Saturday, June 14, 2025

मरता गरीब इंसान ही है

 आज सुबह टहलने निकले। सोसाइटी की तमाम कारों के वाइपर झंडे के डंडे की तरह सलामी मुद्रा में उठे थे। । कार की सफ़ाई करने वाले सामने का शीशा साफ़ करके वाइपर उठा देते हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि कार साफ़ की जा चुकी है ।

मेन गेट पर नेकचंद मिले। हाल ही में उनकी पत्नी का निधन हुआ है। पीलिया से। देर में पता लगा इसलिए गंभीर हो गया रोग। बहुत इलाज कराया। देखभाल के लिए बेटे ने नौकरी भी छोड़  दी।इलाज में खर्चे के लिए कर्ज लिया , खेत गिरवी रखें।  लेकिन बची नहीं। बेटे की शादी अगले महीने होने वाली थे। पत्नी के न रहने पर स्थगित हो गई। 

पारिवारिक स्थिति बयान करते हुए नेकचंद ने बताया -"चार बिटिया हतीं। सबकों निकार दओ। बेटा बचो है, उसऊ कि शादी हती  अगले महीना। लेकिन बे रहीं नहीं। आख़िर तक कहती रहीं , बहुरिया क मुँह नाईं देख पाए।" (चार बेटियां थीं। सबकी शादी कर दी। बेटा है , उसकी भी शादी थी अगले महीने। लेकिन वे (पत्नी)  रही नहीं। आख़िरी तक कहती रहीं , बहू का मुँह नहीं देख पाये)। समाज के बड़े वर्ग में अभी भी बेटियों-बेटों की शादी करना सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना जाता है। बेटियों की शादी मतलब उनको घर से निकालना , समाज में लड़कियों के हाल बयान करता है।

22 साल का बेटा अभी घर पर ही रहता है। नौकरी दुबारा मिली नहीं है ।  वह खाना-वाना, चाय तक नहीं बना पता। नेकचंद ही उल्टा-सीधा बनाते हैं। चार बहनों के बीच अकेला भाई वैसे भी दुलारा होता है। कुछ सिखाया नहीं जाता उसको। 

नेकचंद से विदा लेकर आगे बढ़े। सड़क किनारे के झोपड़ियों की दुकानें लगने लगीं थीं। सड़क के दोनों तरफ़ सोसाइटियों की कतार है। एक स्कूल में समर कैंप लगा है। कारों से उतरे बच्चे नेकर-बनियाईन में बेफिक्री से स्कूल की तरफ़ जा रहे हैं। कुछ के माता-पिता भी साथ में हैं। 

सामने से इस्कान संकीर्तन रथ आते दिखा। रथ के साथ कुछ लोगों का जुलूस राम-राम , हरे - हरे  बोलते हुए चल रहा था। सड़क पर आते-जाते लोगों को प्रसाद वितरित करते जा रहे थे। हमें भी ज़बरियन थमा दिया प्रसाद।  रवा का हलवा था प्रसाद में। पीला प्रसाद दोने में । पहले मन किया कि खा लें। लेकिन मीठे से परहेज सोचकर प्रसाद को इज्जत के साथ हाथ में थामे आगे बढ़ गए। सोचा किसी को दे देंगे। 

आगे बढ़ने पर याद आया कि सड़क पर कुत्ता टहलाते हुए एक बच्चा अपने कुत्ते को दोना चटा रहा था। शायद इस्कान समूह के लोगों के द्वारा मिला प्रसाद ही उसने कुत्ते को खिला दिया होगा। इस्कान समूह के बड़े-बड़े मंदिर और सम्पति है दुनिया भर में। तमाम कल्याणकारी काम करते रहते हैं। लेकिन उनके मंदिर और संस्थान संपन्न इलाक़ों में ही मिलते हैं। गरीब बस्तियों में नहीं मिलते इस्कान के मंदिर। 

