Sunday, June 11, 2006

नेतागिरी,राजनीति और नेता

http://web.archive.org/web/20110101193413/http://hindini.com/fursatiya/archives/140

नेतागिरी,राजनीति और नेता

अनुगूंज-२०
अनुगूँज के विषय नेतागिरी,राजनीति और नेता पर कुछ लिखने के पहले देश प्रख्यात व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल के लेख दि गैंड मोटर ड्राइविंग स्कूल के कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इस लेख में एक ट्रांसपोर्ट अफसर एक गाड़ी चलाना सिखाने वाले उस्ताद से उसका ड्राइविंग लाइसेंस मांगता है। उस्ताद कहते हैं कि उनके पास लाइसेंस नहीं है। उन्हें गाड़ी चलाना नहीं आता। अफसर चालान की धमकी देता है तब उस्ताद कहते हैं-
कर दीजिये,पर आप साबित कैसे करेंगे कि मैं गाड़ी चलाना जानता हूँ।
इसके बाद की कहानी ये है:-
अपने को काबू में लाकर अफ़सर अब अफसराना अन्दाज़ में पूछता है,”यानी कि खुद गाड़ी चलाने की तमीज नहीं और दूसरों को आप गाड़ी चलाना सिखा रहे हैं?”
“बेशक़ ज़नाब,आपने दुरुस्त फरमाया,” उस्ताद अफस़र की गाड़ी के बोनेट पर बाईं कुहनी टेक देते हैं और,जैसे नीचे बैठी जनता को लालकिले के ऊपर से सम्बोधित कर रहे हों,कहते हैं,”पर इससे आपको हैरत क्यों हो रही है? ऐसा तो आजकल सारे देश में हो रहा है। खुद अपने को देखिये,आप संस्कृत में एम.ए. हैं पर मोटरों के महकमें में अफसर हो बन गये हैं। मैं एक करोड़पति को जानता हूँ । वह कुछ गुप्त रोगों से पीड़ित था। चिकित्साशास्त्र से उसका कुल मिलाकर यही रिश्ता था। वह अब एक प्राइवेट कालेज चला रहा है। मैं एक ऐसे शख्स को भी जानता हूँ जो एक चुंगी चौकी पर नाकाबदार था। यानी उसके सारे जीवन का कुल यही अनुभव था कि किस तरह सड़क के आर-पार शहतीर खींचकर सामने आती गाड़ी को रोक लिया जाय। आज वह एक राज्य में गृहमन्त्री है और पुलिस कप्तानों को कानून और व्यवस्था के दाँवपेंच सिखाता है। सिर्फ भैंस चराकर आजकल मुख्यमन्त्री हो जाते हैं और मुँह खोलकर ‘भक्’ से जैसे ही कोई आवाज निकालते हैं वही उनका नीति सम्बन्धी वक्तव्य बन जाता है। उन्हें भरोसा है,और इस बात की अकड़ भी ,कि जो भैंस चरा सकता है वह राज्य के आठ-दस करोड़ इंसानों को भी चरा सकता है क्योंकि उधर भैंस है और इधर भेंड़ें हैं। और आप उन्हें भी हैं जिन्हें मिनिस्टरी तो दूर ,जिला परिषद के अध्यक्ष की कुर्सी तक कभी नहीं मिली और वे अचानक देश के प्रधानमन्त्री बन बैठे। आप भला मुझी से गाड़ी चलाने का लाइसेंस क्यों मांग रहे हैं? यहाँ से दिल्ली तक जाकर कहीं भी चेक कर लीजिये, प्रजातन्त्र की गाड़ी चलानेवाले और उस्ताद बनकर उन्हें सिखानेवाले आपको जो भी मिलेंगे,मुझसे कतई बेहतर नहीं होंगे। इसके बावजूद आप मेरा चालान करना चाहें तो कर दें। पर आपको शिकायत नहीं होनी चाहिए कि मैंने पूरी बात नहीं बताई। इसलिए कहना पड़ता है कि मैं अनाथ हूँ। मैं उनमें से हूँ जिन पर मामूली कानून लागू नहीं होते। यानी मैं कोई जनता नहीं हूँ। मैं वी.आई.पी. हूँ। इत्तफा़क़ से आपके मेरे परिवहन मन्त्री मेरे भतीजे हैं।”
इतना कहकर उस्ताद मेरी ओर देखते हैं और मेरी सवालिया निगाह का जवाब देते हैं,”जी हाँ। यह मेरा तीसरा भतीजा है। पर वह कभी ड्राइवर नहीं रहा। पहले वह बस कंडक्टर था,यूनियनबाजी़ के चक्कर में उसे नौकरी से हाथ धोना पड़ा। आखि़र में मरता क्या न करता ,बेचारा मिनिस्टरी कर रहा है।”
देश की राजनीति पर यह उद्धरण टाइप करने के बाद मुझे समझ नहीं आता कि नेतागिरी,राजनीति,और नेता पर क्या कुछ लिखा जाय!
