19 नवंबर 2013 पर 12:29 अपराह्न
भारत
रत्न के लिये नामांकित राव साहब ने वैज्ञानिक शोध के लिये पर्याप्त धन
मुहैया न कराये जाने की प्रवृत्ति की आलोचना की। इसे बेवकूफ़ी बताया।
उन्होंने और भी बातें कहीं। जैसे कि हमारे यहां के लोग मेहनती नहीं हैं।
जहां ज्यादा पैसा मिलता है वहां चले जाते हैं। देश भक्ति के भाव के मामले
में चीनियों से कमतर हैं।
अखबारों ने ने राव जी की बातचीत को छापते हुये शीर्षक लगाया- देश के नेता मूर्ख हैं।
शीर्षक ही ऐसा था कि प्रतिक्रियायें आनी थीं। वो तो कहिये राव साहब राजनीति में नहीं हैं वर्ना टीवी इसको प्राइम टाइम बहस का विषय बनाता।
आज राव साहब की प्रतिक्रिया आयी है कि उन्होंने नेताओं को नहीं स्थितियों को मूर्खतापूर्ण, दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
राव साहब ने कई काम की बातें भी कहीं। जो हमारे समाज की प्रवृत्ति के बारे में बताती हैं। लेकिन अखबारों ने काम की बातें छोड़कर उनकी बातचीत की सबसे वाहियात लगती बात को प्रमुखता दी। अखबार की बलिहारी है।
कबीरदास का दोहा है:
साधु ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय।
लेकिन आज अखबार थोथा ही पकड़ रहे हैं। सार को उड़ा दिया। अब सवाल-जबाब और सफ़ाई की प्रक्रिया में और काम की बातें हवा हो गयीं।
अखबारों का यह रवैया चुगलखोर रवैया है। वैज्ञानिक ने शोध के लिये पैसा न मिलने की प्रवृत्ति को मूर्खतापूर्ण कहा। झट से बता दिया नेता जी को –साहब आपको मूर्ख कह रहे हैं वैज्ञानिक साहब। वो तो कहो किसी नेताओं को विज्ञान से मतलब नहीं वर्ना क्या पता कोई नेता बयान ठोक देता – वो वैज्ञानिक मूर्ख है। और क्या पता उसके बयान को लपककर कोई अखबार छापता – मूर्ख वैज्ञानिक को भारतरत्न।
अखबारों का यह रवैया अलाली का रवैया है। किसी ने कुछ कहा तो या तो उसकी बात पूरी की पूरी छाप दीजिये भाई अखबार में। पढने वाले अपना मतलब निकाल लेंगे या फ़िर सार संक्षेप पेश करते हुये शीर्षक ऐसा लगाइये जो उसकी सारी बातों का प्रतिनिधित्व करता हो। लेकिन अखबार अपने शीर्षक आइटम सांग की तरह लगाते हैं।
अखबार और मीडिया अपनी खबरें जमाने को तो ऐसे जमाते हैं जैसे कोई महल बना रहे हैं। लेकिन खबरों के कबाड़ को समेटने में उसकी कोई रुचि नहीं होती। अभी कुछ दिन पहले एक बाबा जी के कहने के पर उन्नाव के पास खजाने की खोज में खुदाई के किस्से मीडिया ने लगातार कई दिन दिखाये। एक इतिहासकार की वहां खजाना न होने की तर्कपूर्ण और तथ्यपूर्ण दलील को किनारे करके जमूरों की तरह बयान देते अंधभक्तों पर कैमरे चमकाये। और अब जब वहां कुछ न मिलने पर खुदाई का काम बन्द कर दिया गया है तो मीडिया इस बारे में चुप है। अखबारों ने तो कम से कम खबर तो दी कि खुदाई बन्द हो गयी है लेकिन टेलिविजन पर इस बारे में कोई खबर नहीं। उसकी हरकत इमारत बनाकर पैसा पीटने वाले ठेकेदार सरीखी है जो अपना मलवा घटनास्थल पर ही छोड़कर फ़ूट लेता है।
बाकी बातें एक तरफ़ लेकिन हमें अखबार की इस खबरों के पेश करने रवैये पर एतराज है। खबर से लगता है जैसे कि मूर्खता कोई बहुत खराब गुण है। सच तो यह है कि मूर्खता सबसे पवित्र गुण है। मूर्खता सहज मानवीय गुण है। निर्दोष प्रवृत्ति है। देश दुनिया के तमाम कारोबार इसके सहारे ही चल रहे हैं। लोग मूर्खता न करें तो राजनीति मुश्किल हो जाये।
