Saturday, June 25, 2016

नेता लोग बेंच-खा गए सब



कल शाम श्रीराम से बतकही हुई। हमारे घर कुछ सामान पहुंचाने आये थे। सामान उतरवा कर पानी-वानी पिलाने के बहाने बतियाने लगे।
हरदोई के रहने वाले श्रीराम जे.के.जूट मिल में काम करते हैं। 36 साल हो गए मिल में काम करते हुए। आये तो पहले 6 साल किये। फिर मिल बन्द हो गई। 20 साल बन्द रही। फिर 2009 में दुबारा बुलौवा गया तो फिर जाने लगे काम पर।
जब मिल बन्द हुई थी तो 4500 कामगार थे। हर 100 कामगार पर 10 मजदूर रोजनदारी पर थे। जब नियमित कामगार नहीं आते तो उन 10 लोगों में से काम पर लिए जाते लोग। श्रीराम ऐसे ही रोजनदारी वाले मजूर थे। फंड कटने लगा तो 'फंडियर' होने के नाते उनको नियमित बुलाने लगे।
20 साल बाद मिल जब दुबारा खुली तो कुल 60-70 आदमी बचे थे। बाकी या तो रिटायर हो गए या फिर 'निकल लिए।'
अब कुल 20-30 लोग बचे हैं। श्रीराम भी इसी साल रिटायर हो जाएंगे।
पहले 'बिनता' पर काम करते थे श्रीराम। जब मिल बन्द हुई तो सब करघे उखड़ गए। बिक गए। अब डाई का काम करते हैं श्रीराम। 7000 रुपया महीना मिलता है। रिटायर होने पर 1000 रुपया पेंशन मिलेगी। ढाई बजे तक मिल की नौकरी करते हैं फिर रिक्शा चलाते हैं। गुजारा होता है इसी तरह, किसी तरह। तीन लड़के हैं वो भी ऐसे ही कुछ काम-धाम करते हैं। एक पंजाब में बिनता का काम करता है। एक दिल्ली में है। एक कानपुर में।
4500 आदमी एक मिल में काम करते थे ऐसी कई मिलें थीं कानपुर में। पूरे शहर में सुबह शाम साइकिलों पर कामगारों की भीड़ दिखती थी। लेकिन बाद में जनप्रतिनिधियों के जिंदाबाद-मुर्दाबाद, मालिकों की हठधर्मिता और सरकार की बेरुखी के चलते मिलें बन्द हुईं। साईकल पर काम पर जाने वाले कामगार पेट के लिए रिक्शा चलाने लगे, चाय बेंचने लगे और दीगर काम करने लगे। कानपुर जो कभी मैनचेस्टर आफ इंडिया कहलाता था, कुली-कबाड़ियों का शहर बनकर रह गया।
मिलों के बन्द होने में किसका कितना दोष रहा यह तो शोध का विषय है। श्रीराम का तो कहना है कि नेता लोग बेंच-खा गए सब। समय के अनुसार परिवर्तन को नकारना भी एक कारण रहा होगा।

चित्र में ये शामिल हो सकता है: 1 व्यक्ति, वृक्ष, पौधा और बाहर


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