Friday, June 23, 2017

वो हम मंगतों के प्रधानमंत्री हैं

’वो देखो जो सबसे अलग बैठे हैं वो हम मंगतों के प्रधानमंत्री हैं’- तिवारी जी बोले और सब हंस दिये।
अरे! आपको हंसी नहीं आई।।ओह , हाँ , आपको पूरी बात तो बताई ही नहीं। मजा कैसे आयेगा? आइये बताते हैं किस्सा शुरु से।
आज अलसाते हुये जगे। फ़िर उठे। इसके बाद बाहर आये। एक बार फ़िर सोचा -अब कल जायेंगे टहलने। लेकिन फ़िर याद आया कि योग दिवस के दिन रोज सुबह निकलने का तय किया था। फ़िर बयान भी आया था कि साइकिल चलाना सबसे बढिया योग है। सब कुछ के चक्कर में फ़ंसकर ’साइकिल योग’ के लिये निकल लिये।
साइकिल का पहिया नोटबंदी के बाद की अर्थव्यवस्था सा ठीला था। हवा कम थी। गद्दीनसीन होते ही पहिया जमीन से जुड़ गया। साइकिल योग का इरादा टालने के पहले पैर पैडल पर पड़ गया। साइकिल चल दी। अब जब चल दी तो चल दी। हम भी चल दिये।
झाड़ी बाबा की दरगाह पर मांगने वाला इकट्ठा हो चुके थे। देने वाले आने वाले थे। किसी बात पर वे हंस रहे थे। कोई देने वाला आये इसके पहले हंस लिया जाये। फ़िर तो मुंह लटकाना ही है। मंगतों का मुंह लटका होना ही बेहतर होता है। मांग में बरक्कत होती है। धीरे-धीरे हंसने के बाद वे जोर से हंसने लगे। मन किया मंगतों की हंसी पर सीबीआई जांच बैठा दें कि वे हंस कैसे रहे हैं। लेकिन हम कोई सरकार थोड़ी हैं कि जहां मन आये जांच बैठा दें। लेकिन उनको हंसते देख एक बार फ़िर एहसास हुआ कि हंसी पैसे की मोहताज नहीं होती।
बीच सड़क पर एक कुत्ता दुलकी चाल से टहल रहा था। बिना हिले-डुले। आसपास के कुत्ते इतनी अनुशासित कुत्ता चाल को देखकर भौंचक्के से थे। भौंकना भूल गये थे। दुलकी चाल वाला उन कुत्तों को अनदेखा करता हुआ सड़क पर दुलकी चाल से चलता रहा। ऐसे जैसे फ़ैशन परेड में रैम्प सुन्दरियां रैम्प के आसपास भीड़ को नजर अंदाज करते हुये टहलती हुई चलती रहती हैं।
ओईएफ़ के पास होते हुये गुप्तार घाट के मोड़ पर एक चाय पर रुके। कुछ लोग जमे हुये थे दुकान पर। बतिया रहे थे। चाय वाला मुंह में गुटखा दाबे हुये था। केवल सुनने का काम अंजाम दे रहा था।
एक आदमी किसी के बारे में बताते हुये उसकी मां-बहन एक कर रहा था। बोला- ’कौनौ अईसा नहीं होगा जिसको वह साला छुवाया न हो। बगल में खड़ा करो तो डर लगा रहता है कि चपत तो लग के रहेगी।’
’अरे साला एक बार हमसे पैसा मांगिस तेल के लिये और बाद में पता चला दारू पी गवा। बहुत हरामी है।- दूसरे ने पुष्टि की।

’हमारी सुबह चाय से शुरु होती वह साला दारू से कुल्ला करता है।’-तीसरे ने सम्पुट साधा।
पता चला जिसके बारे में बात हो रही थी वह उनके ही गांव का आदमी है। दारू पीता है। चोरी भी करता है। चोरी मतलब चूना लगाने वाली चोरी। कनपुरिया अंदाज में कहा जाये तो अपनो को छुआने वाली चोरी। लोगों को पता है कि वह उनके पैसे मारकर दारू पी जाते हैं लेकिन कुछ कह नहीं पाते सिवाय पीछे गरियाने के क्योंकि अगला उनके ही गांव का है।
