Tuesday, July 24, 2007

कल जो हमने बातें की थीं

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कल जो हमने बातें की थीं

[परसाई जी के अपने समकालीनों के बारे में लिखे संस्मरणों में साथियों की रुचि देखकर आज उनका एक और संस्मरण पेश कर रहा हूं जो उन्होंने अपने समकालीन कवि-मित्र श्रीकांत वर्मा के बारे में लिखा था। ]
श्रीकांत वर्मा के विषय में लिखना मेरे लिए बहुत कठिन है। इसी तरह मुक्तिबोध जी की म्रत्यु के बाद तब लिखना कठिन था। हमारे संबंध शुरू तो साहित्य के बहाने हुए थे, पर आगे चलकर ये संबंध वैयक्तिक मित्रता के हो गए। श्रीकांत और मैं मुक्तिबोध के बहुत निकट थे और हम दोनो ने उनसे बहुत सीखा था। पर संबंध विशिष्ट थे। हम कभी वह नहीं करते थे जिसे ‘शाप टाकिंग’ (दुकानदारी की बात) कहते हैं। जब भी मैं श्रीकांत या मुक्तिबोध के साथ बैठता या हम तीनों साथ होते, दुनिया-भर की बाते होतीं, पर साहित्य की सबसे कम। भोपाल में एक पूरी रात हम लोंगो ने चाय पी-पीकर सड़क चलते हुए बातें करते गुजार दी। मुक्तिबोध ने लिखा भी है-

कल जो हमने बातें की थी
बात बात में रातें की थी

मुक्तिबोध ने जो एक टिप्पणी ‘नया खून’ में मुझ पर लिखी थी, तब उनसे मेरा परिचय नहीं था। साल-भर बाद भेंट और आत्मीयता हुई। मगर इसके बाद मुक्तिबोध ने कभी मेरे बारे में न एक पंक्ति लिखी, न मैंने उनकी म्रत्यु पर्यत उनके बारे में एक भी पंक्ति लिखी। श्रीकांत ने मित्रता होने के बाद मेरे बारे में एक पंक्ति भी नहीं लिखी, और न मैंने उनके बारें में एक पंक्ति लिखी। म्रत्यु के बाद मैंने मुक्तिबोध पर दो लेख लिखे। और अब मैं श्रीकांत के बारे में म्रत्यु के बाद पहली बार यह लिखने बैठा हूं। मेरे किस्मत में मित्रों का तर्पण करना ही है। मैं श्रीकांत के साहित्य का मूल्यांकन करने नहीं बैठा हूं। आलसी बुद्धिमानों ने साहित्य का इतना सरलीकरण का दिया है कि उसे पड़कर हंसी आती है और याद आता है-
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास।
अबके कवि खद्योत सम, जहं-तहं करहिं प्रकास॥

श्रीकांत के साथ यही हुआ। और श्रीकांत ने भी चौकानेवाले एक-एक वाक्य के निर्णायक फ़तवे दिए, जैसे- प्रगतिशीक आलोचना गैंगस्टेरिज्म है।
अगर किसी को शुरू में ही ‘प्रगतिवादी’ तय कर दिया, तो उसकी रचना पर लेख लिखने की जरूरत ही नहीं है- मगर लिखे जाते है। किसी को ‘प्रतिक्रियावादी’ घोषित कर दिया गया, तो उसकी रचना पर आगे एक वाक्य भी लिखने की जरूरत नहीं है- मगर लंबे लिख फ़िर भी लिखे जाते हैं।
श्रीकांत से मेरी मित्रता १९५४ में हुए और मैं १९८६ तक उनका घनिष्ट मित्र रहा। न्युयार्क जाने के तीन दिन पहले सोमदत्त ने भोपाल से फ़ोन पर कहा कि कल मैं दिल्ली में था और श्रीकांत जी से मिला था। उन्हें भोजन की नली में कैंसर हो गया है। पंद्रह दिन पहले ही मुझे श्रीकांत का लंबा पत्र मिला था, जिसमें उन्होंने अपनी तब की राजनैतिक स्थिति के हिसाब से काफ़ी उद्वेग से लिखा था- इस देश की राजनीति अपराधी गिरोंहों के हाथों में आ गई है। तरह-तरह के ‘माफ़िया’ इसे चला रहे है। पत्र में बीमारी का कोई जिक्र नहीं था।
