Tuesday, September 20, 2022

हर प्रवासी की कहानी अपने आप में एक महाआख्यान है

 वाकया दो महीने हफ्ते भर पहले का है। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर चाय पीने के बाद दिल्ली हवाई अड्डे के लिए सवारी का जुगाड़ के लिए विकल्प के तौर पर मेट्रो, ऑटो और टैक्सी थे। मेट्रो के लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन जाना होता। उसमें भी फिर सवारी देखते। ओला के पैसे देखे। इसके बाद सामने आ खड़े हुए ऑटो वाले से पूछा -'हवाई अड्डे चलोगे?'

हामी भरने के बाद मोलभाव शुरू हुआ। ऑटो वाले भाई जी ने ओला से 100 रुपये ज्यादा बताये थे। आखिर में बात ओला के दाम पर ही तय हुई। हम चल दिये हवाई अड्डे की तरफ।
रास्ते में बतियाते हुए ऑटो वाले सोनू तिवारी से बात शुरू हुई। पता चला 2002 में आये थे बिहार से दिल्ली। गांव वाले पहले से ही यहां काम करते थे। उनके साथ आ गए।
शुरू में गांव वाले कोई काम नहीं करने देते थे। कहते थे तुमको काम की क्या जरूरत? आराम से खाओ-पियो। ख़र्च हम देंगे। कारण इसके पीछे यह था कि सोनू उनके लिए खाने बनाते थे। सब लोग काम पर चले जाते और सोनू तिवारी उनके लिए खाना बनाते। उनको लगता था कि अगर सोनू भी काम करने लगेंगे तो खाना कौन बनाएगा?
इस बात से फिर लगा कि दुनिया में मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। हर मुफ्त की चीज के पीछे भी मंतव्य होता है।
फेसबुक भी हमको मुफ्त में लिखने की सुविधा देता है। हमारे लिए भले ही यह मुफ्त हो लेकिन मुफ्त के इस जमावड़े का उपयोग कमाई के लिए होता है। फेसबुक अपने यहां जो विज्ञापन देता है उसमें एक क्लिक के करीब एक डॉलर मतलब करीब 80 रुपये लेता है। आजकल फेसबुक में लिखाई-पढ़ाई वाली पोस्ट्स कम हो रही हैं। विज्ञापन बढ़ते जा रहे हैं। फेसबुक भी अखबार होता जा रहा है। पोस्ट्स की रीच कम हो गयी है। कुछ दिन बाद क्या पता यहां की पोस्ट पर भी पैसा लगने लगे। इश्तहार खर्चे की तरह पोस्ट खर्च। पढ़ने के अलग पैसे, लिखने के अलग रुपये।
कुछ इस तरह चलता रहा। इसके बाद एक किराने की दुकान पर काम करने लगे सोनू तिवारी। रहना- खाना दुकान पर। 300 रुपये तनख्वाह।
कई साल दुकान पर काम करते रहे सोनू। इसके बाद एक सिनेमा हाल में काम किया। सिनेमा हाल के मालिक उस दुकान से सौदा लेने आते थे। सोनू को सिनेमा हाल में ले गए। किराने की दुकान में रहने, खाने की सुविधा थी लेकिन पैसे कम थे। सिनेमा हाल में 1200 रुपये मिलने लगे।
कुछ साल सिनेमा हाल में काम किया। इसके बाद ऑटो पकड़ा। उसके बाद से यही रोजी-रोटी हो गयी। अब इसी के चलते दिल्ली में अपना रहने का आसरा हो गया है। घर साल में एकाध बार जाते रहते हैं। लेकिन रहने का हिसाब अब दिल्ली में ही है।
कोरोना काल में सरकार ने व्यवस्था कर दी कि घर के पते पर रजिस्टर्ड अनाज दिल्ली में ही मिल जाता है। इससे सुविधा हुई। आम आदमी के लिए अनाज मिल जाना बहुत बड़ा आराम है।
खुशी और रोहित दो बच्चे हैं सोनू तिवारी के। बिटिया 12 वीं में पढ़ती है। बेटा कक्षा 10 में हैं। दोनों पढ़ने में अच्छे हैं।
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से हवाई अड्डे तक की यात्रा के बीच तमाम सारी बाते हुईं सोनू तिवारी से। आखिर में उन्होंने हमको हवाई अड्डे में उस जगह छोड़ा जहां से टर्मिनल करीब 3 किलोमीटर दूर था। हवाई अड्डे पर भीड़ कम करने के लिहाज से यह व्यवस्था की गई थी।
रास्ते की बातचीत और जानपहचान का असर यह हुआ कि विदा होते हुए ओला के पैसे जो तय हुए थे उसकी जगह ऑटो के पैसे ही दिए। ओला और ऑटो के अंतर के पैसे खुशी और रोहित के लिए चॉकलेट के वास्ते थे।
हर प्रवासी की कहानी अपने आप में एक महाआख्यान है।

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