Monday, August 22, 2016

सूरज भाई मुस्कराने लगे

कल घर से बाहर निकले तो सूरज भाई अपना जलवा फ़ैलाये हुये थे। सब किरणों को चारो तरफ़ छितरा रखा था। इंच दर इंच कब्जा किया हुआ था। हर पेड़, पौधे फ़ूल, कली, पत्ती, कोने-अतरे पर किरणों की फ़ौज तैनात कर रखी थी। मने कोई जगह छूट न जाये कब्जियाने से। अब उनको कोई रजिस्ट्री तो करानी नहीं पडती जमीन पर कब्जा करने के लिये। भूमाफ़िया की तरह हैं इस मामले में सूरज भाई!

बीहड़ मूड में दिख रहे थे सूरज भाई। लग रहा था कि सूरज भाई भी सिंधू का मैच देखकर उत्साहित हो गये और इस मूड में आ गये कि हर तरफ़ उनकी बच्चियों का ही रुतबा पसरा दिखे।

बगीचे में कुछ तितलियां फ़ूलों का रस चूस रही थीं। सुबह का नाश्ता करके दफ़्तर की तरफ़ भागते नौकरी शुदा कर्मचारियों की तरह फ़ूलों को जल्दी-जल्दी चूस-चूम कर तितलियां फ़ुर्र हो जा रही थीं। तितलियां जैसे ही फ़ूलों ऊपर से उडतीं , फ़ूल हिलते हुये तितलियों की फ़्राक पकड़ने की कोशिश सी करने लगते। क्या पता वे गाना भी गाते जा रहे हों:

अभी न जाओ छोड़कर
कि दिल अभी भरा नहीं।

कालपी रोड पर आये तो देखा सड़क चकाचक धूप-धुली हुई थी। सूरज भाई किरणों की धार मारते हुये सड़क एकदम चेकोलाईट बनाये दे रहे थे। अरबों-खरबों फ़ोटान हर सेकेन्ड दनादन धरती पर उडेले दे रहे थे सड़क पर। हमने पूछा सूरज भाई, इत्ते किरणें उड़ेले जा रहे हो लेकिन इसमें कोई पैकिंग नहीं दिखाई दे रही। कैसे लाते-ले जाते हो उत्ती दूर से यहां तक इत्ती किरणें? इस पर सूरज भाई मुस्कराने लगे। सड़क और चमक गयी।

एक मोर सड़क के दायीं तरफ़ लगे पेड़ से उड़ा और पंख फ़ड़फ़ड़ाता हुआ बायीं तरफ़ के पेड़ पर विराज गया। दोनों तरफ़ के पेड़ एक जैसे ही थे। मोर का दायीं तरफ़ से बायीं तरफ़ आना ऐसे ही लगा जैसे चुनाव के समय जनसेवक लोग पार्टी बदलते हैं देशसेवा के लिये। भले ही दोनों पार्टियां नाम छोड़कर एक जैसी ही होती हों। चुनाव आते ही देश बेचारा सहमा हुआ अपने सेवकों की बढ़ती हुई संख्या देखकर मन ही मन कांपता होगा। लेकिन बेचारे की मजबूरी है, कुछ कर भी नहीं सकता सेवा कराने के अलावा।

फ़ील्डगन के पास एक गुब्बारे वाला पचीस-तीस गुब्बारे फ़ुलाये हुये साइकिल के कैरियर पर डंडे में बांधे चला जा रहा था। रंगीन गुब्बारे देखने में अच्छे लग रहे थे। हम और गुब्बारे वाला दोनों अपनी-अपनी दिहाड़ी कमाने चले जा रहे थे। हमने आगे निकलकर कार रोककर उसका फ़ोटो लिया तो वह मुस्कराते हुये आगे बढ़ गया। उसको रुककर बात करने की फ़ुरसत नहीं थी। देरी करने में गुब्बारों से हवा निकल सकती थी। गुब्बारे वाले की भी। 
ऊपर आसमान में एक पक्षी ऊपर उडते हुये हम लोगों को देख रहा था। शायद हवाई सर्वेक्षण पर निकला हो सुबह का कीड़े-मकोड़े का नाश्ता निपटाकर। हमको रमानाथ अवस्थी की यह कविता याद आ गई हम दोनों दिहाड़ी कमाऊ लोगों के लिये:
"मेरे पंख कट गये हैं
वर्ना मैं गगन को गाता।"