हाल अपने देश की तरह का लगा। जनता को पता है जिनको वे अपनी नुमाइन्दगी के लिये चुन रहे हैं वे भ्रष्ट हैं, बाहुबली हैं, माफ़िया हैं लेकिन उनको चुनने के अलावा और कोई चारा नहीं क्योंकि अपने ही देश के हैं। इन्सान अपनों से ही हारता है।
इसी चक्कर में एक और दारूबाज की चर्चा चली जो दारू तो खूब पीता है लेकिन चोरी नहीं करता। दारू और चोरी के गठबंधन वाले के मुकाबले विशुद्द दारूबाज की चर्चा इज्जत से की लोगों ने। ऐसे ही जैसे शहरों के बाहुबलियों की तारीफ़ करते हुये जनता कहती है - ’भैया जी गुंडों के लिये गुंडे हैं लेकिन आम जनता के लिये देवता हैं। भले ही अपनी खिलाफ़त करने वाले को तेजाब से नहलाकर मार दें लेकिन दिल के बहुत भले हैं।’
पता चला पास ही गुफ़्तार घाट है। उधर गये तो देखा गली में अभी जगहर नहीं हुई थी। सड़क पर तमाम लोग सोये हुये थे। शवासन लगाये हुये। कोई पेट के बल, कोई पीठ के बल, कोई गुड़ी-मुड़ी हुआ।
गुप्तार घाट शुरु हुआ तो बाहर कई मांगने वाले चाय पीते हुये देने वालों का इंतजार करते हुये दिखे। एक भाई जी मोटरसाइकिल पर आये। झोला उनको थमाकर बोले -’नमकीन सबको बांट दो’ कहते हुये वे आगे बढ गये। सब लोग नमकीन खाने लगे।
हम साइकिल बाहर ही ठड़िया के गंगा दर्शन करने नीचे उतर गये। गंगा की रेती पर ईंट का चूल्हा सुलगाये चाय बना रहे थे लोग। नाव पर नाविक सवारी के इंतजार में बैठे थे। हमसे बोला- आइये सैर करा दें।
हमारे मना करने पर नाव से उतर कर लकड़ी चूल्हे में और अन्दर ठूंस दी। हमें लगा हमारे सैर से मना करने का बदला वह चूल्हे से ले रहा है। चूल्हा सुलग उठा। चाय भी उबलने को हुई।
गंगा में सूरज भाई डुबकी लगाते हुये नहाते दिखे। हमको देखकर मुस्कराये। एक बगुला नदी के बीच की जमीन पर बैठा चोंच खोलते-बंद करते हुये हमसे नमस्ते जैसा करने लगा।
वापस लौटते हुये पुजारी जी चंदन घिसते हुये हमें तौलते रहे। तौल चुकने के बाद वे चंदन जोर से घिसने लगे। वहां सांसद निधि की कई बत्तियां लगी हुई दिखी। सबमें सांसद जी का नाम लिखा हुआ था। जब बत्ती जलती होगी तब सांसद जी का नाम गरमा जाता होगा। सुलगता होगा।
बाहर निकलते हुये देखा मांगने वाले एक लाइन में बैठे मजे ले रहे थे। आपस में ठेलुहई कर रहे थे। एक ने बताया - ’झांसी से आये हैं। जहां सो गये वही घर। जहां खाना मिल गया वही ठिकाना। बीस साल हो गये कानपुर में मांगते-खाते। जिन्दगी गुजारते।’
दूसरे ने बताया -नेपाल से आये। बीस साल पहले। अब यहीं ठिकाना है।
तीसरे बोले-’इलाहाबाद घर है। घर वाली रही नहीं। बिटिया की शादी कर दी। खंडवा में उसकी ससुराल है। पहले हलवाई का काम करते थे। एक्सीडेंट में चोट लग गयी तो डॉक्टर ने भारी काम को मना कर दिया। इसलिये मांगते खाते गुजारा करते हैं।’
