और कल वह भी हो गया जिसको किताबों की दुनिया में विमोचन कहा जाता है।
हमारे हास्य-व्यंग्य के लेखों का संकलन 'बेवकूफी का सौंदर्य' का कल लखनऊ के शीरोज हंट कैफे में विमोचन हुआ। कई इष्ट-मित्र उपस्थित थे। लखनऊ के दिग्गज व्यंग्यकार भी थे। उमस भी थी, माइक की कमी भी थी। फिर भी विमोचन तो शानदार ही हुआ कहा जाएगा।
शीरोज हंट में कार्यक्रम तय करने के पीछे शायद हमारी लखनऊ की डॉन Kanchan Singh Chouhan का हाथ रहा होगा। यह रेस्तरां एसिड अटैक में घायल लड़कियों के द्वारा सरकारी सहयोग के द्वारा चलाया जाता है। अद्भुत परिकल्पना है यह। इन बच्चियों का हौसला देखकर खुद का हौसला बढ़ता है।
कार्यक्रम में पारिवारिक और व्यक्तिगत मित्रों के अलावा लखनऊ के कई व्यंग्य लेखक शामिल थे।
कार्यक्रम 630 बजे शाम को शुरू होना था। लेकिन शुरू होते-होते घड़ी एक घण्टा आगे निकल गयी। जिन मित्रों को कहीं और जाना था या जो एकाध घण्टे के लिए गाड़ी का इंतजाम करके आये थे वे कसमसा रहे थे। बेचैन से हम भी हो रहे थे लेकिन बेचैनी से कार्यक्रम शुरू नहीँ होते न। हुआ यह कि जिन पुस्तकों का विमोचन होना था उनकी पैकिंग करके आने में देरी हुई। इसीलिये कार्यक्रम भी।
जब किताबें आईं तो कार्यक्रम शुरू हुआ। अनूप श्रीवास्तव जी, आलोक शुक्ल जी, दयानंद पाण्डेय जी हमने अपने साथ मंच पर बिठा लिया ताकि वे वहां से जा न पाएं। असल में आलोक शुक्ल जी को अपने दांत की दवा लेने डाक्टर के यहां जाना था। जब कार्यक्रम शुरू हुआ तब उनका जाने का समय हो गया था। उनको जबरियन रोकने का यही सबसे मुफीद उपाय लगा हमको। काफी कुछ सफल भी रहे हम इसमें। वो अपने हिस्से का वक्तव्य देकर ही जा पाये।
कार्यक्रम की शुरुआत कुश के वक्तव्य से हुई। कुश ने बताया किस तरह उनकी ट्रेन लेट हुई लखनऊ में तो उनके मन में आइडिया आया प्रकाशन शुरू करने का। उन्होंने मुझे और पल्लवी को फोन किया कि वो हम लोगों की किताबें छापेंगे। हम लोगों ने हाँ कर दिया। और उसी की परिणति था कल का कार्यक्रम। इसके पहले पल्लवी की किताब 'अंजाम-ए-गुलिस्तां' क्या होगा का विमोचन 11 जून को जयपुर में हुआ।
कुश के बाद मुझे बोलने के लिए कहा गया। मैंने मंच पर बैठे लोगों के अलावा सामने बैठे लोगों को संबोधित करते हुए बात शुरू की। वलेस के लखनऊ के साथी सर्वेश अस्थाना, अनूप मणि त्रिपाठी, मुकुल महान, पंकज प्रसून, इंद्रजीत, केके अस्थाना आदि सामने की सीढ़ियों पर बैठे थे। उमस के मारे हाल-बेहाल थे सबके। माइक की व्यवस्था यह सोचकर नहीं की गयी थी कि कम लोग होंगे तो सुनाई देने में व्यवधान नहीं होगा। लेकिन बीच-बीच में वलेस के साथी अपनी टिप्पणियों से यह एहसास कराते रहे कि माइक होता तो अच्छा रहता।
हमने सामने और मंच पर मौजूद लोगों के अलावा उन लोगों का भी नाम लिया जो मेरे जेहन में कुलबुला रहे थे। आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका लिखी है, किताब का नाम तय किया है इसलिए उनका जिक्र तो सहज बात थी। इसके अलावा ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, सुशील सिद्धार्थ, सुभाष चन्दर, निर्मल गुप्त, संतोष त्रिवेदी आदि का भी नाम स्मरण किया मैंने। सामने बैठे अलंकार रस्तोगी और बरेली के अंशुमाली रस्तोगी के नाम कई बार गड्डमड्ड भी हुए दिमाग में।
