Friday, June 02, 2006

संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व

http://web.archive.org/web/20110622182150/http://hindini.com/fursatiya/archives/137

संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व

98b9 [कुछ दिन पहले पुराने कागज खोजते हुये मुझे एक पुराना करीब दस साल पहले का लिखा एक लेख मिल गया। यह लेख कभी मैंने मार्च के माह में मनाये जाने वाले संरक्षा दिवस के अवसर पर प्रकाशित होने वाली पत्रिका के लिये लिखा था। यहां मैं इसे इस लालच में पोस्ट कर रहा हूँ कि इसी बहाने यह सुरक्षित रहेगा। आप इसे पढ़ें तथा अगर पसन्द आये तो इसके पहले लिखा गया लेख 'स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी' भी पढ़ डालें( अगर अभी तक न पढ़ा हो)जिसे मैं अपने पसंदीदा लेखों में शुमार करता हूँ।]
हर बार की तरह इस बार भी ‘संरक्षा माह’ के अवसर पर तमाम प्रतियोगिताओं का आयोजन हुआ। भाषण प्रतियोगिता भी हुई। मैं जब इसमें भाग लेने के लिये पहुँचा तो देखा कि हाल में उतने ही लोग थे जितने हर प्रतियोगिता में होते हैं। प्रतियोगी,निर्णायक,संचालक और एक प्रतिनिधि संरक्षा अनुभाग का। चूँकि इस बार प्रतियोगिता का ‘समुचित प्रचार’ हुआ था अत: श्रोताओं,वक्ताओं की संख्या मिलाकर कोरम पूरा सा हो गया था। प्रतियोगिता एक बार फिर स्थगन से बच गई। वक्ता चूँकि उतने ही और वही थे जो हर भाषण प्रतियोगिता में हर वर्ष होते हैं तथा प्रतियोगिता का परिणाम पहले से ही सबको पता था लिहाजा प्रतियोगियों में पर्याप्त उत्साह था।
भाषण प्रतियोगिता का विषय था -’संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व’। अपनी बारी आने पर मैंने बिना सोचे बोलना शुरू कर दिया। मैंने सोचा सोच बाद में लूँगा,बोल पहले लूँ। इससे बोलने में प्रवाह रहता है।समय अनमोल है। सोचकर बोलने में समय लगता है। पहले सोचो,दिमाग में विचार का ताना-बाना बनाओ,ताने-बाने को धकेल कर मुँह तक लाओ तब बोल फूटता है। इस विचार परिवहन में,लाने-ले जाने में, विचार की टूट-फूट हो गई, शब्द नहीं मिले तो और झंझट। ये तो उसी तरह से है कि माल बना पड़ा है लेकिन ट्रक न मिलने के कारण भेजा नहीं जा पाया- टारगेट फेल।
तो बोलने के पहले सोचो क्यों? पहले बोल लो तब सोचो। इस बात को अक्सर लोग नहीं समझते। यहाँ तक कि निर्णय लेकर फाइल में लिखने तक के लिये सोचने में समय गंवाते हैं। मामले लटक जाते हैं। आप खुद सोचकर देखिये कि यदि लोग बिना सोचे निर्णय लेने लगें तो मामले कितनी जल्दी निपटेंगें। पता नहीं वह रामराज्य कब आयेगा?
