब पढ़ी है। अगर उन्होंने पोस्टें भी पढ़ी होती तो शायद वे कभी यह सलाह न देते कि इनको इधर-उधर कट-पेस्ट करके उपन्यासिका छपवाओ। उनकी खुद की किताब कबाड़खाना उनके बेहतरीन लेख, वक्तव्य, संस्मरण और पत्र का शानदार संकलन है। ऐसी ही एक किताब श्रीलाल शुक्ल जी की थी -यह घर मेरा नहीं है। उसमें कहानी, लेख, संस्मरण, रिपोर्ताज सब थे। उस रूप में छपती किताब तो शायद कुछ और अच्छे लेख और कवितायें भी शामिल भी कर सकते थे समीरलाल।
किताब में आदि से अंत तक ब्लागरों का योगदान है। किताब लिखी ब्लागर समीरलाल ने, आवरण डिजाइन किया ब्लागर विजेन्द्र एस विज ने, भूमिका लिखी ब्लागर राकेश खंडेलवाल और पंकज सुबीर ने, संपादन किया ब्लागर श्रीमती रचना बजाज और श्रीमती अर्चना चाव जी ने। छापने का काम करने वाले भी ब्लागर हैं। पाठक और समीक्षक भी ज्यादातर ब्लागर हैं। इस तरह से इस अद्भुत किताब के लिये कहा जा सकता है- उपन्यासिका आफ़ द ब्लागर, बाई द ब्लागर एंड फ़ार द ब्लागर। - सच्चे अर्थों में एक लोकतांत्रिक उपन्यासिका।
किताब की छपाई सुन्दर, रुचिकर और त्रुटिविहीन है। कवर पेज खूबसूरत है। वजन में हल्की इस किताब के कुल 87 पेज एक बैठकी में पढ़े जा सकते हैं। हमको तो खैर मुफ़्त में सादर और सप्रेम भेंट मिली किताब लेकिन जिन लोगों को खरीद कर पढ़नी भी पड़े तो उनके लिये भी 100 रुपये की किताब के बहुत मंहगी नहीं कही जायेगी। इसके बाद भी जिन लोगों को किताब पढ़ने को न मिल पाये और वे किताब पढ़ने के लिये बहुत व्यग्र हों वे नीचे दी गयी लिंक पर जाकर किताब पढ़ने का नब्बे प्रतिशत मजा ले सकते हैं। किताब में लेख इसीक्रम में शामिल किये गये हैं।
पुस्तक विवरण:
नाम: देख लूं तो चलूं
लेखक: समीरलाल
लेखक संपर्क: smeerl.lal@gmail.com
प्रकाशक:शिवना प्रकाशन
पीसी लैब , सम्राट काम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैंड सीहोर -466 001
प्रकाशक संपर्क: shivna.prakashan@gmail.com
प्रकाशक फोन नं: +91- 9977855399, +91-7562-405545
कैसी चढ़ी जवानी बाबा
मस्ती भरी कहानी बाबा
भूखी रहकर डायट करती
फीगर की दीवानी बाबा
कमर घटायेगी वो कब तक
जीरो साईज़ ठानी बाबा
सिगरेटी काया को लेकर
सिगरेट खूब जलानी बाबा
डिस्को में वो थिरके झूमे
सबको नाच नचानी बाबा
सड़कों पर चलती है ऐसे
हिरणी हो मस्तानी बाबा
लड़के सारे आहें भरते
सबके दिल की रानी बाबा
गाड़ी लेकर सरसर घूमें
ईंधन है या पानी बाबा
बॉयफ्रेंड सब भाग लिये हैं
खर्चा बहुत करानी बाबा
शादी करके हुई विदा वो
छाई है मुर्दानी बाबा!!
-समीर लाल ’समीर’
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
देख लूं तो चलूं: उपन्यासिका आफ़ द ब्लागर, बाई द ब्लागर एंड फ़ार द ब्लागर
समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं. मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ. यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी. उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना.ज्ञानरंजन जी की बात पढ़कर मुझे इसको पढ़ने की उत्सुकता हुई। जब समीरलाल ने इसे हमें सादर सप्रेम भेंट किया तो हम पिछली कोलकता यात्रा के दौरान इसे अपने साथ ले गये। साथ में अभय तिवारी की किताब कलामें रूमी भी ले गये थे। किताबों का साइज और वजन दोनों ब्लागरों के साइज और वजन के व्युत्कमानुपाती था। स्लिम ट्रिम अभय की किताब स्वस्थ शरीर वाली थी और स्वस्थ शरीर वाले समीरलाल की तन्वंगी उपन्यासिका देखकर उनकी कविता जीरो साइज ठानी बाबा याद आ गयी।
समीरलाल की ब्लॉगिंग की शुरुआत कविताओं से हुई। इसके बाद गद्य लेखन की तरफ़ आये। हालांकि समीरलाल को कवितायें लिखना शायद ज्यादा पसंद है और वे जब तब कविता लिख मारते हैं। लेकिन मुझे कविताओं के मुकाबले उनके लेख ज्यादा अच्छे लगते हैं। उनके तमाम लेखों का सहज हास्य बोध बहुत अच्छा है। कुछ हल्की-फ़ुल्की कविताओं और मुंडलिया के अलावा मुझे उनकी कवितायें ज्यादातर कम मजेदार लगी। ऐसा शायद इसलिये भी हो कि उनकी ज्यादातर कविताओं में अपार दुख, अथाह पीड़ा , दर्शन और आध्यात्म बहुत ज्यादा लगता है मुझे। अपार दुख, अकेलापन, पीड़ा, प्रवासी विरह, बुजुर्गों के प्रति संवेदना समीरलाल की कविताओं की कविताओं की कोर कम्पीटेंसी है। उनकी कुछ कविताओं आध्यात्म और दर्शन की ऊंचाई देखकर तो जी दहल जाता है। संभव है उनकी कवितायें कम पसंद करने के पीछे शायद मेरी अपनी कविता की कच्ची समझ भी कारण रही हो। शायद यही कारण रहा हो कि उनकी जिस कविता पंक्ति मेरी मां लुटेरी थी को लोगों ने सबसे बेहतर और लाजबाब माना मेरी समझ में वह उस कविता की सबसे कमजोर पंक्ति थी। इस बारे में मैंने उस समय समीरलाल विस्तार से लिखा भी था।