हमने अपनी किताब छपने की प्रक्रिया बताते हुए यह भी बताया कि कैसे कुश के प्रकाशन शुरू करने की बात और हमारी किताब छापने की बात पर मुझे कभी विश्वास नहीं था। लेकिन किताब छापकर कुश ने मेरा 'अविश्वास' तोड़ दिया। इस अविश्वास तोड़ने के झटके से मैं अभी तक उबर नहीं पाया हूँ जबकि किताब का विमोचन हो गया है, सैकड़ों किताबें ऑनलाइन बुक हो चुकी हैं। कल भी जितनी किताबें लायी गयीं थी (करीब डेढ़ सौ ) वे सब बिक गयीं।
मेरे बोलने के बीच में हमारे मित्र नवीन शर्मा को 'कट्टा कानपुरी' की याद आई। उन्होंने हमें कुछ शेर सुनाने को कहा। मैंने बताया कि कैसे चिरकुट शेर लिखते थे और कैसे आलोक पुराणिक ने मेरा तखल्लुश छोटे हथियार बनाने वाली फैक्टी में होने के नाते 'कट्टा कानपुरी' तय किया। इसके बाद हमने 'कट्टा कानपुरी' का एक शेर जो सबसे कम खराब है सुनाया:
तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
कि भीग तो पूरा गए पर हौसला बना रहा।
कि भीग तो पूरा गए पर हौसला बना रहा।
लोगों ने बहुत पसंद किया इस शेर को तो दुबारा सुनाया गया। फिर जनता की मांग पर कुछ और चिरकुट शेर सुनाये। इंद्रजीत कौर ने सबसे घटिया शेर सुनाने की फरमाइश की तो हमने यही कहा कि हमारे सब शेर घटिया हैं अब किसको सबसे घटिया कह दें। फिर भी कुछ शेर जो याद आये वे सुना दिए।
हमारा वक्तव्य खत्म होने पर लोगों ने बहुत जोर से तालियां बजाईं। इतना खुश थे लोग मेरी बात खत्म होने से। बोरियत खत्म होने की ख़ुशी हथेलियों तक पहुंचकर फ़ड़फ़ड़ाई।
हमारे बाद अमित श्रीवास्तव को हमारी तारीफ़ करने के लिये कहा गया। 34 साल पहले की यादें दोहराते हुए अमित ने फिर से रोना रोया -'सुकुल ने हमारी रैगिंग की थी। सुकुल को हमने पहली बार पायजामा के ऊपर कमीज पहने देखा।' इसके बाद ब्लॉगिंग शुरू करने की बात के साथ कानपुर में अपने बच्चों के लोकल गार्जियन रहने की याद साझा की।150 रूपये की किताब पर पचास रूपये का स्नेह वाली बात पर भी चर्चा हुई।
अमित के बाद सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी बोले। ब्लॉगिंग के दिनों की याद ताजा करते हुए अपने मोबाईल से 'कट्टा कानपुरी' के कई कलाम सुना दिए। उसके बाद रचना त्रिपाठी को बोलने को कहा गया जिनके बारे में दयानन्द पाण्डेय जी पहले ही कह चुके थे कि रचना जी सिद्धार्थ जी से बढ़िया लिखती हैं। हमने भी सहमति जताई थी। वैसे भी जब लोग जोड़े से ब्लॉगिंग करते हैं तो तारीफ 'वज्रगुणन नियम' से ही होती हैं। बहरहाल, रचना जी ने बहुत कम शब्दों में मेरी बहुत तारीफ़ करी। उनको बोलने के लिए कहना सार्थक रहा।
आलोक शुक्ल जी ने अपने वक्तव्य में हमारे संक्षिप्त परिचय की जानकारी देते अपनी बात कही। आलोक जी से पहली मुलाकात हुई थी तो उनको मैंने अशोक शुक्ल कहकर संबोधित किया था। उन्होंने बताया तो मैंने सुधारा।मेरे बड़े भाई का नाम अशोक शुक्ल था इसलिए उनसे मिलकर उनका यही नाम याद आता है।
