Saturday, April 09, 2022

लिखत-पढ़त की दुनिया बहुत अनोखी है

 कृष्ण बलदेव वैद की डायरी जारी है। रोचक हिस्सों को अंडरलाइन करने का मन करता है। लेकिन उठकर पेन, पेंसिल लाने का आलस्य मन पर हाबी हो जाता है। इस चक्कर में वह रोचक अंश दाएं-बाएं हो जाता है। आलस्य से जुड़ा यह अंश देखिए:

"आज अपने काम में आ गयी रुकावट के कारणों को फिर कुरेदना चाहता हूँ। मुख्य कारण तो शायद आलस्य ही है और निरन्तरता का टूट जाना, टूटते रहना। एक नागा, अपने पीछे अनेक नागों की संभावना छोड़ जाता है।'
डायरी में अनेक ऐसे लेखकों के जिक्र जिनके अपन ने नाम ही नहीं सुने। कितने कुपढ़ हैं अपन। कोशिश भी तो नहीं की कभी पढ़ने की।
पढ़ने की बात कहें तो कल एक बातचीत (रेतसमाधि के बुकर के लिए नामांकित किये जाने पर आयोजित चर्चा में) एक नामचीन रचनाकार ने जानकारी दी कि श्रीलाल शुक्ल जी के बारे में उनको तब पता चला जब उनके निधन के समाचार आये।
लब्बो-लुआब यह कि दुनिया और उसमें भी लिखत-पढ़त की दुनिया बहुत अनोखी है। दुनिया जहान में जिनका डंका मचा होय, हो सकता है पड़ोस में उनके बारे में जानकारी न होय। इसलिए किसी को अपने बारे में मुगालता नहीं पालना चाहिए। चुपचाप अपना काम करना चाहिए। मस्त रहना चाहिए। निरन्तरता बनाये रहे तो अच्छा। बाकी सफलता-असफलता के लिए बहुत हुडकना नहीं चाहिए।
असफलता के लिए भी काम तो जरूरी है। बिना काम के असफल भी तो नहीं हुआ जा सकता। (वैद जी की डायरी से लिये भाव)
कल किताबों की लिस्ट बनानी शुरू की। कुल जमा पन्द्रह-बीस किताबों की लिस्ट बनी। पुरानी किताबों से मुलाकात रोचक है।
रोचक तो अपने परिवेश से मिलना भी है। इसी लालच में कल दफ्तर से पैदल वापस आये। आये तो परसों भी थे।
आते हुए देखा एक बन्दरिया सड़क किनारे पीठ के बल चित्त लेती हुई थी। दूसरी उसको दुलरा रही थी। मां-बेटी हों शायद। हमको बगल से गुज़रते देखकर भी अनदेखा किया। अपन उसको निहारते हुए निकल लिए।
फैक्ट्री के बाहर निकलते हुए गेट पर दरबान ने जोर से जयहिंद साहब कहा तो हम चौंक गए। हमारी चुप टूट गयी। रुककर हाल-चाल लिए। बोले बतियाये। कई बार बोल-बतिया चुके हैं। अगली बार फिर पूछते हैं मिलने पर वही सवाल तो सोचते होंगे -'अजीब भुलक्कड़ है साहब भी। कल पूछा आज फिर वही बात पूछ रहे हैं।' लेकिन मुझे लगता है कि किसी से तसल्ली से बोल-बतिया लेना भी सुकून की बात है। है कि नहीं ?
फैक्ट्री के बाहर सड़क के पेड़ को देखकर लगा मानो कोई मजदूर काम से लौटकर घर में कपड़े उतारकर चरपैया पर लेटा है। तसल्ली से थकान मिटाते हुए। क्या पता घर पहुँच कर घरैतिन से कहता हो -'अजी सुनती हो, थोड़ी कार्बन डाई आक्साइड लाओ। ताजी, ताजी।' हो सकता है घरैतिन झिड़क देती हो -'सबहन (सब जगह) तो पसरी है कार्बनडाइआक्साइड , जित्ती मन आये खाओ-पियो। आजकल आदमी लोग धड़ल्ले से यही तो छोड़ रहे हैं। हल्ला मचाये हो फालतू मां।'
पेड़ के तसल्ली से लेटने के अंदाज में सूरज भाई का विदा होना भी शामिल है। दफ्तर में बॉस के निकल जाने पर लोग आराम मुद्रा में आ जाते हैं, वही भाव।
आगे कुछ हरे पेड़ दिखे। उसके बगल में थोड़ा दूर एक गंजा होता टाइप पेड़। पेड़ की पत्तियां कम होती दिखीं। ऐसे जैसे डाई करते हुए बुजुर्गों के बाल कम होते जाएं। पेड़ हरे-भरे पेड़ों से थोड़ा दूर खड़ा अकेले में हवा की कंघी से अपने पत्तियों को संवार रहा था। ऐसे जैसे कम बालों वाले लोग जरा सा मौका मिलते ही पीछे वाली जेब से कंघा निकाल कर बचे-खुचे बाल संवारने लगते हैं।
कल शाम सोचा था तसल्ली से कुछ और लिखा जायेगा। लेकिन फिर किताब पढ़ते हुए सो गये। सुबह लेटे-लेटे किताब पढ़ते रहे। सोचा टहलने जाएं, लेकिन आलस्य ने फिर जकड़ लिया।
अब्बी देखा तो सामने सूरज भाई ड्यूटी ज्वाइन कर चुके हैं। किरणें मुस्कराते हुए गुडमार्निंग कर रही हैं। कई क्यारियों के बीच खड़ा पेड़ किसी संयुक्त परिवार के एकमात्र बेटे की तरह प्रफुल्लित, प्रमुदित ऐंठ में खड़ा है। क्यारियां अनुशासित बच्चियों की तरह चुपचाप नाटे कद के पेड़ को ऐंठते देख रही हैं। लिंग भेद लगता है प्रकृति पर भी हावी है।
लिंग भेद की बात लिखते हुए अभी एक समाचार का निटिफिकेशन देखा :
"जितनी देर में मैगी नहीं बनती, मर्द उससे कम देर में किसी को बदचलनी का प्रमाणपत्र दे देते हैं।"
इसी से याद आया वैद जी ने आदमियों की मनोवृत्ति का जिक्र करते हुए अपनी डायरी में लिखा -'कुछ मर्दों की आंखों में उनका लिंग लहराता है।'
दूसरों के बारे में धारणाएं हम अपने सोच के हिसाब से ही बनाते हैं। अपनी कमी का ठीकरा हम दूसरों पर फोड़ देते हैं। तमाम पढ़े-लिखे समझदार लोग भी बिना समझे कई बार जो बयान जारी करते हैं , उनको एहसास नहीं होता कि वह क्या कह रहे हैं।

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