आगे कई पार्क दिखे। शहरों में जब पार्क ग़ायब होते जा रहे हैं , तब नोयडा में आसपास अच्छे, मेंटेन पार्क देखकर अच्छा लगा। एक जगह सामने से नेकचंद  आते दिखे। अपनी ड्यूटी पूरी करके वे घर वापस जा रहे थे। इस्कान वालों का प्रसाद उनको दे दिया। उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी ले भी लिया। प्रसाद मुक्त होकर हम  टहलते हुए सोसाइटी के पीछे वाले पार्क में पहुँच गए। टहलना शुरू कर दिया। 

पार्क में बने ट्रैक में तमाम लोग टहलते दिखे। कुछ लोग पार्क कसरत करते , बतियाते, गपियाते दिखे। बच्चे उछल-कूद करते  , झूला झूलते दिखे। 

ट्रैक पर  टहलते हुए सामने से एक रोआबदार चेहरे वाले बुजुर्ग फुर्ती से आते दिखे। हमारे बगल से गुजरते हुए उन्होंने अपना  हाथ, जिसमें उन्होंने मोबाइल पकड़ा  था, हमसे दूर कर लिया। शायद उनको लगा होगा , हमारे बगल से गुज़रते हुए कहीं उनके मोबाइल को हमारा मोबाइल छेड़ न दे। 

आगे पार्क में बैठी दो लड़कियां पार्क के पेड़ पर ढेला मारकर कुछ तोड़ते दिखीं। अपने असफल प्रयास पर खिलखिलाते हुए वापस बेंच पर बैठ गयीं। 

चक्कर पूरा होने पर सामने से फिर वही मोबाइल धारी रोआब वाले बुजुर्ग दिखे। इस बार उन्होंने अपना मोबाइल वाला हाथ दूर नहीं किया। शायद इतनी देर में वे आश्वस्त हो गए होंगे कि हमारा मोबाइल शरीफ मोबाइल है। छेड़छाड़ में विश्वास नहीं उसका। 

तीसरे चक्कर में बुजुर्ग के हाथ में मोबाइल की जगह उनका रुमाल था। मोबाइल शायद उन्होंने जेब में रख लिया था। बगल से गुजरते हुए उन्होंने रुमाल वाला हाथ हमसे दूर कर लिया। अब  शायद उनको अपने रुमाल के छेड़ने की चिंता हो रही हो। मुझे लगा अगले चक्कर में शायद वे रूमाल वाले हाथ को हमसे दूर न करें। लेकिन अगले चक्कर में वे दिखे नहीं। शायद अपना टहलने का कोटा पूरा करके घर चले गए हों। 

बगल से गुजरते हुए हाथ दूर कर लेने की बात से लेव टालस्टाय  के संबंध में वर्णित किसी का संस्मरण याद आया । जीने से उतरते हुए सामने से आते किसी को देखकर वे किनारे होकर रुक गए जबकि सीढ़ियों में दोनों के गुजरने की पर्याप्त जगह थी। लेव उस समय 'अन्ना कारनिना' उपन्यास लिख रहे थे। अपने पात्रों के बारे में सोचते रहते। सीढ़ियों से उतरते हुए उनको लगता अन्ना उनके साथ में हैं। दोनों के साथ चलते हुए सामने से आते हुए को रुककर रास्ता दे देते। 

टहलते हुए हमको भी अपना उर्दू का क़ायदा याद आ गया। हम मन ही मन उर्दू के हर्फ़ दोहराते हुए टहलते रहे। 

पार्क में एक आदमी हाथ में चाकू लिए पेड़ के पास टहलता दिखा। मुझे लगा शायद किसी पेड़ की  छाल ले जाने के लिए चाकू लाए हैं। लेकिन थोड़ी देर में  देखा कि वे अपने पास के डब्बे से आटा  चाकू से निकालकर पेड़ों के जड़ों के पास डाल रहे हैं। चाकू को वे चम्मच के तरह प्रयोग कर रहे थे।  आटा चीटियों के लिए डाल रहे थे। याद आया कुछ देर पहले वे कबूतरों के लिए दाना भी डाल रहे थे। 