भाषण प्रतियोगिता में बिना सोचे बोलने का बाद मुझे लगा क्यों न उस चीज के बारे में जान लिया जाय जिसके बारे में मैं अभी धकापेल बोल आया! संरक्षा तथा आध्यात्म के बारे अलग-अलग मैं जानता हूँ। किसी दुर्घटना के बाद मचने वाले हल्ले को संरक्षा कहते हैं तथा पुरुषार्थ की दुकान बंद होने के बाद बचे हुये पदार्थ को आध्यात्म कहते हैं। परंतु संरक्षा के आध्यात्मिक महत्व से मैं एकदम अनजान था। तभी मैं इस विषय पर इतने आत्मविश्वास से बोल गया- अज्ञानी का आत्मविश्वास प्रबल होता है।
किसी दुर्घटना के बाद मचने वाले हल्ले को संरक्षा कहते हैं तथा पुरुषार्थ की दुकान बंद होने के बाद बचे हुये पदार्थ को आध्यात्म कहते हैं
मैंने अपने साथी की तरफ निगाह फेरी। उनका सर फाइलों पर था। यह तय करना मुश्किल था कि उनकी मुद्रा किसी क्रिकेट खिलाड़ी की शतक बनाने के बाद आन्नदातिरेक में पिच को चूमने की मुद्रा थी या फिर चुनाव के तुरंत बाद की बहुमत के अभाव में भंग हुई लोकसभा के सांसद की हताश मुद्रा। उसकी बाहों का घेरा किसी भी ताकांक्षा के लिये कवच था। सांसे आराम के पाले में थीं,आ-जा रही रहीं थीं-मृदु मंद-मंद ,मंथर-मंथर।
मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि उनकी मुद्रा आनन्द की है या हताशा की। एक बारगी तो मैंने सोचा कि पत्र लिखकर इस बारे में अपने’बास’ से राय ले लूँ। परंतु यह सोचकर कि यदि बास से पूछूंगा तो वे कहेंगे- ‘इस पर पहले अपने विचार प्रस्तुत करें,लेखा अनुभाग की राय ले लें तथा यह सुनिश्चित करें कि तय की गयी मुद्रा में कोई शासकीय हानि नहीं है। सारे तथ्यों के साथ निर्णय हेतु मामले को प्रस्तुत करें’ मैंने बास से सलाह लेने का विचार स्थगित कर दिया।
मैंने अपने साथी से ही उनके बारे में पूछने का साहसिक निर्णय लिया तथा उनको नमस्कार किया। उन्होंने अपना फाइलों के आँचल में रखा सर जितना उठ सकता था ,उठाया। उनके मुखमंडल पर खिलाड़ी या सांसद की सांसारिक मुद्राओं से सर्वथा अलग आध्यात्मिकता का सागर लहरा रहा था। वो तो मैं उनको वर्षों से जानता था वर्ना कोई नया आदमी देखता तो इसे कामचोर की सहज मुद्रा समझने की भूल कर बैठता। मैंने उनसे सवाल करने शुरू किये:-
सवाल:-फाइलों पर सर क्यों रखे थे? क्या कुछ सोच रहे थे?
जवाब:- आपने दो सवाल एक साथ पूछ लिये। मैं कोई ‘पीस वर्कर’ तो हूँ नहीं कि सब काम हड़बड़ी में निपटाकर ‘अर्निंग’(दिहाड़ी)पूरी कर लूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा किस सवाल का जवाब पहले दूँ। खैर,सोचता हूँ।
सवाल:- आप इतना कष्ट न उठायें । पहले सवाल का ही जवाब दे दें। उसी में काम हो जायेगा। अपने दूसरे प्रश्न को मैं निरस्त करता हूँ।
जवाब:- आप समझदार हैं। संतोषी हैं। दो की जगह एक ही सवाल के जवाब से काम चलाने की क्षमता है आपमें। नहीं तो तमाम लोग पचीसों सवाल पूछते रहते हैं,जवाब एक के भी नहीं मिलते और वे डमरू बजाते रह जाते हैं। हां , तो जहाँ तक फाइलों और सर का सम्बन्ध है तो मैं जब नया-नया आया था तो सर मेज पर रखता था। फिर फाइलें सर पर रखकर सोने लगा ताकि लोग सोते हुये देख न लें।लेकिन समय तथा अनुभव के साथ पता चला कि मेरा तरीका अवैज्ञानिक था। फाइलें सर पर रखकर सोने से उनके नीचे गिरने का खतरा रहता था। पिछले कुछ दिनों से संरक्षा के हो-हल्लें में हर काम को सुरक्षित तरीके से करने की मारा-मारी मची है। लिहाजा मैंने भी फाइलें सर पर रखने के बजाय अपना सर फाइलों पर रखना शुरू कर दिया है।
सवाल:- क्या यह बेहतर तरीका है?
