Saturday, November 30, 2024

धनिया के पैसे नहीं लेंगे, जाओ मौज करो

 
शाम को सब्ज़ी लेने गए बाज़ार। गुमटी में कुछ काम था तो सोचा सब्ज़ी भी वहीं से ले लेंगे। रास्ते में सोचा सब्ज़ी विजय नगर से ही ले लें, बाक़ी सामान गुमटी से ले लेंगे। लेकिन फिर न्यूटन के जड़त्व के नियम का आदर करते हुए गुमटी की तरफ़ ही बढ़ लिए। 

गुमटी में भीड़ बहुत थी। गाड़ी खड़ी करने की जगह नहीं मिली मेन रोड पर। गली में घुसा दिए गाड़ी। गली में घुसते ही एक दुकान बंद हो रही थी। वहीं कुछ देर इंतज़ार करके,  दुकान का शटर गिरने पर गाड़ी खड़ी कर दी। 

गाड़ी करने के बाद सब्ज़ी वाली की तरफ़ गए। सब्ज़ी वाली गली में फल, अचार और परचून की भी दुकाने भी हैं। सड़क ठेलिया वालों के क़ब्ज़े में सहम-सिकुड़ गयी थी। सड़क से किसी गाड़ी की सहज रूप से गुजरना चुनौती का काम।

एक दुकान से कुछ सब्ज़ी ली। 240 रुपए हुए। आनलाइन भुगतान के लिए स्कैनर माँगा तो सब्ज़ी वाले ने कहा -'हम मोबाइल ही नहीं रखते। स्कैनर भी नहीं।' 

जब तक भुगतान के लिए पैसे निकालें सब्जीवाले ने थोड़ी धनिया थमा दी। हमें लगा -'दस रुपए की धनिया दे रहे हैं ताकि 250 रुपए हो जाएँ और भुगतान आसान हो जाए।'

धनिया हमारे गार्डन में लगी है। हमने कहा -'धनिया नहीं चाहिए।'

सब्ज़ी वाले भाई जी ने शाही  अन्दाज़ में कहा -'अरे धनिया के पैसे नहीं लेंगे। जाओ मौज करो।' 

हमने बहुत कहा धनिया के पैसे ले लो लेकिन उन्होंने लिए नहीं। 

हमने नाम पूछा तो बताया -'नरेश।'

हमने कहा -'नरेश माने राजा होता है। इसीलिए अन्दाज़ शाही है।'

नरेश बोले -'सब आप लोगों की दुआ है। '

वहीं खड़े एक ग्राहक ने बताया -'नरेश सबसे मस्त सब्ज़ी वाले हैं यहाँ। दरियादिल।सब लोग इसीलिए इनके पास आते हैं सब्ज़ी लेने। '

हमने 500 रुपए का नोट दिया। जब तक वो पीछे की परचून की दुकान से फुटकर कराएँ तब तक हमने सोचा गोभी भी यहीं से ले लेते हैं। गोभी हमें लेनी थी, हमने देख भी ली थी वहाँ लेकिन देखने में थोड़ा बड़ी लगी थीं इसलिए सोचा और दुकाने भी देख लें। लेकिन मुफ़्त की मिली धनिया ने हमें गोभी भी वहीं से लेने के लिए उकसा दिया। पचास रुपए की एक गोभी के हिसाब से दो गोभी ले ली। 

इस बीच एकाध ग्राहक और आए। उनको भी शाही अन्दाज़ में निपटाया सब्ज़ी वाले ने। 

हम और सब्ज़ी लेने के लिए दूसरे ठेलियों की तरफ़ गए। सब सामान ले लिए लेकिन मशरूम नहीं मिला कहीं। हमें याद आया कि नरेश की ठेलिया पर मशरूम थे कुछ। हम वापस गए। देखा केवल दो पैकेट बचे थे मशरूम के। हमने पूछा -'केवल दो ही हैं ?'

'कितने चाहिए ?' -पूछा नरेश ने।

हमने बताया -'पाँच पैकेट चाहिए।'

'दो मिनट रुकिए' कहकर नरेश उस तरफ़ चले गए जिधर और सब्ज़ियों की दुकानें थीं। उन दुकानों पर कहीं दिखा नहीं था मुझे मशरूम। हमें लगा वे  उनमें से ही किसी दुकान पर खोजेंगे और ख़ाली वापस आएँगे। लेकिन कुछ ही देर में नरेश तीन मशरूम के पैकेट लिए आए और हमारे सामने धर दिए। चालीस रुपए के एक पैकेट के हिसाब से दो सौ रुपए भुगतान करके कहा -'तुम्हारा दिया हुआ नोट तुम्हारे पास ही लौट आया।'

इस बीच एक महिला गोभी लेने आई। मोलभाव करने पर नरेश ने कहा -'अभी-अभी भाई साहब को पचास रुपए में दी है। आप पैंतालीस रुपए दे दो।'

लेकिन महिला और कम कराने पर तुली थी।उसने चालीस रुपए में देने को कहा। नरेश  पैंतालीस पर ही अड़े रहे। महिला ने फिर चालीस की ज़िद की। चालीस -पैंतालीस की रस्साकसी देखती हुयी  गोभी ठेलिया पर  शांत भाव से बैठी रही।

महिला ग्राहक और नरेश का मोलभाव देखकर हमको  याद आया कि नरेश ने हमको दस रुपए की धनिया मुफ़्त में दी थी। हमने चलते हुए कहा -'अरे दस रुपए हमसे वापस ले लो। गोभी दे दो ।'

नरेश ने हाथ जोड़ दिए। बोले -'आपकी दुआ बनी रहे। यही बहुत है।' 

हम चल दिए। देख नहीं पाए कि महिला को गोभी कितने में दी आख़िर में। 

अभी घर आकर हमको नरेश का अन्दाज़ याद रहा है -'धनिया के पैसे नहीं लेंगे। जाओ मौज करो।' 



