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कम्युनिष्ट कम्युनिस्ट पार्टियों के चरित्र पर बात करते-करते कम्युनिषट कम्युनिस्ट नेताओं के बारे में भी बातें हुयीं। तमाम भटकाओं के बावजूद यह बात उल्लेखनीय है कि घपलों-घोटालों और वंशवाद बहुल अपने देश में अभी तककम्युनिषट कम्युनिस्ट नेताऒं के नाम घपलों और वंशवाद से नहीं जुड़े।
कोलकता में एक फुरसतिया दिन
By फ़ुरसतिया on July 1, 2007
मास्को में जब बारिश होती है तो दिल्ली के मार्क्सवादी छतरी तान लेते हैं- हरिशंकर परसाई!
अनुराग और डा.टंडन से मुलाकात के बाद अगले दिन हम कोलकता के लिये चले। कोलकता के लिये सहारा की उड़ान सबेरे दस बजे थी। हम सुबह साढ़े सात बजे ही इंदिरानगर से निकल लिये और समय पर हवाई अड्डे पहुंच गये। समय पर जहाज उड़ा और हम कुछ ही देर में बादलों के ऊपर थे। नीचे बादलों की फ़ौज-फ़ौज थी। ऐसा लग रहा था कि सैकड़ों पानी के टबों ढेर सारा रिन डालकर हिला दिया गया हो। उसी रिन की झनकार का सफ़ेद-नीला घोल नीचे दिख रहा था। कहीं-कहीं बादल पहाड़ की तरह दिख रहे थे।
दो घंटे बाद ही हम दमदम हवाई अड्डे पर थे। वहां से पास ही स्थित दमदम फ़ैक्ट्री स्थित अपने गेस्ट हाउस में सामान रखकर हम अपने दोस्तों से मिलने निकल पड़े।
मैं कोलकता करीब छह साल बाद आया था। पहले भी कई बार कोलकता आ चुका था। इस बार कलकतिया ट्राम पर पहली बार यात्रा की। दमदम से हर सात मिनट में ट्राम छूटती है। वहां से एस्प्लेनेड करीब दस किमी हैं। हमें एस्प्लेनेड पहुंचने में करीब पंद्रह मिनट लगे। मेट्रो का छह रुपये का यह सफ़र अगर टैक्सी से करते तो शायद दूरी और समय के चलते कम से सौ-दो सौ रुपये लग जाते।:)
कोलकता के लगभग हर चौराहे पर मैंने देखा कि पुलिस के सिपाही के अलावा तीन-चार स्वयंसेवक टाइप के लोग मुग्दरनुमा डंडा लिये ट्रैफ़िक नियंत्रण सहयोग करते रहते हैं। लोगों ने बताया कि ये कम्युनिष्ट कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता हैं। इनको इस मेहनत के लिये क्या मिलता है मेरे इस सवाल का कोई समुचित जवाब नहीं मिल पाया।
एस्प्लेनेड से पैदल चलकर मैं अपने हेडक्वार्टर पहुंचा। वहां मृणाल, निधि से मुलाकात हुयी। मृणाल ने तो बड़े जोर-शोर से कवितायें लिखना शुरू किया था लेकिन अब केवल एक अच्छे पाठक के रूप में अपने को स्थिर-स्थापित कर रखा हैं। निधि तो खैर पहले भी बहुत कम लिखती थी। वो जब कोई काम बहुत जोर से शुरू करती हैं,खासकर लेखन आदि चीजों से जुड़ा कोई काम, तो मैं समझ जाता हूं कि अब वह समाप्त होने ही वाला है। यह मेरे लिये आश्चर्य का विषय है कि वे पिछले कई दिनों(महीनों ?) से लगातार आफ़िस के बाद पेंटिंग की कक्षायें कैसे रही हैं। न सिर्फ़ क्लास बल्कि पेटिंग कर भी रही हैं। शाम को उनका पूरा घर कलावीथिका की तरह दिखा।