जवाब:- हाँ,निश्चित रूप से। पहले तो मुझे फाइलों का संतुलन बनाये रखने में बहुत मेहनत पड़ जाती थी। निरन्तर चैतन्य रहना पड़ता था। पलक तक झपका नहीं पाता था। बल्कि कई बार तो बावजूद तमाम सावधानियों के फाइलें धड़ाम से नीचे गिर जातीं थीं। दूसरे लोगों के आराम में तथा कुछ लोगों के काम में खलल पड़ता था। जबकि यह तरीका एकदम सुरक्षित तरीका है-‘फिट एन्ड फारगेट टाइप’ का। सर फाइल पर रखिये, निश्चिंत होकर सोइये।
सवाल:- क्या आप दिन भर सर फाइलों में रखे रहते हैं?
जवाब:- नहीं,अभी इतना अभ्यास कहाँ? तमाम सांसारिक व्याधियां हैं। प्राकृतिक जरूरतों
को पूरा करने के लिये उठना पड़ता है। चाय-पानी कैसे त्याग दें !उसके लिये उठना पड़ता है। बीच-बीच में कुछ लोग और कुछ न होने पर फाइल ही खोजने लगते हैं। कुछ तो सर के नीचे से उठा ले जाते हैं। टोको तो कहते हैं-साहब मंगा रहे हैं। अब इस सब से व्यवधान तो पड़ता ही है। अभी आप से ही वार्तालाप में समय नष्ट हो रहा है।
सवाल:- साहब फाइलें क्यों मंगाते हैं? क्या वो भी फाइलों में सर रखकर सोते हैं?
जवाब:- असल में एक के दफ्तरी शौक अलग-अलग होते हैं। जैसे, फाइलों के बारे में ही लीजिये-
कभी लटकतीं हैं,कभी विचाराधीन हो जाती हैं कभी स्वाधीन विचरण करती हैं,कभी चढ़ाई पर चढ़ती भयंकर तेल पीती गाड़ी की तरह हाँफती हुई चलती हैं,कभी ढाल से उतरती गाड़ी की तरह सरपट चलती हैं। कभी किसी फाइल पर कोई बैठ जाता है,कभी फाइल किसी पर दूसरी फाइल पर बैठ जाती है। कुछ कहा नहीं जा सकता। फाइल निपटाने के तरीके से ही अधिकारी परिभाषित होता है। हमारे बास ‘फाइल निपटाऊ रिपोर्ट- बनाऊ’ टाइप के अधिकारी हैं।
फाइलों के बारे में ही लीजिये-
कभी लटकतीं हैं,कभी विचाराधीन हो जाती हैं कभी स्वाधीन विचरण करती हैं
सवाल:- ‘फाइल निपटाऊ -रिपोर्ट बनाऊ’ टाइप के का मतलब ?
जवाब:- फाइल निपटाऊ का मतलब फाइल सामने आई,दस्तखत कर दिये। काम खत्म। कभी-कभी जब ज्यादा फालतू हुये या बोरियत हो रही है तो मजनून भी पढ़ लिया। ‘रिपोर्ट बनाऊ’ तो खैर मजबूरी में बनना पड़ा उन्हें।
सवाल:- कैसी मजबूरी?
जवाब:- दरअसल आजकल दफ्तर में अगर पाँच पत्र आते हैं तो उनमें से चार में कोई न कोई रिपोर्ट माँगी जाती है। ऐसा भी होता है कि चारों में रिपोर्ट एक ही विभाग ने एक ही विषय पर मांगी हो लेकिन खाली प्रारूप अलग हो। किसी में पिछले तीन साल की सूचनायें मांगी हों,किसी में पिछले चार साल की,किसी में पाँच साल की। यह भी हो सकता है कि किसी में कोई विवरण कम मांगा हो किसी में एक डाटा ज्यादा मांगा गया हो। तो हमारे साहब बनाते रहते हैं रिपोर्टें मजबूरी में। तो वे फाइलों पर सर रखकर तो नहीं सो पाते। हाँ कभी-कभी फाइलों पर सर पटकते जरूर हैं।
सवाल:- रिपोर्ट साहब क्यों बनाते हैं? आप लोग क्यों नहीं बनाते?
