Thursday, August 11, 2016

तुलसी जयन्ती के बहाने

कल विजय नगर चौराहे से आगे बढे तो बताया ही कि 100 नंबर वाली जीप पर ड्राइवर अकेले बैठा था। उसके सिपाही अगल-बगल टहल रहे थे। मार्निंग वाक करते हुये नजारे देख रहे थे। जैसे ही कोई करता फ़ोन तो ड्राइवर उनको बुलाकर चल देता घटना स्थल पर।

मो्तीझील में ’मानस संगम’ की तरफ़ से तुलसी जयंती समारोह आयोजित किया गया था। कानपुर के बद्री नारायण जी मानस संगम के माध्य्म से हर वर्ष लगातार विविध कार्यक्रम कराते रहते हैं। रामकथा से जुड़े देश देश विदेश के विद्वानों को आमंत्रित करते रहते हैं, उनके व्याख्यान कराते रहते हैं, सम्मानित करते रहते हैं। हमारे मामा नंदन जी जब भी कानपुर आते थे तो उनसे अवश्य मुलाकात होती। उस संबंध के चलते सहज स्नेह के मिलता रहता है । जिस किसी से परिचय कराते बताते -’ये नंदन जी के भांजे हैं।’ संबंधों की ’सहजटैगिंग’ है यह।

हमारे मित्र शरद अग्रवाल ने बद्रीनारायण तिवारी जी को बता दिया कि हम कानपुर आ गये हैं तो उन्होंने कार्यक्रम के कार्ड की विशिष्ट अतिथि वाली खाली जगह में हमारा नाम भर दिया। नाम के साथ पद भी जरूरी था। बल्कि वही ज्यादा जरूरी था सो लिखा। लेकिन फ़ैक्ट्री बदल दी। ओपीएफ़ की जगह ओईएफ़ हो गया।

नाम के साथ ऐसा अक्सर हो जाता है। पिछले महीने एक जगह मुख्य अतिथि बनाये गये तो कार्ड में नाम लिखा गया -अरुण कुमार शुक्ल। पद भी वह लिखा था जिस पर हम आज से 14 साल पहले थे। मने पदावनति करके मुख्य अतिथि बना दिया। खैर मंच पर अतिथि बनने के लिये यह सब तो कुर्बानी करनी ही पड़ती है।

मोतीझील पहुंचे तो कार्ड दफ़्तर में ही छोड़ आये थे। कार्यक्रम की जगह पता करने के लिये मोटरसाइकिल एक किनारे धरकर फ़ोन करने लगे। फ़ोन करते हुये इधर-उधर देखने भी लगे। एक महिला तेज-तेज टहलते हुये अचानक रुककर एक आदमी से बतियाने लगी। महिला टहलने वाली पगडंडी पर थी और आदमी पार्क में। दोनों के बीच में हरी वाली झाड़ी थी, दो फ़ुट चौड़ी। झाड़ी के आरपार से दोनों कुछ देर बतियाते रहे। इस बीच हमारा फ़ोन मिल गया और हम ’कार्यक्रम स्थल’ पूछने लगे।
फ़ोन करके हमने देखा तो बतियाते महिला-पुरुष नहीं दिखे। अपने-अपने काम से लग गये होंगे।

तुलसी उपवन हम समय से करीब पन्द्रह मिनट लेट पहुंचे। वहां ज्यादातर कुर्सियां खाली थीं। हमसे मंच पर बैठने को कहा गया लेकिन हमने सोचा अभी अकेले क्या बैठना मंच पर। मंच पर कुछ भजन गायक अपने-अपने नाम बुलाये जाने पर भजन गायन कर रहे थे। हम मौके का फ़ायदा उठाकर टहलने लगे।

पार्क में कुछ लोग बड़ी तेजी से टहल रहे थे। कुछ लोग बीच पार्क में खड़े हुये कसरत नुमा कुछ कर रहे थे। एक महिला बड़ी तेजी से अपने हाथ कन्धों से आगे-पीछे फ़ेंक रही थी। उसके सामने खड़ा एक आदमी हाथ कंधों से गोल-गोल घुमा रहा था। जिस तेजी से कंधे हिला-घुमा रहे थे दोनों उससे मुझे लगा कहीं हाथ उनके कंधे से उखड़कर हवा में बल्ले की तरह न उछल जायें। हम इत्ती तेजी से करें तो हमारे तो कंधे उतर जायें।