समीरलाल अक्सर गम्भीर लेखन करते हैं लेकिन मेरी समझ में उनके हास्य व्यंग्य ज्यादा सहज और ज्यादा पठनीय हैं। उनकी इसी क्षमता के चलते मैंने उन पर लिखे एक लेख हास्य व्यंग्य के किंग: समीर लाल में लिखा था:
हलके-फुल्के अंदाज़ में गहरी बात कह जाने वाले समीरजी अपनी बात कहने के नये-नये दिलकश अंदाज़ खोजते रहते हैं। चाहे वह गीता का सार हो या कबीर के दोहे, आधुनिक परिस्थितियों से जोड़कर वे बेहतरीन लेख लिखते रहते हैं।यह किताब , जिसे समीरलाल और तमाम लोगों ने उपन्यासिका बताया है , समीरलाल की 2006 से लेकर 2010 तक की उनकी कुछ अच्छी पोस्टों का संकलन है। इन ब्लाग पोस्टों को उपन्यासिका का आकार देने में समीरलाल ने एक संचालक की भूमिका निभाई है। जैसे एक संचालक कवियों को बुला-बुलाकर कवितायें पढ़वाता जाता है और एक कवि के आने -जाने के बीच में फ़िलर के रूप में अपना भी कुछ सुनाता चलता है लेखक के तौर पर अपनी पोस्टों को पेश करने में वही भूमिका समीरलाल ने निभाई है।
ब्लागपोस्टों विषय आसपास की छोटी मोटी रोजमर्रा की बातें हैं। उनसे शुरू करके फ़िर हल्के-फ़ुल्के अंदाज में रुचिकर तरीके से पाठक को पूरी पोस्ट पढ़वा ले जाना समीरलाल के लेखन की खास बात है। ये अत्याचारी लड़कियां ले ये अंश देखिये:
लगभग यही अंदाज उनकी हास्य बोध वाली कई पोस्टों का है। खिलंदड़ा और चुहलबाज। नटखट। टिपिकल पिंटूनुमा। इसके अलावा उनके लेखों में मध्यवर्गीय समाज के दोहरेपन, प्रवासी बच्चों द्वारा के देश में रह गये मां-पिता के बच्चों से विछोह और उनकी उपेक्षा का दर्द, व्यवस्था और नेता के प्रति आक्रोश और समाज के दकियानूसी रहन-सहन पर हैं। सारी की सारी पोस्टें जब भी पोस्ट हुई थीं उनको पाठकों ने बहुत पसंद किया और बहुत आत्मीय टिप्पणियां की थीं।ईश्वर की विशिष्ट कृपा उस कन्या पर. सुन्दर काया..गोरा रंग और मानक अनुपात शरीर का. मानो ईश्वर के शो रुम का डिसप्ले आईटम हो. हर तरह से फिट और परफेक्ट एक बिस्किट, फ्रूट्स में चार अंगूर, फ्रूट ज्यूस…एक ३० मिलि की बोतल. बिस्किट उसने बारह बार में चबा चबा कर खत्म किया..खाया तो क्या, कुतरा. हमारे तो एक कौर के बराबर था. चार अंगूर खाने में कांख गई. चार अंगूर जो हम एक मुट्ठी में फांक जायें. ज्यूस इतना सा कि मानो वाईन टेस्टिंग कर रहे हों. उस पर से सब खत्म करके हल्की सी डकार भी ली…’एस्क्यूज मी’ न बोलती तो मालूम भी न पड़ता कि डकार ली, मौन की भी आवाज होती है सिद्ध करते हुए. अरे खाया ही क्या है जो डकार रही हो.
हालांकि यह लेखक का अपना अधिकार है कि वह अपनी रचनाओं को अपने पाठकों के सामने किस तरह पेश करता है लेकिन चूंकि मैंने सारी पोस्टें भी पढ़ी हैं और यह उपन्यासिका भी तो मुझे यह लगता है कि इन पोस्टों को उपन्यासिका के रूप में पेश करने से पोस्टों की सुन्दरता कम हुई है। लगभग सभी पोस्टें अपने में पूरी थीं और एक दूसरे से मुक्त लेकिन शायद कथाकार (लघु कथा संग्रह- मोहे बेटवा न कीजो), कवि (काव्य संग्रह- बिखरे मोती)के बाद ब्लागर समीरलाल अपने नाम के साथ उपन्यासकार भी जोड़ना चाहते होंगे इसलिये इन पोस्टों को मिलाकर एक उपन्यासिका लिख डाली।
यह भी शायद संयोग ही होगा कि पुस्तक में लेखक या किसी परिचय लेखक ने यह संकेत नहीं किया कि यह उपन्यासिका समीरलाल की चार साल के समयान्तराल में लिखी गयी उनकी ब्लागपोस्टों में कुछ का संकलन है।
उपन्यासिका में शामिल लेख अलग-अलग समय में लिखे गये। लेख एक सिलसिले में नहीं लिखे गये। न जब शुरुआत हुई होगी तो उपन्यासिका जैसा कुछ लिखने की बात मन में रही होगी ( सिवाय इसके कि इनको भी कभी छपवाया जायेगा)। 2006 का लेख 2008 के लेख के बाद है। मई का लेख जुलाई के लेख के पीछे खड़ा है। इससे साफ़ पता चलता है कि लेखों की असेम्बली का काम सितम्बर 2010 के आसपास कभी शुरु हुआ ( जब समीरलाल ने इस उपन्यासिका का ट्रेलर दिखाया)
उपन्यासिका में हालांकि ज्यादातर पोस्टें पूरी की पूरी ली गयीं हैं। शुरु या अंत की एकाध लाइनें जोड़ी – घटाई गयीं हैं। एकाध जगह ऐसा भी हुआ है कि उपन्यासिका से मेल न होने के चलते पोस्ट का वह अंश छांट दिया गया जो शायद पोस्ट का सबसे संवेदनशील अंश था और जिस पर पाठकों की बेहद आत्मीय प्रतिक्रियायें आयीं थीं। ऐसी ही एक पोस्ट थी- आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!! इस पोस्ट के जिस अंश में पापा का बेहद आत्मीय जिक्र है। पाठकों की बेहद संवेदनशील प्रतिक्रियाये हैं। उन प्रतिक्रियाओं को पढ़कर लेखक की आंख में आंसू तक आ गये। लेकिन इस पर उपन्यासिका के खांचे में फ़िट न हो पाने के चलते इसको उसमें शामिल नही किया जा सका।