Friday, November 29, 2024

नीचे बहती गंगा मैया , ऊपर चले रेल का पहिया

कानपुर कनकैया , जंह पर बना घाट सरसैया
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पिछले दिनों कानपुर को शुक्लागंज से जोड़ने वाला गंगापुल का एक हिस्सा टूट गया। इस पुल से शहर की तमाम अनगिनत ऐतिहासिक यादें जुड़ी थीं।
लगभग एक सौ पचास साल पुराना यह पुल कानपुर से शुक्लागंज को जोड़ता था। पुल दो खंडों में बना था। नीचे लकड़ी का पुल था, जिससे हल्के वाहन और पैदल यात्री गुजरते थे और ऊपर सड़क पर कारें और दूसरे वाहन चलते थे। ऊपर वाले हिस्से पर पहले नैरो गैज का रेलवे ट्रैक था। 14 जुलाई 1875 को पहले नीचे वाला पैदल पुल खुला और दूसरे दिन रेल पुल से ट्रेनों का आवागमन शुरू हुआ।
पुल बनने में तब 17.60 लाख रुपए खर्च हुए थे।
इस पुल की लंबाई करीब 800 मीटर है।लगभग 50 साल तक इस पुल के ऊपरी हिस्से से ट्रेनें और नीचे से अन्य वाहन गुजरते रहे। कानपुर पर गंगा किनारे सरसैया घाट है। कानपुर , सरसैया घाट और गंगापुल को जोड़ते हुए लोगों ने गीत गढ़ा :
कानपुर कनकैया ,
जंह पर बना घाट सरसैया,
नीचे बहती गंगा मैया ,
ऊपर चले रेल का पहिया,
चना ज़ोर गरम .... ।
चना बेचने वालों ने इस अपने-अपने हिसाब से गढ़े लोकगीत के माध्यम से कानपुर और शुक्लागंज को जोड़ने वाले इस गंगापुल को अनगिनत पीढ़ियों और लोगों के ज़ेहन में इसे प्रसिद्ध कर दिया। अपने-अपने हिसाब इसकी यादें लोगों के दिमाग़ में बसी हुई हैं। चना बेचने वाले रामकथा से जोड़कर आगे कहते थे :
चने को खाते लछमण वीर
चलाते गढ लंका में तीर
फूट गयी रावण की तकदीर
चना जोर गरम......।
इस लोकगीत में समय-समय पर समसामयिक किस्से अपने-आप जुड़ते रहे और पुल पर से पीढ़ियाँ गुजरती रहीं। लगभग आधा शुक्लागंज रोज़ी-रोटी के सिलसिले में रोज इस पुल से कानपुर आता-जाता रहा।
बाद में जब उन्नाव और कानपुर के बीच सड़क और ट्रेन यातायात बढ़ा तो ट्रेनों के लिए अलग से पुल बनवाया गया और पुराने पुल के दोनों हिस्सों पर सड़क यातायात की व्यवस्था कर दी गई।
कानपुर से शुक्लागंज को जोडऩे के लिए अंग्रेजों ने पुल का निर्माण शुरू किया था । अवध एंड रुहेलखंड कंपनी लिमिटेड को इस पुल के निर्माण का ठेका दिया गया। पुल की डिजाइन जेएम हेपोल ने बनाई थी। निर्माण कराने वाले रेजीडेंट इंजीनियर एसबी न्यूटन ने असिस्टेंट इंजीनियर ई वेडगार्ड के साथ मिलकर इसे तैयार किया था। तब चीफ इंजीनियर टी लोवेल थे।
गंगा के एक ओर शुक्लागंज में कानपुर पुल बायां किनारा या गंगाघाट रेलवे स्टेशन था तो इस पार भी एक रेलवे स्टेशन बना था। ऐसा माना जा रहा है कि गंगाघाट की तरह इस पार भी ट्रेनें रुकती थीं। केंद्रीय विद्यालय व ओईएफ स्टेडियम के सामने आज भी ईंटों का बना एक लंबे चबूतरे का ढांचा देखा जा सकता है। बुजुर्ग बताते हैं कि यहां कभी स्टेशन था और ट्रेनें रुकने पर इस चबूतरे का प्रयोग प्लेटफार्म के रूप में किया जाता था। पैदल पुल मार्ग से प्लेटफार्म पर चढऩे के लिए सीढिय़ां भी थीं, जो अब मिट्टी में दब चुकी हैं।
पुल की हालत देखते हुए इस पर क़रीब चार साल पहले आवागमन बंद कर दिया था। इस पुल से हम भी कई बार आए-गए। नीचे पैदल यात्रियों ने लिए बने पुल पर लोग गर्मी के दिनों में आराम करते दिखते थे। पुल की बनावट के चलते धूप-छाँह का खूबसूरत गठबंधन दिखता था।
कल टूटे पुल को देखने गए। पुल कानपुर की तरफ़ से क़रीब 300 मीटर की दूरी पर टूटा है। लोगों ने बताया कि रात को टूटा पुल। कोई आवागमन होता नही था इसलिए जानमाल का कोई नुक़सान नहीं हुआ।
शुक्लागंज को कानपुर से जोड़ने वाले तीन पुलों में यह पुल सबसे पुराना था। सबसे पुराना पुल क़रीब 1875 में चालू हुआ था। इस पुल पर लगभग पचास साल तक चलती रहीं। दूसरा ट्रेनों के आवागमन के लिए पुल 1990 में चालू हुआ। ट्रेन का आवागमन अभी भी इसी पुल से होता है। तीसरा नया पुल पैदल, गाड़ियों के आवागमन के लिए बनाया गया।
पुल हालाँकि जर्जर हो जाने के कारण आवागमन के लिए बंद कर दिया गया था। फिर भी इसकी मरम्मत की बातें चलती रहती थीं। इसको एक पिकनिक स्पाट के रूप में विकसित करने की योजनाएँ भी चल रहीं थीं। पुल के टूट जाने से इन योजनाओं के क्या रूप बदलेंगे यह आने वाला समय बताएगा।
एक पुल नदी के दो किनारों को जोड़ता है। लेकिन साथ ही यह लोगों को अनगिनत स्मृतियों से भी जोड़ता है। अनगिनत लोग जो इससे गुजरे रहे हैं उनकी न जाने कितनी यादें इस पुल से जुड़ी होंगी। पुल भले टूट गया लेकिन अनगिनत लोगों की यादों में पुल हमेशा बना रहेगा। कानपुर के इतिहास में यह लोकगीत दर्ज रहेगा :
कानपुर कनकैया ,
जंह पर बना घाट सरसैया,
नीचे बहती गंगा मैया ,
ऊपर चले रेल का पहिया,
चना ज़ोर गरम .... ।
पुल के बारे में अख़बार में छपी खबरें कानपुर के इतिहासकार Anoop Shukla की फ़ेसबुक वाल से। पूरा गीत इस लिंक में सुनिए।

Saturday, November 16, 2024

जीवन बदल देने वाली घटनायें

'जीवन बदल देने वाली घटनायें'  कानपुर के यायावर गोपाल खन्ना के जीवन के कुछ संस्मरणों का संकलन है। गोपाल खन्ना जी मूर्तिकला, चित्रकला, फ़ोटोग्राफ़ी ,काष्ठकला , रोमांचक भ्रमण एवं रोमांचक खेलों से जुड़े रहे हैं। काव्य एवं कथा लेखन से भी संबद्ध रहे है। घुमक्कड़ी से लम्बे समय तक जुड़ाव और विभिन्न अभियानों के चलते नाम के पहले यायावर स्थाई रूप से जुड़ गया। यायावरी से संबंधित लेख और संस्मरण भी लिखते रहे हैं। एकल एवं सामूहिक कला प्रदर्शनियों में प्रतिभाग करते रहे हैं। उनके    100 से अधिक मूर्तिशिल्प अमेरिका, कनाडा , इंग्लैंड , स्विट्ज़रलैंड ,दुबई ,पाकिस्तान व जापान आदि देशों के व्यक्तिगत संग्रहालयों में संग्रहीत हैं। 


 2008 में बैंक आफ बड़ौदा से सेवानिवृत्त 76 वर्षीय गोपाल खन्ना जी के संग्रह ख़ज़ाने ने 2000 से अधिक प्राचीन एवं समकालीन खिलौने , सिक्के , शंख , सीप ,पत्थर ,मेडल्स , पिक्चर पोस्टकार्ड और अनेक प्राचीन वस्तुएँ  शामिल हैं। निरंतर सृजन शील यायावर गोपाल शहर के लगभग हर सांस्कृतिक ,सामाजिक आयोजन में शामिल होते रहते हैं। उनकी सक्रियता अनुकरणीय है।

 खन्ना जी ने दो दिन पहले फ़ोन पर सूचित किया कि उनकी संस्मरण पुस्तक 'जीवन बदल देने वाली घटनायें' का विमोचन 15.11.2024 को यूनाइटेड पब्लिक स्कूल में होना हैं। आने का अनुरोध किया। हमने हामी भारी और जाने का तय किया।

