Sunday, June 18, 2006

मौसम बड़ा बेईमान है…

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मौसम बड़ा बेईमान है…

हमारी गुलमोहर गाथा पर देबाशीष की टिप्पणी थी:-
और मुझे अब समझ आया कि पुणे में आपने गुलमोहर के चित्र भला क्यों उतारे!
पूना यात्रा के दौरान हमने कुछ फोटो और भी ‘खैंचे’ थे। पूना प्रवास के बारे में लिखते हुये हमने बताया था:-
मैं देबाशीष के आने की राह तथा सड़क पर गुजरती सुंदरियों को ताकने लगा।
देबाशीष के आने में करीब १५ मिनट लगे होंगे। इतनी देर में जितनी सुंदरियों को ताक सकता था ताका बाकी की सुंदरियों को दूसरे के ताकने के लिए छोड़कर हम चाय की दुकान की तरफ गम्यमान हुये।

देवी है या देवता कौन बूझे?<br />
आगे लिखने के पहले बता दें कि ये जितनी ताक सकते थे ताका बाकी को दूसरों को ताकने के लिए छोड़ दिया स्टाइल हमने स्व.रवीन्द्र नाथ त्यागी के लेख से उड़ाया है सो अच्छा लगे , बुरा लगे तो इसमें हमारा कोई दोष नहीं है। बुजुर्गों के लेखन पर हमारा इतना हक तो है ही।
इस दौरान जैसा कि हमारे स्वामीजी बताइन हैं चीजें अपना उपयोग करने को उकसाती हैं हमारे कैमरे ने अपना उपयोग करवाया तथा हमने कुछ फोटो भी लिये। ये फोटो लेते समय हमने गौर किया कि सारा सौन्दर्य नकाबपोश सा हो रखा है। हर सुंदरी मरजीना या रजिया सुल्तान के अंदाज में अपना चेहरा ढके थी । वहीं मोटर साइकिल पर उड़ी बाबा के अन्दाज में उड़ता मर्दाना सौन्दर्य देखकर लग रहा था कि चम्बल के इलाके में आ गये हैं जहाँ डाकू मोहरसिंह, तहसीलदार सिंह अपना घोड़ा त्यागकर मोटर साइकिल पर आरूढ़ होकर अपनी रोजी-रोटी कमाने निकल चुके हैं। घोड़ों की टप-टप टापों कों मोटर साइकिल की फट-फट ने अतीत में फुटा दिया है। घोड़े से मोटरसाइकिल का सफर जैसे ब्लागस्पाट से वर्डप्रेस का सफर- सब कुछ लागे नया-नया।
जब मैं यहाँ मर्दाना सौन्दर्य टाइप कर रहा था कि यह मन किया कि मर्दाना सौन्दर्य की जगह ‘हैंडसम’ जैसा सा कुछ लिखें हिंदी में लेकिन तुरत ख्याल आया कि हैंडसम का हिंदी अनुवाद तो बहुत ‘सिली’ जैसा सा है — ‘हाथ की तरह’ या हाथ का जोड़ । दोनों ही कुछ जमें नहीं नहीं सो मर्दाना सौन्दर्य पर ही लंगर डाले रहे। ठीक किया न!