बुजुर्ग इंसान द्वारा कबूतरों और चीटियों के लिए भोजन का इंतजाम करते देखकर मुझे   इजरायल, गाजा, ईरान, रूस, यूक्रेन में छिड़ी लड़ाइयों के याद आ गई। एक तरफ़ इंसान जानवरों के लिए भोजन का इंतजाम कर रहा है। दूसरी तरफ़ इंसान अपनी ही प्रजाति के लोगों को बर्बाद करने पर आमादा है। दुनिया के बड़े-बड़े देशों के कर्णधार गली-मोहल्ले के लोगों गुंडों की तरह टपोरी टाइप भाषा बोलते हुए गुण्डागिरी पर आमादा हैं। दुनिया एक बड़े शर्मनाक दौर से गुज़र रही है। 

पार्क के  बाहर जूस बेचता  दुकानदार जूस पेरता हुआ अपने ग्राहक से बतियाता हुआ कह रहा था -"लड़ाई कहीं हो लेकिन मरता  गरीब इंसान ही है।"

 एक आदमी चाय की  दुकान पर बैठा अपने मोबाइल को मुँह के आगे ऐसे लगाए था मानों उससे निकलने वाली किसी चीज को पी रहा हो। फिर याद आया मोबाइल का आवाज वाला हिस्सा है वह जिसे मुँह में लगाए हुए वह बात कर रहा था। आगे एक नाला साफ़ करते हुए दो आदमी नाले का कूड़ा निकाल रहे थे। सामने से मोटर साइकिल से पास आकर बोला -"अब शेर और चीता लग गए तो साफ़ ही होकर रहेगा नाला।" हमें लगा बताओ , शेर और चीते अब नाले साफ़ करने में लगे हैं। वैसे कोई बड़ी बात नहीं। ऐसा देश में तमाम जगह हो रहा है। बड़े-बड़े बुद्धिजीवी शेर  राजनीति  से जुड़े सियारों की शादी में बैंड बजाते घूम रहे हैं। 

आगे हमारी सोसाइटी का गेट आ गया। गेट में घुसकर हम अपने घर आ गए। घर  दुनिया में सबसे सुकून की जगह होती है। 











Tuesday, June 03, 2025

साइकिल दिवस

 आज साइकिल दिवस है। साइकिल से जुड़ी तमाम यादें हैं। बचपन में साइकिल तब सीखी जब चौथी-पाँचवीं में पढ़ते थे। घर के पास स्कूल के सामने रहने वाले दोस्त श्रीकृष्ण के पास साइकिल से पहले कैंची चलानी सीखे फिर उचक-उचक कर गद्दी पर बैठ कर चलाना सीखा। 

बचपन से अब तक कई साइकिलें रही साथ में। एक साइकिल में ब्रेक एक ही तरफ़ था। दूसरा ग़ायब। हमारे नाना जी हैलट अस्पताल में भर्ती थे। उनको खाना देने जाते थे। गांधीनगर से हैलट। करीब तीन किलोमीटर की दूरी बहुत लगती थे उन दिनों। एक बार की याद है जब बारिश में गए थे अस्पताल। ब्रेक लग नहीं रहे थे। आहिस्ते-आहिस्ते गए। 

हाईस्कूल तक पैदल ही जाते रहे स्कूल। इंटर में दोस्तों के साथ जाते थे। लक्ष्मी बाजपेयी के साथ जाने की याद सबसे ज़्यादा है। इंटर के बाद इलाहाबाद चले गए इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए। वहाँ किराए की साइकिल से घूमते रहे। तीस पैसे घंटे के हिसाब से मिलती थी साइकिल। कमरा नंबर नोट करा कर ले जाते। घूमते । वापस जमा करा देते। 