इसको देखकर परसाई जी का लिखा वाक्य याद आ गया- वृक्षारोपण कार्यक्रम के लिये हरे पेड़ काट दिये गये।
मेरी समझ में पेज 19-22 पर लंबी कविता शामिल करने के मोह से बचकर इस तरह के अंश शामिल करने में थोड़ी मेहनत करनी चाहिये थी समीरलाल को।
ब्लॉगपोस्टों को उपन्यासिका के रूप में प्रकाशित करने के मोह में बेहतरीन पोस्टों का प्रभाव कम हुआ है। पोस्टें अपने आप में मुकम्मल थीं। उनको उसी रूप में छपवाते शायद तो बेहतर रहता। ब्लागिंग विधा में सिद्धार्थ त्रिपाठी की किताब के बाद एक और बेहतर किताब ब्लागपोस्टों की आती। शायद उनकी ब्लॉगपोस्टों पर छपी किताब पढ़कर लोग ब्लागजगत के बारे में अच्छी राय बनाते क्योंकि लगभग सभी लेख अच्छे लेख हैं। लेकिन अगर ऐसा होता तो फ़िर यह एक नया प्रयोग कैसे कहलाता? फ़िर लेखक मात्र ब्लागर बना रहता उपन्यासकार नहीं कहलाता।
ज्ञानरंजन जी ने केवल किताब पढ़ी है। अगर उन्होंने पोस्टें भी पढ़ी होती तो शायद वे कभी यह सलाह न देते कि इनको इधर-उधर कट-पेस्ट करके उपन्यासिका छपवाओ। उनकी खुद की किताब कबाड़खाना उनके बेहतरीन लेख, वक्तव्य, संस्मरण और पत्र का शानदार संकलन है। ऐसी ही एक किताब श्रीलाल शुक्ल जी की थी -यह घर मेरा नहीं है। उसमें कहानी, लेख, संस्मरण, रिपोर्ताज सब थे। उस रूप में छपती किताब तो शायद कुछ और अच्छे लेख और कवितायें भी शामिल भी कर सकते थे समीरलाल।
किताब में आदि से अंत तक ब्लागरों का योगदान है। किताब लिखी ब्लागर समीरलाल ने, आवरण डिजाइन किया ब्लागर विजेन्द्र एस विज ने, भूमिका लिखी ब्लागर राकेश खंडेलवाल और पंकज सुबीर ने, संपादन किया ब्लागर श्रीमती रचना बजाज और श्रीमती अर्चना चाव जी ने। छापने का काम करने वाले भी ब्लागर हैं। पाठक और समीक्षक भी ज्यादातर ब्लागर हैं। इस तरह से इस अद्भुत किताब के लिये कहा जा सकता है- उपन्यासिका आफ़ द ब्लागर, बाई द ब्लागर एंड फ़ार द ब्लागर। - सच्चे अर्थों में एक लोकतांत्रिक उपन्यासिका।
किताब की छपाई सुन्दर, रुचिकर और त्रुटिविहीन है। कवर पेज खूबसूरत है। वजन में हल्की इस किताब के कुल 87 पेज एक बैठकी में पढ़े जा सकते हैं। हमको तो खैर मुफ़्त में सादर और सप्रेम भेंट मिली किताब लेकिन जिन लोगों को खरीद कर पढ़नी भी पड़े तो उनके लिये भी 100 रुपये की किताब के बहुत मंहगी नहीं कही जायेगी। इसके बाद भी जिन लोगों को किताब पढ़ने को न मिल पाये और वे किताब पढ़ने के लिये बहुत व्यग्र हों वे नीचे दी गयी लिंक पर जाकर किताब पढ़ने का नब्बे प्रतिशत मजा ले सकते हैं। किताब में लेख इसीक्रम में शामिल किये गये हैं।
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- और फिर रात गुजर गई:अगस्त 09, 2007
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- मैं ही थोड़ा सा सिमट जाऊँ:जुलाई 13, 2007
- कुत्ते- कैसे कैसे?:अगस्त 12, 2010
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पुस्तक विवरण:
नाम: देख लूं तो चलूं
लेखक: समीरलाल
लेखक संपर्क: smeerl.lal@gmail.com
प्रकाशक:शिवना प्रकाशन
पीसी लैब , सम्राट काम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैंड सीहोर -466 001
प्रकाशक संपर्क: shivna.prakashan@gmail.com
प्रकाशक फोन नं: +91- 9977855399, +91-7562-405545
मेरी पसंद
मस्ती भरी कहानी बाबा
भूखी रहकर डायट करती
फीगर की दीवानी बाबा
कमर घटायेगी वो कब तक
जीरो साईज़ ठानी बाबा
सिगरेटी काया को लेकर
सिगरेट खूब जलानी बाबा
डिस्को में वो थिरके झूमे
सबको नाच नचानी बाबा
सड़कों पर चलती है ऐसे
हिरणी हो मस्तानी बाबा
लड़के सारे आहें भरते
सबके दिल की रानी बाबा
गाड़ी लेकर सरसर घूमें
ईंधन है या पानी बाबा
बॉयफ्रेंड सब भाग लिये हैं
खर्चा बहुत करानी बाबा
शादी करके हुई विदा वो
छाई है मुर्दानी बाबा!!
-समीर लाल ’समीर’
Posted in बस यूं ही, मेरी पसंद | 96 Responses
फ़ुरसतिया
96 responses to “देख लूं तो चलूं: उपन्यासिका आफ़ द ब्लागर, बाई द ब्लागर एंड फ़ार द ब्लागर”
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किताब (हमारी) न पढ़ी होने पर भी आनंददायक-रचनात्मक समीक्षा.
राहुल सिंह की हालिया प्रविष्टी..कुनकुरी गिरजाघर
अब फ़ुर्सत निकालकर सभी को पढ़ते हैं… (यानी ये कमाए नब्बे रुपये्… ९०% की बचत भी बुरी नहीं है…
@ समीर जी :- आपने अनूप जी से समीक्षा करवाई, अब ९०% घाटा झेलिये…
Suresh Chiplunkar की हालिया प्रविष्टी..इस्लामिक बैंक की स्थापना हेतु एड़ी-चोटी का “सेकुलर” ज़ोर- लेकिन… Islamic Banking in India- Anti-Secular- Dr Swami
सही है पढ़कर बताइयेगा कैसी रही
शुक्रिया! आइये अर्मापुर में आपका स्वागत है। किताब आपको पढ़ने के लिये तो दे ही सकते हैं।
कोई टीचर पढ़ेगा तो आपका मूल्यांकन भी जरूर करेगा !