इस बारें में मुझे गीतकार रामेंन्द्र त्रिपाठी की कविता याद आती है:-
राजनीति की मंडी बड़ी नशीली है,
इस मंडी ने सारी मदिरा पी ली है।
किसी भी देश की नियति को उस देश की राजनीति सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। यह विडम्बना ही रही कि हमारे देश में आजादी के बाद अगर किसी पेशे का सबसे ज्यादा पतन हुआ है तो वह राजनीति का हुआ है। देश की नियति को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले पेशे में देश के सबसे घटिया लोग घुसे हैं।
देश के सबसे घटिया लोग राजनीति में इसलिये हैं क्योंकि अच्छे लोग राजनीति को गन्दा समझकर यहाँ में आना नहीं चाहते। वे दूसरे माध्यमों से देश की सेवा करना चाहते हैं। यह सोचकर कि जब कभी राजनीति साफ होगी तब यहाँ आयेंगे ,अच्छे लोग साफ सुथरी जगहों में चले जाते हैं। अच्छे तथा क्षमतावान लोग गंदगी से दूर भागते रहे-साफ,सुथरी निरापद जगहों पर।
गंदगी उनका पीछा करती रही। गंदगी की रफ्तार तथा मात्रा बहुत तेज होती है। देश,दुनिया का हर निरापद स्थान गंदगी की चपेट में आ चुका है।
कारण क्या थे समझना शायद मुश्किल हो लेकिन देश की राजनीति दिन पर दिन पतित होती जा रही है। नेताओं का कुर्सी के सिवाय कोई सिद्धान्त नहीं रहा। कभी दक्षिणपंथी पार्टियों से घृणा करने वाले देश का चक्का जाम करने का जीवट तथा करिश्मा रखने वाले जुझारू तेवर वाले नेता दक्षिण पंथी पार्टी की गोद में बैठकर उसके संयोजक मँत्री बन जाते हैं। कुर्सी के लिये नेता अपनी पूरी की पूरी पार्टी लेकर फर्शफांद (क्रासिंग द फ्लोर)जाता है। जिस आपातकाल में लोग अपना मुँह सिले गुफाओं में बैठे रहे वे आपातकाल के बाद अपने गुफावास के दौरान वीराने में किये इशारों को आपातकाल के साहसिक विरोध के रूप में व्याख्यायित तथा महिमामंडित करते हैं।
राजनीति में जनता से जुडा़व को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है। आम जनता अब राजनीति में सबसे निचले पायदान पर पहुँच चुकी है। राजनीति अब सेवा , त्याग के चोंचलों से उबरकर ‘इवेंट मैंनेजमेंट’ बन गई है। जनसंवेदना को मैनेज करने का कौशल सबसे बड़ी काबिलियत है।
राजनेताओं के इसी काबिलियत को बयान करते हुये शायर मेराज़ फैजाबादी लिखते हैं:-
पहले पागल भीड़ में शोला बयानी बेचना,
फिर जलते हुये शहरों में पानी बेचना।
आम जनता रोज ठगी जाती है। नेताओं से उसका मोहभंग हो चुका है तथा विश्वास उठ गया है। मध्यवर्ग जिसे कभी बुद्धिजीवी वर्ग कहा जाता था तथा समाज के दिशानिर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला माना जाता था उसे मध्यवर्ग से उच्चवर्ग की तरफ बढ़ने का रास्ता दिख गया है। त्याग,तपस्या,कुर्बानी जैसे शब्द बचकाने तथा फैशन से बाहर हो गये हैं। कुछ साल पहले बच्चे अपने बुजुर्गों के इन जज्बों को आदर देते थे। तब उनके आसपास वे थे तथा उनके बुजुर्ग थे। लेकिन अब समय के साथ दुनिया बहुत तेज हो गई है। वे अपने बुजुर्गों की अनाकर्षक एकरूपता के अलावा चमकती-दमकती दुनिया तथा झटके से सम्पन्न होते लोगों की भीड़ को देखते हैं। उन्हें लगता है कि हमारे बुजुर्गवार फालतू में अपनी जिंदगी बरवाद कर रहे थे।
