Monday, January 23, 2017

दलबदल कि दिलबदल

चुनाव की तारीख आते ही दलबदल की घंटी बजने लगती है। जनसेवकों की नींद में धुत, खर्राटा मारती आत्मा जाग जाती है। हल्ला मचाने लगती है- “उठो लली अब आंखे खोलो, जनसेवा हित फ़ौरन दल बदलो।“ जैसे कांजीहाउस में कैद जानवर दीवार टूटने पर अदबदाकर जिधर सींग समाया उधर भागते हैं वैसे चुनाव की घोषणा होते ही जनसेवक जिस पार्टी से सीट पक्की हो उस पार्टी में शामिल हो जाते हैं। जिनसे कभी 36 के आंकड़े थे वे उलटकर 63 में बदल जाते हैं।
जनसेवक की सार्थकता जनता की सेवा में है। जनसेवा मतलब टिकट मिलना, चुनाव लड़ना, विजयी होना और सरकार में कोई सेवादार पद प्राप्त करना। पद न मिला तो सेवा कार्य में अड़चन होती है। इसीलिये लोग संभावित सत्ता पाने वाले दल से चुनाव लड़ना चाहते हैं। उसी से जुड़ना चाहते हैं। चुनाव के समय चलने वाली हवा में वे सरकार बनाने वाली पार्टी को सूंघते हैं। आदमी कुत्ते में बदल जाता है। आत्मा की आवाज पर जमीर बेंच देता है। दलबदल लेता है। अकेले या समर्थकों सहित नये दल में शामिल हो जाता हैं।
पहले लोग दलबदलुओं को खराब निगाहों से देखते थे। सोचते थे कि सत्ता के लिये दलबदल किया। लालची है। लोलुप है। लेकिन समय के साथ लोगों की सोच बदली है। दलबदल अब मौका परस्ती नहीं रहा। वह उचित अवसर की पहचान है।
एक ही दल में रहते हुये जननेता की इज्जत कम होती जाती है। बेटा बाप को अध्यक्षी से बेदखल कर देता है। चेले गुरु को मार्गदर्शक मंडल के किले में कैद कर देते हैं। सलाह तक लेना बन्द कर देते हैं। उसको आशीर्वादी रोबोट में बदल देते हैं। उसकी इज्जत करने लगते हैं। राजनीति में नेता की सबसे बड़ी बेइज्जती तब ही होती है जब लोग उसकी केवल इज्जत करने लगे। जबकि दलबदल में हमेशा संभावनायें बनी रहती हैं। एक दल के मार्गदर्शक मंडल में गिना जाने वाला नेता दल बदलते ही नवोदित हो जाता है।
पहले जनसेवा सरकारी नौकरी की तरह थी। लोग जिस दल से राजनीति शुरु करते उसी में ताजिन्दगी रहते। अब सरकारी नौकरियां खत्म हो रही हैं। हर काम ठेके पर हो रहा है। प्राइवेट नौकरियां बढ रही हैं। इनमें काम करने वाले नौकरी बदलते रहते हैं। आज किसी कंपनी में काम करने वाला कर्मचारी कल को प्रतिद्वन्दी कम्पनी में दोगुनी तन्ख्वाह में काम पा जाता है। चुनाव में सरकार बनाने के लिये पैसा कारपोरेट देता है। इसलिये कारपोरेट की आदतें भी चुनाव लड़ने वाले अपना लेते हैं। जिसका पैसा होगा उसी की तरह हरकतें भी तो करेंगे। चुनाव में दलबदल करते रहते हैं। जो पार्टी बढिया पैकेज दे उसको ज्वाइन कर लेते हैं।
जनसेवा के लिये दलबदल करता जनसेवक केदारनाथ सिंह की कविता के सड़क पार करते आदमी की तरह आशा का संवाहक होता है:
“मुझे सड़क पार करता हुआ आदमी
हमेशा अच्छा लगता है
क्योंकि इससे एक उम्मीद बँधती है
कि सड़क के उस ओर शायद एक बेहतर दुनिया हो। “
दलबदल के बाद जनसेवक नये नारे लगाने लगता है। नयी बेवकूफ़ियां करने लगता है। नयी तरह से जनता को बेवकूफ़ बनाने लगता है।
दलबदल के पीछे कारण जनसेवा के क्षेत्र में बढती गलाकाट प्रतियोगिता है। जनसेवा में बरक्कत बहुत है। भौत पैसा है। जिनके पास कभी खाने के लाले पड़े रहते थे उनके नाम आय से अधिक सम्पत्ति में दर्ज हो जाता है। जनसेवक जहां हाथ मार देते हैं वहां से पैसा फ़ूट पड़ता है। इसलिये हर जनसेवक चाहता है कि जाहे जान भले ही चली जाये लेकिन जनसेवा का अवसर हाथ से न जाये। एक बार जनसेवा से बेदखल हुये तो गये काम से। जनसेवा का अवसर मिलना जनसेवक के लिये जरूरी होता है। चुनाव में टिकट मिलना जनसेवक के लिये उतना ही जरूरी होता है जितना जरूरी आईसीयू में आक्सीजन। टिकट न मिला तो गया जनसेवक।
इसीलिये चुनाव का बिगुल बजते ही जैसे ही जनसेवक की आत्मा जागती है वह दिल को दलबदल का आदेश देती है। दिल कभी-कभी दलबदलने से मना करता है। दिल है कि मानता नहीं आत्मा की आवाज। लेकिन आत्मा तो हाईकमान होती है। वह दलबदल को जरूरी मानती है। दिल अगर जिद करता है तो वह दिलबदल कर दलबदल कर लेती है। दिल का बाईपास कर लेती है। करोड़ों के चुनाव खर्च में कुछ लाख का खर्च बाईपास के लिये सही। नये दिल से नये दल में प्रवेश करती है। नया दिल, नये दल में धड़धड़ करता हुआ नये नारों की गूंज में जनता की नये तरह से सेवा की कसमें खाता है।
जनता बेचारी दलबदल करके आये जनसेवक से सेवा कराने के लिये अपने को तैयार करने लगती है। जनता के पास सेवा कराने के अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है।

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