श्रीकांत को मित्रों की चिंता हमेशा रही। श्रीकांत में बहुत आत्मीयता थी। मित्रों की हमेशा चिंता करते थे। ऊपर से कटु और ‘एरोगेंट’ लगनेवाला यह आदमी भीतर बहुत-बहुत कोमल था।
मैंने दिल्ली फ़ोन लगाया। श्रीकांत ने पहले ही मुझसे पूछा-आपकी तबियत कैसी है? श्रीकांत को मित्रों की चिंता हमेशा रही। श्रीकांत में बहुत आत्मीयता थी। मित्रों की हमेशा चिंता करते थे। ऊपर से कटु और ‘एरोगेंट’ लगनेवाला यह आदमी भीतर बहुत-बहुत कोमल था।
श्रीकांत की आवाज ज्यादा गिरी हुई नहीं थी। कहा-हफ़्ता-भर पहले ही कैंसर का पता चला। आरंभिक स्टेज में है। आपरेशन यहा भी हो सकता है। पर मैं न्यूयार्क जा रहा हूं। ठीक होकर कुछ दिन दिल्ली रहकर जबलपुर आऊंगा। वहीं रहूंगा। श्रीकांत साल-भर में ३-४ बार मुझे लिख चुके थे कि यहां के जानलेवा वातावरण से घबड़ा गया हूं। चुपचाप कुछ दिनों के लिए जबलपुर आकर रहूंगा। मैं जानता था, दल की राजनीति के ‘गलाकाटू‘ संघर्ष से कवि घबड़ा गया है, असुरक्षित है, हालांकि दल का महासचिव और प्रवक्ता है।
१९५४ में नागपुर में जबलपुर के पत्रकार मित्र रामक्रष्ण श्रीवास्तव ने मेरी मुलाकात श्रीकांत से कराई थी। तब मेरा परिचय मुक्तिबोध जी से नहीं था, जो नागपुर में ही थे। श्रीकांत की उनसे मुलाकात थी। मैं तो गया था माध्यमिक शिक्षक संघ के वार्षिक अधिवेशन में। तब मैं गुरूओं के ट्रेड यूनियन बनाने में लगा था। कार्यकारिणी के बैठक के बाद कमरे से बाहर निकला तो रामक्रष्ण ने परिचय कराया- ये श्रीकांत वर्मा। छोटे कद का, दुबला युवक । चेहरे पर कुछ पीलापन-सा, आवाज मे कर्रापन! तब श्रीकांत बिलासपुर में माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक थे। ‘नई दिशा’ निकालने की योजना बना रहे थे। कुल दो दिन साथ रहा। श्रीकांत ने तीन कविताएं सुनाई, जिनमें एक का शीर्षक मुझे अब याद है- ‘पठार का तीतर’। मैं श्रीकांत से उम्र में ६ साल बड़ा हूं और तब तक बहुत लिख चुका था और मशहुर भी हो चुका था। श्रीकांत की तीन कविताओं से ही मैं समझ गया था कि यह कवि नए कवियों की भीड़ से अलग है। यह निराली धारदार भाषा बनाता है। इसकी मूल भावभूमि है- गर्मी से जलते हुए सूखे पठार पर तीतर की तड़प।
श्रीकांत, मुक्तिबोध और मुझसे भिन्न था। हम दोनों कसबे में रहकर भी अपना काम कर लेते थे और उससे बहुत आकांक्षा भी नहीं रखते थे। श्रीकांत को विराटता चाहिए थी स्तर की ओर ‘स्पेस’ की। अभिव्यक्ति की उत्कटता उसमें विकट थी। बेचैन था। छटपटाता था।
