सूरज भाई की खूबसूरती चरम पर तब होती है जब वे ड्यूटी ज्वाइन कर रहे होते हैं। हल्की सी लालिमा से शुरू करके दिशाएं लाल हो जाती हैं। सूरज भाई आसमान की दीवार पर से मुंडी ऊपर उठाते हैं। इसके बाद धीरे से पूरे उग आते हैं। उस समय के सूरज भाई मोहल्ले के सबसे काबिल इंसान की तरह होते हैं जिसकी सब बलैयां लेते हैं।
इसके बाद फाइनल ख़ूबसूरती सूरज भाई की विदा होते हुए दिखती है। दिन भर की कमाई सारी दिशाओं को बांट देते हैं। हर दिशा को अलग रंग, अलग अंदाज में सजाते हुए विदा होते हैं।
इतवार की सुबह जब टहलने निकले तो सूरज भाई नदी नहान वाले मोड में दिखे। शानदार। जबरदस्त। जिंदाबाद। नदी का पानी सूरज भाई के चारो तरफ 'जल मालिश' यानी 'पानी चम्पी' कर रहा था। सूरज भाई मजे में पानी में लम्बलेट हुए नदी की जल सेवा का आनन्द ले रहे थे।
नदी किनारे तमाम लोग अपना कांटा नदी में डालकर मछली पकड़ने का जुगाड़ कर रहे थे। ऊपर कुछ लोग मछली के लिए आटे की गोलियां डाल रहे थे। मतलब आदमी एक तरफ आटा खिलाकर मछलियों को बड़ा करेंगे वहीं दूसरी तरफ जाल डालकर पकड़कर मारेगा। आदमी की हरकत विकसित देशों सरीखी है जो एक तरफ दुनिया को लड़ाने के लिए हथियार देते हैं, दूसरी तरफ लड़कर बर्बाद हुए देशों की इमारतों की मरम्मत का इंतजाम करते हैं। बकौल मेराज फैजाबादी:
पहले पागल भीड़ में शोला बयानी बेंचना,
फिर जलते हुए शहर में पानी बेंचना।
चलते हुए पुल पार कर गए। पुल पार मतलब जिला पार। शुक्लागंज पहुँचगये। उन्नाव ज़िला में सूरज भाई एकदम तमतमाये हुए थे। उनके मिजाज किसी किसी सूबे का चार्ज लिए हुए हाकिम की तरह थे जो किसी दुर्घटना पर बयान जारी करते हुए कहता है-"अपराधियों को किसी कीमत पर बक्शा नहीं जाएगा।"
हो सकता है हाकिम के तेवर देखकर कोई उनसे कहता हो -"भाई साहब आपके तेवर देखकर तो हमको भी डर लग गया।" इस बार हाकिम उसको स्निग्ध निगाहों से निहारते हुए कहता होगा -"अरे नही भाई, तुम तो अपने घर के हो। हमारी ताकत हो। तुमको क्या डर?"
दुर्गा मंदिर के सामने फूलवालों की कतारें लगी थीं। पूजा करने वाले आपस में बतियाते-चुहल करते हुए मंदिर में जाते जा रहे थे। मंदिर के आसपास चहल-पहल बढ़ती जा रही थी।
कुछ देर सड़क पर टहलते हुए वापस लौट लिए। कुछ जगह चाय की दुकान दिखी लेकिन रुके नहीं। लौटते में सब्जी की दुकानें दिखीं। मन किया सब्जी ले लें। लेकिन फिर याद आया अभी तो गेस्ट हाउस में हैं।
एक जगह अखबार बिछे दिखे चारपाई पर। अखबार बेंचने वाले बुजुर्ग शहंशाही अंदाज में बैठे थे। एक अखबार लिया। उनसे पूछा कितने अखबार बिक जाते हैं रोज? वो बोले -'पचास साठ।'
आगे एक जगह सड़क किनारे मट्ठा बिकता दिखा। राठौर जी अमृत मट्ठा बेंचते दिखे। दस रुपये ग्लास। हमने कहा -सस्ता है। बोले -'यहां सब सामान सस्ता मिलता है। बगल में दो भटूरे 25 रुपये के। पूरा समझो।'
मट्ठे की तारीफ की तो बोले-'घर में बनाते हैं। सबसे पुरानी दुकान है। चालीस साल हो गए यहाँ। पहले अकेले बेचते थे। अब कई हो गए। ज्यादातर रेडीमेड बेंचते हैं। हम घर का बना। '
तीन बेटियों के पिता राठौर जी की दो बेटियों की शादी हो चुकी है। तीसरी आई पी एस की तैयारी कर रही है।
मूलतः सफीपुर उन्नाव के रहने वाले हैं राठौर जी। चालीस साल से शुक्लागंज में बसे हैं। 'चित्रलेखा' उपन्यास के लेखक भगवतीचरण वर्मा जी भी सफीपुर के थे। उनके उपन्यास 'सामर्थ्य और सीमा' का शीर्षक मुझे हमेशा इस बात की याद दिलाता है कि किसी इंसान की जो सामर्थ्य होती है वही उसकी सीमा हो जाती है।
भगवती बाबू का एक और उपन्यास है -'सबहिं नचावत राम गोसाईं।' इसको याद करके लगता है कोई सर्व शक्तिमान सत्ता हम सबको नचाती रहती है। हम उसके इशारे पर नाचते रहते हैं। क्या पता वह भी किसी के इशारे पर नाचती हो। क्या पता सर्वशक्तिमान के इलाके में भी मल्टीनेशनकल कारपोरेट का कब्जा हो जिसके इशारे पर वह दुनिया को नचाता हो।
यही सब सोचते हुए हम आखिर घर लौट आये। सहज भी है। घर से बाहर जाता आदमी घर वापस लौटने के बारे में सोचता है।
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