फिलहाल शुभकामनायें समीरलाल जी को !
रिसर्च वर्क जैसा तो कुछ नहीं किया मैं। किसी टीचर के द्वारा मूल्यांकन के लिये इंतजार है। शुभकामनायें केवल समीरलाल को ?
शुक्रिया आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया का।
बाकी ‘साइज और वजन के व्युत्कमानुपाती’ पर एक ठो इस्माइली
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..प्रेम गली अति
आती ही होगी सप्रेम भेंट। पढ़ना आराम से। एक ठो इस्माइली के जबाब में दो ठो इस्माइली शुक्रिया।
समीरलाल जी बहुत स्तरीय ब्लॉगर हैं और संवेदनशील व्यक्तित्व के मालिक। यह उपन्यासिका उनके व्यक्तित्व में एक चमकीला तमगा है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
बाकी, बतौर ब्लॉगर मैं पुस्तक लेखन को ब्लॉग की अपेक्षा महत्व की चीज नहीं मानता और ब्लॉग का पुस्तकीकरण (यदि होता है तो) ब्लॉग की आत्मा – अर्थात उसपर आई टिप्पणियों/चर्चा को समेटे जरूर।
शायद पुस्तक के दूसरे संस्करण में श्री समीरलाल इस पर गौर करें!
Gyan Dutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..करछना का थर्मल पावर हाउस
शुक्रिया आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया का। समीरलाल के स्तरीय ब्लॉगर संवेदनशील व्यक्तित्व के मालिक होने से इंकार करने की किसकी हिम्मत? समीक्षा आप करिये अच्छी से और अच्छी होगी। लिंक मत लगाइयेगा ।
ब्लाग का प्रकाशन किस तरह हो यह तो ब्लॉगर ही तय करेगा। सब टिप्पणियां तो शायद न छप पायें लेकिन पोस्ट से संबंधित कुछ टिप्पणियां छापी जा सकती हैं। समीरलाल दूसरे संस्करण में क्या करेंगे यह तो वही बता सकते हैं।
समीक्षा तो आपकी जोरदार है ही… उसके बारे में तो मेरी औकात ही नहीं है बोलने की…
सतीश चन्द्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..यूरोपियन यूनियन पर्यवेक्षक दल को बिनायक सेन के मुकदमे की कार्रवाई के निरीक्षण की अनुमति मिलनी चाहिए
शुक्रिया। पुस्तक पढ़ने के बाद वाली टिप्पणी का इंतजार कर रहे हैं अब तक।
अभय तिवारी की हालिया प्रविष्टी..मिस्र की ‘आज़ादी’
सार्थक टिप्पणी!
शुक्रिया। अब तो टिप्पणीकार की जयजयकार करने का मन कर रहा है।
.
.
वाकई महाभयंकर रिसर्च वर्क किया है आपने ….
अब मैं तो कुछ भी न कहूँगा अभी…
फिलहाल शुभकामनायें समीरलाल जी को …
और आपको भी …
( रख लीजिये काम आयेंगी )
…
प्रवीण शाह की हालिया प्रविष्टी..ओऊर फुतुरे इस भैरी-भैरी दार्क !!!
शुक्रिया। आपकी शुभकामनायें रख ली हैं। काम अवश्य आयेंगी। उनके लिये खासतौर पर धन्यवाद।
शुक्रिया।यात्रा के लिये शुभकामनायें। लौटकर अपनी पोस्टों को किताब के रूप में छपाने की योजना के बारे में बताइयेगा।
इमरजेंसी में 101 नंबर पर डायल कर फायर ब्रिगेड को कहीं भी बुलाया जा सकता है…
जय हिंद…
Khushdeep Sehgal, Noida की हालिया प्रविष्टी..40 करोड़ भूखों के देश में शादी तीन करोड़ कीखुशदीप
शुक्रिया। क्या फ़ायर ब्रिगेड वाले आजकल ब्लाग भी बना लिये हैं। उनसे नंबर डालकर अपनी प्रतिक्रिया लिखने के लिये कहो भाई!
आभार.
Shiv Kumar Mishra की हालिया प्रविष्टी..धमकी पुराण
आभार!
“किताबों का साइज और वजन दोनों ब्लागरों के साइज और वजन के व्युत्कमानुपाती था। ”
येह, आपके नज़र की फ्रीक्वन्सी कमाल की है……………….
प्रणाम.
नजर तो खैर क्या कमाल की है लेकिन प्रतिक्रिया के लिये शुक्रिया।
समीर जी अच्छा लिखते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है.
नपी-तुली समीक्षा पुस्तक के गहन अध्ययन को दर्शाती है तो दिये गये लिंक्स समीक्षक की पैनी निगाह को इंगित करते है.
असल में ऐसे समीक्षक से हमेशा सावधान रहना चाहिये, जो अपनी खुद की धज्जियां उड़ाने की हिम्मत रखता हो. लेखक या रचना की कमज़ोरियों को बताना भी बहुत ईमानदार कोशिश है.
बधाई, आपको और समीर जी दोनों को.
शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिये। समीक्षक तो क्या हैं हम बस एक पाठक की नजर से अपनी बात कहने की कोशिश की है।
shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..प्रेम- रंग और मसाले
शुक्रिया। आशा है जल्द ही आपका भी इंतजार खत्म होगा और किताब आप तक पहुंच जायेगी। तब तक आप पोस्टें पढिये समीरलाल जी की।
मैं तो सजेस्ट करुंगी कि सभी ब्लोगर अपने पाठकों से पूछें कि उनकी कौन सी पोस्ट वो फ़िर से पढ़ना चाहेगें और जिन पोस्टों के लिए सबसे ज्यादा मांग आए उन्हें किताब के रूप में छ्पवा दें( और सादर भेंट में दे दें…॥:)) पाठकों को कंप्युटर से बंधना नहीं पड़ेगा, देश की बिजली की बजत होगी। आप की, ज्ञान जी की, शिव जी की, डा अनुराग के कॉलेज के किस्से, बेजी की, पाबला जी के ट्रेवल के किस्से, और न जाने कितने कितने ब्लोगर मित्र हैं जिनकी रचनाएं हम प्रिंट रुप में भी सहेज कर रखना चाहेगें।
अनूप जी आप से अनुरोध है कि आप भी जल्द ही अपनी किताब छपवाइए।
समीर लाल जी को एक बार फ़िर से बधाई
शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया का।
किताब छपाना बहुत मेहनत का काम है। हरेक के बस का नहीं। फ़िर भी कभी कोई छापने के लिये तैयार हुआ तो मेहनत करने का मन बनाने की कोशिश करेंगे।
शुक्रिया ! वैसे मेरी याद में यह शब्द हमने शायद ३५ साल पहले पहली बार सुना था। आप अलीगढ़ इलाके की होकर भी इसको सुन नहीं पायीं थीं शायद अंग्रेजी माध्यम में पढ़ीं होंगी।
कुश भाई गुलाबी नगरी वाले की हालिया प्रविष्टी..ज़िन्दगी में और भी रंग है खुदको रंगने के लिए
शुक्रिया! कामना है कि आपको बाइंडिंग वाला जल्द ही मिले।
आभार।
सोमेश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..प्रेम में डूबी हुई लड़की की ब्लॉग कथा
शुक्रिया। एक पाठक की नजर से जो मैंने समझा वह लिखा। आपको अच्छा लगा इसके लिये आभार।
vijay gaur की हालिया प्रविष्टी..I am a painter- I want to become an artist
धन्यवाद प्रतिक्रिया के लिये।
समालोचना का यह अनिवार्य बिंदु है कि उसमें निष्पक्षता होनी चाहिए। जिस कथित समालोचना में ईर्ष्या अथवा द्वेष का पुट नज़र आए, उसे पढ़ते हुए आम पाठक खुद को ठगा सा महसूस करता है। मुआफ़ कीजिएगा, लेकिन आपकी इस समीक्षा को पढ़कर लगा जैसे समीरलाल जी ने इस पुस्तक को प्रकाशित कर कोई अपराध किया है। पुस्तक में मुझे उनका ऐसा दावा कहीं नज़र नहीं आया कि इसकी सामग्री उन्होंने पिछले दिनों ही और केवल पुस्तक के प्रयोजन से लिखी है।
मेरे विचार से वह हर प्रयास जो हिन्दी भाषा में अच्छे विचारों का सकारात्मक प्रसार करे, प्रशंसा के योग्य होना चाहिए। इतनी अच्छी पुस्तक को पाठकों तक पहुंचाने के लिए समीरलाल जी निःसंदेह प्रशंसनीय है। आखि़र कुछेक
ब्लॉगरों के अलावा 2006, 2007 और 2008 की पोस्टों को कितने लोगों ने पढ़ा होगा?
हैपी ब्लॉगिंग
आशीष खण्डेलवाल की हालिया प्रविष्टी..ब्लॉग पर संचालित चित्र पहेलियों का जवाब देना कितना आसान!
इसमें कोई शक नहीं कि किताब पढ़ने का मजा ही अलग है। किताब के बारे में छवि बदलने की मेरी कोई कोशिश नहीं थी मैंने तो किताब के बारे में अपनी राय लिखी है कि यह ब्लागपोस्टों के रूप में छपती तो शायद और बेहतर हो्ती।
इस किताब के बारे में मैंने एक पाठक के रूप में जैसा महसूस किया वैसा लिखा है। समालोचना, ईर्ष्या, द्वेष और ठगा सा महसूस किया जाना जैसी बातें तो इस पर निर्भर करता है कि किस मन:स्थिति से क्या ग्रहण किया गया है।
यह आपकी अपनी समझ है कि मैंने ऐसा कुछ लिखना चाहा है कि समीरलाल ने इस रूप में पुस्तक छपाकर कोई अपराध किया है। मैंने साफ़ लिखा है:
” हालांकि यह लेखक का अपना अधिकार है कि वह अपनी रचनाओं को अपने पाठकों के सामने किस तरह पेश करता है लेकिन चूंकि मैंने सारी पोस्टें भी पढ़ी हैं और यह उपन्यासिका भी तो मुझे यह लगता है कि इन पोस्टों को उपन्यासिका के रूप में पेश करने से पोस्टों की सुन्दरता कम हुई है।”
यह मेरी अपनी राय है। आपकी अपनी हो सकती है।
आपने लिखा:
“पुस्तक में मुझे उनका ऐसा दावा कहीं नज़र नहीं आया कि इसकी सामग्री उन्होंने पिछले दिनों ही और केवल पुस्तक के प्रयोजन से लिखी है।”
आपके पास किताब है। उसकी भूमिका देखिये। उसमें लेखक कहता है:
” ऐसे ही विचारों की एक बानगी एक सड़क यात्रा के दौरान -इस उपन्यासिका के माध्यम से लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है। एक नया प्रयोग ताकि इस पुस्तिका को आप एक ही बैठक में पूरा पढ़ पायें।”
यह दावा नहीं तो और क्या है ?
आपने लिखा:
“इतनी अच्छी पुस्तक को पाठकों तक पहुंचाने के लिए समीरलाल जी निःसंदेह प्रशंसनीय है। आखि़र कुछेक
ब्लॉगरों के अलावा 2006, 2007 और 2008 की पोस्टों को कितने लोगों ने पढ़ा होगा? ”
समीरलाल प्रशंसा के पात्र हैं। आपके ब्लागिंग में जुड़ने से बहुत पहले से मेरी प्रशंसा के पात्र रहे हैं। उनकी जितनी प्रशंसा मैं कर चुका हैं उतनी शायद किसी ब्लागर ने अब तक नहीं की होगी। लेकिन प्रशंसा और अंधभक्ति में अंतर समझना होगा। मेरी समझ में जो कमी लगी वह मैंने बताई। अब यह उन पर और उनके प्रशंसको और पाठकों पर है कि इसे किस रूप में लेते हैं। आखिर सबकी अपनी समझ होती है।
मैं अभी भी मानता हूं कि वे अपनी पोस्टों को जस का तस छपाते तो बेहतर होता। 2006, 2007 और 2008 के लिंक तो मैंने उनकी पोस्टों के लिंक उन पाठकों के लिये दिये जिनके पास तक किताब नहीं पहुंच पायी। सवाल तो यह भी है कि कुछेक पाठकों के अलावा कितने लोग किताब पढ़ते हैं? कितनों ने पढ़ी?