महत्वाकांक्षी है श्रीकांत, यह तभी समझ में आ गया था। यह अपना रास्ता नया बनाने की तपस्या करेगा। यह दूसरे क्षेत्रीय कवियों की तरह कवि-सम्मेलनों में कविता पढ़कर संतुष्ट नहीं होगा। बिलासपुर इसे ‘कंटेन’ नहीं कर सकेगा। रहा तो खत्म हो जायगा। श्रीकांत, मुक्तिबोध और मुझसे भिन्न था। हम दोनों कसबे में रहकर भी अपना काम कर लेते थे और उससे बहुत आकांक्षा भी नहीं रखते थे। श्रीकांत को विराटता चाहिए थी स्तर की ओर ‘स्पेस’ की। अभिव्यक्ति की उत्कटता उसमें विकट थी। बेचैन था। छटपटाता था। वह ‘स्माल टाक’ तब भी नहीं करता था। चिंतनशील युवा था। आगे उसकी चिंता का दायरा बढ़ा और ऊंचा हुआ।
‘नई दिशा’ के तीन अंक निकालकर श्रीकांत दिल्ली चले गए। नागपुर में नरेश मेहता, से जो रेडियो पर मुलाजिम थे, अच्छा परिचय हो चुका था। नरेश मेहता के चचेरे भाई नंदकिशोर भट्ट तब ‘इंटक’ के कार्यालय-सचिव थे। श्रीकांत को वहां कुछ काम मिल गया था। रहते थे सांसद मिनी माता के नार्थ एवेन्यू स्थित फ़्लेट में। मिनी माता और श्रीकांत के परिवार में अच्छे संबंध थे और वे उसे घर के नाम ‘बच्चू’ से ही संबोधित करती थी। मैं भी मिनी माता के यहीं ठहरता था।
श्रीकांत के रिमार्क अपमानजनक तक होते थे। आगे चलकर वे ‘एरोगेंट’ ही कहलाने लगे। कई लोगों ने बाद में जब वे ‘दिनमान’ में और राजनीति में जम गए, मुझसे कहा- आपके ये श्रीकांत जी बहुत ‘एरोगेंट’ है। मैंने श्रीकांत से शिकायत भे की कि तुम खामख्वाह लोगों को क्यों चोट पहुंचाते हो। श्रीकांत का जवाब ध्यान देने लायक है- जो शिकायत करते हैं उन्हें आप जानते है न! वे ही खोखले मगर ‘एरोगेंट’ हैं। ये क्रुर है, अमानवीय है। ये गर्दिश में पड़े आदमी का उपहास करते हैं। उसे तिरस्कार के योग्य जानवर समझते है।
यह जानना जरूरी है कि जब श्रीकांत को बी.ए. करके ही स्कूल मास्टरी करना पड़ी, तब उनके परिवार की आर्थिक हालत खराब हो चुकी थी। श्रीकांत के छोटे भाई थे। श्रीकांत पर परिवार की कुछ जिम्मेदारी भी आ पड़ी थी। मैं उनके घर गया था। वह संपन्न वकील का नहीं, गरीब आदमी का घर था। मरम्मत भी नहीं हुई थी। एक तो परिवार की जिम्मेदारी, दूसरे निम्न-मध्यम वर्ग के संघर्ष, तीसरे श्रीकांत की उत्कट महत्वाकांक्षा और रचनात्मक उर्जा- इस स्थिति में श्रीकांत दिल्ली गए। श्रीकांत की प्रक्रति साफ़गोई की थी। वह बेखटाके अपनी बात कह देता था, चाहे वह किसी के लिए कितनी ही कटु हो। श्रीकांत के रिमार्क अपमानजनक तक होते थे। आगे चलकर वे ‘एरोगेंट’ ही कहलाने लगे। कई लोगों ने बाद में जब वे ‘दिनमान’ में और राजनीति में जम गए, मुझसे कहा- आपके ये श्रीकांत जी बहुत ‘एरोगेंट’ है। मैंने श्रीकांत से शिकायत भे की कि तुम खामख्वाह लोगों को क्यों चोट पहुंचाते हो। श्रीकांत का जवाब ध्यान देने लायक है- जो शिकायत करते हैं उन्हें आप जानते है न! वे ही खोखले मगर ‘एरोगेंट’ हैं। ये क्रुर है, अमानवीय है। ये गर्दिश में पड़े