यूनाइटेड पब्लिक स्कूल में दो साल पहले मृदुल कपिल की किताबों 'मोहब्बत 24 कैरेट' का भी  विमोचन हुआ था। वह किताब अपने में अनूठी है। 

कल समय पर पहुँचे। कुछ ही लोग आए थे उस समय तक। धीरे-धीरे सभागार भर गया।  कानपुर के  माननीय सांसद रमेश अवस्थी जी कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। व्यस्तता के कारण वे थोड़ा विलम्ब से आए और कुछ देर सुनकर अपनी बात कहकर चले गए। 

कार्यक्रम में विभिन्न वक्ताओं ने किताब में सम्मिलित संस्मरणों के बारे में अपनी राय व्यक्त की। कुल जमा 110 पेज की किताब में कुल 57 संस्मरण हैं। अधिकतर संस्मरण गोपाल खन्ना जी के बचपन और नौकरी के समय के हैं। रोज़मर्रा के जीवन के ये संस्मरण  एक संवेदनशील मन के संस्मरण हैं। इनमें घर परिवार से जुड़े लोग हैं, दोस्त हैं, अध्यापक हैं, पड़ोसी हैं, बच्चे हैं , बुजुर्ग हैं। एक तरह के  'सामाजिक संदेश' हैं ये संस्मरण। 

वक्ताओं के विचार के बीच में माननीय सांसद जी का वक्तव्य हुआ। लगभग हार बात में माननीय प्रधानमंत्री जी और माननीय मुख्यमंत्री जी का ज़िक्र। राजनीति से जुड़े लोगों की यह मजबूरी सी होती है कि वे हर मंच को अपनी पार्टी के प्रचार के लिए उपयोग करें। सांसद जी ने शहर में नए पुस्तकालय खुलवाने की योजना बनाकर देने की बात कही। इस पर वहाँ मौजूद वक्ताओं में से एक सुरेश अवस्थी जी ने शहर के मौजूदा पुस्तकालयों जैसे मारवाड़ी पुस्तकालय, फूलबाग पुस्तकालय आदि के सुचारु संचालन की व्यवस्था करने का आग्रह किया। सांसद महोदय जी ने आश्वासन दिया। विदा हुए। 

 गोपाल खन्ना जी ने भी अपने किताब में सम्मिलित संस्मरण में से कुछ सुनाए। एक रोचक संस्मरण में उन्होंने बताया कि पहाड़ की एक यात्रा के दौरान उन्होंने एक युवा महिला का फ़ोटो खींचा था। उसको फ़ोटो भेजने की बात भी कही थी। किसी कारणवश फ़ोटो भेज नहीं पाए। भूल गए। फिर जाना नहीं हुआ। संयोगवश क़रीब बीस-बाइस साल बाद वहीं गए तो फ़ोटो साथ लेते गए। उस महिला की खोज की जिसकी फ़ोटो खींची थी उन्होंने। पता चला उसकी शादी हो गयी और वह कहीं दूर रहती है। लेकिन उसकी बेटी पास ही रहती है। बेटी से मुलाक़ात हुई। बेटी एकदम उसी तरह लग रही थी जैसी बीस बाइस साल पहले उसकी माँ दिखती थी। गोपाल खन्ना जी ने फ़ोटो बेटी को दे दिए कि वो अपनी माँ को देगी। विदा होने के पहले लड़की ने पूछा -'माँ से कुछ कहना तो नहीं है?' इसका कोई जबाब यायावर जी के पास नहीं था। 

और भी किस्से सुनाए गोपाल खन्ना जी ने। अच्छा लगा उनको सुनना। उनके संस्मरण एक उदात्त मन के सहज व्यक्तित्व के संस्मरण हैं। सभी में यह ध्वनित होता है कि दुनिया भले ही कितनी ही बदल रही हो , कितनी ही व्यावसायिक  मतलबी हो रही हो लेकिन आज भी संवेदनशील भावों का महत्व है। अच्छाई , उदारता और अच्छा समझा जाने वाला काम तुरंत करने के लिए प्रेरित करने वाले संस्मरण हैं 'जीवन बदल देने वाली घटनायें' में। 


हमने सोचा था कि समारोह के बाद किताब ख़रीदेंगे। लेकिन समारोह ख़त्म होने के पहले ही सभी को एक-एक किताब भेंट की गई। साथ में नाश्ता भी। 

घर लौटकर किताब पढ़नी शुरू की। कल रात से लेकर आज सुबह तक सभी   57 संस्मरण पढ़ लिए।    110 पेज की किताब 24 घंटे से कम के समय में पढ़ ली जाए यह अपने आप में उसकी पठनीयता और रोचकता का परिचायक है। सभी संस्मरण पाठक के जीवन से जुड़े संस्मरण लगते हैं। यह यायावर गोपाल खन्ना जी के लेखन की सफलता है। मैं इसके लिए उनको बधाई देता हूँ। 






Friday, November 15, 2024

शरद जोशी के पंच -22

 1. कुछ धक्के पाप की श्रेणी में नहीं आते। वे पुण्य की श्रेणी में आते हैं। उसे कहते हैं धरम-धक्का। मतलब, जब आप दर्शन के लिए ,प्रसाद लेने के लिए या नदी में स्नान करने के लिए दूसरों को धक्का देते हैं, तो वह धरम-धक्का कहलाता है।

2. अमेरिका के क्या कहने ! वह बड़ा पाक-साफ़ दूध का धुला है। वह छोटे-बड़े सभी शास्त्रों का प्रसारक है। हर जगह आग उसके ही भड़काए भड़कती है। उसकी एजेंसियाँ सर्वत्र मौत की सौदेबाज़ी और सुविधाएँ उत्पन्न करने में प्रवीण हैं। वह हत्यारा बनने की आकांक्षा पाले है। मौक़ा मिलते ही वार करता है। फिर भी वह न्यायाधीश की ऊँचाई पर बैठ अंतिम निर्णय देता है।

3.  छोटा आतंक ज़मीन पर खड़ा हथगोला फेंकता है, बड़ा आतंक समुद्र और आकाश से शहरों पर बमबारी करता है। 

4. जो कारण-अकारण, काम की बेकाम की , फिर चाहे समझदारी या मूर्खता की बात करता रहता है, उसकी नेतागीरी मज़बूत रहती है। 

5. इस देश की जनता से जुड़े रहने के लिए एक नेता को कितने अख़बारों में क्या-क्या नहीं कहना पड़ता है। पत्रकार को आते देख मुस्कराना पड़ता है, फ़ोटोग्राफ़र को आते देख गम्भीर होना पड़ता है। दूसरे दिन उस अख़बार में अपनी बात तलाशनी पड़ती है क़ि जो उसने कहा वह छपा या नहीं और जो छपा वह चमका या नहीं। 

6. नेता शब्दों के भूसे का उत्पादन करते रहते हैं और देश की जनता उनमें से एक समझदारी का, तथ्य का ,विचार का दाना तलाशती रहती है। 

7. भारतीय पत्रकार की यह दैनिक ट्रेजिडी है कि वह एक दाने की तलाश में नेता के पास जाता और शब्दों का भूसा लेकर कार्यालय लौटता है।

8. यह अजीब ट्रेजिडी  है कि इस देश में अपनी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति के लिए आदमी का लखपति होना ज़रूरी हो गया है।

