Friday, July 20, 2007

झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद

http://web.archive.org/web/20140419212848/http://hindini.com/fursatiya/archives/304

झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद

ऐसा माना जाता है कि कनपुरिया बाई डिफ़ाल्ट मस्त होता, खुराफ़ाती है, हाजिर जवाब होता है।(जिन कनपुरियों को इससे एतराज है वे इसका खंडन कर दें , हम उनको अपवाद मान लेंगे।) मस्ती वाले नये-नये उछालने में इस् शहर् का कोई जोड़ नहीं है। गुरू, चिकाई, लौझड़पन और न जाने कितने सहज अनौपचारिक शब्द यहां के माने जाते हैं। मुन्नू गुरू तो नये शब्द गढ़ने के उस्ताद थे। लटरपाल, रेजरहरामी, गौतम बुद्धि जैसे अनगिनत शब्द् उनके नाम से चलते हैं। पिछले दिनों होली पर हुयी एक गोष्ठी में उनको याद करते हुये गीतकार अंसार कम्बरी ने एक गजल ही सुना दी-समुन्दर में सुनामी आ न जाये/ कोई रेजर हरामी आ न जाये।
जैसे पेरिस में फ़ैशन बदलता है, उसके साथ वैसे ही कानपुर में हर साल कोई न कोई मौसम उछलता है वैसे ही कानपुर् में कोई न् कोई जुमला या शब्द् हर साल् उछलता है और कुछ दिन जोर दिखा के अगले को सत्ता सौंप देता है। कुछ साल पहले नवा है का बे का इत्ता जोर रहा कि कहीं-कहीं मारपीट और स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में है तक पहुंच गयी।
कानपुर् के ठग्गू के लडडू की दुकानदारी उनके लड्डुऒं और् कुल्फ़ी के कारण् जितनी चलती है उससे ज्यादा उनके डायलागों के कारण चलती है-

ठग्गू के लड्डू
1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं
2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की
3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.
4.बदनाम कुल्फी —
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब
5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो–
शराब नहीं ,जलजीरा.
दो दिन पहले अगड़म-बगड़म शैली के लेखक आलोक पुराणिक अपने कानपुर् के अनुभव सुना रहे थे। बोले -कनपुरिये किसी को भी काम् से लगा देते हैं। मुझे लगता है कि अगर वे रोज-रोज नयी-नयी चिकाई कर् लेते हैं तो इसका कारण उनका कानपुर में रहना रहा है। राजू श्रीवास्तव के गजोधर भैया कनपुरिया हैं इसीलिये इतने बिंदास अंदाज में हर चैनेल पर छाये रहते हैं।
कानपुर में मौज-मजे की परम्परा के ही चलते भडौआ साहित्य का चलन हुआ जिसमें नये-नये अंदा़ज में पैरोडियों के माध्यम से स्थापित लोगों की खिंचाई का पुण्य काम शुरू हुआ। आज किसी एक् शहर के सर्वाधिक सक्रिय ब्लागर की गिनती की जाये तो वे कानपुर के ही निकलेंगे। यह भी कि इनमें से ज्यादातर मौज-मजे वाले मूड में ही रहते हैं(अभय तिवारीजी संगति दोष :) के चलते कभी-कभी भावुक हो जाते हैं) ।दिल्ली वाले इसका बुरा न मानें क्योंकि किसी शहर में जीने-खाने के लिये बस जाने से उसका मायका नहीं बदल जाता।
तमाम जुमलों और शब्द-समूहों के बीच एक जुमले की बादशाहत कानपुर में लगातार सालों से बनी हुयी है। किसी ठेठ् कानपुरिया का यह मिजाज होता है। इसके लिये कहा जाता है- झाड़े रहो कलट्टर गंज। यह अधूरा जुमला है। लोग आलस वश आधा ही कहते हैं। पूरा है- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।
आलोक जी ने इस झन्नाटेदार डायलाग का मलतब पूछा था कि इसके पीछे की कहानी क्या है!
