Monday, May 15, 2017

टेलीफ़ोन

टेलीफ़ोन से पहली मुलाकात अपन की किताबों में ही हुई। सामान्य ज्ञान के तहत पता चला कि ग्राहम बेल ने खोज की इसकी। प्रयोग के पहले सिनेमा में देखते रहे, कहानी में पढते रहे, गाने में सुनते रहे :
मेरे पिया गये रंगून
किया है वहां से टेलीफ़ून
तुम्हारी याद सताती है !
याद सताती है यह बताने के लिये पिया रंगून निकल लिया। बगल के कमरे में जाकर चिल्लाकर भी कह सकता था। लेकिन नहीं रंगून ही जायेंगे। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि पहले के लोग याद के नाम पर कित्ती फ़िजूलखर्ची करते थे।
बचपन में जहां रहते थे वहां दूर-दूर तक कोई फ़ोन रहा हो याद नहीं आता। बड़े होने तक किसी को फ़ोन करने की याद तक नहीं है। बाद में जब नौकरी में आये तो फ़ोन के दर्शन हुये। प्रयोग करने पर पता चला कि फ़ोन भी दो तरह के होते हैं। एक जिसमें लोकल बात होती है, दूसरे जिसमें विदेश बात हो सकती है मने एस.डी.टी.। पहली बार जब विदेश बात किये तो बहुत देर तक सोचते रहे कि बात क्या करेंगे? जब मिला तो भूल गये कि सोचा क्या था बात करने। बाद में ध्यान ही नहीं रहा कि बतियाये क्या?
बहुत दिन तक फ़ोन विलासिता टाइप बने रहे। एस.टी.डी. फ़ोन धारी अफ़सर विधायकों में मंत्रीजी टाइप लगते। लोग फ़ोन पर ताला लगाकर रखते। डायल करने के लिये छेद में बेडियों की तरह ताला लगाकर जाते।
लेकिन जहां चाह वहां राह। ताला लगे फ़ोन में डायल घुमाने की जगह हम लोग खटखटाकर फ़ोन मिलाने की कोशिश करते। 234 मिलाना हो तो पहले 2 बार खटखटकरते, जरा सा रुककर 3 बार खटखटाते फ़िर रुककर चार बार खटखटाते। 10 में 2 बार फ़ोन न मिलने पर वर्जित फ़ल चखने का रोमांच हासिल होता।
बाद के दिनों में पीसीओ का चलन बढा। घंटो इंतजार करके बातें करते। अब वह भी गये जमाने के किस्से हुये।
शुरुआती दिनों में टेलीफ़ोन के बतियाने के काम आया था। बाद के दिनों में तो टेप , भण्डाफ़ोड़ और सरकार गिराने, बनाने में काम आने लगा।
हॉट लाइन नाम सुनते तो लगता कि फ़ोन से कान जल जाते होंगे इसीलिये लोग हॉटलाइन पर कभी-कभी ही बात करते हैं।
मोबाइल में फ़ोन होता है लेकिन टेलीफ़ोन का मजा ही कुछ और है। मोबाइल में आवाज आते-आते चली जाती है। सेंन्सेक्स की तरह उछलती-कूदती रहती है आवाज। लेकिन टेलीफ़ोन में बातचीत स्थिर रहती है। जो मचा टेलीफ़ोन से बतियाने में है वह मोबाइल में कहां। घंटो बतियाने पर भी बैटरी की कोई चिन्ता नहीं।
टेलीफ़ोन में विविधता के दर्शन होते हैं। तरह-तरह के आकार के टेलीफ़ोन दिखते हैं। मोबाइल ने विविधता खत्म कर दी। साइज में भले छोटे-बड़े दिखें लेकिन आकार वही चौकोर। एकरस टाइप की मामला।
टेलीफ़ोन में गुस्से की इजहार करते हुये लोग रिसीवर को पटक देते। रिसीवर भी पुराने जमाने के जीवन साथी की तरह इसका बुरा नहीं मानता। आज मोबाइल कोई पटककर कोई गुस्से का इजहार नहीं करता। एक बार पटका मतलब गया मोबाइल।
टेलीफ़ोन का सबसे मजेदार बात क्रास कनेक्सन मिल जाना हुआ। घर में फ़ोन मिलाना और पता चला बात किसी सहेलियों की सुनाई पड़ने लगी। बैंक फ़ोन लगाओ तो रिसीवर उठे रेलवे इन्क्वायरी में। यह सब तो ठीक। लफ़ड़ा तो तब जब किसी अजीज मठाधीश को फ़ोन मिलाओ और मिलते ही जब आप उसके गुणगान शुरु करो तो वह खुश न होकर उस बातचीत के बारे में सवाल पूछने लगे जो आपने उसको फ़ोन मिलाने के पहले अपने अजीज से उसकी लानत-मनालत करने के पहले की है और जो उसने गलती से क्रास कनेक्शन होने के चलते की है। ऐसा होता तो बहुत कम है लेकिन होता तो है ही। ऐसा एक सच्चा किस्सा सुनाने का मन है लेकिन वह फ़िर कभी।
फ़िलहाल तो आप अपना फ़ोन उठाइये और अपने किसी अजीज से बतियाइये। अच्छा लगेगा।

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