9. जब स्टेशन की साफ़-सफ़ाई होने लगे तो समझिए ,रेलवे का कोई बड़ा अफ़सर मुआयने के लिए आ रहा है। 

10. अफ़सरों पर दोहरा भार है। जनता के साथ धोखेबाज़ी करो, उसे मूर्ख बनाओ , साथ में प्रधानमंत्री को भी धोखे में रखो ताकि उन्हें सचाई पता न लग सके। 

Thursday, November 14, 2024

शरद जोशी के पंच-21

 1. हमारा राष्ट्रीय स्वभाव है कि जब हम एक बार किसी को अपना शत्रु मान लेते हैं , तो फिर उससे लड़ते नहीं। समझौते का प्रयास करते हैं। 

2. यदि सरकार अपनी बुराई स्वयं न करे, तो लोग उसकी बुराई करने लगते हैं।

3. अख़बार की खबरें पढ़ना बावन पत्तों को बार-बार फेंटकर देखने की तरह है। हर पत्ता एक खबर है। उनमें से ही जैसे पत्ते निकल आएँ, वह आपका आज का समाचार से भरा अख़बार है। उन्हीं पत्तों की नई सजावट। चूड़ी के टुकड़ों से सजा एक नया फूल। आपके देश की ताज़ा तस्वीर , जो पुरानी तस्वीर से रंग चुराकर बनाई गई है। 

4. जब भी साजिश होती है, भांडे फूटते हैं, पत्रकार का मुँह बंद करने की उचित व्यवस्था की जाती है। यों मान जाए तो ठीक है, नहीं तो हाथ-पैर तोड़ देने से लाश ठिकाने लगा देने तक का सारा इंतज़ाम करना वे जानते हैं। 

5. सरकारें जो भी हों, मैं वित्तमंत्रियों से सदा प्रभावित रहा हूँ। उसे मैंने सत्ता के रहस्य-पुरुष की तरह महसूस किया है। वह कुछ करेगा। क्या करेगा , कह नहीं सकते मगर कुछ करेगा। हो सकता है, ग़लत ही करे, मगर किए बिना नहीं रहेगा। 

6. मुझे लगता है, कई बार ऐसे क्षण आए होंगे , जब क्रांति हो सकती थी, पर इसलिए नहीं हुई कि तभी वित्तमंत्री ने आलू-प्याज़ के भाव बढ़ा दिए और लोग बजाए क्रांति के आलू-प्याज़ पर सोचने लगे। इस तरह देखा जाए तो इतिहास-पुरुष होते हैं वित्त-मंत्री।

7.  आर्थिक क्षेत्र की सारी सारी गुत्थी इस दर्शन से सुलझ सकती है कि जो सफ़ेद कमाई करते हैं, वे टैक्स भरेंगे और जो काली कमाई करते हैं , सरकार उन्हें छूट देगी, क्योंकि सरकार काली कमाई से अपना कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। काली कमाई की सहायता से राजनीतिक पार्टी चल सकती है, मगर सरकार नहीं। 

8. पूरे देश में जो कुकरमुत्तों की तरह तथाकथित लघु उद्योग बने हैं , उनमें अधिकांश को न माल बनाना आता है और न बेचना आता है। उन्हें एक्साइज बचाना आता है। टैक्स न चुकाना आता है। इस क्षेत्र में कूद पड़ने की उनकी प्रेरणा भी यही रही है। यदि उत्पाद शुक्ल देना पड़े तो उन्हें स्वयं को बीमार उद्योग घोषित करते देर नहीं लगती।

9. आदिवासी की ओर देखो तो संस्कृति कम और ग़रीबी अधिक नज़र आती है। वे ज्ञानी-ध्यानी सचमुच बड़े बेरहम हैं, जो आदिवासियों में संस्कृति के दर्शन किया करते हैं। उनकी हालत देख , उनके साथ  बजाय नाचने के, जेब का पैसा बाँटने की इच्छा होती है। 

10. आम भारतीय नागरिक की ज़िंदगी ही धक्के खाने की है। अधिकांश का पूरा जीवन धक्के खाते बीत जाता है। स्कूल में एडमिशन के लिए धक्के खा रहे हैं, जवानी में नौकरी के लिए और बुढ़ापे में पेंशन के लिए। बम्बई का आदमी रोज लोकल ट्रेन में दोहरा धक्का सहन करता है। सामने से उतरने वाले धक्का दे रहे हैं, पीछे से चढ़ने वाले। पर लाइन लगवाने वाली सभ्यता ,पता नहीं , रेल के डिब्बों के दरवाज़े पर कहाँ ग़ायब हो जाती है। 