समुखि सजी है सीट पर
बहरहाल,हम जहाँ खड़े थे वह तिराहा था। आफिस छूटने का वक्त हो गया था। तमाम सुंदरियां अपने-अपने आफिस से निकलकर ,मोबाइल पर अपने उनको,इनको अपने प्रतीक्षारत होने की सूचना देकर ‘इंतजार मोड’ में चली जातीं। कुछ देर में हम उनको उचककर किसी दुपहिये की पिछली सीट पर आरूढ़ होते देखते और हम अपने नयनपटल से उस छवि को ‘डिलीटकर’किसी दूसरे चेहरे पर टिकाते। नेत्र चंचल होने के बावजूद एक चेहरे से उजड़कर दूसरे में स्थापित होते-होते थक जाते लेकिन वे कर्मवीर बने जुटे रहे। तब तक जब तक कि सामने किसी सुमुखि-सुंदरी के चेहरे की जगह देबाशीष का चेहरा नहीं आ गया।
यह बात जब हमने अपने चौधरी जीतेंदर प्रसाद को बताई तो बोले-यार,तुमको इस मौके का फायदा उठाना था। हमने कहा कैसा फायदा? उनके चेहरे को ताकना कम फायदे मंद रहा क्या? तो चौधरी हमको समझाते हुये बोले- तुमने क्या ताका? वो तो केवल तुम्हें आंखे दिखाती रहीं। हमने कहा -अगर तुम होते तो क्या करते? वो बोले-हम उनको ब्लाग लिखना सिखा देते,परिचर्चा ज्वाइन करा देते,अपने और उनके बीच की सारी दूरियाँ मिटा कर सारी दूरियों को केवल एक ई-मेल की दूरी में में सिमटा देते।
बाद में पता चला कि दुबई से भारत आते समय हवाई जहाज में इसी तरह की परिचर्चा तथा दूरी मिटाओ प्रयास में लगे होने के कारण हवाई जहाज वालों ने जीतेंदर को वाया नागपुर बंगलौर फुटा दिया तथा वे हैदराबाद न जा सके। हैदराबाद वैसे भी साइबर सिटी है वहाँ के लोग ऐसे जुगाडू लिंक वाले लोगों से बच के चलने में ही समझदारी मानते हैं।
बहरहाल,बात हम कर रहे थे सौन्दर्य की। लेकिन ये जीतू पता नहीं कहाँ से आ टपके बीच में -दाल में कंकड की तरह।