आदमी का उपहास करते हैं। उसे तिरस्कार के योग्य जानवर समझते है। मेरे आरंभिक संकट और संघर्ष के दिनों में इन्होंने मुझे मध्यप्रदेश से आया हुआ एक बकरा समझा। खूब सताया। छोटे-छोटे काम लेकर दाल-रोटी का इंतजाम करता था। उसमें ये अड़ंगा डालते थे। इनकी चीते की नैतिकता है। बकरा खाते है और नाले का पानी पीकर सो जाते है। जब तक आप खुद चीता न हो जाएं, ये आपको बकरे की तरह खाते है। इन्होंने मेरा गोश्त खाया हैं। इनसे निभाने के लिए खुद चीता बनकर इनकी बिरादरी में शामिल होना पड़ता है। मगर मैं चीता नहीं हुआ। मैं हिंसक पशु नहीं हूं। मैंने कड़ी मेहनत की और बंदूक हाथ में ले ली। मैं इनसे बदला लेता हूं। मेरी बन्दूक के छर्रे घुसते है, तो तड़पते हैं। उस दिन ऎसे ही एक बड़े लेखक के बारे में सबके सामने कह दिया- यह तो साहित्य का गधा है। ईटॆं ढोता है और समझता है कि काव्य-रचना करता है।
‘माया दर्पण’ तथा उसके आसपास की कविताओं को समझने के लिए यह ध्यान में रखना चाहिए।
विकट जीवनी-शक्ति थी। वह दिल्ली हारने नही आया था। वह बहुत अध्ययन करता था। साथ ही अपनी एक अलग तेज धारदार भाषा बना रहा था। ऎसी भाषा बनाना ही बड़ी तपस्या की बात है। इस भाषा की नकल कोई नहीं कर सकता। इसका प्रयोग करना खतरनाक है। वह भाषा श्रीकांत के साथ ही चली गई।
और ध्यान में रखने चाहिए उन ५-६ वर्षो के संघर्ष। एक पीला-सा अर्द्ध-रेशमी कुरता और पाजामा बाहर जाने की पोशाक थी। गर्म कपड़े नहीं के बराबर। दिल्ली की ठंड में ठीक-ठाक रजाई भी नहीं थी। खाने का ठिकाना नहीं। जहां जाते, निराशा हाथ लगती थी। अपमान बरदाश्त करना पकृति में नहीं था। स्वास्थ्य श्रीकांत का कभी पूरी तरह अच्छा नहीं रहा। तब तो और कमजोर हो गया था। पर विकट जीवनी-शक्ति थी। वह दिल्ली हारने नही आया था। वह बहुत अध्ययन करता था। साथ ही अपनी एक अलग तेज धारदार भाषा बना रहा था। ऎसी भाषा बनाना ही बड़ी तपस्या की बात है। इस भाषा की नकल कोई नहीं कर सकता। इसका प्रयोग करना खतरनाक है। वह भाषा श्रीकांत के साथ ही चली गई।
एक दिन मिनी माता ने मुझसे कहा- परसाई जी, इस बच्चू की नौकरी यहां नही लग रही है, तो इसे आप मध्यप्रदेश ही ले जाइए। यहां बैठा-बैठा खीझता है, सबकी बुराई करता है। मैंने कहा रे बच्चू तू अपनी गठरी खोलकर तो देख। मैंने कहा- माता जी, श्रीकांत नौकरी करने दिल्ली आया ही नहीं। वह इससे बहुत ऊंची इच्छा लेकर आया है।
श्रीकांत ने तब अपना बौद्धिक आतंक जमा लिया था। कवि भी विशिष्ट हो गया था। वह चाहता तो अकवियों का नेता हो सकता था, पर नहीं हुआ। अकवि का सारा आक्रोश ‘सेक्स’ पर उतरता था। मगर श्रीकांत का आक्रोश पूरी व्यवस्था की क्रूरता के प्रति था और बदले में वह भी क्रूर हो गया था।
अकवियों के ‘सेक्स’ -आक्रोश और श्रीकांत इन पंक्तियों में बड़ा फ़र्क है-
क्या बागडोर दे दूं वेश्याओं के हाथ में?