Tuesday, November 12, 2024

मोबाइल है या हथगोला

मोबाइल है या हथगोला
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सुबह चाय पी रहे थे। अचानक मोबाइल बजा। वीडियो काल थी। जिस नम्बर से काल आई वह हमारी सम्पर्क लिस्ट में नहीं था। नाम किसी महिला का दिखा रहा था। हम काल उठाने ही वाले थे। तब तक हमको तमाम ' साइबरिया' हिदायतें याद आ गयी। उनमें से एक यह भी थी -' किसी अनजान नम्बर से वीडियो काल नहीं उठानी चाहिए।'
इसके अलावा और भी तमाम लफड़े याद आ गए। हमने फ़ौरन फ़ोन काट दिया। याददाश्त को शुक्रिया किया।
बाद में देखा फ़ोन नम्बर भारत का था। नाम परिचित सा था लेकिन सम्पर्क लिस्ट में नहीं था।
ऐसा आजकल अक्सर होता है। आए दिन अनजान नम्बर से कई काल आते हैं। कभी बैंक के नाम पर, कभी बीमा के नाम पर। कभी क्रेडिट कार्ड के बारे में , कभी लोन के नाम पर।
क्रेडिट कार्ड का अलग मज़ा है। हमने कुछ ख़रीदारी की ताकि क्रेडिट कार्ड का उपयोग चलता रहे। जैसे ही ख़रीद की अगले ने फोनियाना शुरू किया -'आप इसका भुगतान आसान किस्तों में कर सकते हैं। मतलब EMI में।'
हमने हर बार कहा -'भईये, हमारे पास पैसे हैं। हम बिल आते ही भुगतान करेंगे।' लेकिन क्रेडिट कार्ड वाली मैडम हमको बार-बार समझाने पर तुली हैं -'जब एक सुविधा मिल रही है तब उसका उपयोग कर लेना चाहिए आपको।'
हम समझ नहीं पा रहे हैं कि क़र्ज़ में डूबे रहना कहाँ से फ़ायदे मंद है। आम इंसान को लगता है कि क़र्ज़ जितनी जल्दी निपट जाए उतना अच्छा। हम कोई ग़ालिब थोड़ी हैं जो क़र्ज़ की पिएँ और शेर लिखें:
"क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि
हाँ, रंग लाएगी हमारी फाका-मस्ती एक दिन।"
सुना है अमेरिका में लोग सब कुछ ईएमआई पर ख़रीदते हैं। लेकिन हम अभी अमेरिका से 12369 किलोमीटर दूर हैं।
इसी तरह के संदेशे भी आते रहते हैं। कोई किसी बारे में कोई किसी बारे में। रोज तमाम तरह के लोन स्वीकृत होने के संदेश, क्रेडिट कार्ड जारी होने की खबर, कार चालान होने की खबर से लेकर सामानों के विज्ञापन, सूचना और न जाने क्या-क्या खबरें। ईमेल तो पूरी भर गयी ऐसी नोटिफ़िकेशन से। पिछले पाँच सालों में पाँच संदेश भी नहीं आए होंगे जो हमारे काम के हों। सब अगड़म-बग़ड़म संदेश। उस पर तुर्रा मेल से आता रोज का नोटिफ़िकेशन -'आपका फ्री मेल स्पेस ख़त्म हो गया है। मेल जारी रखने के लिए या तो नया स्पेस ख़रीदें या मेल में जगह ख़ाली करें।'
लगता है ये मेल वाले दुनिया भर का कूड़ा-करकट मँगवा के मेल बक्सा भर लेते हैं इसके बाद कहते हैं -'जगह ख़रीदों वरना मेल आने बंद हो जाएँगे।'
अजब दादागिरी है। रोज झाड़ू लिए मेल बक्सा ख़ाली करते रहो ताकि बाज़ार अपना कूड़ा हमारे मेल बक्से में भरता रहे।
आज तो दुनिया भर के नोटिफ़िकेशन मेल, वहात्सएप और दीगर रास्तों से मोबाइल में आता रहता है। दुनिया मुट्ठी में करने के बहाने अपन दुनिया की मुट्ठी में बंद हो गए हैं। हर पल टन्न-टन्न नोटिफ़िकेशन आते रहते हैं। घर वाले भन्न-भन्न भन्नाते रहते हैं। चौबीस घंटे की बेगार में लगा दिया है जैसे मोबाइल ने।
लोग कहते हैं कि सावधान रहो लेकिन कितना सावधान रहें? आजकल सब काम तो मोबाइल के भरोसे हो गए हैं। आप कोई सामना मँगवाओ तो डिलीवरी की सूचना मोबाइल पर आएगी। कुछ भी काम करो तो मोबाइल नम्बर ज़रूरी। लोगों के पास अपना आधार नम्बर भले न हो लेकिन मोबाइल नम्बर ज़रूर होगा। आज के दिन इंसान खाने बिना दिन भर भले रह ले लेकिन मोबाइल और नेटवर्क के बिना उसकी तबियत नासाज़ होने लगती है।
मोबाइल ने हमको जितना सूचना संपन्न बनाया है उतना ही डरपोक भी बनाया है। कहीं किसी प्रियजन का मोबाइल घंटे भर न मिले तो धुकुर-पुकुर , कहीं कोई अनजान नम्बर से काल आया तो संसय , फ़ोन उठाएँ तो डर और न उठाएँ तो चिंता कोई ज़रूरी संदेश ने छूट गया हो।
इन चिताओं से बचाव के कितने भी एसओपी बना लिए जाएँगे लेकिन इंसानी ज़ेहन से उसकी मैपिंग सबके लिए सम्भव नहीं। कहीं न कहीं चूक तो हो ही सकती है। हो ही जाती है।
संदेश नोटिफ़िकेशन वाली बात तो फिर भी बर्दाश्त हो जाती है। लेकिन ये जब से डिजिटल अरेस्ट , वीडियो कालिंग वाली खबरें सुनी हैं तब से लगता है हाथ में मोबाइल नहीं हथगोला लिए चल रहे हैं। हर अनजान काल से लगता है कि इसको उठाते ही हथगोले का पिन निकल जाएगा और हमको काम भर का घायल कर जाएगा।
ये लिखते समय एक अनजान नंबर से कॉल रहा है। समझ नहीं पा रहे कि उठायें कि न उठायें ।

Monday, November 11, 2024

शरद जोशी के पंच-20

1. एक जमाने में राजसूय यज्ञ करने वाले राजपाट छोड़ देते थे, और आज अनिश्चित कुर्सियों के इस देश में एक मुख्यमंत्री, जिसे सौ तिकड़म और उठा-पटक करने के बाद बतौर भीख और इनाम के मुख्यमंत्री पद मिलता है ,उसे त्यागते या निकाले जाते समय किटाने क्रियाकलाप करता है। अंतिम क्षण तक चिपके रहने की सम्भावना खोजी जाती है।


2. राजनीतिज्ञों की एक अदा है ,मौक़े पर चुप्पी मारना। कुछ लोग सिर्फ़ यह कहने के लिए पत्रकारों को बुलाते हैं कि मुझे कुछ नहीं कहना। 

3. राज्यों में भ्रष्टाचार बढ़ता रहता है और वहाँ का समझदार वर्ग मन ही मन सोचता रहता है कि कब मंत्रिमंडल बदले। वह एक बयान नहीं देगा, कोई पहल नहीं करेगा। लोग सच भी  स्वार्थवश  बोलते हैं। अपना कोई लाभ नहीं तो सच बोलकर क्या करना ?

4. हमारा राष्ट्रीय चरित्र खिलाड़ियों का नहीं, दर्शकों का रहा है। जो जीता उसे कंधे पर उठाया , जो हारा उसे हूट करने लगे। साफ़ नहीं चिल्लाकर कहते कि हम किसके साथ हैं। छत पर चढ़कर आवाज़ लगाने का साहस अपने घर पर पत्थर पड़ने के डर से समाप्त हो जाता है। 

5.  लोग जब अति चतुराई बरतने लगते हैं ,तब न बड़ी क्रांति होती है और न छोटी। छोटे परिवर्तन होते भी हैं तो विकल्प उतना ही व्यर्थ होता है। 

6. नए नेता को कुर्सी मिलने वाली है। कचरा- पेटी में से जिसे उठाकर इस कुर्सी पर बिठा दिया जाएगा , लोग हार-फूल लेकर उसकी तरफ़ दौड़ेंगे। राज्य के विधायक इतना तो कह सकते हैं कि हमें एक अच्छा मुख्यमंत्री दो। हम मूर्ख और भ्रष्ट को सहन नहीं करेंगे। पर इतना कहने से ही विद्रोही मुद्रा बनती है। भविष्य ख़तरे में नज़र आता है। जो भी मिल जाए ,स्वीकार है।

7. किसी भी प्रदेश में मुख्यमंत्रियों के कमी नहीं है। ग़ालिब एक ढूँढो हज़ार मिलते हैं। पर सारे मुरीद तो एक अदद कुर्सी पर लड़ नहीं सकते। मुख्यमंत्री का पद एक टूटी पुरानी कुर्सी है। लम्बा आरामदेह सोफ़ा नहीं। यदि संविधान में इस पद को सोफ़ा-कम-बेड बनाने की गुंजाइश होती तो आज उस पर कितने पसरे मिलते।

 8. मुख्यमंत्री चुनना सुंदरियों की भीड़ में एक अदद परसिस खंबाटा चुनने की तरह कठिन है। केंद्र से निर्णय फ़ीता लेकर आते हैं। सबकी राजनीतिक कमर नापते हैं। क़द, कोमलता ,मुस्कान और अन्य टिकाऊ गुण जाँचते हैं और घोषित करते हैं , यह रहा तुम्हारा भावी मुख्यमंत्री। 

9. मुहावरों के उपयोग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि लोग कथ्य से अधिक भाषा के चमत्कार में रुचि लेने लगते हैं। हम लेखक प्रायः यह ट्रिक अपनाते हैं। जब कहने की बात नहीं रहती तब हम शब्दों को अधिक रंगीन और ज़ोरदार बनाने की कोशिश करते हैं। 