किसी भी रचना में कितनी दम है इसका फ़ैसला समय करता है। ’रागदरबारी’ उपन्यास जब आया था तो उसको समीक्षकों ने ’महाऊब का उपन्यास’ कहकर खारिज कर दिया था। आज वह हि्न्दी की सबसे अधिक बिकने वाली किताबों में से है। इस पोस्ट में भी मैंने अपनी राय रखी है। आपकी अपनी राय है। साल -दो साल भर के बाद फ़िर से मिलान कर लिया जायेगा राय का।
आपकी प्रतिक्रिया के लिये आभार।
आपने लिखा :
आपके पास किताब है। उसकी भूमिका देखिये। उसमें लेखक कहता है:
” ऐसे ही विचारों की एक बानगी एक सड़क यात्रा के दौरान -इस उपन्यासिका के
माध्यम से लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है। एक नया प्रयोग ताकि इस
पुस्तिका को आप एक ही बैठक में पूरा पढ़ पायें।”
यह दावा नहीं तो और क्या है ?
मेरे ख्याल से विचार जब उठते हैं तो उसमें नए पुराने घटनाक्रम आकर जुड़
जाते हैं। किसी बच्चे को खेलते देख लेखक के मन में विचार उठता है बचपन
की उन गलियों का, जिनमें वह कभी खेला करता था और फिर यही विचार
बढ़ते-बढ़ते उन गलियों के खेलों से जुड़ी किसी घटना विशेष की याद दिला
जाते हैं, जिसे शायद पहले भी वह लेखक न जाने कितने लोगों को अलग-अलग
संदर्भ में सुना चुका है। यहाँ ज़रूरत होती है कि पुनः वह दृष्टांत दिया
जाए, तो क्या यह विचारों की बानगी को लिपिबद्ध करना नहीं कहलाया?
फिर आपकी जैसी सोच। आपने अपनी बात जिस भी मंशा से कही, वो आप जानें।
पाठकों को स्वतंत्रता है अपनी तरह बात को समझने की। और आपकी पोस्ट पर
मेरी टिप्पणी समेत अधिकतर कमेंट्स (Suresh Chiplunkar, satish saxena,
देवेन्द्र पाण्डेय, Khushdeep Sehgal, Noida, shikha varshney,
anitakumar, कुश भाई गुलाबी नगरी वाले, बलम बेतुके, सिद्धार्थ शंकर
त्रिपाठी, Dr. Vijay Tiwari ” Kislay”, विवेक रस्तोगी, विवेक सिंह आदि)
पढ़कर इस समीक्षा के निहितार्थ अथवा अभिव्यक्ति के प्रभाव के बारे में
क्या समझा जाए?
हैपी ब्लॉगिंग
आशीष खण्डेलवाल की हालिया प्रविष्टी..ब्लॉग पर संचालित चित्र पहेलियों का जवाब देना कितना आसान!
आपने लिखा :
आपके पास किताब है। उसकी भूमिका देखिये। उसमें लेखक कहता है:
” ऐसे ही विचारों की एक बानगी एक सड़क यात्रा के दौरान -इस उपन्यासिका के
माध्यम से लिपिबद्ध करने का प्रयास किया है। एक नया प्रयोग ताकि इस
पुस्तिका को आप एक ही बैठक में पूरा पढ़ पायें।”
यह दावा नहीं तो और क्या है ?
मेरे ख्याल से विचार जब उठते हैं तो उसमें नए पुराने घटनाक्रम आकर जुड़
जाते हैं। किसी बच्चे को खेलते देख लेखक के मन में विचार उठता है बचपन
की उन गलियों का, जिनमें वह कभी खेला करता था और फिर यही विचार
बढ़ते-बढ़ते उन गलियों के खेलों से जुड़ी किसी घटना विशेष की याद दिला
जाते हैं, जिसे शायद पहले भी वह लेखक न जाने कितने लोगों को अलग-अलग
संदर्भ में सुना चुका है। यहाँ ज़रूरत होती है कि पुनः वह दृष्टांत दिया
जाए, तो क्या यह विचारों की बानगी को लिपिबद्ध करना नहीं कहलाया?
फिर आपकी जैसी सोच। आपने अपनी बात जिस भी मंशा से कही, वो आप जानें।
पाठकों को स्वतंत्रता है अपनी तरह बात को समझने की। और आपकी पोस्ट पर
मेरी टिप्पणी समेत अधिकतर कमेंट्स (Suresh Chiplunkar, satish saxena,
देवेन्द्र पाण्डेय, Khushdeep Sehgal, Noida, shikha varshney,
anitakumar, कुश भाई गुलाबी नगरी वाले, बलम बेतुके, सिद्धार्थ शंकर
त्रिपाठी, Dr. Vijay Tiwari ” Kislay”, विवेक रस्तोगी, विवेक सिंह आदि)
पढ़कर इस समीक्षा के निहितार्थ अथवा अभिव्यक्ति के प्रभाव के बारे में
क्या समझा जाए?
हैपी ब्लॉगिंग
आशीष खण्डेलवाल की हालिया प्रविष्टी..ब्लॉग पर संचालित चित्र पहेलियों का जवाब देना कितना आसान!
आभार आपकी प्रतिक्रिया के लिये। मैंने जैसा पहले लिखा कि मेरी समझ में ब्लाग पोस्टों के रूप में अपने आप पूर्ण पोस्टों को जबरियन उपन्यासिका के नाम पर पेश किया गया है। मेरी अपनी समझ है यह। आपकी अलग हो सकती है। लेखक स्वतंत्र है मनचाहे रूप में अपने विचार पेश करने के लिये। वहीं पाठक भी अपने हिसाब से जैसा लगेगा वैसा ग्रहण करेगा चीजों को।
इस पोस्ट पर पाठकों ने जो कहा वह यहां मौजूद है। अब यह हम पर और अन्य पाठकों पर हैं कि वे इन प्रतिक्रियाओं को कैसे ग्रहण करते हैं।
इस बेहतरीन समीक्षा के लिए साधुवाद .
zeal की हालिया प्रविष्टी..जो डर गया – वो मर गया !