क्या चिड़ियों को फ़ुर्र से उड़ा दूं?
क्या समय को कवि से, कवि को समय से लड़ा दूं?
उसके लेखन में ‘सेक्स’ का आक्रोश बहुत ही कम है। ‘माया दर्पण’ की कविताओं को समझने के लिए यह सब भी ध्यान में रखना जरूरी है।
उसके पहले काव्य संग्रह ‘भटका मेघ’ में ‘इनोसेंट’ प्रगतिशील की कविताएं है। यह समझ उसमें अपने जीवन-संघर्ष और मुक्तिबोध से बातचीत के जरिए आई थी। कोई जटिलता नहीं थी। एक सरल पक्षधरता थी। १९६२ में जब श्रीकांत जबलपुर आए थे, तब उनके हाथ में मार्क्स की ‘पूंजी’ का पहला भाग था। ‘भटका मेघ’ इसके पहले प्रकाशित हो चुका था। अब वे गंभीरता से मार्क्सवाद का अध्ययन कर रहे थे।
श्रीकांत ने ‘दिनमान’ में नौकरी कर ली। मुझसे कहा- मजबूर होकर मैंने नौकरी कर ली। नौकरी नहीं करता तो टूटकर पूरी तरह नष्ट हो जाता। जब नौकरी कर ली है, तो शादी भी कर लूंगा।
शादी करके श्रीकांत ने अच्छा किया, वरना दूसरी तरह से टूटते। वीणा जी ने इस असामान्य आदमी को बहुत संभाला।
हर उपद्रव को क्रांति-कर्म मान लेना सहज ही आदमी को क्रांतिकारी होने का अहंकार देता था। तीव्र मेधावाले चिंतक लोहिया ने कोई सिलसिलेवार आंदोलन नहीं चलाया। चौंकाते रहे।
राजनीति में पहले श्रीकांत डा. राममनोहर लोहिया के प्रभाव में आए। लोहिया की ‘फ़्रीलांस क्रांतिकारिता’ और गंभीरता से किए जानेवाले राजनैतिक कर्मो का लुभावना रूमानी अंदाज बहुत लोगों को तब आकर्षित करता था। हर उपद्रव को क्रांति-कर्म मान लेना सहज ही आदमी को क्रांतिकारी होने का अहंकार देता था। तीव्र मेधावाले चिंतक लोहिया ने कोई सिलसिलेवार आंदोलन नहीं चलाया। चौंकाते रहे। एक पुस्तिका तब लोहिया-भक्त खूब पढ़ते थे- ‘पच्चीस हजार रूपए रोज- जवाहरलाल नेहरू पर खर्च।” मैंने श्रीकांत से कहा- मैं शासन में कम- खर्ची का हिमायती हूं। मगर ये पच्चीस हजार रूपए जवाहरलाल पर नहीं. प्रधानमंत्री पर खर्च होते है। हर देश के प्रधानमंत्री पर खर्च होते है। मगर लोहिया प्रधानमंत्री हुए तो यह खर्च तीस हजार रूपए भी हो सकता है।
लोहिया के वर्ण-संघर्ष के सिद्धांत पर भी श्रीकांत से मेरी खूब बातें होती थीं। मैं कहता था- यह माना कि भारतीय समाज में जितने ‘काट्रेडिक्शंस’ है, उतने दुनिया के किसी समाज में नहीं। दास-प्रथा लगभग सब सभ्यताओं में थी, मगर अस्पृयस्पता सिर्फ़ भारत में रही और है। मगर वर्ण-संघर्ष की बात करना, सच्चे संघर्ष से विमुख करना है। तुम मुझे बताओ कि जगजीवनराम का कौन-सा वर्ण और वर्ग है? सार्वजनिक रूप से जनेऊ तोड़कर फ़ेंकना क्या वर्ण और वर्ग है? सार्वजनिक रूप से जनेऊ तोड़कर फ़ेकना क्या वर्ण और वर्ग मिटा देगा। यह एक नाटक है। लोहिया समाजवादी संघर्ष को बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं। वर्ग-विभाजन में अड़ंगा डालते है।