दो साल पहले जब मैं अतुल अरोरा के पिताजी ,श्रीनाथ अरोरा जी, से मिला था तब उन्होंने इसके पीछे का किस्सा सुनाया था जिसे उनको कानपुर् के सांसद-साहित्यकार स्व.नरेश चंद्र चतुर्वेदीजी ने बताया था। श्रीनाथजी कानपुर के जाने-माने जनवादी साहित्यकार हैं। इसकी कहानी सिलबिल्लो मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। कनपुरिया जुमले का किस्सा यहां पेश है।
कानपुर में गल्ले की बहुत बड़ी मण्डी है। जिसका नाम कलट्टरगंज है। यहां आसपास के गांवों से अनाज बिकने के लिये आता है। ढेर सारे गेहूं के बोरों को उतरवाने के लिये तमाम मजूर लगे रहते हैं। इन लोगों को पल्लेदार कहते हैं।
पल्लेदार शायद् इसलिये कहा जाता हो कि जो बोरे उतरवाने-चढ़वाने का काम ये करते थे उसके टुकड़ों को पल्ली कहते हैं। शायद उसी से पल्लेदार बना हो या फिर शायद पालियों में काम करने के कारण उनको पल्लेदार कहा जाता हो।
उन दिनों पल्लेदारों को उनकी मजूरी के अलावा जो अनाज बोरों से गिर जाता था उसे भी दे दिया जाता था। दिन भर जो अनाज गिरता था उसे शाम को झाड़ के पल्लेदार ले जाते थे।
ऐसे ही एक पल्लेदार था। उसकी एक आंख खराब थी। वह् पल्लेदारी जरूर करता था लेकिन शौकीन मिजाज भी था। हफ़्ते भर पल्लेदारी करने के बाद जो गेहूं झाड़ के लाता उसको बेंचकर पैसा बनाता और इसके अलावा मिली मजूरी भी रहती थी उसके उसके पास।
शौकीन मिजाज होने के चलते वह अक्सर कानपुर में मूलगंज ,जहां तवायफ़ों का अड्डा था, गाना सुनने जाता था। वहां उसे कोई पल्लेदार न समझ ले इसलिये वह बनठन के जाता था। अपनी रईसी दिखाने के मौके भी खोजता रहता ताकि लोग उसे शौकीन मिजाज पैसे वाला ही समझें।
ऐसे ही एक दिन किसी अड्डे पर जब वह पल्लेदार गया तो उसने अड्डे के बाहर पान वाले से ठसक के साथ पान लगाने के लिये कहा। ऐसे इलाकों में दाम अपने आप बढ़ जाते हैं लेकिन उसने मंहगा वाला पान लगाने को कहा।
पान वाला उसकी असलियत् जानता था कि यह् पल्लेदार है और इसकी एक आंख खराब है। उसने मौज लेते हुये जुमला कसा- झाड़े रहो कलट्टगंज, मंडी खुली बजाजा बंद।
झाड़े रहो से उसका मतलब- पल्लेदार के पेशे से था कि हमें पता है तुम पल्लेदारी करते हो और् अनाज झाड़ के बेंचते हो। मंडी खुली बजाजा बंद मतलब एक आंख (मंडी -कलट्टरगंज) खुली है, ठीक है। दूसरी बजाजा (जहां महिलाओं के साज-श्रंगार का सामान मिलता है) बंद है, खराब है।
इस तरह् यह एक व्यंग्य था पल्लेदार पर जो पानवाले ने उस पर किया कि हमसे न ऐंठों हमें तुम्हारी असलियत औकात पता है। पल्लेदारी करते हो, एक आंख खराब है और यहां नबाबी दिखा रहे हो।
यह् एक तरह् से उस समय् के मिजाज को बताता है। अपनी औकात से ज्यादा ऐश करने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य है-घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। एक आंख से हीन पर दो आंखों वाले का कटाक्ष है। एक दुकानदार का अपने ग्राहक से मौज लेने का भाव है। यह अनौपचारिकता अब दुर्लभ है। अब तो हर व्यक्ति येन-केन-प्रकारेण बिकने-बेचने पर तुला है।
बहरहाल, आप इस सब पचड़े में न पडें। हम तो आपसे यही कहेंगे- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।

34 responses to “झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद”

  1. abhay tiwari
    चलिए आलोक जी के बहाने ‘झाड़े रहो’ के प्रति मेरी भी जिज्ञासा का शमन हुआ.. ‘नवा है का’ रिक्शों-टेम्पो के पीछे तक लिखा जाने लगा था.. इसकी शुरुआत मेरी स्कूली दिनों में हुई थी..