10. अब काला धन सात तालों में है ही नहीं। अधिकांश काल धन खुले में घूमता , घुमाया जाता है, उपयोग होता नज़र आता है। खुली आँखों नज़र आता है। मसाले के पान , फ़ाइवस्टार के पैकेट, व्हिस्की की बोतल, शानदार पार्टी, पाँचतारा संस्कृति ,विदेशी माल, बेहतरीन कार और आलीशान इमारतों तक काला धन तालों में छुपकर बैठा नहीं, बल्कि लगभग नग्न अवस्था में दिखाई पड़ता है। 



Saturday, November 09, 2024

नवीन मार्केट की सड़क पर

 नवीन मार्केट की सड़क पर

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अपन जहां खड़े हैं वहां से सामने होटल लैंडमार्क दिख रहा है। होटल का नाम सफेद रंग में है इसलिए कम चमक रहा है। चमकने के लिए नाम या शख़्सियत का रंगीन होना जरूरी होता है। रंगीन चीज या इंसान अलग से चमकता है।
लैंडमार्क होटल शहर का प्रमुख होटल है। आठ-दस मंजिला होगा। दूर से मंजिलें एक के ऊपर एक रखे डब्बों जैसी दिखतीं है। होटल के नीचे कल्याण जी बेकरी की दुकान ,उसके नीचे BG Shop और उसके नीचे टाइटन की दुकान है। यहाँ से केवल TAN दिख रहा है।
ये सारी इमारतें एक के ऊपर एक खड़ी देखकर गाना याद आ रहा है:
'नीचे पान की दुकान, उप्पर गोरी का मकान।'
लैंड मार्क के सामने आल आउट का विज्ञापन दिख रहा है-' डेंगू मलेरिया के साथ चान्स लेंगे या all out? ' मतलब आल आउट भी असर करे यह चान्स की ही बात है। सबेरे अस्पताल में खून की जांच करने वाले स्टाफ ने बताया -'आजकल डेंगू/मलेरिया के मरीज बढ़ गए हैं।'
पता नहीं मरीजों ने किसके साथ चान्स लिया है?
क्या पता होटल में आये यात्री सामने ऑल आउट का विज्ञापन देखकर पूछते होंगे-'आल आउट कमरे के किराए में शामिल है कि अलग से चार्ज हैं उसके?'
गाड़ी किनारे खड़ी करके काफी देर वीडियो देखने के बाद 'चयास' लग आई। गाड़ी से उतरकर आसपास की टोह ली। सामने न्यू केसरवानी डोसा कार्नर वाले की दुकान दिखी। सोचा कि वहाँ चाय भी मिलती होगी। पता किया तो उसने सामने सड़क पार की तरफ इशारा कर दिया।
सड़क पार नुक्कड़ से रफूगरों की दुकाने दिखी। सब रफूगर बलिया वाले। फोटो खींचने के लिए कैमरा सामने किया तो नुक्कड़ पर मोटरसाइकिल पर बैठा ट्रैफिक पुलिस का होमगार्ड तेजी से मोटरसाइकिल से उतरा। हमें लगा कहेगा -'बिना पूछे फोटो कैसे खींच रहे?' यह भी लगा कि शायद हड़ककर मोबाइल अपने कब्जे में ले ले। लेकिन वह मोटरसाइकिल से चुपचाप उतर कर चौराहे का ट्रैफिक कंट्रोल करने लगा। देखकर लगा हमारा डर फ़िज़ूल था। सोचा -'कितना जिम्मेदार है सिपाही।'
रफूगरों की दुकान के आगे मीट की दुकानें हैं। बोटी-बोटी कट रही थी मीट की। बोटी देखकर मुझे समझ नहीं आया कि बोटी बंट रही थी कि कट रही थी।
मीट की दुकान के आगे चाय की दुकान थी। चाय वाला तीन-चार भगौने में चाय रखे एक की चाय दूसरे में, दूसरे की तीसरे में फिर तासरे से पहले में डालता/खौलाता जा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बुजुर्ग साहित्यकार पुरानी किताबों से इधर-उधर छंटनी करके नई किताबें लाते रहते हैं।
पांच रुपये की चाय हुंडे में लेने पर दस की पढ़ी। पहला घूंट लेते ही कुछ नमकीन स्वाद आया। काफी दिन बाद नमकीन चाय पी। बचपन में अम्मा बनाती थीं। चाय वाले इरफान फुर्ती से सबको चाय पिलाते जा रहे थे।
लौटते हुए रफूगरों से पूछा -'सब लोग बलिया के हैं?'
बोले -'हाँ , बलिया के हैं।'
हमको बलियाटिक नारा याद आया -'बलिया जिला घर बा तो कौन बात का डर बा?'
हमने पूछा -'वहीं के जहां चंद्रशेखर जी थे?'
'अरे नहीं।चंद्रशेखर जी तो खास बलिया के थे। हम लोग सिकंदरपुर के हैं। 35 किमी दूर है बलिया से।' -एक रफ़ूगर ने बताया।
हमने सोचा और बात की जाए लेकिन सड़क किनारे खड़ी गाड़ी की चिंता में सोच को स्थगित कर दिया। गाड़ी के पास आ गए।
सामने भारतीय जनता पार्टी का कार्यालय चमक रहा है। भारतीय जनता पार्टी मूलतः व्यापारियों की पार्टी मानी जाती थी। नवीन मार्केट शहर का मुख्य व्यापारिक केंद्र है। इलेक्ट्रोरल बांड के पहले के समय में यहां कार्यालय होने से चंदा लेने में सहूलियत होती होगी पार्टी को।इसीलिए कार्यालय बन गया होगा।
सड़क पर ट्राफिक बढ़ गया है। एक महिला ई रिक्शा चलाती जा रही है। पीछे बुजुर्ग सवारी बैठी है। दोनों थके-थके दिख रहे हैं।
लैंडमार्क का निशान बिजली जल जाने से चमकने लगा है। इससे लगता है कोई साधारण दिखने वाली वस्तु या व्यक्ति के चमकने में किसी का सहयोग जरूर होता है।जैसे ट्रम्प जी की चमक के पीछे लोग एलन मस्क जी का सहयोग बता रहे हैं। बाकी के बारे में हम कुछ न कहेंगे। कहने का मतलब भी नहीं। आप खुद समझदार हैं।
वैसे आजकल 'समझदार' होना कोई बहुत 'समझदारी' की बात नहीं है। आजकल समझदार की मरन है। इसलिए आजकल 'समझदारी' इसी में है कि 'समझदारी' से परहेज़ लिया जाए।
शाम हो गयी है। दुकानों के साइन बोर्ड चमकने लगे हैं।दुकानों पर बिजली की झालर जल रही हैं । उनकी दीवाली जारी है। चौराहे पर रेमंड्स और राजकमल की दुकान के साइन बोर्ड लाल रंग में चमक रहे हैं। आम तौर पर लाल रंग खतरे का माना जाता है। लेकिन लाल रंग का एक मतलब इश्क़ का रंग भी होता है। दुकानों की तड़क-भड़क देखकर लगा कि 'ठग्गू के लड्डू' और 'बदनाम कुल्फी' में यहां लिखा होना चाहिए-' ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं' , 'घुसते ही जेब औऱ दिमाग की गर्मी गायब।'
पहली बार यहीं कहीं ठग्गू के लड्डू खाये थे और उनके जुमले सुने थे।
सड़क पार 'तारा सिंह मंघा राम' की दुकान दिख रही है। उसके नीचे कुल्हड़ की वही चाय 12 रुपये में बिक रही है जो इरफान ने हमको 10 रुपये में पिलाई थी अभी थोड़ी देर पहले। मतलब हम अभी थोड़ी देर पहले चाय पीकर दो रुपए बचा चुके हैं।
सामने की इमारत टूटकर नई बन रही है। पहली मंजिल बन गयी है। सरिया दिख रही हैं। सरिया किसी इमारत की हड्डियां होती हैं। हड्डियां ही हड्डियां दिख रहीं हैं इमारत की।
परेड का मैदान पीछे है। यहाँ रावण जला होगा दशहरे में। कागज, कपड़े का जितना जल गया उतना जल गया। बाकी बचा रावण लोग लूट, समेट के ले गए होंगे अपने मन के लाकर में रखने के लिए। अगले साल फिर चाहिए न जलाने के लिए।
सड़क के दोनों ओर गाड़ियों की कतारें जमा हैं। कुल जमा तीन कतारें । अंदर मार्केट में तो पूरा गाड़ियां ही गाड़ियां हैं। हम गाड़ी के दरवाजे से पीठ सटाये गाड़ी की रखवाली कर रहे हैं। ड्राइवर का काम ही यही होता है। मुफ्त के ड्राइवर का तो और भी जरूरी काम।
बगल की इमारत में सूरज भाई ऐसे विराजे हैं जैसे सिंहासन पर बैठे हों। डूबने वाले हैं भाई जी लेकिन किरणें बाअदब,बामुलाहिजा वाले अंदाज में उनके तारीफ में चमक रही हैं। हमको लगा कि सूरज भाई ने भी अपना तारीफ़ी चैनल बना लिया है। शायद उनको भी लगता है कि आज के समय में चमकने के लिए मीडिया जरूरी होता है।
सूरज भाई को देखकर हमको अजय गुप्त जी की कविता पंक्ति याद आई:
सूर्य जब जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच कहूँ मुझे वो बेटियों के बाप सा लगा।
हमने इसकी तर्ज पर सूरज भाई की शान में तुकबन्दी की:
'सूर्य जब जब थका हारा इमारत की छत पर मिला,
सच कहूँ मुझे वो किसी उखड़ते शहंशाह सा लगा।'
सूरज भाई मेरी तुकबन्दी सुनकर लजा से गए। अपनी लाज को मुस्कराहट में लपेट के वो बिल्डिग के पीछे छिप गये।
असहज बातों के जवाब आजकल इसी तरह दिए जाते हैं।