एक बात मुझे पहले बता देनी चाहिए थी। १९४६ से १९५८ तक हमने जबलपुर से ‘वसुधा’ मासिक निकाली। इसमें मुक्तिबोध और श्रीकांत दोनों पूरी तरह साथ थे। ‘वसुधा’ इनही की पत्रिका थी। मुक्तिबोध ने ‘एक साहित्यिक की डायरी’ ‘वसुधा’ में ही लगातार लिखी। श्रीकांत ‘कलम की दिशा’ स्तंभ लिकहते थे ‘समुद्रगुप्त’ उपनाम से। ‘वसुधा’ की फ़ाइल जिनके पास हो वे देखें कि मुक्तिबोध और श्रीकांत के विचारों में कोई फ़र्क नहीं है। जब श्रीकांत ने वे कविताएं लिखीं जो ‘माया दर्पण’ में हैं, तो मुक्तिबोध चौंके, क्षुब्ध हुए और चिटिठ्या लिखीं। एक पत्र में लिखा- मेरे छत्तीसगढ़ के इस प्यारे कवि को क्या हो गया है।
श्रीकांत में राजनैतिक महत्वाकांक्षा जाग चुकी थी। लोहिया से मोहभंग हो चुका था। १९६९ के कांग्रेस-विभाजन के बाद वे इंदिरा कांग्रेस की तरफ़ आए। दो कारण थे- एक तो यह कि ‘माया दर्पण’,'दिनारंभ’ और ‘जलसाघर’ के दौर के बाद वे कविता लिख नही सकते थे। आगे लिखने के लिए बहुत आंतरिक संघर्ष करना पड़ता, जो कई साल किया और तब ‘मगध’ की सविताएं लिखी गई। सन ७० के आसपास श्रीकांत के भीतर काव्य के नाम पर शून्य था। राजनीति में जाकर सार्थकता-बोध करना और व्यक्तित्व को बनाए रखना तब उन्हें जरूरी लगा। दूसरे श्रीकांत जिम्मेदार आदमी थे। वे दायित्व-बोध रखते थे। वे आस्थाहीन नही, आस्थावान थे। उनकी चिंता व्यापक और गहरी थी। वे विश्व-मानवता के बारे में सोचते थे। मनुष्य की नियति उनकी चिंता थी। इस चिंता ने भी उन्हें कांग्रेस में सक्रिय किया। पर तब उनके संबंध यूरोप और अमेरिका के उन कवियों से हुए जो लोकतांत्रिक और मानवतावादी तो थे, पर मार्क्सवादी नहीं थे। वे सोवियत व्यवस्था के खिलाफ़ थे। वे ‘फ़्रीड्म आफ़ हयूमन स्पिरिट’ जैसे जुमलो का प्रयोग करते थे। इनमे आक्टोवियो पाज से श्रीकांत की विशेष घनिष्ठता थी। आक्टोवियो पाज ने नेहरू-स्म्रति व्याख्यान में कहा था- ‘जब हिरोशिमा पर एटम बम गिरा और दूसरा महायुद्ध खत्म हुआ, तब हम युवा थे। तब हमारी आशा के सबसे बड़े केंद्र जवाहरलाल नेहरू थे। वे भविष्य की आशा थे।’ इन कवियों से संबंध ने श्रीकांत को पश्चिम भेजा, उनका दायरा अंतराष्ट्रीय किया।
श्रीकांत राज्यसभा के सदस्य हुए। वे राज्य से नही, नंबर एक सफ़दरजंग से आए हुए राजनेता थे। आगे जब वे पार्टी-संगठन में अधिक सक्रिय हुए और ‘दादा’ लोगों की कारगुजारियों की शिकायत करने लगे, तो मैने उनसे कहा था- जिसकी किसी राज्य में बुनियाद नहीं है, वह दिल्ली में नहीं लड़ सकता। तुम्हारी मध्यप्रदेश में ही कोई बुनियाद नही है। तुम्हारी पार्टी में विकट ‘यूथपति‘ है, जो इस जेब में विधायक और उस जेब में संसद सदस्य रखते है। इनकी प्राइवेट फ़ौजे है। ये तुम्हें उखाड़ेगे और केवल बुद्धि-कौशल तथा प्रधानमंत्री से निकटता के दम पर तुम कैसे इन दैत्यों से लड़ सकोगे।