मंच के पीछे सफ़ाई कर्मचारी गंदगी साफ़ कर रहे थे। किसी भी साफ़ जगह के पीछे गंदगी का जमावड़ा होता है। ज्यादा साफ़ जगह के पीछे गंदगी आमतौर पर ज्यादा होती ही है। जैसे बड़ी इमारतों के आसपास झुग्गियों-झोपडियों की भीड़ होती है।
तुलसी उपवन में मानस की चौपाइयां लगी हुई थीं। हमारी पसंदीदा कविता पंक्ति भी दिखी:

’जो होता है वह होने दो
यह पौरुष हीन कथन है
जो हम चाहेंगे वह होगा
इन शब्दों में जीवन है।’

लेकिन इस कविता पंक्ति को लिखते हुये अभी लगा कि पुरुषार्थ अपने में लैंगिग भेदभाव वाला शब्द है। मने मन चाहा करना पुरुषार्थ है तो इसका मतलब महिलाओं को मनमाफ़िक काम करने की छूट नहीं है। ’पुरुषार्थ’ की तरह ’महिलार्थ’ जैसा कोई शब्द भी होना चाहिये न !

करीब डेढ घंटे देरी के बाद काम भर के मुख्य, सम्मानित अतिथि आ गये। इस बीच गिरिराज किशोर जी से मुलाकात हो गयी। उन्होंने कस्तूरता गांधी पर लिखे अपने उपन्यास की जानकारी दी। उनका गान्धी जी पर लिखा उपन्यास ’पहला गिरमिटिया’ जो करीब हजार पन्ने का है ( श्रीलाल शुक्ल जी के शब्दों में मुग्दर साहित्य) हमने हफ़्ते भर में पढ लिया था। अब तो सौ पेज की किताबें भी पढ़ने में महीने निकल जाते हैं , बिना पढे। कस्तूरबा पर लिखा गिरिराज जी का उपन्यास जल्दी ही मंगायेंगे।

शहर पर भी कुछ चर्चा हुई। शहर की बिगड़ती स्थिति पर अफ़सोस भी । सुबह-सुबह और क्या किया जा सकता है इसके अलावा शहर के बारे में।

हमारे जाने का समय हो गया था। कार्यक्रम अभी शुरु नहीं हुआ था। हमने अनुमति मांगी तो तिवारी जी ने थोड़ा रुकने को कहा। कार्यक्रम शुरु हुआ। मुख्य अतिथि के फ़ौरन बाद क्रम तोड़कर हमको माला पहना दिया गया और उसको लेकर हम चले आये।

इस बीच नीचे सुरेश साहनी दिखे। हमने उनको देखकर मिलने के लिये नीचे जाना चाहा लेकिन जिस तरफ़ वो थे उधर मंच इत्ता ऊंचा था कि जा नहीं पाये। सोचा नीचे उतरकर मिलेंगे। पर नीचे उतरने पर वे दिखे नहीं। मंच से दूर जाते हुये हमने सुना कमलेश द्विवेदी अपनी हास्य कविता पढ़ रहे थे। लौटकर फ़िर मंच की तरफ़ आये फ़ोटो लेने मंच की तरफ़ ताकि सनद रहे। अनवरी बहनों के साथ सभी लोग वंदे मातरम गा रहे थे। हमने भी दोहराया - ’सुजलाम, सुफ़लाम, मलयज शीतलाम, शस्य श्यामलाम मातरम, वन्दे मातरम।’

बाद में पता चला कि कार्यक्रम बहुत अच्छा और शानदार रहा।

इसके बाद फ़टफ़टिया स्टार्ट करके जो चले तो सीधी गाड़ी फ़ैक्ट्री के अंदर ही रुकी। हम समय पर पहुंच गये अपनी दुकान यह जानकर फ़िर सुकून की सांस लिये एक ठो।

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