जवाब:- पहले तो हम लोग ही बनाते थे। अब जब से कम्प्यूटर पर रिपोर्ट माँगी जाती हैं तब से साहब ही बनाते हैं।हमें आराम हो गया है।हम कागज और फाइल साहब के पास ले जाकर धर देते हैं। कह देते हैं-साहब और चाहे जो काम करा लो लेकिन ये कम्प्यूटर हमारी समझ में नहीं आता। कभी-कभी साहब नाराज होते हैं कि इक्कीसवीं सदी में कम्प्यूटर नहीं आता, सीखना नहीं चाहते तो हम दूसरे बहाने बताते हैं जैसे कि साहब हमारी आँख कमजोर है,सर दर्द होता है,चक्कर आते हैं,कमजोरी महसूस होती है, डाक्टर ने टेलीविजन देखने तथा कम्प्यूटर पर काम करने को मना किया है। कभी-कभी ब्लड-प्रेसर , तनाव, आर्थराइटिस तक को इसी में जोड़ देते हैं। साहब बिचारे क्या करें, पानी पीकर रिपोर्ट बनाने लगते हैं। जब रिपोर्ट बन जाती है ,कम आफिस कापी में नीचे दस्तखत करके साहब के दस्तखत कराकर रिपोर्ट भेज देते हैं। कभी-कभी जब ज्यादा जल्दी होती है तो तो डिस्पैच भी साहब ही कर देते हैं। आफिस कापी पर हमारे दस्तखत छूट जाते हैं तो हमें बाद में करने पड़ते हैं। कर देते हैं। क्या करें ? नौकरी करते हैं तो काम तो करना ही पडे़गा।
सवाल:- लेकिन आपने जो तकलीफें बीमारियाँ बताईं उनमें से कोई भी तो आपको नहीं है। फिर आप कम्प्यूटर पर काम क्यों नहीं सीखते करते?
जवाब:-अब देखो यार, तुमसे क्या छिपाना? सरकारी नौकरी तो खेत जोतने जैसा काम है। जो बैल जितना सीधा होगा उससे उतना ज्यादा जुताई कराई जायेगी। अड़ियल बैल से कोई काम नहीं करा पाता। जबकि चारा दोनों को बराबर मिलता है। तो क्या फायदा सीधा बैल बनके ज्यादा खेत जोतने से? तुम जितना काम सीखते जाओगे उतनी जिम्मेंदारी तुम पर आयेगी। जितना काम टालोगे,आराम में रहोगे। तो क्या फायदा नया काम सीखने में जबकि सबको पता है इसमें मिलना चवन्नी सिवाय सरदर्द के।इसी लिये मैं इस सूचना क्रान्ति,कम्प्यूटर युग के झांसे में नहीं आता। कम्प्यूटर नहीं सीखता।
सरकारी नौकरी तो खेत जोतने जैसा काम है। जो बैल जितना सीधा होगा उससे उतना ज्यादा जुताई कराई जायेगी
सवाल:- तो क्या आपको कभी कामचोरी का अपराध बोध नहीं होता?
जवाब:- पहले कभी-कभी कुछ तकलीफ होती थी। आपको बताऊँ ,जब मैं नया-नया आया था अपना सारा दिन उस चोंचले में खपा देता था जिसे आप लोग साधारण बोलचाल की भाषा में काम करना कहते हैं। क्या बोलते हैं उसे, हां याद आया कर्मठता,कर्तव्यपरायणता, काम के प्रति समर्पण आदि। लेकिन जैसे-जैसे मेरी समझ में इजाफ़ा हुआ ,मुझे लगा कि मैं कहाँ अपना समय बरबाद कर रहा हूँ? मैंने धीरे-धीरे अपने आपको काम-काज के क्षुद्र सांसारिक बंधनों से अपने आपको दूर करना शुरू कर दिया। पहले कुछ दिन तो कचोट सी लगी लेकिन समय के साथ सब ठीक होता गया। अब की हालत तो देख ही रहे हैं आप ।लेकिन आपाधापी की कार्यप्रणाली से इस सुकूनदेह कार्यप्रणाली अपनाने में कुछ महीने बरबाद
हो गये।
सवाल:-अब सब ठीक कैसे हो गया? क्या विचार करके आपने यह कार्यप्रणाली अपनाई?