मैंने लिखा- तुमने रूस की सामाजिक व्यवस्था भी कुछ समझी होगी। उसके बारे में बताओ। श्रीकांत ने इसका जवाब नहीं दिया। उनकी पार्टी की नीति है कि सोवियत सरकार से अच्छे संबंध रखो, मगर सोवियत व्यवस्था की तारीफ़ मत करो और उसे भारत में लोकप्रिय मत होने दो।
दूसरी दुनिया, समाजवादी दुनिया के अनुभव श्रीकांत को तब हुए जब वे अपनी पार्टी के महासचिव की हैसियत से रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आए और अक्सर मास्को जाने लगे। वे इसी हैसियत से विश्व-शांति परिषद के अध्यक्ष मण्डल की बैठक में भाग लेने मास्को गए थे। रूस भी घूमे। मास्को से मुझे पत्र लिखा, बहुत भावुक। लिखा कि पुश्किन के घर गया था। भाव-विभोर हो गया। लगा, मै कितना छोता, कितना क्षुद्र हूं। मैंने लिखा- तुमने रूस की सामाजिक व्यवस्था भी कुछ समझी होगी। उसके बारे में बताओ। श्रीकांत ने इसका जवाब नहीं दिया। उनकी पार्टी की नीति है कि सोवियत सरकार से अच्छे संबंध रखो, मगर सोवियत व्यवस्था की तारीफ़ मत करो और उसे भारत में लोकप्रिय मत होने दो।
श्रीकांत ने अपनी पार्टी के महासचिव का काम बहुत ठाठ से किया। बहुत दम से, दबंगपन से। पर ‘यूथपति’ उसे निगल गए। पी.यू.सी. एल. तथा पी. यू. डी. आर. से श्रीकांत खूब लड़े। मैंने तब उन्हें लिखा था- प्रो के. के. तिवारी और तुमने बहुत दम से बहुत सही लड़ाई की इन संगठनों के खिलाफ़। मगर तुम्हारे पद से हटाए जाने का तात्कालिक कारण भी शायद यही लड़ाई हुई। भूमिका तो पहले से थी।
मेरे और श्रीकांत के घनिष्ठता के बावजूद वैचारिक मतभेद थे। इसकी खुली घोषणा श्रीकांत भी करते थे और मैं भी करता था। कहीं कोई समझौता नहीं था मा्न्यताओ के मामले में। मेरा कहना यह है कि श्रीकांत पर निर्णय उनके उड़ते-उड़ते दिए गए रिमार्को और राजनीति की जरूरत के दबाव में किए गए वक्तव्यों से नहीं देना चाहिए। उनकी रचनाओं का मूल्यांकन उन रचनाओं से ही होना चाहिए- उनके बयानों और राजनैतिक कर्मो से नही ।
श्रीकांत ने जवाब में लिखा था कि गिरोह मुझे फ़िलहाल लिटा गए। पर मैं एक बार फ़िर उठूंगा और इन्हें अपनी ताकत बता दूंगा। इसी पत्र में उन्होंने लिखा था कि राजनीति अपराधी गिरोहो के हाथो में चली गई है। मेरा यह हाल है कि कोई कांग्रेसी मुझसे मिलने नहीं आता, इस डर से कि उसका नाम ‘ब्लैकलिस्ट’ में आ जायगा। बिल्कुल अकेला बैठा रहता हूं, वहां जहां घिरा रहता था। जिसे ‘केरीअर पालिटिशियन’ कहते है, वह श्रीकांत होता, तो धूल झाड़कर फ़िर षड्यंत्र में लग जाता। पर वह कवि था मूल रूप से। संवेदनशील था। वह टूट गया।
तभी डाक्टरों ने कैंसर का पता लगाया।