इंजीनियरिंग के दूसरे साल के इम्तहान के बाद साइकिल से भारत यात्रा के लिए गए। हीरो साइकिल वालों को लिखा तो उन्होंने

275/-  प्रति साइकिल रुपए के हिसाब से दी। अब याद नहीं कितने रुपए की छूट दी थी। तीन महीनों के यात्रा में एक टायर खराब हुआ था। करीब सात-आठ  हज़ार किलोमीटर चलाने के बाद। कालेज के बाद ध्यान नहीं वह साइकिल कहाँ चली गई। 

कालेज के बाद नौकरी के दौरान कुछ दिन साइकिल चलाई। मुझे याद है आर्डनेंस फैक्ट्री की नौकरी ज्वाइन करने साइकिल से गए थे। इसके बाद साइकिल का साथ बहुत दिन छूटा रहा। करीब तीस साल। तीस साल बाद जब जबलपुर पोस्टिंग हुई तब फिर साइकिल की सवारी शुरू हुई। जबलपुर रहने के दौरान खूब साइकिल चलाई। इसके बाद कानपुर , शाहजहांपुर फिर कानपुर में साइकिल का साथ बना रहा। 

शाहजहांपुर रहने के दौरान हमारे और श्रीमती जी के लिए एक नयी साइकिल का जोड़ा बच्चों ने भेंट किया। हमारी श्रीमती जी के लिए तो ठीक थे साइकिल। लेकिन हमारे  क़द से काफ़ी छोटी थी। नतीजतन एक साइकिल अभी खुली तक नहीं है। हम पुरानी साइकिल ही चलाते रहे कानपुर वापस आने तक। 

कानपुर में हमारी जबलपुर वाली साइकिल पर हमारे आउटहाउस में रहने वालों का क़ब्ज़ा हो गया। वो आने -जाने के काम में हमारी साइकिल का प्रयोग करने लगे।  हम अपने घर में रखी साइकिल चलाने को तरस गए। 

हम पर तरस खाकर हमारे बेटे ने हमारे जन्मदिन पर नयी साइकिल कसवाई। बढ़िया , मोटे टायर वाली साइकिल जिसमें  पानी के बोतल रखने का स्टैंड , बत्ती और बिजली वाली घंटी थी। हम चलाते रहे साइकिल कानपुर में लेकिन साइकिल कुछ ज़्यादा जमी नहीं । हमको पुरानी साइकिल ही बढ़िया लगती रही। 

बाद में साइकिल से चलना कम हो गया। पैदल चलना बढ़ गया। फ़िलहाल तो साइकिल लखनऊ के घर में इंतजार कर रही है हमारा है। हम भी उस पर सवारी करने का इंतजार कर रहे हैं। 

साइकिल से जुड़े अनगिनत किससे हैं यादों में । काफ़ी पहले हमारे पास प्रसिद्ध  इतालवी उपन्यास 'साइकिल चोर' का हिंदी अनुवाद  था । आधा पढ़ा था । फिर ग़ायब हो गया। आज अभी देखा किताब का अंग्रेजी अनुवाद नेट पर उपलब्ध है। पूरा पढ़ेंगे अब इसे । 

साइकिल से कई यात्राएँ भी प्लान की थीं। एक साइकिल से नर्मदा परिक्रमा करना भी प्लान में था। और भी कई प्लान थे लेकिन अमल में कोई नहीं आ पाया अभी तक। क्या पता आगे कभी किसी प्लान पर अमल हो जाये। 

एक सर्वे के अनुसार देश की आधी आबादी के पास साइकिल है। लेकिन साइकिल  चलाने वाले कम  होते जा रहे हैं। बाइक और कार का चालान बढ़ रहा है। 

साइकिल सेहत और पर्यावरण के लिहाज से सबसे अच्छी सवारी है। क्या पता आने वाले समय में जब ऊर्जा के किल्लत बढ़े तब शायद दुनिया में फिर से साइकिल का जलवा क़ायम हो। 

 आपको साइकिल दिवस की  बधाई।