आलोक जी के बाद दयानंद पाण्डेय जी बोले। हमारे पुलिया, सूरज के किस्से और नन्दन जी से जुडी हुई यादों का जिक्र करते हुए उन्होंने शरद जोशी के 'प्रतिदिन' शुरू होने का किस्सा सुनाया कि कैसे शरद जी ने 'प्रतिदिन' लिखना शुरू किया। दयानंद जी लेखन में किस्सागोई की जबरदस्त मिशाल हैं। उनके लंबे-लंबे लेख लोग पूरे पूरे पढ़ते हैं इसके पीछे उनकी भाषा कि रवानगी और जबरदस्त किस्सागोई है। हमारी भी खूब तारीफ की दयानंद जी ने।
दयानंद जी के बाद खुद को व्यंग्य की नींव की ईंट बताने वाले अनूप श्रीवास्तव जी बोले। अनूप जी ने बताया कि कैसे सोशल मिडिया में भरम हो जाता है कि अनूप शुक्ल के लिए कही बात उनको अपने लिए कही बात लगती है। संयोग कि कल तीन अनूप वहां मौजूद थे। अनूप श्रीवास्तव, अनूप मणि त्रिपाठी और अनूप शुक्ल। अनूप मणि ने इसको अतीत, वर्तमान और भविष्य का सम्मिलन बताया। खुद को भविष्य कहते हुए।
अनूप मणि त्रिपाठी सबसे पहले आने वालों में थे। हमने उनको अपनी किताब छपाने की बात कही तो उन्होंने अपने आलस्य का हवाला दिया। लेकिन अब ऐसा बहुत दिन तक चलेगा नहीं। किताब छपनी चाहिए अनूप मणि की। संयोग से आज ही आज के दैनिक जागरण में उनका व्यंग्य लेख प्रकाशित हुआ है -ये हंसने वाले लोग।
आभार प्रदर्शन के लिए हमारी जीवन संगिनी सुमन बोलीं और खूब बोलीं। उन्होंने हमारे ब्लॉगिंग और लेखन में जूटे रहने के चलते जो कोफ़्त होती थी उनको उस सबका जिक्र करते हुए उस समय की बरबादी को सार्थक बताते हुए हमारे सारे गुनाह माफ़ कर दिए। ब्लॉगिंग के दिनों की याद करते हुए उन्होंने कई रोचक किस्से सुनाये कि किस तरह लिखने की और प्रतिक्रिया देखने उतावली रहती थी मुझमें इसका खुलासा करते हुए खूब मजे भी लिए सुमन ने। एक बार फिर साबित हुआ कि मौका और माइक मिलने पर कोई किसी को बक्सता नहीं है।
न केवल यह बल्कि हमको एक बहुत अच्छा इंसान बताते हुए एक वाकया भी सुनाया जिसमें हम अपनी परवाह न करते हुए अपनी एक भाभी जी को लेकर अस्पताल पहुंचे थे। भाभी जी पर हजारों मधुमक्खियों ने हमला किया था। दर्द इतना था कि उनको स्कूटर पर लेकर हम जब तक अस्पताल पहुंचे थे तब तक वे लगभग बेहोश हो गयीं थीं।
किस्सा सुनाते हुए हमारी जीवन संगिनी भावुक भले हो गयीं, हमको अच्छा इंसान भी बताया इतनी भावुक नहीं हुईं कि अच्छा पति कहतीं। बाद में इंद्रजीत ने बताया भी कि हमको इसको बहुत गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। उनकी किताब का विमोचन होने पर उन्होंने भी अपने पति के बारे में ऐसे ही कहा था पर घर पहुंचते ही दाम्पत्य जीवन फिर से शुरू हो गया था।
सुमन ने अपना वक्तव्य पल्लवी त्रिवेदी और हमारी तारीफ़ यह कहते हुए ख़त्म किया:
सब तो इतिहास देखते हैं
निर्दिष्ट पथों पर चलते हैं
पर कम मिलते हैं जो अपने
पथ पर इतिहास बदलते हैं।
निर्दिष्ट पथों पर चलते हैं
पर कम मिलते हैं जो अपने