अपने बारे में और बताते हुये बोले- ’तिवारी हैं हम।’ हमने सोचा - ’काम छूट गया लेकिन जाति चपकी है। फ़ेवीकोल का मजबूत जोड़।’
एक आइडिया भी उचककर आ गया। चिपकौवा आईटम बनाने वाले विज्ञापन कर सकते हैं- ’हमारे गोंद से चीजें चपकायें, जाति की तरह मजबूत जोड़ पायें।’
एक से मौज लेते हुये सब बोले-’उनसे भी पूछ लेव हाल। उनका व्याह करना है हम सबको।’
जिनके लिये बात चली वे करीब साठ पार के थे। शायद अन्व्याहे थे अब तक। सब उनसे ठेलुहई कर रहे थे। बुढौती तक कुंवारे रह जाने वाला अगर साधू-सन्यासी न हुआ तो सब मजे लेते हैं। उसके हाल वैसे ही हो जाते हैं जैसे जिन्दगी भर लिखने वाले की कोई किताब न छपने पर होते हैं। या फ़िर वैसे जैसे अपने को बड़ा लिख्खाड़ मानने वाले को इनाम न मिलने पर बाकी लोग मजे लेते हैं।
एक जन उन लोगों से अलग एक पेड़ के नीचे टूटी टाइल पर बैठे थे। उनकी तरफ़ इशारा करते हुये सब बोले- ’वो देखो वो हमारे प्रधानमंत्री हैं। मंगतों के प्रधानमंत्री। वे हमारे प्रधान हैं इसीलिये सबसे अलग ऊंचे आसन पर विराजे हैं।’
एक नया साथी आया । सबके बीच जम गया। फ़सक्का मारकर बैठते हुये बोला-’हम इस मंगतों की एशोशियेशन के महामंत्री हैं।’
बात करते हुये लोगों ने बताया कि वे सुबह छह बजे करीब से दस-साढे दस बजे तक यहां बैठते हैं। जो मिल जाता है ले लेते हैं। इसके बाद कम्पनी बाग चले चले जाते हैं। वहीं सोते हैं। शाम को फिर कहीं मांगने निकल जाते हैं।
सबके खाने का इंतजाम कोई अशोक जी कर देते हैं। व्यापारी हैं। 25 पैकेट खाना रोज बंटवाते हैं।
सबने बताया आमदनी का कोई ठिकाना नहीं लेकिन गुजर हो जाती है। सबके घर हैं अलग-अलग जगह। कभी-कभी घूम आते हैं।
एक ने बताया वह होटल में काम करता था। बर्तन धोता था। हमने कहा - ’तिवारी जी के साथ मिलकर चलाओ होटल। तिवारी जी बनायें, तुम खिलाओ।’ वह बोला - ’हम राजी हैं। लेकिन तिवारी जी माने तब न।’
सबकी दाड़ी खिचड़ी टाइप थी। किसी मजार पर बैठते तो दूसरे धर्म के लगते। शायद हों भी। लेकिन सब यहां जय श्री राम कर रहे थे। वैसे भी मांगने वालों का भी कोई धर्म नहीं होता।
लौटते हुये पुलिस की 100 नम्बर की कई गाडियां दिखी। ड्राइवर के पीछे बैठे पुलिस वाले गाड़ियों के दरवाजे पंखनों की तरह खोले हुये अखबार बांच रहे। फ़ूलबाग में लोग तेजी से टहल रहे थे।
फ़लमंडी के पास खड़े ठेलों में कुछ में दशहरी आम जमे थे। कुछ में लोग अभी तक सो रहे थे। ठेलिया बिस्तरों का काम अच्छा अंजाम देती हैं। एक सब्जी वाला टट्टर के पीछे से एक-एक करके सब्जियों के कान पकड़कर सड़क किनारे पल्ली पर जमी दुकान पर जमा रहा था। सब्जियां ऊंघती हुई दुकान पर जमा हो गयीं थी।
सुबह हो गयी थी। और दिनों की तरह ही एक सुबह थी यह लेकिन और दिनों से खुशनुमा सी लगी।


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