विजय नगर चौराहे पर दो बच्चे सड़क पार करते हुये दिखे। मेरी गाड़ी देखकर बच्चे रुक गये। बच्चे ने बच्ची का हाथ पकड़ लिया। भाई-बहन थे साथ दोनों। बच्चे की पकड़ ’भैया पकड़’ थी। दोनों रुककर मेरी कार निकलने का इंतजार करने लगे। लेकिन हमने अपनी गाड़ी रोक चौराहे पर रोक दी। वे घूमकर गाड़ी के पीछे की तरफ़ से आगे निकलने के लिये बढे लेकिन हमने आगे से ही निकलने का इशारा किया तो दोनों बच्चे झटट से सड़क पार कर गये। पार करके घूमकर हमाई तरफ़ देखा। हम भी उनको देखकर मुस्कराये। यह सब देखकर सूरज भाई को एकबार फ़िर मुस्कराते हुये करोड़ों फ़ोटान धरती पर ठेलने का बहाना मिल गया।

अनवरगंज के पास पंकज बाजपेयी सड़क की तरफ़ पीठ लिये डिवाइडर पर बैठे थे। हम वहां रुककर हाल-चाल लेने लगे। बतियाये भी। पंकज जी बोलते गये-’ पुराने नोट जलाना नहीं, हमारे पास लेकर आना। हम सर्टिफ़िकेट देंगे। हमको पावर है। कमिश्नर को पावर नहीं है। हनीफ़ सब गड़बड़ करता है। दीदी से उसकी शिकायत करनी है।’

इसी तरह की असम्बद्ध बातें करते रहे पंकज जी। पूछा तो बताया अभी तक चाय नहीं पिये हैं। अब जायेंगे सामने मामू के यहां चाय पियेंगे। सामने सड़क पार की दुकानें दिखाते हुये बोले-’ वो मामा की दुकान है, वो दीदी हैं, वो भाभी हैं।’

हम थोड़ी देर बतियाने के बाद उनको नमस्ते करके पास के घर में चलती रद्दी की दुकान वाले वाले से पंकज के बारे में पूछने लगे तो बताया –’ हमारे बड़े भाई के साथ पढ़ते थे पंकज। बहुत अच्छे थे पढने में। सामने का हाता इनके परिवार का है। एक फ़्लैट भी है जहां रहते हैं। सालों से यहीं ऐसे ही दिखते हैं। पता नहीं कैसे दिमाग गड़बड़ा गया। बहुत सलीके से बात करते हैं। बहुत ज्ञानी है।’

हमारा मन किया कि समय होता तो और बात करते। एकाध दिन के घर लेकर आते पंकज को। बतियाते। लेकिन मन से क्या होता है। मन तो पागल है।

दफ़तर की तरफ़ जाते हुये सोच रहे थे और अभी भी कि मानो कल को हमारा भी दिमाग का साफ़्टवेयर गड़बड़ा गया। कुछ तार हिल गये। वायरिंग हिल गयी दिमाग की तो यार-दोस्त हमारे बारे में भी बतायेंगे लोगों को- ’रोज पोस्टें लिखता था, बड़ी-बड़ी पोस्ट। पढें भले न लेकिन लाइक जरूर करते थे। जिनके बारे में लिखता था उनके जैसा ही हो गया।’

लेकिन फ़िर सोचे कि यह सोच वैसी ही है जैसे हम किसी खराबी के बारे में सोचें तो उसको ठीक करने के बजाये उस जैसा ही हो जाने के बारे में सोचें। मेहनत से बचने वाली सोच। गड़बड़ाने में मेहनत नहीं करनी पड़ती न। आराम का मामला होता है न। यह एहसास होते ही हमने इस सोच को अपने मन की पार्टी से निष्काषित कर दिया।

आगे अफ़ीमकोठी के पास एक बच्चा एक डंडी में तीन गुब्बारे लगाये हुये चला जा रहा था। गुब्बारों के रंग अपने झंडे के रंग से अलग थे। हमको बड़ा खराब लगा। लगा कि कम से कम गुब्बारों के रंग तो झंडे के रंग जैसे होने चाहिये। यह भी कि गुब्बारे तीन के सेट में बिकने चाहिये। झंडे के रंग गुब्बारे का पूरा सेट जो न खरीदे उसकी देशभक्ति सवाल उठा दिया जाना और मौका मिलते ही हाय, हाय कर देना चाहिये। बातचीत वाला हलो, हाय वाला नहीं सच्ची वाला हाय, हाय। वो वाला हाय, हाय जिसके साथ जिन्दाबाद, मुर्दाबाद अपने-आप नत्थी हो जाता है।

यह सोच ही रहे थे कि अचानक धूमिल की कविता के पंक्तियां बिना पूछे दिमाग में दाखिल हो गयीं:

’क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है?

यह सोचते-सोचते फ़ैक्ट्री आ गयी और हम फ़ैक्ट्री में जमा हो गये। हमारी सोचने की आदमी फ़ाइलों में कहां गुम हो गयी पता ही नहीं चला।

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