Thursday, September 08, 2022

घनघोर अंधेरे में दीपक की रोशनी जैसे प्रयास



इतवार को घर लौटते हुए पुल से गंगा तट की ओर देखा। जय हो फ्रेंड्स ग्रुप की बच्चों की कक्षाएं चल रहीं थीं। वापस लौटकर गए पढ़ते हुए बच्चों को देखने और पढ़ाने वालों को पढ़ाते देखने।
करीब पचास बच्चे अलग-अलग समूहों में बैठे पढ़ रहे थे। उम्र , क्लास के हिसाब से अलग-अलग पढ़ाई हो रही थी। ग्रुप के संस्थापक जयसिंह खड़े हुए मौका मुआयना जैसा करते हुए व्यवस्था देख रहे थे। बच्चे आते जा रहे थे। करीब 150 बच्चे जुड़े हैं यहां पढ़ने के लिए।
पढ़ाने वाले अध्यापक कुछ पहले वाले थे, कुछ बदल गए थे। जुडो-कराटे सिखाने वाले कहीं गुरु जी कहीं और चले गए थे अतः उसकी क्लास बन्द।
समाज सेवा में यही समस्या होती है। कुछेक लोगों को छोड़कर यह जुनून उतार-चढ़ाव लिए होता है। मजबूरियां भी होती हैं। इसके चलते अक्सर निरन्तरता नहीं रह पाती। मैंने खुद बच्चों के बीच उपस्थित होने पर सोचा कि मैं भी पढ़ाने आऊंगा लेकिन इरादों पर अमल नहीं हो पाता।
समाज सेवकों की पता चलने पर तारीफ , वाह-वाही हम भले कर लें लेकिन सक्रिय सहयोग अक्सर नहीं कर पाते। यह गुण समाज का होता है। अकेले प्रयास हो सकते हैं, छुटपुट सफलता मिल सकती है लेकिन बड़े बदलाव बिना सबको जोड़े होना सम्भव नहीं होता। केरल में सम्पूर्ण साक्षरता के पीछे वहां के पूरे समाज, सरकार और तमाम लोगों की भागीदारी रही।
'जय हो फ्रेंड्स ग्रुप' का एनजीओ के रुप में रजिस्ट्रेशन हो गया है लेकिन अनुदान मिलना शुरू नहीं हुआ। बताया कि अनुदान के लिए तीन वर्ष तक हर साल छह लाख का खर्च किया जाना जरूरी होता है। जयसिंह से आर्थिक सहयोग की बाबत पूछने पर उन्होंने बताया -"आर्थिक सहयोग बहुत कम , न के बराबर ही मिलता है। अपने समाज में लोग भंडारे पर लाखों खर्च कर देते हैं लेकिन बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना नहीं चाहते।"
हमने जयसिंह से जयहोफ्रेंड्स ग्रुप के खाते का विवरण लिया। तय किया कि कुछ सहयोग नियमित या एकमुश्त अवश्य करेंगे। आपको भी उचित लगे तो आप भी सहयोग करें। अच्छा लगेगा।' विद्या धन सर्व धन प्रधानम'।
बड़े क्लासों के बच्चे भी थे जो 11-12 में पढ़ने वाले हैं। उनको गुरु जी अलग पढ़ा रहे थे। इसके अलावा नौकरियों के लिए इम्तहान के लिए भी कोचिंग देते हैं -निशुल्क।
बच्चों को पढ़ते देखना अच्छा लगा। साथ ही यह भी कि ये बच्चे स्कूलों में भी पढ़ते हैं। फिर इनको अलग से पढ़ने की जरूरत क्यों होती है। हमारा समाज क्यों शिक्षा के क्षेत्र में सफल नहीं हो पाया। तमाम प्रयासों के बावजूद बड़ी आबादी शिक्षा से वंचित क्यों रह जाती है। हमारी शिक्षा नीति इतनी कम प्रभावी क्यों है।
शिक्षा नीति से याद आया श्रीलाल शुक्ल जी का प्रसिद्ध वाक्य-"हमारी शिक्षा नीति रास्ते में पड़ी कुतिया है, जिसे जो मन आता है दो लात लगा देता है।"
यह जुमला सुनने में कितना चुटीला लगता है। लेकिन सोचिए कि कितनी बड़ी विडंबना है कि सन 1965 में मतलब आज से 57 साल पहले लिखी बात आज भी उतनी ही सही है।
इन सबके बीच जय हो फ्रेंड्स ग्रुप, सम्मान फाउंडेशन, राही ग्रुप जैसे लोगों के प्रयास जारी हैं यह अपने आप में सुकून की बात है। घनघोर अँधेरे में दीपक की रोशनी जैसे प्रयास ।हम इनके प्रयास में कितना सहयोग कर सकते हैं यह हमको देखना है।

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