ऐसा हो ही नहीं सकता कि समाज के एक हिस्से की गंदगी दूसरे हिस्से में बदबू न करे। समाज तथा राजनीति एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। राजनीति तो हमारे समाज का शोकेश है। जैसा समाज है वैसी राजनीति है। देश में गुंडे,मवाली,भ्रष्ट,आवारा लोग छा रहे हैं तो राजनीति में कैसे इससे बची रहेगी।
सरकारी दफ्तरों में सारे नियम,कानून को धता बताते हुये येन-केन-प्रकारेण कागज पर अपना लक्ष्य पूरा करने वाले अधिकारी जब डैसिंग,स्मार्ट और रिजल्ट ओरियेंटेड माने जायेंगे तो ऐसे लोग बढ़ेंगे ही जो राहत घोटाला,छात्रवृत्ति घोटाला,टाटपट्टी घोटाला ये घोटाला ,वो घोटाला करते पाये जायेंगे।
आजादी के समय एक रेल दुर्घटना के कारण नैतिक जिम्मेदारी मानते हुये लालबहादुरशाष्त्री ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। पचास सालों में भारतीय राजनीति इस भावुकता से उबर चुकी है। बडे़ से बड़ा अपराध के बावजूद नेता तब तक कुर्सी नहीं छोड़ता जब तक धकिया के बाहर न कर दिया जाय। उसका देशसेवा का बुखार तब तक नहीं उतरता जब तक कि उसे ठंडा करने के लिये हिमालय न भेजा जाय।
हर नेता दूसरे से घटिया हरकतें करके उसका रिकार्ड तोड़ना चाहता है। इसके बाद हर नेता दूसरे को अपने से घटिया सिद्ध करने में अपना पूरा कौशल लगा देता है। हरिशंकर परसाई के शब्दों में:-
हर नेता दूसरे की धोती खींचता है। कुछ तो शुरू से ही सिर्फ चढ्ढी पहने हैं। वे नाडा़ खींचते ही नंगे हो जाते हैं।
पूरी एक पीढ़ी बीत जाती है एक नेता पर हुये अपराध का निर्धारण करने में । फैसला होते-होते नेता का प्रमोशन हो जाता है-वह दूसरे लोक में राजनीति करने चल पड़ता है। यहाँ फाइलों तथा नेता की मूर्ति पर फूल चढ़ा दिये जाते हैं। यह व्यवस्था का राजनीति करण है।
देश का सबसे जहीन तबका सिविल सर्विसेस को माना जाता है। कभी उसके नीर-क्षीर विवेक पर समाज को भरोसा था। उसकी सहमति के बिना नेता कोई कदम नहीं उठा पाते थे। लेकिन ‘मिडिल क्लास’ से निकली इस क्रीम में पता नहीं कौन सी खुशबू या बदबू मिल गई कि यह क्रीम नेताओं के तलुये चाटती फिरती है। आपातकाल के दौरान के अनुभव बयान करते हुये किसी ने लिखा-
हमारे देश की नौकरशाही को बैठने को कहो तो वह लेट जाती है।
जब देश की सबसे जहीन,ताकतवर लाबी देश के सबसे निठल्ले,गैरजिम्मेदार नेताओं के इशारों पर नाचेगी तो राजनीति कैसे चलेगी?