मेरे और श्रीकांत के घनिष्ठता के बावजूद वैचारिक मतभेद थे। इसकी खुली घोषणा श्रीकांत भी करते थे और मैं भी करता था। कहीं कोई समझौता नहीं था मा्न्यताओ के मामले में। मेरा कहना यह है कि श्रीकांत पर निर्णय उनके उड़ते-उड़ते दिए गए रिमार्को और राजनीति की जरूरत के दबाव में किए गए वक्तव्यों से नहीं देना चाहिए। उनकी रचनाओं का मूल्यांकन उन रचनाओं से ही होना चाहिए- उनके बयानों और राजनैतिक कर्मो से नही ।
मेरे और श्रीकांत के घनिष्ठता के बावजूद वैचारिक मतभेद थे। इसकी खुली घोषणा श्रीकांत भी करते थे और मैं भी करता था। कहीं कोई समझौता नहीं था मा्न्यताओ के मामले में। मेरा कहना यह है कि श्रीकांत पर निर्णय उनके उड़ते-उड़ते दिए गए रिमार्को और राजनीति की जरूरत के दबाव में किए गए वक्तव्यों से नहीं देना चाहिए। उनकी रचनाओं का मूल्यांकन उन रचनाओं से ही होना चाहिए- उनके बयानों और राजनैतिक कर्मो से नही । इसका मतलब यह नहीं है कि मै दुहरी प्रतिबद्धता या दुहरी नैतिक स्थिति का समर्थक हूं। कतई नही। मैं इसको घोर विरोधी हूं। पर श्रीकांत के उड़ते रिमार्को को मैं वक्ती ‘मूड’ के और नान-सीरियस’ मानता हूं। पर श्रीकांत के उड़ते रिमार्को को मैं वक्ती ‘मूड’ के और ‘नान-सीरियस’ मानता हूं। श्रीकांत अब निंदा-स्तुति की परिधि के बाहर है। बाईस साल पहले हम दोनो पहले हम दोनों ने मुक्तिबोध को खोया। मैंने अब श्रीकांत भी खो दिया।
-हरिशंकर परसाई

7 responses to “कल जो हमने बातें की थीं”

  1. नीरज रोहिल्ला
    अनूपजी,
    परसाईजी का लेख पढवाने के लिये आपका धन्यवाद,
  2. yunus
    अद्भुत । ये पुस्‍तक बरसों पहले पढ़ी थी । अब फिर वही परिदृश्‍य याद आ रहा है । परसाई जी ने एक आत्‍मकथ्‍य भी लिखा है, इस आत्‍मकथ्‍य में उन्‍होंने अपने जीवन के संघर्ष के बारे में लिखा था । उन्‍होंने लिखा था कि आदमी को अपनी कीमत पहचनना और वसूल करना चाहिये, मैं जीवन भर से यही कर रहा हूं । । क्‍या वो आपको कहीं से मिलेगा ।
  3. pramod singh
    अच्‍छा स्‍मरण.. टिपाई के लिए आपको धन्‍यवाद.
  4. maithily
    बहुत मार्मिक आलेख है. श्रीकान्त वर्मा के बारे में कई अनछुये पहलुओं का पता चला.
    आपको धन्यवाद.
  5. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    श्रीकान्त वर्मा पहले समझ में नहीं आते थे. फिर चाहे-अनचाहे बैण्ड-विड्थ रिजेक्शन फिल्टर बना लिया था उनके लेखन के प्रति. ऐसा फिल्टर कई दूसरों के प्रति भी है. इसमें अवमानना नहीं है – केवल यह है कि फिर भी बहुत कुछ पठनीय बच जाता है पढ़ने से.
  6. समीर लाल
    पुनः पढ़कर आनन्द आ गया.आपका बहुत आभार इस प्रस्तुति के लिये. जारी रहें. इन्तजार रहता है. :)
  7. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] कल जो हमने बातें की थीं [...]

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