जवाब:- असल में मैंने इस पर बहुत विचार किया। मैंने सोचा कि काम वास्तव में है क्या? फिर बहुत विचार करने के बाद पाया कि काम का हर एक के लिये अलग मतलब है। मैंने आगे पाया कि काम हर व्यक्ति के लिये वह प्रक्रिया होती है जिसे वह करता रहता है। दिन भर मेहनत करने वाले के लिये मेहनत करते रहना ही काम है। यदि कोई आरामतलब है तो उसके लिये खटिया तोड़ते रहना ही काम है। इसी तरह किसी के लिये किसी मामले का रायता फैलाना काम है तो किसी के फैले रायते को समेटना सबसे बड़ा काम है। कोई दुनिया भर से डरते रहने को काम कहता है कोई डराने को। कोई किसी को चापलूसी करने को काम समझता है दूसरा चापलूसी सुनने को। मैंने आगे विचार किया कि जो मैं कर रहा हूँ उसे करने से क्या फर्क पड़ता है? न करने से क्या बदलाव होता है? मैंने देखा कोई फर्क नहीं पड़ता। नहीं पड़ा। मेरी तन्ख्वाह उतनी ही रही। डीए अपने समय पर बढ़ा। काम उसी रफ्तार से हुआ। फाइलें उतनी ही गति से आगे बढ़ीं। रिपोर्टें आने-जाने की रफ्तार वही रही। हूटर उतनी ही तेज बजे। ओवरटाइम वही रहा। आसपास छायी मुर्दनी वैसी ही बनी रही। कैंटीन की चाय उतनी ही काली रही। पकौड़ी का नमक उतना ही तेज। लब्बोलुआब सब कुछ वही रहा। कुछ नहीं बदला सिवाय कैलेंडरों व कैलेंडर की तारीखों के। तब मुझे अहसास हुआ कि जब मेरे करने न करने से कुछ फरक नहीं पड़ता तो कुछ करूँ ही क्यों? क्यों थकाऊँ इस बेचारे निरपराध शरीर को जिसे मेरी आत्मा ने केवल इस जन्म के लिये किराये पर लिया है! पता नहीं किराया चुकाया भी या बाद में देने की बात करके मामला उधारी पर चल रहा हो। बहुत सोच विचार के बाद मैं आज इस मुकाम पर पहुँचा हूँ। इसमें मेरी मेहनत तथा लगन तो जो है सो है ,भारतीय संस्कृति का बहुत बड़ा योगदान है जो मानती है कि शरीर नश्वर है,आत्मा अमर है। खैर,तुम बताओ कैसे याद किया?
काम का हर एक के लिये अलग मतलब है। मैंने आगे पाया कि काम हर व्यक्ति के लिये वह प्रक्रिया होती है जिसे वह करता रहता है।
सवाल:- मैं आपसे ‘संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व’ विषय पर बात करना चाहता हूँ।मुझे इस विषय पर भाषण देना है। (मैंने जानबूझकर झूठ बोला कि अभी हमें भाषण देना है वर्ना वे कहते अब क्या जरूरत जब काम निकल गया)।
जवाब:-देखो ,आध्यात्म बड़ी मुश्किल से समझ में आने वाली चीज है। मुझ को ही बहुत से लोग कामचोर समझते हैं। बहुत कम लोगों को मेरे आध्यात्मिक स्वरूप की जानकारी है। बहरहाल, बता दूँ कि संरक्षा तथा आध्यात्म में चोली-दामन का साथ है( मुस्कराते हुये वह यह जोड़ना नहीं भूले कि यह अलग बात है कि आजकल चोली तथा दामन दोनों गायब होते जा रहे हैं)। फिर आध्यात्म में तो भारत विश्व का गुरू रहा है।
संरक्षा तथा आध्यात्म में सबसे बड़ा संबंध अक्रियता का है। ‘क्रिया के पहले तब तक अक्रिय रहना जब तक क्रिया सुरक्षित न हो जाय- संरक्षा कहलाती है।’ जबकि ‘आध्यात्म निरन्तर अक्रिया की स्थिति को कहते हैं।’ ये समझ लो कि संरक्षा की स्थिति का निरन्तर विकास आध्यात्म की सीढ़ी की ओर ले जाता है। इतिहास गवाह है इसका कि जब भी कोई महापुरुष अक्रियावस्था को प्राप्त हुआ तो उसकी परिणति आध्यात्म में ही हुई।
संरक्षा की स्थिति का निरन्तर विकास आध्यात्म की सीढ़ी की ओर ले जाता है
वो पूरे जोरशोर से चालू थे। किसी सुबह के चैनेल के बाबा की तरह अबाध गति से प्रवचन के मूड में आ गये थे। लेकिन इस प्रवचन में व्यवधान हुआ। लंच का समय हो गया था सो हूटर हो गया। वे आध्यात्मिक स्थिति से झटके से सांसारिक स्थिति
में आ गये तथा साइकिल उठाकर गेट की ओर चल दिये। चलते-चलते बोले-ये तो मैंने संक्षेप में बिना सोचे-विचारे बताया । लंच के बाद आना तब आगे बताऊँगा। जरूरत हुई तो सोच-विचार कर भी।
अब जबकि लँच खतम हो गया है। शाम होने को है। मैं सोच रहा हूँ कि संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व पर उनके विचार जानने जाऊँ या फिर खुद ही इस पर विचार कर लूँ या फिर एक रूटीन नोट पुटअप करके अपने बास से सलाह कर लूँ।
मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है।आप ही कुछ बताओ- क्या करूँ,बिना सोचे-विचारे ही सही।
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फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

8 responses to “संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व”

  1. e-shadow
    दस साल पहले भी आप इतने ही धारदार थे, मुझे लगा था कि कुछ और निखार आया होगा, बहरहाल लेख बहुत चुटीला बन पडा है।
  2. nitin 337 28
    44 बहुत खूब!!