Friday, November 08, 2024

स्टेशन निकल आया

 शहर में बहुत भीड़ है। सड़कें  गाड़ियों के नीचे दबी हैं। फुटपाथ पर या तो दुकानदारों का क़ब्ज़ा है या बेघरबार लोग अपना अस्थाई ठिकाना बनाए हुए हैं। 

जहां-जहां मेट्रो बन रही है वहाँ सड़क तीन भागों में बंट गयी है। बीच का भाग मेट्रो बनाने के लिए घेरा गया है। बाक़ी सड़क आने-जाने के लिए छोड़ दी गयी है। चलो रेंगते हुए, बचते-बचाते। 

कल सीटीआई चौराहे से विजय नगर की तरफ़ आते हुए देखा बड़ा गड्ढा ख़ुदा हुआ है। विजय नगर के नाले (गंदा नाला)  समानांतर दस मीटर लम्बा गड्ढा। एक बच्ची वहाँ कुर्सी पर बैठी उबासी लेती सड़क से लोगों, वाहनों को गुजरते देख रही थी। बग़ल में कई झोपड़ियाँ बनी हैं। एकदम नाले के ऊपर। वर्षों से ये झोपड़ियाँ ऐसे ही ही बनी हुई हैं। किसी भी तरह के परिवर्तन, विकास-विकास की औक़ात नहीं क़ि इनका बाल-बाँका कर सके। 

बच्ची से झोपड़ी के बग़ल में खुदे गड्डे के बारे में पूछा तो उसने बताया -'यहाँ स्टेशन निकल आया है। वही बनेगा।'

स्टेशन निकल आया मतलब मेट्रो स्टेशन। शायद विजय नगर मेट्रो स्टेशन। स्टेशन बनेगा तो झोपड़ियाँ हटेंगी। कुछ नया बनने के लिए पुराना हटेगा ही। हटाने से याद आया कि इस बीच विजय नगर चौराहे पर लगी महाकवि  भूषण की मूर्ति भी हट चुकी है। 

बच्ची से पूछा कि फिर तुम कहाँ जाओगी? उसने कुछ जवाब नहीं दिया। सोच रही होगी शायद -'इस बेवक़ूफ़ी भरी बात का क्या जवाब दिया जाए?'

वहीं पास खटिया पर लेते एक आदमी से बात की। पता चला पास बैठी बच्ची और बग़ल में खेलते बच्चे का पिता है वह। खटिया और उसपर के बिस्तर वर्षों से ऐसे ही पड़े लग रहे थे।

पता चला वो  42 साल से यहीं रह रहा है । बस्ती घर है लेकिन रहता यहीं है। पत्नी बस्ती में है। बच्चे इसके साथ। होटल में खाना बनाने का काम करता है। बच्चों के लिए भी वही बनाता है। बच्चे पढ़े नहीं। स्कूल गए होंगे लेकिन स्कूल और बच्चे एक-दूसरे को रास नहीं आए होंगे। 

स्टेशन बनाने के लिए झोपड़ी हटेगी तो कहाँ जाओगे पूछने पर बताया -'देखेंगे कहीं जुगाड़। अभी तो हफ़्ते भर की मोहलत मिली है।

हफ़्ते भर बाद जिसका ठीहा उजड़ने वाला है वो आराम से खटिया पर लेता हुआ है। पता चला -' कंधे पर चोट लग गयी । इसलिए काम पर भी नहीं जा पाया।'

आदमी से पूछने पर पता चल कि उसका न आधार कार्ड है , न राशन कार्ड , न वोटर कार्ड। अलबत्ता मोबाइल है पास में। बिना किसी पहचान के ज़िंदगी जी रहा है बंदा। 

आधार कार्ड न बनवाने के पीछे कारण बताया -'काम में लगे रहे। बनवा ही नहीं पाए।अब बताते हैं लोग कि  दो हज़ार रुपए लगेंगे बनवाने के।'

आगे एक झोपड़ी के बाहर तीन महिलाएँ-बच्चियाँ एक के पीछे एक बैठी-खड़ी बाल काढ़ रहीं थीं, जुएँ बिन रहीं थीं। सबसे आगे वाली महिला ज़मीन पर बैठी थी, उसके पीछे बच्ची खटिया पर बैठी उसके बाल संवार रही थी, उसके पीछे खड़ी बालिका उसके जुएँ बिन रही थी। सब मिलकर अपने समय का दिन दहाड़े क़त्ल कर रहीं थीं। 

समय काटने के समाज के हर वर्ग के अपने-अपने उपाय होते हैं। कोई जुएँ बीनते हुए बाल बनाते हुए , कोई लड़ते-झगड़ते, कोई बुराई-भलाई करते, कोई हऊजी-पपलू खेलते पार्टी करते , कोई रोते-झींकते, कोई दुनिया को बरबाद करते और कोई दुनिया की चिंता करते हुए समय बिताता है। हरेक के अपने जायज़ बहाने होते हैं समय बिताने के। 