    प्यारी पोस्ट..
  2. डा. प्रभात टन्डन
    कानपुरियों का तो जबाब नहीं :)
  3. संजय बेंगाणी
    मौजू कानपुरीया मिजाज से परिचित हो लिये. झाड़े रहो, बटोरने को हम हैं ना….
  4. pryas
    बहुत साल पहले कानपुर जाना हुआ था, नाम ध्यान नहीं है लेकिन होटल हमने कलक्टर गंज में ही लिया था। तब कलक्टर गंज की काफी सैर की थी। आज आपका लेख पढा तो यादें ताज़ा हो गयीं। कुछ नाम बहुत भाए थे जैसे फूल बाग, कलक्टर गंज और सबसे बडी बात थी कानपुर कि spelling अभी Kanpur है लेकिन वहाँ की कोतवाली पर Cawnpore लिखा है।
  5. ratna
    बड़िया है।
  6. प्रियंकर
    बहुतै फ़न्ने खां पोस्ट ठौंकी है.
    पर सुनी है कनपुरियन को सबरो ‘जादूई यथार्थवाद’ इटावा और जालौन के धाकड़-भदेस देहातियन के आगे ‘बिलाय’ जात है और सबरी रंगबाजी ‘पटाय’ जात है . और बे ‘दो बांके’ की तरहा वाग्वीरता दिखाय कै और बड़ी मुश्किलन पिण्ड छुड़ाय कै पतरी गली सै निकर लेत हैं . का सच्ची बात है ? बतइयो .
  7. Sanjeet Tripathi
    वाह, शुक्रिया इसका अर्थ बताने के लिए!!
    आलोक जी का आभार कि उनके बहाने ही सही कम से कम इसका अर्थ तो मालूम चला!
  8. kakesh
    हम भी कानपुर में रहे हैं और कई दिनों से कंपुरिया भाषा पर लिखने की सोच रहे थे.चले आपने ही लिख डाला.वैसे मुझे कानपुर का कंटाप बहुत अच्छा लगा था.रैगिंग में खाया भी बहुत था ना.
  9. neelima
    बाकी सब तो बहुत बढिया है पर ये तस्वीरें लगाने का काम आपने सही नहीं किया ! हम भी खाऎगे बदनाम कुल्फी और ठ्ग्गू के लड्डू…..तो हम आरहे हैं जी
  10. alok puranik
    ग्रेट
    अनूपजी सच्ची हमें आप में ही मुन्नू गुरु के दर्शन हो रहे हैं।
    धांसू पोस्ट है।
    झाड़े रहो……का बेहतरीन विवरण।
    अपनी परंपरा, इतिहास को चीन्ह कर रखना और उसे आगे वालों तक पहुंचाना बहुत जरुरी काम है, पर बहुत कम लोग इतनी मुहब्बत से इस काम को कर रहे हैं जी। सारे शहर एक से हो रहे हैं अब मैकडोनाल्ड, कोक, शापिंग माल, मल्टीप्लेक्स। काश हर शहर को एक अनूप शुक्लजी जैसा कोई मिले, जो अतीत और भविष्य के बीच एक स्नेहिल कड़ी हो। कितना तो कुछ है, जो बताया जाना है नये बच्चों को, नये लोगों को, जिन्हे स्पाइडरमैन, टर्मिनेटर तो मालूम है, पर लोकल नहीं मालूम नहीं है। मुन्नू गुरु जैसे लोग किसी भी शहर की संस्कृति की नींव के पत्थर होते हैं, जो जड़ों से ही कितनी प्रतिभाओं को सींचते हैं। अब गुरु लोग कहां हैं, गुटु लोग बचे हैं।
    चलिये कानपुर के मामले में तो आश्वस्ति है कि कुछ भी नहीं छूटेगा।
    विरासत को बचाना तो बहुत बड़ा काम है, शायद सिर्फ लेखक के बूते का नहीं है। पर लेखक उस विरासत को कहीं सहेज कर पेश कर दे, तो वह भी कम बड़ा काम नहीं है।
    ब्लागरी में साधुवाद का युग चला गया, ऐसा कहा जा रहा है, पर इस काम के लिए आप सच में साधुवाद के पात्र हैं।
  11. sanjaytiwari
    प्रशसा करके काम की अहमियत कम नहीं करना चाहता.