चम्बल से आया मेरा दोस्त<br />
तो जैसा कि हमने देखा कि सारी खूबसूरती ने अपने को ढक लिया था। लग रहा था कि मौसम तालीबान हो गया है। जिसने हर नाजनीन को परदे में कर दिया है। यह फैशन सा लगा । हर चेहरा ढका हुआ। मुझे लगता है कि जितने पैसे कट्टरपंथी फतवा जारी करने में लगाते हैं,हथियार खरीदने में लगाते हैं,धमकाने में खून जलाते है उससे बहुत कम खर्चे में बुरके का चलन बढ़ा सकते हैं। एक हिट हीरोइन को लेकर पिक्चर बना डालें जिसमें हीरोइन अपना चेहरा ढके हो केवल आंखें दिखती हों। फिल्म देखने के बाद अपने-अपने चेहरा ढंकने का चलन हो जायेगा। कुछ जो कसर रहे तो खुदा बन्द से उनकी हाट लाइन जुड़ी है ही,कुछ दिन गर्मी का मौसम बढ़वा ले।
लेकिन यह भी सोचता हूँ कि फिल्म बनाने में हाल कहीं राम तेरी गंगा मैली सा न हो। कि चेहरा ढंका रहे लेकिन बाकी सब कुछ मुक्त अर्थव्यवस्था सा खुला रहे।
भारत में आम तौर पर गर्मी के मौसम में बहुत गर्मी होती है। बहुत दिन तक लोग धूप में काले होते रहे। फिर सनक्रीम वगैरह का जमाना आया। फिर धूप से शरीर,चेहरा बचाने का। यह चेहरा ढंकने का चलन धूप से मुकाबले का स्वदेशी हथियार है। गर्मी से मुकाबला मुँह छिपाकर।
इस मामले में नई पीढ़ी समझदार सी है। प्रैक्टिकल। वह चेहरे के बचाव के आधुनिक फैशनेबल उपाय अपनाने के साथ चेहरा बचाने के परम्परागत उपाय भी अपनाने से गुरेज नहीं करती है। इसमें बालक-बालिकायें दोनों शामिल हैं।
लेकिन ये जो प्रजाति होती है विशेषज्ञों की उससे दूसरे के सुख नहीं देखे जाते। जहाँ किसी को चैन से रहते देखा उसके रहन-सहन के तरीके को शोध के चश्में से देखने लगती है। मौसम की मार से बचने का यह नौजवान तरीका भी इसकी चपेट से बच नहीं सका। सो उन्होंने अध्ययन कर डाला चेहरा ढककर धूप से बचने के इस अभिनव तरीके का । निष्कर्ष भी निकाल डाले:-
१. चेहरा ढंकने तथा केवल आँखें खुली रखने से देखने की क्षमता (विजिबिलिटी)प्रभावित होती है। इससे दुर्घटना की आशंकायें बढ़ती हैं।
२. नाक ढकी रहने का कारण सांस के लिये आक्सीजन कम मिलने से सांस की तकलीफ बढ़ सकती है।
३.रूमाल या स्कार्फ से ढंके स्थान पर चेहरे की रंगत में अंतर आ सकता है।
वैसे देखा जाय तो सारा मामले की जड़ में ग्लोबल वार्मिंग है। दुनिया गरमा रही है। तापमान बढ़ता जा रहा है। मोटर वाहन देश की जनसंख्या की तरह बढ़ रहे हैं। आदमी की बनाई सड़क पर चलने के लिये आदमी की जगह कार्बुरेटर से निकला धुँआ लटका हुआ सा है। बिजली गायब है लेकिन जगह-जगह जनरेटर धड़धड़ा रहे हैं। इस सब से गर्मी बढ़ रही है।
कुछ दिन पहले तक एअर कंडीशनर विलासिता माने जाते थे लेकिन आर्थिक उदारीकरण,शून्य गिरे भुगतान(जीरो डाउन पेमेंट) तथा देश में सर्वसुलभ ‘कटिया-कृपा’ की जुगलबंदी से एअरकंडीशनर विलासिता की दीवार फांदकर आवश्यकता के आंगन में आ डटा है।
‘कटिया कृपा ‘ इसलिये कहा कि देश के जितने एअरकंडीशनर अधिकारी वर्ग के यहाँ लगे हैं,खासतौर पर कालोनियों वे किसी न किसी तरह बिजली के मामले कष्ण-कन्हैया बन जाते हैं। माखनचोरी की जगह बिजली चोरी करते हैं। उनका एअरकंडीशनर का तार या तो सीधा सड़क के पोल से जुड़ता है,या मीटर नहीं लगता है या लगता है भी तो नपुंसक मीटर जो बिजली के लगातार संसंर्ग के बावजूद कोई रीडिंग नहीं पैदा कर पाता।
इन कन्हैया लोगों को उनके एअरकंडीशनर के मीटर की जांच करता लाइनमैन देश का सबसे बड़ा दुश्मन लगता है। जिन लोगों के यहाँ मीटर तथा एअरकंडीशनर के वैध सम्बंध हैं उनको एअरकंडीशनर से आती हवा किसी भट्टी से आती लगती है तथा बिजली का बिल मौत का परवाना। जो बिजली का बिल बाकायदा देते हैं उनके चेहरे का तेज तथा शहादत का देखकर लगता है कि काश इतनी कुर्बानी देश के कर्णधार करते तो देश कहाँ होता!
वैसे भी घरों में एअरकंडीशनर लगाने के विचार से हमें बहुत खराब लगता हैं। जिस कमरे मे एअर कंडीशनर लगता है वह कमरा अचानक वी.आई.पी. हो जाता है। कल तक साथ के दूसरे कमरे का साथ मौसम का मुकाबला करते हुये अचानक वह साथ छोड़कर चल देता है। तोताचश्म सा आंखे फिरा लेता है। कुछ ऐसा लगता है कि साथ जीने-मरने की कसमें खाने वाला युवा जोड़े में से कोई अचानक हवाई जहाज पकड़कर विदेश चला जाये तथा दूसरे को कहे अपना ख्याल रखना।
ए.सी. वाले कमरे को देखकर दूसरा कमरा कहता होगा देखो किस्मत भी क्या गुल खिलाती है? हम दोनों एक ही साथ बने,एक ही भट्टे के ईंटों से हमारी चिनाई की गई,एक ही पानी से हमारी तराई हुई,ठेकदार ने हमारे मसाले में बराबर की मिलावट की ,बराबर सामान की चोरी ,एक की नारियल फूटा हमारे गृहप्रवेश में । अब यह किस्मत ही तो कही जायेगी कि हमारा सगा भाई कमरा गर्मी में मसूरी बना हुआ है और मैं उसके बगल में खड़ा थार के रेगिस्तान सा ठंडी आहें भर रहा हूँ।
सोचने तक ही सीमित नहीं रहती। कल तक साथ-साथ मौसम को कोसने वाले कमरे का एक दूसरे के प्रति व्यवहार भी बदल जाता है। एअरकंडीशनर वाला कमरा ,जैसे अच्छे पड़ोसी अपने घर का कूड़ा दूसरे के घर के सामने फेंकते हैं,अपनी सारी गर्मी साथ वाले कमरे में उड़ेल देता है।
बात कमरों तक ही नहीं रहती। घर वालों के मन भी टूटते हैं। सास सोचती हैं-कैसी कलयुगी बहू है खुद एअरकंडीशनर में रहती है हमें डाल दिया है गर्मी में सड़ने के लिये। बहू कहती है- मां जी को समझाओ दिन भर ए.सी.खोले बैठी रहती हैं बिजली का बिल भी आता है। बच्चे कहते हैं पापा हमारे कमरे में ए.सी. लगवाओ दो तोकुछ पढ़ा॒ई करने में मन लगे।बिना ए.सी. वाला कमरा मनाता है हे भगवान,कृपा करो। बिजली गायब करो ताकि ये साथ वाले कमरे की गर्मी निकले ,हमारा जी जुड़ाये।
घरवाला तमाम भावनाओं के भंवर में डूबता-उतराता है। कभी दोस्त को सगर्व बताता है- देखो सबसे बढ़िया ब्राण्ड का लिया है। अकेले में सोचता है-साला कहाँ से बवाल मोल ले लिया,इससे अच्छा तो कूलर ही था। महीने की किस्त और बिजली का खर्चा बढ़ा अलग से। बीबी के साथ प्लान बनाता है- पहले ड्राइंग रूम में भी लगवा लूं तब साहब को बुलाऊँ डिनर पर।
लेकिन यह भी क्या अहमकपना है। हम शुरु हुये थे सड़क पर सुंदरियों को निहारते हुये और आ पहुँचे घर में। इसे हमारा घरघुसुआपन कहा जाये या लौट के बुद्दू घर को आये कहावत का शाश्वत महत्व। लेकिन किया क्या जाय जब सड़क पर हो तो घर तक आ ही जाती है । घर तथा सड़क में द्वंदात्मक संबंध हैं हिंदी में बोलें तो चोली-दामन का साथ है।
हमारी बात तो यहीं तक थी। चोली तथा दामन के बारे में विस्तार से जानने का मन हो तो पंकज बेंगानी की दुकान में पधारें। आपको हर तरह के आइटम मिलेंगे। पसंद आयें या न आयें देखने में कोई हर्जा नहीं है। देखने के ‘कउन पइसे’ मांग रहा है!