ये कैसे हो सकता है कि कल तक पारिवारिक संपदा के नाम कुछ खेतों की मल्कियत वाला मास्टर कुछ सालों में सैकड़ों करोड़ कमा ले तथा देश के सबसे जहीन लोगों से युक्त राजस्व सेवा,आयकर वाले बगले झांकते रहें। उन्हें हवा तक न लगे।
यह नौकरशाही का राजनीतिकरण है कि वह वही देखती है जिसे देखने से उसका सुख चैन बना रहे। जिस पर अमल करते हुये वह बीस हजार की तन्ख्वाह में बीस लाख के ऐशो-आराम जुटा सके।इसमें कीमत भी कुछ खास नहीं चुकानी पड़ती है। सिर्फ कुछ समझौते करने पड़ते हैं। आत्मा को मारना पड़ता है। दुनिया में सब ऐसे ही चलता है , समझना पड़ता है। तथा कभी-कभी निलंबन से बचने के लिये सरेआम हवाई अड्डे पर नेता के पैर पकड़ने पड़ते हैं।
देश के हर व्यवसाय को राजनीति ने प्रभावित किया है। वहीं हर क्षेत्र का प्रभाव राजनीति पर पड़ता है। ये कोई बंद डिब्बे में अलग-अलग रखे आइटम नहीं हैं जो एक दूसरे पर असर न डालें।
अनुगूँज के विषय पर आते हुये आमिर खान के बहाने कुछ बातचीत। इस मुद्दे पर हुये घटनाक्रम से राजनीति के चरित्र का कुछ अंदाज पता चलता है।
मेधा पाटकर तथा अन्य उनके साथी नर्मदा आंदोलन से जुड़े हैं। पता नहीं किन परिस्थितियों में आमिर खान ने उनका समर्थन किया। गुजरात के कुछ छुई-मुई लोगों ने हल्ला मचा दिया कि हम आमिर की फिल्म ‘फ़ना’ गुजरात में चलने नहीं देंगे।गुजरात के लोगों को शायद अपने संविधान के मौलिक अधिकार बिसर गये जिनमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी एक अधिकार है।
पता नहीं सारे गुजरात वालों के इस बारे में क्या विचार हैं लेकिन आमिर खान ने बयान दिया कि चाहे गुजरात वाले कुछ कहें,मेरी फिल्म देखें या न देखें मैं अपना बयान नहीं बदलूँगा।
बात सिर्फ इतनी थी। लेकिन जितना प्रचार मेधा पाटकर को शायद पिछले बीस सालों के अनवरत आन्दोलन से नहीं मिला होगा उससे कहीं ज्यादा ‘कवरेज ‘आमिर खान के नर्मदा बांध से प्रभावित लोगों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण बयानबाजी तथा बाद के ‘प्रायोजित शहीदाना तेवर’ से मिल गया।
सच तो शायद यह होगा कि आमिर खान के बयान से नर्मदा आन्दोलन के लोगों को जितना फायदा हुआ होगा उससे कहीं ज्यादा उनकी फिल्म को प्रचार मिल गया होगा।
कुछ दिन के लिये माहौल यह बना कि लगा नर्मदा बांध के विस्थापितों के एकमात्र मसीहा आमिर खान हों।आमिर खान एक गैरराजनीतिक व्यक्ति हैं। गुजरात गये होंगे। किसी ने पूछ लिया होगा- हाऊ डु यू फील अबाउद नर्मदा वैली सफरर ? रंग दे बसंती का नायक बोला होगा- वेल, दे मस्ट बि प्ररापरली रिहैबिटेट। इसी की कड़ी से जुड़े कुछ और सवाल रहे होंगे । जाहिर है कुछ जवाब भी होंगे। मीडिया की कृपा से मामला उछल गया -गरमाता रहा। (यहाँ दिये संवाद काल्पनिक हैं। अंग्रेजी में इसलिये कि आमतौर पर हिंदी फिल्मों के अभिनेता अंग्रेजी बोलने में ज्यादा सहज होते हैं।)
आमिरखान को यह समझ नहीं होगी कि कैसे इनको निपटा जाये। वे नायकों के लिये सर्वसुलभ शहीदाना तेवर वाले खम्भे पर चढ़ लिये । जितने टीवी कवरेज मैंने देखे उनमें मेरे ख्याल में किसी में भी आमिर खान ने मेधा पाटकर या नर्मदा आन्दोलन से जुड़े लोगों में से किसी का नाम लिया या उनके महत्व का रेखांकन किया। पूरे पीड़ितों के मसीहा बनकर सीना खोलकर खड़े हो गये -लो उड़ा दो तोप से।