    वैसे ठग्गू चिट्ठाकार कौन है?
  12. समीर लाल
    बहुत सही-हम भी सोचा करते थे कि यह कैसा डायलाग है झाडे रहो कलट्ट्रगंज. अब जाकर इतिहास खुला. बहुत साधुवाद. यह है असली फुरसतिया की असली फुरसतिया पोस्ट.बधाई. :)
  13. masijeevi
    मार्के की पोस्‍ट…
    दिल खुश हुआ
  14. श्रीश शर्मा
    कानपुर वाला हो और मौजी न हो, ये मुमकिन नहीं इस जहाँ में। :)
  15. जे सब जानत है
    प्रियकंर जी स्च्ची बात कहे हो जे सब हम से डरात है कहे की हम ईटावा से है ना .चाहे तो पूछबे करो फ़ुरसतिया जी से..:)
  16. pawan kumar
    kabhi maine atal bihari vajpei ji ke ek bhasan me ye suna tha ki jhare raho
    kaluctor ganj. main bhi kanpur ka hon lekin 2 saal se delhi me rah raha hon
    kanpur ke bare padkar bahut khushi hui,
  17. gopal mishra
    dhyan hai maharaj…..
    jai ho kanpur aur amar rahe kanpuriyaa….
    vatan ki yaad aa gayi… sach mai….. sundar aati sundar….
  18. cmpershad
    `झाडे’ ने आज एक काने से भी मिला दिया। धन्यवाद सरजी।
    >पल्लेदार शायद इस लिए भी कहते थे क्योंकि उस समय एक बोरे में एक पल्ला अनाज होता था और ये लोग उस थैले को अकेले ढो कर ले जाते थे। अब तो २५ या ५० किलो के थेले उठाने पर ही नानी याद आ जाती है:)
  19. Panchayati
    एक कनपुरिया को, एक कनपुरिया का “कनपुरिया नमस्कार”. बहुत सही जा रहे हो गुरु, लगे रहो.
  20. sushil dixit
    जैसा की आप सभी जानते हैं कि कलक्टरगंज गल्ले कि बहुत बड़ी मंडी है . एक बार एक छोटा किसान गाँव से अपना गेहूं बेचने के लिए कलक्टरगंज मंडी आया . उसको गेंहूं बेचते बेचते शाम हो गयी . गरीब होने के कारण उसने कोई धरमशाला नहीं ली और वह कलक्टरगंज चौराहे पर ही लेट गया . रात में जब सभी व्यापारी चले गए तो उसने देखा कि बहुत सारा गेहूं अभी भी जमीन पर पड़ा है. उसने सारी सड़क और फुटपाथ साफ़ किया तो इतना गेहूं इकठ्ठा हो गया कि उसने दूसरे दिन फिर दूकान लगा ली . अब वह प्रतिदिन रात को यही करता रहा और इकठ्ठा किया हुआ गेहूं अगले दिन बेचता रहा . यह करते करते उसके पास इतने रुपये हो गए कि उसने एक आढ़त खरीद ली और एक बड़ा व्यापारी बन गया . इस सन्दर्भ में “झाड़े रहो कलक्टरगंज” के मुहावरे का उपयोग होता है कि लगे रहो सफलता मिलेगी .
    यहाँ मैं यह लिखना भूल गया कि जब रात को लोग उसे गेंहूं के लिए सड़क झाड़ते हुए देखते थे तो उससे कहने लगे थे ” झाड़े रहो कलक्टरगंज” बस मुहावरा चल निकला .
  21. khalid
    Nice review of Kanpur. I am too Kanpurite but don’t understand the meaning of ” Jhare raho Kallactor Ganj”
  22. pankaj upadhyay
    और ’बाप तोडे गन्ना, बेटा राजेश खन्ना’ … वैसे हमारा भी कनपुरियो के बारे मे यही मत है.. एक ठो कनपुरिये दोस्त को आपकी ये पोस्ट फ़ारवर्ड किये है.. देखते है क्या कहता है :)
  23. devika
    waahhh…kya baat hai…..maza aa gaya…..
    kanpuriyon ki baat hi nirali hai…..