आपकी प्रतिक्रिया के लिये शुक्रिया।
समीर जी को इस अनुपम कृति के लिए बहुत बधाई.
शुक्रिया।
मेहनत तो खूबई की है भाई जी ने ।
इसे कहते हैं पानी पी पीकर समीक्षा करना !
पानी ही नहीं चाय , नास्ता और खाना खा-खाकर लिखी गयी यह पोस्ट!
शुक्रिया।
हम तो समझे थे कि ब्लागिंग की उनकी शुरुआत टिप्पणीकार के रूप में हुई…. आखिर जहां देखो ‘उडन तश्तरी’ मौजूद जो रहती थी
एक अच्छी समीक्षा और लिंक के लिए आभार॥
चंद्र मौलेश्वर की हालिया प्रविष्टी..एक अविवाहित की मौत- The death of a bachelor
शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिये।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..हे संविधान जी नमस्कार…
शुक्रिया। वैसे समीरलाल अपनी उड़नतश्तरी पर तो पहले ही आसमान पर थे। उनकी ही जय-जयकार है चारो तरफ़।
शुक्ल जी
सर्व प्रथम अद्भुत समीक्षा क लिए साधुवाद
फुर्सत से लिखी निर्भीक और गहन अभिव्यक्ति से
यह स्पष्ट हुआ कि सही मित्र गुड़-पगी ही नहीं
खरी-खोटी भी लिख सकता है.
मैं सिद्धार्थ त्रिपाठी जी की बात से भी अंशतः सहमत हूँ पूर्णतः नहीं.
- विजय तिवारी ‘ किसलय ‘
Dr. Vijay Tiwari ” Kislay” की हालिया प्रविष्टी..विमोचित पुस्तक देख लूँ तो चलूँ महज यात्रा वृत्तांत न होकर उड़न तश्तरी समीर लाल समीर के अन्दर की उथल-पुथल- समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का सबूत है – विजय तिवारी किसलय
आपकी प्रतिक्रिया के लिये आभार। निर्भीक अभिव्यक्ति के बारे में क्या कहें। जैसा मुझे सही लगा वैसा लिखा। लेकिन लगता है अब हेलमेट लगाकर घूमना होगा।
और जाते जाते एक बात कि पाठक ने अपनी समीक्षा खूब की है।
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हिन्दी का दर्द और कवि शमशेर की शती
शुक्रिया। रचना के मजे हमने खूब लिये। वैसे नयी लिखी होती तो पढ़ने में और मजा आता शायद।
मजे लीजिये आप ९०% । इस बीच मैंने आपकी तीन-चार रचनाओं के मजे ले लिये।
अनूप शुक्ल की हालिया प्रविष्टी..देख लूं तो चलूं- उपन्यासिका आफ़ द ब्लागर- बाई द ब्लागर एंड फ़ार द ब्लागर
वैसे पुस्तक क्रय करके पढ़ने का अलग आनंद है,और मैं इस आनंद से इस पुस्तक के संबंध में वंचित रहा हूं पर आप इस आनंद से सराबोर हो सकते हैं।
शुक्रिया। खरीद के आनंद से हम भी वंचित रहे। लेकिन किताब खरीदने के सारे पते दिये हैं मय फ़ोन नंबर के। इससे अधिक कोई सूचना हो तो टिपिया दीजिये यहीं।
अनूप शुक्ल की हालिया प्रविष्टी..देख लूं तो चलूं- उपन्यासिका आफ़ द ब्लागर- बाई द ब्लागर एंड फ़ार द ब्लागर
अविनाश वाचस्पति की हालिया प्रविष्टी..ब्लागर्स ने मनाया वैलेंटाइन-डे
चलिये यह भी सही रहा कि हमारी वंचनायें किताब के मामले में एक हैं।
अनूप शुक्ल की हालिया प्रविष्टी..देख लूं तो चलूं- उपन्यासिका आफ़ द ब्लागर- बाई द ब्लागर एंड फ़ार द ब्लागर
सही है। काफ़ी दिन बाद पढ़ने पर ऐसा होना सहज संभाव्य है। पढ़ते-लिखते रहा करो नियमित।
अब आराम से लिंक खोल खोल कर किताब पढ़ लिया करेंगे,बस इस एक पोस्ट को सहेज कर रख लेने की जरूरत है…
सत्य है की समीर भाई के व्यंग्य में जो मारक क्षमता होती है,वह बेजोड़ होती है,लेकिन कविता और कहानी में भी उनकी लेखनी मंजी हुई है..समग्र रूप में बहुत अच्छे कलमकार हैं वे…
रंजना. की हालिया प्रविष्टी..नेता
शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया का। इसमें भला क्या शक कि समीरलाल बहुत अच्छे कलमकार हैं।
प्रणाम
आप अनुसरण का कोना तलाशने की बजाय फ़ीड मंगायें मेरे ब्लॉग की।
समीर जी ने भेजने का वादा किया था पुस्तक को . भेजा भी उन्होंने पर कोरियर कहीं हबक गया शायद ! अब मौक़ा/संयोग देख पुस्तक देखना होगा , एक दिलचस्पी यह भी है कि इसमें ब्लॉग-विधा के अंश भी है ! शुक्रिया !
सही बताया ’वचने का दरिद्रता’! मेहनत की तारीफ़ के लिये शर्माते हुये शुक्रिया। किताब आती होगी समीरलाल जी के यहां से। धैर्य धारण करिये तनिक।
शायद इसलिए ही समीक्षकों और आलोचकों की प्रतिमायें नहीं बनती …
आशा है समीर लाल जी सबक लेगें और अगली पुस्तक की थोक भाव में समीक्षाएं कराने के लोभ का संवरण करेगें ..
ये प्रोफेसनल समीक्षक अच्छी खासी पुस्तकों की भी रेड मार देते हैं
मैं अपनी किताबें लोगों को देता हूँ मगर समीक्षा के लिए कभी नहीं कहता ..
पता नहीं ससुरा क्या लिख दे?