अगर आमिर खान नेता होते तो इस लांचिग पैड से आगे बढ़कर इस मुद्धे पर आंदोलन करते तथा धीरे-धीरे मेधा पाटकर की जमीन पर अपना हल चलाने लगते। इसे कहते मेधा पाटकर से मुद्दा छीनकर अपनी नेतागिरी चमकाना। लेकिन इसमें भी मेहनत पड़ती है। लिहाजा आमिरखान का यह कदम नेतागिरी के दायरे में नहीं आयेगा। इसे खाली ‘इवेंट मैंनेजमेंट’ कहा जायेगा। उनकी फिल्म चल गई। अब इस मुद्दे पर उनके कोई बयान मेरे ख्याल से नहीं आयेंगे।
आजकल राजनीति बहुत जटिल प्रक्रिया हो गयी है। केवल त्याग,तपस्या,सेवा भाव लिये हुये आप स्वयंसेवक से आगे नहीं बढ़ पायेंगे। आपका कार्यक्षेत्र केवल रैलियों में पूड़ी-सब्जी बटवाना तथा हमारा नेता कैसा हो,नेताजी जैसा हो से आगे नहीं बढ़ेगा। इसके आगे बढ़ने के लिये आपको हर वह काम करने पड़ेंगे जिनसे दूर रहने के लिये आप भाषण करते रहते होंगे।मुद्दे झपटने होंगे। दूसरे के लिये काम पर अपना पत्थर लगवाना होगा। और न जाने क्या-क्या करना होगा। इस पर भी पता नहीं कि सफलता आपके कदम चूमें या आपको लतिया के किसी दूसरे की गोद में जा बैठे।
राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। कोई मूल्य शाश्वत नहीं। पता नहीं कब नेता को माला पहनाते अनुयायी के हाथ नेता का घोंट दे तथा जनहित में नेता की विरासत संभाल ले। पता नहीं कब नेता के चरण छूता सेवक नेता के पैर के नीचे की कालीन घसीट कर नेता को जमीन सुंघा दे तथा उसके ठीक होने तक खड़ाऊँ शासन करने लगे । तथा बाद में नेता को अस्पताल से जेल भेज से तथा जनहित में खड़ाऊँ शासन की अवधि अनन्त काल तक बढ़ाता रहे। पता नहीं कब नेता किसी मुद्दे पर यू टर्न लेकर एकदम विपरीत अंदाज में जनता के साथ मुट्ठियाँ भांजने लगे।
नेहरू जी के अलावा जितने भी प्रधान मंत्री देश में बने वे सारे के सारे किसी न किसी दूसरे को प्रधानमंत्री न बनने देने की साजिश का परिणाम रहे।
रूस में कम्युनिस्ट सरकार के पतन के बाद का दृश्य याद है मुझे। न जाने कहाँ से एक नशे में डूबी आंखो वाला आदमी कूदकर टैंक के ऊपर चढ़ गया तथा भाषण देने लगा। कुछ दिन बाद वही रूस का राष्ट्रपति बना। पता नहीं मैं कितना सही हूँ लेकिन लोग बताते हैं कि जो स्तालिन लेनिन के बाद रूस की सत्ता पर काबिज हुये लेनिन उनको बिल्कुल पसन्द नहीं करते थे तथा बाद के दिनों में स्तालिन के तानाशाही रवैये ने कम्युनिस्ट सरकार को असहिष्णु ,गैरजनवादी सरकार बनाने की दिशा में शुरुआत की जिसके कारण अंतत: वहां कम्युनिस्ट सरकार का पतन हुआ।
राजनीति मेरा विषय नहीं है। न ही मेरा इसमें कोई दखल हैं । लेकिन मुझे लगता है कि राजनीति समाज के हर क्षेत्र को प्रभावित करती है। वहीं समाज का हर क्षेत्र राजनीति पर कुछ न कुछ असर जरूर डालता है। आज हमारे देश की राजनीति में गिरावट है, पतन है तो इसका कारण हमारा समाज है। समाज के लोग जब तक साफ नहीं होंगे राजनीति में गंदगी बनी रहेगी। राजनीति के पतन के पीछे हमारी यह सोच सबसे ज्यादा जिम्मेदार है कि यह क्षेत्र गन्दा है। शरीफों के जाने के काबिल नहीं है। जब शरीफ लोग किनाराकसी करेंगे तो गुंडे,मवाली उसमें घुसेंगे ही।
यह मामला कुछ कुछ किसी पार्क की तरह है जिसमें जब आम जनता की भीड़ कम होती है तो गंजेड़ी,भंगेड़ी,नशेड़ी चिलम लेकर अखाड़ा जमा लेते हैं। अपने बगीचे को बचाना हो तो उसके लिये सही माली का काम भी इंतजाम भी करना पड़ता है।
अपने उद्धार के लिये हम देवदूत की तरह नेताओं की बाट जोहते रहे तो पता नहीं देवदूत कब अवतार लें। तब तक हम नेतागिरी का तांडव झेलते रहें-नेतागिरी, राजनीति और नेता को कोसते हुये।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

7 responses to “नेतागिरी,राजनीति और नेता”

  1. nitin
    बहुत ही सटीक लेख है.
