साथ-साथ काम करते मियां - बीबी |
सुबह टहलने निकले। घर के बाहर एक महिला को बैठी देख बतियाने लगे। बताया पास के सिलाई कारखाने में काम करती है। सिले हुए कपड़ों से धागा निकालने का काम है।
चार बच्चों की माँ घर बड़ी बच्ची के सहारे छोड़कर आती है। वही खाना बनाती है। पति घण्टाघर के किसी होटल में काम करता है। कुछ देर बात करने पर भोजपुरी अंदाज आया बोली में। पता चला पटना के रहने वाले हैं दोनों मियां-बीबी।
छांह में बैठी महिला को हमने धूप में बैठ जाने को कहा। वह बोली -'धूप में जलन लगती है।'
सुबह 9 से शाम तक के 130/- रुपये मिलते हैं। न्यूनतम मजदूरी अकुशल श्रमिक की 500 रुपये से ऊपर है। उसकी एक चौथाई में लोग काम कर रहे हैं, करवा रहे हैं। पूरे देश में न्यूनतम मजदूरी घपला चल रहा है। इसके उल्लंघन पर सजा का प्रवधान है। लेकिन सजा होती किसी को नहीं है।
पीएनबी घोटाला 13000 करोड़ का माने तो इस महिला के 100 करोड़ दिन की मजदूरी लेकर फूट लिए मामा-भांजे। औसत उमर कमाई की अगर 50 साल माने तो 50 हजार लोगों से ऊपर की जिन्दगी भर की कमाई !
सड़क पर मुर्गे वाला मुर्गे पिंजड़े में रखे ठेलिया पानी से धो रहा था। मुर्गे पिंजड़े में फड़फड़ा रहे थे। उनमें से किसी को पता नहीं होगा कौन कटेगा आज।
आगे एक आदमी बीच से तीसरे दांत में बीड़ी फ़ंसाये हुये कुछ सोचता हुआ चला जा रहा था। शायद बीड़ी सुलगाने के उचित मुहूर्त के इंतजार में हो।
मोड़ पर एक पुलिस की जीप बीच सड़क पर खड़ी हुई थी। गाड़ी में बैठे सिपाही ने मुंड़ी निकालकर रास्ता पूछा। जीप आगे बढ गयी।
कोने पर एक ’बेंच हेयर कटिंग सैलून’ से बाल कटवाकर निकले आदमी ने तगड़ी अंगड़ाई लेते हुये सीना फ़ुलाया। फ़ूले हुये सीने को देखकर हमें लगा 56 इंच से कम क्या होगा? 56 इंच के सीने की बात ध्यान आते ही लगा कि कहीं यह बीच सड़क पर खड़े होकर पाकिस्तान को न हड़काने लगे। ऐसा हुआ तो सड़क पर जाम पक्का लगना था। लेकिन वह आदमी समझदार था शायद। गृहस्थ रहा होगा। सीना समेटकर ख्ररामा-खरामा चला गया।
दीवार पर ’नशा मुक्ति केन्द्र’ का इश्तहार लगा हुआ था। पता नहीं कौन से नशे से मुक्ति का केन्द्र है वह। कूड़े पर गाय बैठी थी उसकी पीठ पर बैठा एक बगुला नुमा पक्षी अलसाया सा अपनी चोंच से पीठ खुजा रहा था। दोनों में से कौन कोई नशे में नहीं दिख रहा था मुझे। उनमें से कोई भी पीएनबी घोटाले की बात करते नहीं सुनाई दिये मुझे। इनको कोई चिन्ता ही नहीं इत्ते बड़े घपले की। दीवार के सहारे सालों से निर्माणाधीन ओवरब्रिज में लगने वाले कंक्रीट के स्लैब रखे थे।
सड़क किनारे मूंगफ़ली की कई दुकानें हैं। लोग बाहर बैठे बतिया रहे थे। एक दुकान के बाहर आदमी-औरत मिलकर मूंगफ़ली के दाने साफ़ कर रहे थे। गृहस्थ जीवन में बराबर की हिस्से दारी।
आगे एक दुकान में छोटी बच्ची मूंगफ़ली के साथ में दिये जाने वाले नमक की पुडिया बना रही थी । उसके बगल में खड़ी उसकी छोटी बहन उघारे बदन खेल रही थी। बच्ची छुटकी को खेलने से बरजती हुई नमक की पुड़िया बनाती जा रही थी। छुटकी उसके बरजने से बेखबर खेलने में मस्त थी।
नमक की पुड़िया बनाती और संग में खेलती बच्ची |
अपन उन बच्चियों से बतियाने लगे। इस बीच उससे बड़ी एक बच्ची झुपड़िया से निकल आई। हाथ में नोकिया का गरीबों वाला मोबाइल। हमारे हाथ में फ़ोन देखकर बतियाने लगी। बोली -
’अंकल, आप कहां से ? फ़ोटो खींच रहे क्या?’
’अंकल, आप कहां से ? फ़ोटो खींच रहे क्या?’
फ़िर उघारे बदन बच्ची को गोद में उठा लिया। पांच में पढने वाली बच्ची इत्ती समझदार टाइप। पीछे से उसकी मां भी आ गई। बताने लगी -’ दो-तीन महीने काम रहता है मूंगफ़ली का।फ़िर चना रखते हैं। अब जिसको जो काम मिलता है वही करना पड़ता है। कोई सरकारी नौकरी तो मिली नहीं। सबके भाग्य में नौकरी कहां धरी है।’
धूप में चेहरे के एक तरफ़ की त्वचा सिंक सी गयी है महिला की। सूरज भाई फ़िर भी उसके चेहरे पर किरणों की बमबार्डिंग किये पड़े हैं। लगा कि समझाना पड़ेगा। लेकिन जब तक समझायें तब तक वे बादलों की ओट हो लिये। लगा कि खुद ही समझ गये।
आगे वाली दुकान में एक बच्ची एक गत्ते के पैकिंग बॉक्स और उसके ढक्कन को धागे से जोड़े हुये सड़क पर रेल की तरह चला रही थी। नाक से निकला हुआ मोटा रेंहट होंठ के पास ठहरा हुआ था। बच्ची इस सबसे बेपरवाह अपनी रेल चलाने में मुस्तैद थी।
सड़क पर तमाम रिक्शे वाले अपने रिक्शे साफ़ कर रहे थी। साप्ताहिक सफ़ाई दिन होगा रिक्शेवालों का। आगे शुक्लागंज का पुल दिख रहा था।
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