    3 16
  3. 13
  4. c1 प्रत्यक्षा 2ca 28
    c0 सोचा कि बिना सोचे कुछ लिखें पर क्या लिखें ये सोचा ही न गया
    3 16
  5. 13
  6. fb Tarun 33b 28
    181 आप सीनियर चिठा्कारों को विशेष आमंत्रण है कि इस बार अनुगूँज में लिख ही डालिये, भाभी जी के गुस्‍से का ठीकिरा हमारे सर पे फोड़ दीजयेगा
    3 16
  7. 13
  8. bf नीरज दीवान 2cc 28
    20f बिना सोचे ही कह रहा हूं कि आपके इस लेख ने अब मुझे सोचने के लिए बाध्य कर दिया है. समझ गए ना आप. चुटीली शैली ने मुझे आपके ब्लॉग पर रोज़ आने वाला मेहमान बना दिया है. नोट कर लें. रोज़ परोसिएगा कुछ.
    3 16
  9. 13
  10. 1cf फ़ुरसतिया » अजीब इत्तफाक है… 321 28
    1fe [...] नीरज दीवान on संरक्षा का आध्यात्मिक महत्वTarun on संरक्षा का आध्यात्मिक महत्वTarun on हमने दरोगा से पैसे ऐंठेप्रत्यक्षा on संरक्षा का आध्यात्मिक महत्वnitin on संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व [...]
    3 16
  11. 13
  12. 197 फ़ुरसतिया-पुराने लेख 2ed 28
    43d [...] 1.संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व 2.अजीब इत्तफाक है… 3.यायावर चढ़े पहाड़ पर… 4.नेतागिरी,राजनीति और नेता 5.अभी उफनती हुई नदी हो… 6.रघुपति सहाय फ़िराक़’ गोरखपुरी 7.गुलजा़र की कविता,त्रिवेणी 8.गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता… 9.मौसम बड़ा बेईमान है… 10.सितारों के आगे जहाँ और भी हैं… 11.अमरीकी और उनके मिथक 12.अमेरिका-कुछ बेतरतीब विचार 13.पूर्णिमा वर्मन-जन्मदिन मुबारक 14.पूर्णिमा वर्मन से बातचीत [...]
  13. 1f1 : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176 354 28
    403 [...] 1.संरक्षा का आध्यात्मिक महत्व 2.अजीब इत्तफाक है… 3.यायावर चढ़े पहाड़ पर… 4.नेतागिरी,राजनीति और नेता 5.अभी उफनती हुई नदी हो… 6.रघुपति सहाय फ़िराक़’ गोरखपुरी 7.गुलजा़र की कविता,त्रिवेणी 8.गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता… 9.मौसम बड़ा बेईमान है… 10.सितारों के आगे जहाँ और भी हैं… 11.अमरीकी और उनके मिथक 12.अमेरिका-कुछ बेतरतीब विचार 13.पूर्णिमा वर्मन-जन्मदिन मुबारक 14.पूर्णिमा वर्मन से बातचीत [...]
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