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..भोपाल की मेरी प्रस्तावित एक दिनी यात्रा
आपकी प्रतिक्रिया के लिये शुक्रिया लेकिन इस बारे में दो बातें कहनी हैं! पहली तो यह कि समीरलाल ने मुझे अपनी किताब समीक्षा के लिये कत्तई नहीं दी थी। पढ़ने के लिये दी थी। अब हमने उसे पढ़कर जो कुछ लिख मारा उसको समीक्षा तो माना नहीं जाना चाहिये। दूसरी और जरूरी बात यह कि आप अपनी किताब मुझे मई ,२००९ में दे चुके थे जिसके बारे में मैंने आज अपने ब्लॉग में लिखा। http://hindini.com/fursatiya/archives/1859
शुक्ल जी . मनीष ने किताब पढ़ कर समीर को जाना. वे ब्लागर नहीं है सो मेरी राय में बाय द ब्लागर कुछ ज़्यादा नहीं लग रहा.
शुक्ल जी आप सुधि पाठक हैं और चिट्ठाकार भी आप को मालूम है कि समीर ने उपन्यास में पोस्ट डालीं हैं. लिंक भी दिये . आपकी पाठकीय सजगता का प्रमाण है. ये कोई बाध्यता नही तभी तो ग्यान जी ने शैलीकार कहा . साथ ही ये सिद्ध नहीं हो रहा कि पूनम के चांद के साथ ईद वाला तारा रखने कीबेमेल कोशिश की समीर ने इसे तो सिद्ध करना ही होगा. यहां मैं आपका अनुज समीर से भी तीन-चार माह छोटा अनुज ही हूं इस अनुजाई बुद्धि ने बताया कि बहस ज़रूरी है “न थिंग इस फ़ायनल ट्रुथ” हो सकता है मैं खुद गम्भीरता से न पढ़ पाया हूं. खैर फ़िर पढ़ता हू दूसरी बार. यानी फ़िर समीर भाई आपको फ़ायादा रीडर शिप में इज़ाफ़ा .
Girish Billore की हालिया प्रविष्टी..वही क्यों कर सुलगती है वही क्यों कर झुलसती है
अच्छा किया अपने टिपियाने के अधिकार का प्रयोग किया।
आपको बाय द ब्लागर नहीं लग रहा अच्छी बात है। वैसे मैंने पोस्ट शीर्षक के बारे में अपनी राय बताई। जरूरी नहीं आप भी उससे सहमत हों।
अनुज-अग्रज के झमेले से उबर कर एक पाठक की हैसियत से किताब पढ़ने के बाद इस पोस्ट को पढ़ना फ़िर से इसके बाद अपनी राय देना। इंतजार रहेगा।
“किताब में आदि से अंत तक ब्लागरों का योगदान है। किताब लिखी ब्लागर समीरलाल ने, आवरण डिजाइन किया ब्लागर विजेन्द्र एस विज ने, भूमिका लिखी ब्लागर राकेश खंडेलवाल और पंकज सुबीर ने, संपादन किया ब्लागर श्रीमती रचना बजाज और श्रीमती अर्चना चाव जी ने। छापने का काम करने वाले भी ब्लागर हैं। पाठक और समीक्षक भी ज्यादातर ब्लागर हैं। इस तरह से इस अद्भुत किताब के लिये कहा जा सकता है- उपन्यासिका आफ़ द ब्लागर, बाई द ब्लागर एंड फ़ार द ब्लागर। – सच्चे अर्थों में एक लोकतांत्रिक उपन्यासिका।”
यह पैरा पढ़ के हंस हंस के लोट पोत हो गयी मैं तो
हंस-हंसकर लोटपोट होने की बात पढ़कर मजा आया। अच्छा लगा।
——–
समीक्षा काबिले तारीफ़ है .
———
निम्नलिखित टिप्पणी के आगे कोई और टिप्पणी करना बेकार लग रहा है –टिप्पणी कर्ता को बधाई.[सौ आने सत्य कही ये बात ]
—:
इस पोस्ट को पढ़कर लगा कि समीक्षक एक ऐसा दीमक होता है जो पहले किसी किताब को पूरी तरह चाट खाता है फिर उसमें अपना भेजा सानकर सबकुछ इतनी चतुराई से उगल देता है कि पाठक किताब भूल, समीक्षक की ही जै जैकार करने लगता है।
————————–
मेरा विचार -
–इस ब्लोगरिया उपन्यासिका से अन्य ब्लोगरों को प्रेरणा मिलेगी कि जल्द ही अपने अपने लेख प्रकाशित करवा लें -एक किताब छापने में ..ब्लोगर भाई बंधु तो नाम छपवाने के बदले मुफ्त में सेवा देने को राज़ी भी हो जाएँगे..
अनूप जी आप की किताब छपेगी तो मैं भी मुफ्त योगदान देने को हाज़िर हूँ [सह -संपादन में?नहीं तो प्रूफ रीडिंग में ?पत्रकारिता पढ़ी है अच्छी प्रूफ रीडिंग का आश्वासन -]
—वैसे यहाँ छपे लेखों को देखें तो आप की अब तक कोई १००-१५० पन्नों की ५-६ किताब तो आ जानी चाहिए थीं.
शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया के लिये। आप हमारी किताब छपाने में सहयोग के लिये तैयार हैं इसके लिये आभार। लेकिन हमें छापेगा कौन? कहां मिलेंगे प्रकाशक हमको।
वैसे अगर आप हमारे लेख छपवा सकें तो नाम क्या मैं तो यहां तक कहूंगा कि लेखक के रूप में भी आप अपना नाम लिख लीजियेगा। हमें कोई आपत्ति नहीं होगी।
आपकी हिली मुंडी वाली प्रतिक्रिया अपने आप अनूठी है। आभार!
प्राइमरी के मास्साब की हालिया प्रविष्टी..अशोक की कहानी -2
सही है! लगता है कहीं २०० रुपये के खर्च का योग बन रहा है।
जब पहली बार आपको पढ़ा था तो , मुझे लगा था आपकी दो चार पुस्तकें होंगी मार्केट में.
क्यों पैसे खर्च करने पर आमादा हैं। मैंने अभी तक लिखने जैसा सो कुछ भी किया है वह सब यहां मेरे ब्लाग पर है। बांचिये मजे से फ़्री फ़ण्ड में।
आपकी मेहनत अचंभित करती है। कहां-कहां से पोस्टों की लिंक ढूंढ़ी होगी आपने।
गौतम राजरिशी की हालिया प्रविष्टी..तीन ख्वाब- दो फोन-काल्स और एक रुकी हुई घड़ी
मनमोहन सिंह