अन्य तमाम जाने-पहचाने मित्रों के अलावा शाम होने के कुछ पहले हमारी मुलाकात प्रेमप्रकाश से हुयी। प्रेमप्रकाश की तारीफ़ मैंने सुन रखी थी लेकिन उनसे पहली मिलना इस बार संभव हुआ। शाम को हम लोग मृणाल के घर इकट्ठा हुये। खाना वहीं मंगाया गया और हम खाने के इंतजार में बातें छौंकते रहे।
प्रेमप्रकाश जे.एन.यू. के पढ़े हुये हैं। हिंदीब्लागर के साथ। बातचीत के दौरान मार्क्सवाद की चर्चा हुयी। इस पर प्रेमप्रकाश ने इतनी सरल भाषा में मार्क्सवाद पर प्रवचन दिया कि हम चकित से रह गये कि ये बालक इतना ज्ञानी होकर सिविल सर्विसेस का इम्तहान पास करके क्लर्की टाइप की अफ़सरी कर रहा है।
प्रेमप्रकाश ने जो बताया उसका लब्बोलुआब यह था कि मार्क्सवादियों के दासकैपिटल की स्थिति वैसी ही है जैसी मुस्लिम भाइयों के लिये कुरान की। वे स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप कुछ संसोधन करने के बजाय उसी की नये सिरे से व्याख्या भर करते रहे। एक-एक गलती को तय करने में बीसियों साल लगा दिये।मार्क्सवाद के अनुसार क्रांति दुनिया के मजदूरों को करनी थी लेकिन शुरुआत किसानों से कर दी।:) इसी तरह के तमाम किस्से हुये जिनकी मार्क्स ने शायद परिकल्पना ही नहीं की होगी। उन्होंने ये होगा, इसके बाद ये होगा, फिर ये के अनुसार अपनी स्थापनायें दीं हैं। लेकिन क्रांति तो सारे नियमित मार्गों का अतिक्रमण करके होती है।
परसाईजी ने भी कुछ लेखों में लिखा है कि भारत में जनप्रचलित संप्रेषण के औजारों जैसे कि रामचरित मानस की लोकमंगलकारी चौपाइयों/दोहों के सहारे अगर मार्क्सवादी भारत की जनता को अपनी बात समझाते तो शायद वो इसे बेहतर समझ पाती।
‘दुनिया के सारे मजदूरों एक हो‘ में सामाजिक लोचा भी है। भारत के आम गरीब मजदूर जिनको उसकी न्यूनतम मजदूरी भी मयस्सर नहीं होती अगर अमेरिका और ब्रिट्रेन के गरीब मजदूर से एका करना चाहे तो दोनों की आर्थिक स्थिति में अंतर होने के कारण शायद न हो पाये। अगर दुनिया के मजदूर एक होते तो ये आउटसोर्सिंग का काम कैसे होता।
जबसे मैंने ब्लाग लेखन शुरू किया है तब से तमाम लोगों ने कम्युनिस्टों के विरोध में बहुत कुछ लिखा है। लेकिन इस तथ्य की उपेक्षा की कि कुछ न कुछ बात तो होगी उस दर्शन में जिसके चलते तमाम लोग उस विचारधारा से जुड़े। इस सम्बन्ध में वे साथी भी जिम्मेदार हैं जो सत्ताधारी/साम्प्रादायिक पार्टियों को कोसते रहे और अपनी विचार धारा के उज्ज्वल पक्ष, व्यक्तित्वों के बारे में लोगों को बताने में आलस करते रहे।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बेहद लोकप्रिय भूतपूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर का जिक्र किये बिना बात अधूरी रहेगी। मैंने चंद्रशेखर के बारे में पढ़ रखा था। बेहद प्रतिभाशाली चंद्रशेखर लगातार तीन बार जे.एन.