कांच के उस पार देखो,कुछ उधर भी यार देखो<br />
मेरी पसन्द

कुछ नहीं चाहा है तुमसे
पर तुम एक खूबसूरत मोड़ हो
जहाँ ठहरने को मन करता है
कुछ पल चुनने का मन करता है
तुम्हे पकड़ पास बिठाने को मन करता है
कुछ नहीं चाहा है तुमसे
तुम एक लगाव हो
जिसे कुछ सुनाने को मन करता है
कुछ भी कहने को मन करता है
तुम्हे पुकार बस हाँ या ना कहने को मन करता है
कुछ नहीं चाहा है तुमसे
तुम एक पर खूबसूरत मोड़ हो
जहाँ ठहरने को मन करता है।

-रजनी भार्गव

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

3 responses to “मौसम बड़ा बेईमान है…”

  1. प्रत्यक्षा
    रजनी जी की कविता बहुत अच्छी लगी. आपका लेख भी बढिया लगा. डाकुओं के अलावा और कुछ देखे नहीं क्या पूना में ?
  2. sanjay mishra
    acha hi, ab to garmi nahi padi, ab kaya kahna hi.
  3. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 8.गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता… 9.मौसम बड़ा बेईमान है… 10.सितारों के आगे जहाँ और भी हैं… [...]

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