    “राजनीति अब सेवा , त्याग के चोंचलों से उबरकर ‘इवेंट मैंनेजमेंट’ बन गई है। जनसंवेदना को मैनेज करने का कौशल सबसे बड़ी काबिलियत है।”

    जनसंवेदना के मैनेजमेंट में हमारे नेता शायद दुनिया के सबसे बेहतरीन मैनेजर है. कोई मुद्दा ना हो तो मुद्दा बना कर नेतागिरी कर लेते है.
  2. Tarun
    अनूपजी मजा आ गया पढ़ कर क्‍या सटीक लेख लिखा है -
    किसी भी देश की नियति को उस देश की राजनीति सबसे ज्यादा प्रभावित करती है। यह विडम्बना ही रही कि हमारे देश में आजादी के बाद अगर किसी पेशे का सबसे ज्यादा पतन हुआ है तो वह राजनीति का हुआ है। देश की नियति को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले पेशे में देश के सबसे घटिया लोग घुसे हैं।
    वैसे नेहरू जी भी किसी और को देश के प्रधानमंत्री के रूप में देखना नही चाहते थे और शायद यही आज की राजनीति का बीज हो
  3. SHUAIB
    हमेशा से आपका लेख पढ कर बहुत अच्छा लगा है।
  4. संजय बेंगाणी
    बहुत अच्छा लिखा हैं, लगता हैं मौका ही ढ़ूंढ़ (खोज) रहे थे यह सब लिखना का.
    वैसे आपके इस कथन से सहमत नहीं हुं कि
    “नेहरू जी के अलावा जितने भी प्रधान मंत्री देश में बने वे सारे के सारे किसी न किसी दूसरे को प्रधानमंत्री न बनने देने की साजिश का परिणाम रहे।”
    दरअसल नेहरू भी पटेल को प्रधानमंत्री न बनने देने का जुगाड़ थे.
  5. आशीष
    अपने उद्धार के लिये हम देवदूत की तरह नेताओं की बाट जोहते रहे तो पता नहीं देवदूत कब अवतार लें। तब तक हम नेतागिरी का तांडव झेलते रहें-नेतागिरी, राजनीति और नेता को कोसते हुये।
    पूरे लेख पर भारी पढती हैं, जरूरत है पढे लिखे लोगो की जो लोक पारित्राण पार्टी के नेताऒ के साथ चले. लेकिन बेचारे १०% वोट भी नही ले पाये।
    लेकिन मुझे खुशी है कि मैने उन लोगो का चुनाव प्रचार किया था।
  6. e-shadow
    क्या लिखा है गुरुदेव। आप तो एकदमै छा गये हैं।
  7. अवलोकन: अनुगूँज 20 - नेतागिरी, राजनीति और नेता at अक्षरग्राम
    [...] इन्हें छींटे बौछार का फायदा ये हुआ कि अच्छे वोट मिल गये। इस बीच प्रेमलता पांडे ने पर्चा भरने की फर्जी सूचना दे दी ये भी कयास लगाये गये कि हो सकता है कि इन्होने प्रेम की लता पर्चे के चारों ओर लपेट नामांकन ही वापस ले लिया हो। अपना पर्चा भरने आये फुरसतिया तो लगता था पर्चा भरने बड़ी फुरसत में आये हैं क्योंकि कहने लगे पहले हमसे ड्राइविंग सीखो तभी आगे की बात करेंगे। जबरदस्त सी ड्राइविंग सीखा लगे कविता करने [...]

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