यू. के अध्यक्ष रहे। वे बिहार के बाहुबली विधायक शहाबुद्दीन के खिलाफ़ बिहार में ही जनसभा कर रहे थी जब उनकी गोलियों से भून कर हत्या कर दी गयी। आम जनता की भलाई के लिये संघर्ष करते हुये भरी जवानी में मारे गये चंद्रशेखर के बारे में पढकर किसी भी विचारधारा के मानने वाले का मस्तक उसके प्रति श्रद्धा से झुक जाता है। अपने बेटे चंद्रशेखर की मौत बाद प्रधानमंत्री राहत कोश से मुवावजे के दो लाख रुपये के चेक को लौटाते हुये उनकी मां ने जो मार्मिक पत्र लिखा उसकी कुछ पंक्तियां कुछ इस तरह हैं- मेरा बेटे की हत्या की गयी है। आपका ये घपले-घोटाले का पैसा मेरे बेटे की कीमत नहीं हो सकती। मैं यह पैसा वापस कर रही हूं। आपमें अगर हिम्मत है तो उसके हत्यारे को पकड़कर उसे सजा दिलाइये।
चंद्रशेखर जैसे लोगों के बारे में सबको बताया जाना चाहिये ताकि लोगों को यह न लगे कि बलिदानी पीढ़ी आजादी की लड़ाई के बाद पैदा ही नही हुयी।
सच तो यह है कि हर समय-हर पीढ़ी मे दुनिया के हर कोने में तमाम अच्छ लोग होते हैं। दुनिया और अपने आस-पास के लिये बहुत कुछ कर रहे होते हैं। लेकिन चूंकि परिणाम नहीं दिखते इसलिये लगता है कि आज की सब दुनियाखतम है।
खाते-बतियाते रात हो गयी। पता ही न चला। इस बीच मैंने प्रेमप्रकाश की श्रीमती मधु को ब्लाग लेखन के लिये उकसाया। उन्होंने ब्लाग जिंदगीनामा लिखना शुरू किया था लेकिन रोमन में एक पोस्ट लिखकर अभी शान्त बैठी हैं। उनका बच्चा भी नोटपैड वाली सुजाता के बच्चे की तरह सारा ध्यान अपने पर चाहता है।
इस बीच प्रियंकरं के घर फोन किया। बिटिया गौरी ने बताया कि पापा अभी आये नहीं हैं। कुछ देर बाद उनसे बात हुयी और अगले दिन मिलना तय हुआ।
हमको दमदम तक छोड़ने के लिये आये मृणाल और प्रेमप्रकाश रात को जब वापस लौटे होंगे तब तक घड़ी और उनके बारह बज चुके होंगे। लेकिन हमारे तो खा-पीकर और बतियाकर पौ-बारह हो चुके थे।
कुछ देर में हम अगले दिन प्रियंकरजी से मिलने की योजना बनाते-बनाते सो गये।
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यहाँ पर यह बताना चाहूँगा कि चंद्र्शेखर भी नक्सलवाद की उसी धारा से जुड़े थे जिस से किसी समय पर मैं, प्रमोद जी, चन्द्रभूषण, इरफ़ान,विमल वर्मा, अनिल रघुराज और अविनाश जुड़े रहे थे.. अविनाश के सिवा हम सब का सम्बन्ध इलाहाबाद से रहा है.. इस धारा का नाम है सी पी आई एम एल(लिबरेशन).. पहले इसके महासचिव विनोद मिश्र थे.. उनकी मृत्यु के बाद अभी दीपंकर भट्टाचार्या इस पद पर हैं.. इसका मुख्य कार्यक्षेत्र बिहार व झारखण्ड है.. एक समय में (१९८३ के पहले) यह दल सशस्त्र क्रांति का समर्थक था.. पर समय के साथ धीरे धीरे इसकी सोच में बदलाव आया और अब यह पूरी तरह संसदीय राजनीति में है.. पर जन आंदोलन का रास्ता इस ने नहीं त्यागा है..
शुक्रिया चंद्रशेखर जी के बारे में यहां जानकारी उपलब्ध करवाने का, सलाम उन्हें और उनकी मां को भी!!
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सुन्दर साहित्यिक मौलिक कल्पना ।कल्पना !! शायद इसलिए सुनेल जी का आगमन हो गया ।:)
आपने लिखा है “कम्युनिष्ट” । आनजाने मे या जान बूझ कर । क्योन्कि हमे लगता है आप्की पोस्ट से यह भी मेल खाती नई संग्या है “कम्यु निष्ठ “!क्योन्कि सही वर्तनी शायद होगी कम्यूनिस्ट !