अखबारों को मूर्खता का अपमान नहीं करना चाहिये। यह प्रवृत्ति मूर्खतापूर्ण है।
अखबारों ने ने राव जी की बातचीत को छापते हुये शीर्षक लगाया- देश के नेता मूर्ख हैं।
शीर्षक ही ऐसा था कि प्रतिक्रियायें आनी थीं। वो तो कहिये राव साहब राजनीति में नहीं हैं वर्ना टीवी इसको प्राइम टाइम बहस का विषय बनाता।
आज राव साहब की प्रतिक्रिया आयी है कि उन्होंने नेताओं को नहीं स्थितियों को मूर्खतापूर्ण, दुर्भाग्यपूर्ण बताया है।
राव साहब ने कई काम की बातें भी कहीं। जो हमारे समाज की प्रवृत्ति के बारे में बताती हैं। लेकिन अखबारों ने काम की बातें छोड़कर उनकी बातचीत की सबसे वाहियात लगती बात को प्रमुखता दी। अखबार की बलिहारी है।
कबीरदास का दोहा है:
साधु ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय,
सार-सार को गहि रहै, थोथा देय उड़ाय।
लेकिन आज अखबार थोथा ही पकड़ रहे हैं। सार को उड़ा दिया। अब सवाल-जबाब और सफ़ाई की प्रक्रिया में और काम की बातें हवा हो गयीं।
अखबारों का यह रवैया चुगलखोर रवैया है। वैज्ञानिक ने शोध के लिये पैसा न मिलने की प्रवृत्ति को मूर्खतापूर्ण कहा। झट से बता दिया नेता जी को –साहब आपको मूर्ख कह रहे हैं वैज्ञानिक साहब। वो तो कहो किसी नेताओं को विज्ञान से मतलब नहीं वर्ना क्या पता कोई नेता बयान ठोक देता – वो वैज्ञानिक मूर्ख है। और क्या पता उसके बयान को लपककर कोई अखबार छापता – मूर्ख वैज्ञानिक को भारतरत्न।
अखबारों का यह रवैया अलाली का रवैया है। किसी ने कुछ कहा तो या तो उसकी बात पूरी की पूरी छाप दीजिये भाई अखबार में। पढने वाले अपना मतलब निकाल लेंगे या फ़िर सार संक्षेप पेश करते हुये शीर्षक ऐसा लगाइये जो उसकी सारी बातों का प्रतिनिधित्व करता हो। लेकिन अखबार अपने शीर्षक आइटम सांग की तरह लगाते हैं।
अखबार और मीडिया अपनी खबरें जमाने को तो ऐसे जमाते हैं जैसे कोई महल बना रहे हैं। लेकिन खबरों के कबाड़ को समेटने में उसकी कोई रुचि नहीं होती। अभी कुछ दिन पहले एक बाबा जी के कहने के पर उन्नाव के पास खजाने की खोज में खुदाई के किस्से मीडिया ने लगातार कई दिन दिखाये। एक इतिहासकार की वहां खजाना न होने की तर्कपूर्ण और तथ्यपूर्ण दलील को किनारे करके जमूरों की तरह बयान देते अंधभक्तों पर कैमरे चमकाये। और अब जब वहां कुछ न मिलने पर खुदाई का काम बन्द कर दिया गया है तो मीडिया इस बारे में चुप है। अखबारों ने तो कम से कम खबर तो दी कि खुदाई बन्द हो गयी है लेकिन टेलिविजन पर इस बारे में कोई खबर नहीं। उसकी हरकत इमारत बनाकर पैसा पीटने वाले ठेकेदार सरीखी है जो अपना मलवा घटनास्थल पर ही छोड़कर फ़ूट लेता है।
बाकी बातें एक तरफ़ लेकिन हमें अखबार की इस खबरों के पेश करने रवैये पर एतराज है। खबर से लगता है जैसे कि मूर्खता कोई बहुत खराब गुण है। सच तो यह है कि मूर्खता सबसे पवित्र गुण है। मूर्खता सहज मानवीय गुण है। निर्दोष प्रवृत्ति है। देश दुनिया के तमाम कारोबार इसके सहारे ही चल रहे हैं। लोग मूर्खता न करें तो राजनीति मुश्किल हो जाये।
अखबारों को मूर्खता का अपमान नहीं करना चाहिये। यह प्रवृत्ति मूर्खतापूर्ण है।
No comments:
Post a Comment