आगे सिग्नल लाल था। एक बच्ची लपक-लपक कर गाड़ियों की खिड़कियाँ खटखटा कर माँग रही थी। हमारी दायीं तरफ़ की खिड़की खुली थी वह उससे सटकर कुछ माँगने लगी। 

बच्ची ने बताया-' सुबह से कुछ खाया नहीं। भूख लगी तो माँगने आ गए।'

'सुबह की बजाय दोपहर में क्यों आई माँगने?' -हमने ऐसे पूछा गोया हम उसकी अटेंडेंस लगा रहा हों।

'हमने सोचा घर में होगा कुछ खाने को। इसलिए सुबह नहीं आए। अभी मम्मी से से पूछा तो उसने बताया कुछ है नहीं तो आ गए माँगने।'- बच्ची ने बताया।

मम्मी किधर हैं?   मेरे पूछने पर बच्ची बच्ची ने बताया -' बहन को नहला रही हैं हैण्डपम्प पर।'

पास में हैण्डपम्प पर एक महिला बच्ची के सर पर पानी डालकर नहलाती दिखी। 

बच्ची मेरी खिड़की से सटी खड़ी थी। उसके माँगने की बात मेरे ज़ेहन में थी लेकिन देने की इच्छा कमजोर सी क्योंकि पर्स पीछे था। बग़ल में रखे होते पैसे तो शायद फ़ौरन दे भी देते। दिमाग़ ने हाथ को आदेश  दिया पर्स निकालने के लिए लेकिन हाथ ने आदेश के पालन में लालफ़ीताशाही का मुजाहरा किया। टाल गया दिमाग़ का आदेश। दिमाग़ को लगा उसने आदेश कर दिया अब उसकी ज़िम्मेदारी ख़त्म हुई। दुनिया में   परोपकार के तमाम काम इसी तरह टलते रहते हैं। 

इस बीच दिमाग़ में  फिर कुलबुलाहट हुई और बच्ची से पूछा -' स्टेशन बनने पर झोपड़ी हटेंगी तो कहाँ जाओगी तुम लोग?'

उसने कहा -' कहीं डाल लेंगे पन्नी।' 

इस बीच सिग्नल हरा हो गया। हम गाड़ी हांक कर आगे बढ़ गए। बच्ची दूसरे लोगों के आगे-पीछे घूमते हुए माँगने लगी। 


Thursday, November 07, 2024

किताबें छपवाने का प्लान

अभी तक अपन की सात किताबें आ चुकी हैं:

1. पुलिया पर दुनिया 

2. बेवक़ूफ़ी का सौंदर्य 

3.  सूरज की मिस्ड काल 

4. झाड़े रहो कलट्टरगंज 

5. घुमक्कड़ी की दिहाड़ी 

6. आलोक पुराणिक -व्यंग्य  का एटीएम 

7. अनूप शुक्ल -चयनित व्यंग्य  


पिछले कई दिनों से अपने लेखन की  छँटाई  करके किताबें तैयार करने का मन  बना रहा। टलता रहा। अमेरिकी यात्रा संस्करण की किताब 'कनपुरिया कोलंबस' तो तैयार भी कर ली थी । एक  प्रकाशक को भेज भी दी थी। लेकिन लगता है किताब ग़ायब हो गयी वहाँ से।  इस बीच जीमेल की सफ़ाई करते उसकी पांडुलिपि भी उड़ गयी। फिर तैयार करेंगे किताब। 

इसके अलावा अपने लिखाई जमा करके कुछ और किताबें तय की हैं प्रकाशित करने को। अभी तक कुल जमा ये किताबें सोची हैं :

1.   कनपुरिया कोलंबस -अमेरिका यात्रा पर संस्मरण 

2.  ट्रेन और हवाई यात्राओं के संस्मरण 

3.  'पुलिया पर दुनिया' के आगे के किस्से 

4. जबलपुर  , कानपुर ,  शाहजहाँपुर , कोलकता के संस्मरण  (चार किताबें)

5.  कश्मीर यात्रा के संस्मरण 

6. लेह - लद्दाख, गोवा, नेपाल यात्राओं के संस्मरण 

7.  वयंग्य की जुगलबंदी के लेखों का संकलन 

8. कट्टा कानपुरी के शेर संकलन 

इन बारह किताबों का मसौदा तैयार है। बस छाँटना बीनना है। ये किताबें छपाने के बाद किताबों की संख्या दो अंको के पार हो जाएगी। ये तो अभी तक लिखे से बनने वाली किताबें हैं। आगे जो लिखेंगे उनसे और किताबें बनेंगी। 

किताबों के ईबुक संस्करण बनाएँगे। किंडल भी। प्रिंट आन डिमांड  सुविधा के तहत आर्डर करने पर किताब छपेगी। 

आपको इस खबर से घबराने की ज़रूरत नहीं है। ये मैंने अपने लिए प्लान तैयार किया है। कोई ज़रूरी थोड़ी कि अमल में लाएँ।

आप बताओ आप मेरी कोई  किताब पढ़ना पसंद करेंगे? 


कमला हैरिस से कह दो, अभी मत जीतें चुनाव में

 कल अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव जीते। कमला हैरिस हार गईं। कई कारण बताये गये कमला हैरिस के हारने के। एक कारण उनका महिला होना भी ज़रूर रहा होगा। मेराज फैजाबादी के शेर की तर्ज पर अमेरिका वालों का शायद कहना है :

कमला हैरिस से कह दो, अभी मत जीतें चुनाव में,
अभी महिला राष्ट्रपति के लिये, तैयार नहीं हैं हम लोग।
अमेरिकी समाज बावजूद तमाम बराबरी के कहीं गहरे में पितृ सत्ता का हिमायती है।
मेराज साहब का शेर भी पढ़ लें:
चाँद से कह दो अभी मत निकल
अभी ईद के लिए तैयार नहीं हैं हम लोग।

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अमेरिका चुनाव वायदे

कल अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आए। डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिकी लोगों में दुबारा अपना मुखिया चुना। कमला हैरिश हार गयीं। शायद अमेरिका अभी महिला राष्ट्रपति चुनने के लिए  तैयार नहीं है। महिलाओं वोटिंग का अधिकार भी देर से मिला था अमेरिका में। मुखिया भी चुनी जाएँगी कभी भविष्य में। 

ट्रम्प जी के जीतने की आहट से क्रिप्टोकैरेंसी उछलने गयी। क्रिप्टोकैरेंसी मुझे 'करप्शन कैरेंसी' लगती है। पता नहीं सच क्या है?

अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव पर जगदीश्वर चतुर्वेदी जी की टिप्पणियाँ  उल्लेखनीय है:

1. ईसाई फंडामेंटलिज्म और शस्त्र उद्योग ने अमेरिका में जनता के विवेक का मुंडन किया।

2. ट्रंप की नहीं यह नस्लवाद औरशस्त्र उद्योग की जीत है ।

3. हथियार निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उम्मीदवार ट्रंप का संघी खुलकर समर्थन कर रहे हैं।यह है संघ का असली चेहरा।

डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार में कहा था कि वे इज़राइल-फ़िलिस्तीन की लड़ाई एक दिन में ख़त्म कर देंगे। रूस यूक्रेन युद्द भी रोक देंगे। आने वाला समय बताएगा कि उनका बयान जुमला था या हक़ीक़त। 

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