  24. Anonymous
    Wah yeh post padh kar bahut khushi hui
  25. Anonymous
    A big leap —–Knee cure becomes affordable to Poor.
    .by Sushil Kumar on Wednesday, March 23, 2011 at 7:06pm.Indigenously-developed cure for old age knees problems
    Kanpur, Mar 23 (PTI)
    People suffering from old age knee pain can now heave a sigh of relief. A new technology called High Tibial Osteotomy will do just that.
    The new method, which will help patients forced to undergo knee replacement, has been developed by the principal of a local government medical college. Patients undergoing the treatment will be discharged from the hospital within 3-4 days and will be able to walk freely. Also, patients need to spend only Rs 10,000 instead of several lakh rupees earlier incurred, claims Prof Anand Swarup.
    Swarup, principal and head of the orthopaedic department in Ganesh Shanker Vidhyarthi College has been hailed by an American journal for treating 150 patients with this technology.
    .
  26. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा ब… [...]
  27. suman sharma
    Lekh likhne ke shaile kaphe rochak he . Pahle bar fursatiya ke lekh padhe bahut achhe lage. Mn khush ho gya . Aise he likhte rahiye
  28. abhijeet shukla
    में दूर हूँ अपने मादर इ वतन से तो क्या…….इस पोस्ट को पढ़ कर सुकून मिलता है….!!!!!!
  29. G C Agnihotri
    वाह क्या लेख लिख डाला. श्रद्धा पूर्ण नमस्कार. गुरु तुम तो ठेलुहई भी सीरियसली करते हो. ग्रेट.
  30. : वाल मार्ट के व्यवहारिक उपयोग
    [...] ’ठग्गू के लड्डू’ वाला नारा खरीद लेगा- ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं। इसके बाद जब जब कभी कौन बनेगा करोड़पति [...]
  31. चंदन कुमार मिश्र
    कलट्टरगंज वाला अंश कानपुर से लेकर हमारे यहाँ तक है, तो जाहिर है दूरी बहुत लम्बी तय की इसने। …वैसे शब्द निर्माता खुराफाती महापुरुष हर जगह पाए जाते हैं।…ठग्गू के लड्डू पर दो आदमी की याद आई। पहला जो गुटखा, ५००० बेचता है, कहता है- ५००० खाइए, खूब मोटाइए…और दूसरा एक भुजा बेचने वाला जो पटना और छपरा के बीच बसों में अक्सर दिखता है, कहता है, सबसे घटिया भुजावाला आ गया भाई। ……मेहमान टिक जाएगा और जेब की गर्मी गायब…वाह भाई ठग्गू…फिर आपने दूसरे लेख पढवाना शुरू किया है, अच्छा, चलिए पढ लेते हैं, …
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..योद्धा महापंडित: राहुल सांकृत्यायन (भाग-3)
  32. चंदन कुमार मिश्र
    वैसे ई रेजर हरामी क्या है?
  33. हेमा दीक्षित
    बढ़िया लिखे है शुक्ला जी … अपनी कनपुरिया मस्ती बिल्कुल कनटाप है … पढते हुए जैसे कलक्टर गंज के जाम में फँसा अपना पाँच सवारी लदा चींटी की तरह रेंगता रिक्शा याद आ गया … और दोनों किनारों पर पड़ी सूखती हुई लाल मिर्चियाँ,उनकी डंडियाँ तोडती मुँह पर कपड़ा बाँधे उन्ही मिर्चियों की पल्लियों पर बैठी नकाबपोश औरतें … और ठेलागाडियाँ … फिचकुल निकले फेन फेंकते नकेल कसे भैंसे और उसे धकियाते उतना ही हाँफते जोर लगा के हई … शा … छः -सात मनई-मजूर … ठहरिये हम ठहरे जाते है नहीं तो धनकुट्टी और सब्जीमंडी होते हुए कब लोहाई नाप आयेंगे खबर ही नहीं होगी … :) … अपना कानपुर …
  34. : डेट्रॉएट को तो दीवालिया होने की हड़बड़ी है
    [...] हैं। लेकिन शहर दीवालिया नहीं हुआ। झाड़े रहो कलट्टरगंज कहते हुये शहर आज भी बिंदास है। ई ससुर [...]

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