Sunday, January 01, 2017

नया साल, नये सवाल


पिछले साल मतलब पिछली रात सोते ही ’सपन परियां’ आकर हमको स्वप्नलोक ले गयीं। जाड़े में घर और रजाई छोड़कर हमको कहीं जाना पसन्द नहीं। लेकिन वो हमको इत्ती शिद्दत से ले गयीं कि हम मना भी न कर पाये। आपको कैसे बतायें बस आप यह समझ लीजिये कि जैसे वो फ़ोन पर लोन दिलाने वाली जी मनुहार करती हैं न लोन के लिये अप्लाई करने के लिये उससे भी ज्यादा मनुहार करते हुये ले गयीं। बोली- ’आपके लिये ’स्पेशल सपने’ का ऑफ़र है। न्यू इयर की स्कीम चल रही है। आखिरी सपना बचा है। चलिये देख लीजिये।’
हम मना नहीं किये। कर भी नहीं पाये। हम क्या कोई भी कैसे मना कैसे कर पाता? आप भी नहीं कर पाते।
सपना देखने वाले की मजबूरी होती है कि जो दिखाया जाये उसे वह चुपचाप देख ले। सपनों में चुनाव नहीं होता।’मिड डे मील की तरह होते हैं’ सपने। जो परसा जाता है वो खाते हैं बच्चे। सपने में भी जो दिखाया जाता है वही देखना पड़ता है। सपने देखते हुये ही जिन्दगी गुजर जाती है जनता की। सपने न देखे, दिखायें जायें तो जीना दूभर हो जाये।
हम सोचे कोई मल्टीकलर मने बहुरंगी सपना होगा। चुनावी घोषणाओं जैसी अच्छी-अच्छी बातें होंगी। सपन सुन्दरियों के ठुमकेदार डांस-फ़ांस होंगे। हम आंखे मिच-मिचाते होते हुये सपने का इंतजार करने लगे। कुछ ऐसे जैसे तमाम जनता आज तक अच्छे दिन के इंतजार में पलक पांवड़े बिछाये बैठी है।
लेकिन सपना चालू होते ही हम सनाका खा जाये। हमारे हाल ऐसे हो गये जैसे ट्रम्प को जीतते देख हिलेरी समर्थकों के हुये होंगे। देखते क्या हैं कि हम फ़िर से कालेज पहुंच गये हैं। इम्तहान के दिन आ गये हैं। हम तैयारी में जुटे हुये हैं। तब तक पता चला कि एक विषय का इम्तहान तो हफ़्ते भर पहले ही हो गया। वह भी इतवार के दिन। मतलब उस विषय में फ़ेल होने के सुनहरे अवसर। हमारे हाल वैसे ही हो गये जैसे नोटबंदी में उप्र में तमाम राजनीतिक पार्टियों के हुये होंगे।
अब सपने में कुछ कर तो सकते नहीं। चुपचाप देखा पूरा सपना। जब जगे तो ’सपना घोटाला’ याद आया। मन किया कि सपने में वापस जायें। ’सर्जिकल सपना स्ट्राइक’ करते हुये ’सपन सुन्दरी’ को हड़कायें और कहें कोई बढिया सपना दिखाओ। वो वाला दिखाओ जो झील सी गहरी आंखों में देखा जाता है।
सुबह जब जगे तो बहुत देर सपने के फ़ेल होने के सदमें में बने रहे। फ़िर सुकून आया कि सच्ची में फ़ेल होने से बच गए। फ़ेल होने से बाल-बाल बचने से इत्ता सुकून मिला कि मन किया पनकी के हनुमान मन्दिर में जाकर प्रसाद चढा आयें। जैसे राजनीति में बातें भले ही विकास, काम-काज और अच्छे कामों की हो लेकिन चुनाव जीतने के लिये पैसा, बाहुबल और जाति समीकरण ही काम आता है वैसे ही विद्या की देवी भले ही सरस्वती मानी जायें लेकिन इम्तहान में पास कराने का काम बजरंगबली ही करते हैं।
प्रसाद चढाने की बात आते ही यह सवाल उठा कि सपने वाले इम्तहान में पास होने के लिये वास्तव में प्रसाद चढाना मान्य होगा क्या? क्या सपने यह भी कि 2016 के इम्तहान में पास होने के लिये 2017 में प्रसाद चलेगा क्या? सपने में कैशलेस चलता है कि सवा रुपये तकिये के नीचे धरकर सोयें आज?
अभी सोचे ही थे कि फ़िर नये साल के ’शुभकामना भंवर’ में ऐसा उलझे कि प्रसाद की बात भूल गये। प्राइम टाइम की बहस के बयानों की तरह हर तरफ़ से शुभकामनायें उमड़ी पड़ रहीं थी। शुभकामनाओं की बौछार में प्रसाद की बात ऐसे भूल गये जैसे मीडिया में छाये रहने वाले किसी मुद्दे को दूसरा मुद्दा उखाड़ फ़ेंकता है।
इस बीच टेलिविजन खुल गया। समाजवादी दंगल चल रहा है। पता लगा कि जिसको बचाना है उस पर कब्जा करना जरूरी होता है। यहां बचाने का मलतब बर्बाद करना भी होता है। यह बात महिलाओं, पार्टी और देश पर लागू होते दीखती है।
इस दंगल को देखते हुये लगा कि राजनीतिक नौटंकियों का उपयोग व्यवहारिक शिक्षा के लिये किया जाना चाहिये। समाजवादी पार्टी में लोगों को निकालने फ़िर वापस लेने के उदाहरण से प्रत्यावर्ती धारा को समझाया जा सकता है। नोटबंदी के द्वारा शून्य विस्थापन को समझाया जा सकता है।
नये साल में संकल्प लेने का काम भी करते हैं लोग। हमने पिछले सालों में जित्ते भी संकल्प लिये वे कभी पूरे नहीं हुये। इसलिये हमने इस बार कोई संकल्प नहीं लिया। वैसे सोचा यह भी कि कोई बेवकूफ़ी का काम करने का संकल्प ले लिया जाये। लेकिन फ़िर नहीं लिये इस डर से कि कहीं संकल्प पूरा हो गया तो मुंह दिखाने लायक न रहेंगे। कहीं कोई ऊंचनीच न हो जाये इसी डर से कोई संकल्प नहीं लिये। इसीलिये नये साल का पहला दिन बहुत चकाचक बीता।
अब रही बात नये साल में नये सवाल की तो सवाल ढेरों हैं। जैसे कि अच्छे दिन आने में कितने दिन बचे हैं, नोटबंदी के बाद देश के क्या हाल होंगे, एटीएम में पैसे कब आयेंगे, जाड़े में कितने लोग सर्दी से मरेंगे, कोहरे के चलते गाड़ियां कितनी देरी से चलेंगी, दिल्ली सरकार के नये राज्यपाल से सबंध कैसे रहेंगे आदि-इत्यादि।
सबसे ताजा सवाल तो यह है कि समाजवादी पार्टी में कल कौन कितने साल के लिये निकाला जायेगा?
लेकिन साल का सबसे बड़ा सवाल इस साल भी वही रहेगा जो पिछले साल था यानि कि कटप्पा ने बाहुबाली को क्यों मारा?
ये तो रहे हमारे हाल। आपके कैसे रहे हाल नये साल में?

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