पथ पर इतिहास बदलते हैं।
लोगों ने बाद में कहा वे सबसे अच्छा बोलीं।
लेकिन सबसे अच्छा बोलने वालों के दीदी डॉक्टर निरुपमा अशोक भी थीं। उन्होंने शीरोज हंट की परिकल्पना की खूब तारीफ़ करते हुए एसिड हमले की शिकार महिलाओं द्वारा दिखाए गए हौसले को समाज पर सबसे बड़ा व्यंग्य बताया और कहा कि कोई भी कार्यक्रम करने के लिए इससे बेहतर कोई जगह नहीं हो सकती।
हमारे लेखन की भी तारीफ की और उससे ज्यादा हमारी जीवन संगिनी की। हमारे लेखन में मानवीकरण का जिक्र किया। किताब का समर्पण जो हमने किया है -'जीवन संगिनी सुमन को जिनके लिए अम्मा कहा करतीं थीं कि गुड्डो अगर नहीँ होतीं तो हम इतने दिन जी नहीँ पाते' का विस्तार से जिक्र करते हुए अम्मा जी को भी याद किया।
दीदी जी के बाद भाई साहब डा. अशोक अवस्थी ने भी अपनी बात कही। हमारी तारीफ भी की कि हम उनको लिखने के लिए उकसाते रहते हैं। भाई साहब सहज भाषा में क़ानून से जुड़े मसलों पर बहुत अच्छा लिखते हैं। भारतीय संविधान से सबंधित मुद्दों पर उनका अध्ययन बहुत अच्छा है। शायद अब फिर से नियमित लिखना शुरू हो उनका ।
आखिरी वक्ता थीं हमारी सेलेब्रिटी लेखिका पल्लवी त्रिवेदी। कल 'फादर्स डे' होने के चलते सबसे पहली याद पिता की आई उनको और वो भावुक हो गयीं। कुछ ठहरकर फिर पल्लवी ने बोलना शुरू किया और हमाई खूब तारीफ़ की। हमने अपनी पूरी तारीफ सुनने के बाद उनको उनको अपने लेखन पर बोलने के लिए कहा। फिर पल्लवी ने अपनी किताब के बारे में बोला और कुश की तारीफ भी की।
पूरे कार्यक्रम का सञ्चालन विजित सिंह ने किया और बहुत शानदार किया। कार्यक्रम के दौरान ही एसिड हमले में घायल हुई लक्ष्मी भी आ गयीं। साथ में उनकी बिटिया और आलोक दीक्षित भी । बहुत खुशनुमा एहसास रहा।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद हम घर परिवार के मित्र साथ रहे काफी देर। वलेस के सभी साथियों के साथ फोटो हुए। अन्य सभी साथियों के साथ भी फोटो हुए। वे सब पोस्ट करेंगे जल्द ही उनके परिचय के साथ।
कल पुस्तक का विमोचन होना अपने आप में खुशनुमा अनुभव था। वैसे तो साल भर में छपने और खप जाने वाली हजारों किताबों में से एक किताब मात्र है यह ' बेवकूफ़ियों का सौंदर्य'। किताब का नाम ही आलोक पुराणिक ने ऐसा सुझाया था कि बिना पढ़े टिप्पणियाँ की जा सकती हैं इस पर। इस सुविधा का उपयोग भी कर रहे हैं मित्रगण। लेकिन जो साथी इसको पढ़ेंगे उनको इसमें और भी खूबसूरत बेवकूफियां देखने को मिलेंगी।
Anup Srivastava, Alok Shukla, Dayanand Pandey, Kush Vaishnav, Pallavi Trivedi, Sarvesh Asthana, Anoop Mani Tripathi, Mukul Mahan, Pankaj Prasun, Indrajeet Kaur, Alok Puranik, Gyan Chaturvedi, Prem Janmejai,Harish Naval, Sushil Siddharth, Subhash Chander, Nirmal Gupta, Alankar Rastogi , Amit Kumar Srivastava, Rachana Tripathi, Suman Shukla,Nirupma Ashok, Ashok Kumar Avasthi, Vijit Singh Navonmesh, Alok Dixit,
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