@अभयजी, चंद्रशेखर से मैं भी नहीं मिला हूं न उनके बारे में कुछ जानता हूं। जो कुछ जाना वह उनके बारे में जो परिचय पुस्तिका छपी थी उसके माध्यम से जाना। इस बारे में अगले हफ़्ते मैं लेख लिखूंगा। मेरा केवल यह अनुरोध था आप लोगों से कि अगर अपनी विचारधारा से जुड़े अच्छे लोगों के बारे में लिखते तो अच्छा रहता। किसी भी देश का जनमानस तर्क के बजाय शहादत और बलिदान से प्रभावित होता है। कम्युनिस्ट पार्टी से आम घरों के सैकडों-हजारों युवा जुड़ते रहे तो कोई न कोई बात तो होगी उस दर्शन में जो लोगों को बलिदान को उकसाती है।
उसके बारे में लिखकर शायद आप कुछ लोगों को अपने साथ जोड़ पाते। लिबरेशन आदि तो बाद की बाते हैं लेकिन सबसे पहले तो आप कम्युनिस्ट हैं। जिन व्यक्तियों ने कम्युनिस्ट की हैसियत से बलिदान दिये हैं उनके बारे में बताते तो वह ज्यादा सार्थक होता। कैफ़ी आजमी अपने बुढ़ापे में मुंबई छोड़कर अपने गांव लौटे। लकवाग्रस्त उस घोषित कम्युनिस्ट ने धरना दे देकर अपने गांव में पोस्ट आफिस, स्कूल ,रेलवे स्टेशन आदि बनवाये। अमृतराय ने जब कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन की तब उनसे बनारस में अखबार बंटवाये गये। इसी तरह के तमाम किस्से हैं जो लोगों को बताये जा सकते हैं। इस मंच का बेहतर उपयोग करके अपनी बात सार्थक तरीके से की जा सकती है ऐसा मेरा मानना है। इसके साथ यह भी सोचने की बात है कि ऐसी कौन सी वजह है कि आज नक्सल आंदोलन सत्तर गुटों में बंटा हुआ। क्या यह इसके बिखरते प्रभाव का सूचक है या विस्तार का प्रतीक। ऐसे कौन से कारण हैं कि आम जनता अब नकसलियों को अपने घर छुपाने उनकी रक्षा करने का काम नहीं करती। करती भी है तो डर से न कि प्रेम से।
@संजीत त्रिपाठी, धन्यवाद। चंद्रशेखर के बारे में विस्तार से मैं जल्द ही लिखूंगा।
@अफलातूनजी, परसाईजी पार्टी के कार्ड होल्डर न होते हुये भी कम्युनिस्ट विचारधारा में पूर्ण आस्था रखते थे। उनके कहने का मतलब यह था कि स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार मार्क्सवाद को लागू करने के प्रयास भारत में होते तो ज्यादा सफ़ल रहते। अगर वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे इसका मतलब यह तो नहीं कि मार्क्सवाद की आलोचना का हक खो दिया।
@समीरलालजी, शुक्रिया। मृणाल आपके लेख पढ़कर आतंकित होकर कविता लिखने से डरने लगे हैं।:)
@सुजाताजी, धन्यवाद। अनजाने में वह वर्तनी की गलती हुयी। अब उसे ठीक कर दिया। गलती की तरफ़ ध्यान दिलाने के लिये शुक्रिया।:)
यही उनकी व्यवस्था की दुर्गति का भी कारण है.
लेकिन एक बात और है, कुरान वाली यह स्थिति केवल तब के लिए है जब छोटे कार्यकर्ताओं की कोई बात दबाबी हो. बाकी असलियत में उसकी व्याख्याएँ वैसे ही हो रही हैं जैसे मुल्ला लोग कर रहे है कुरान की. अपने स्वार्थ और अपनी सुविधानुसार. वरना नीतियाँ उनकी पूजीवादियों से भी भयंकर हैं. यह दास कैपिटल के अनुरूप तो बिल्कुल नहीं है. रही बात घपले घोटाले की तो ऐसा लगता है जैसे या तो आप कलकत्ता गए नहीं या फिर कोई ढंग का आदमी बताने वाला आपको मिला नहीं. वर्ना बासु का बीटा जितना बड़ा पूजीपती बन गया, क्या वह ऐसे ही हुआ है. अरे घपला-घोटाला सिर्फ एक ही तरीके से नहीं होता!
धन्यवाद