हमने पहले तो डपट दिया - क्या जनसेवकों की तरह हरकतें करते हो जिनको जनसेवा के लिये सांसद/विधायक/मंत्रीपद ही चाहिये।
लेकिन फ़िर लगा कि लेखों की मांग इत्ती नाजायज भी नहीं। लेखों का मन लेखकों जैसा ही तो होगा। लेखक का मन होता है उसके लिखे की किताब आये तो लेखों का भी सहज मन होता है कि वे किताब में आयें।
खैर फ़िर बईठ के छांटे लेख और किताब की पांडुलिपि बनाकर भेज दी, अपनी बात और समर्पण सहित अपने मेहनती प्रकाशक Kush Vaishnav के पास। भूमिका के लिये अपने व्यंग्य बाबा Alok Puranik को पकड़ा और याद दिलाया कि मंडी हाउस में इस बार चाय के पैसे हमने दिये थे। भाई साहब ने फ़ौरन भूमिका लिख भेजी। मजे लेते हुये अनूप शुक्ल के। देखिये क्या लिखते हैं वे :
"अनूप शुक्ल बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। वृतांत लेखन गजब करते हैं, कैमरे के साथ प्रयोग खूब किये हैं। अफसर भी हैं और उसके बावजूद इंसान भी बने हुए हैं। उत्साही और उत्सुक विकट हैं, मंगल ग्रह पर साइकिल से चलेंगे-ऐसा प्रस्ताव कोई उन्हे मजाक में भी दे दे, तो शाम को साइकिल लेकर घर आ जायें कि चलो बता हुई थी ना चलो मंगल की तरफ। ऐसा इंसान व्यंग्य लेखन खूब कर सकता है औऱ जम के कर सकता है। वहां असल में क्या हो रहा है, यह देखने की उत्सुकता-यह व्यंग्यकार को बहुत कच्चा माल दिलाती है। अनूप शुक्ल साइकिल रोककर नदी के किनारे के उस कोने में चले जाते हैं, जहां बालक जुआ खेल रहे होते हैं और एक बालिका बालकों को डपट रही होती है-क्यों बे बड़ा दांव क्यों नहीं लगाते। अनूप शुक्ल किसी रेहड़ी पर फल बेचनेवाले की जिंदगी में पूरा झांकने की सामर्थ्य रखते हैं। मानवीय चरित्र को कई कोणों से परखने में उनकी गहरी रुचि है।"
जब इत्ता सब हो गया तो फ़िर किताब आ ही जानी चाहिये न ! इतवार की शाम को शुरु हुई किताब का कवर पेज भी कुश ने वुधवार को बना दिया। फ़िर क्या बन गई किताब - झाड़े रहो कलट्टरगंज !
’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ लिखा तो बोला हम किताब का शीर्षक बनेंगे। हम बोले बन जाओ। कौन रोकता है भईया तुमको। तो भाई किताब का शीर्षक भी तय भी हो गया - झाड़े रहो कलट्टरगंज !
तो इसी बहाने लेखक की पांचवी किताब और इस साल इस महीने की भी छपने वाली तीसरी किताब फ़ाइनल हो गयी - झाड़े रहो कलट्टरगंज।
बधाई -सधाई दीजिये वो तो ठीक है लेकिन यह भी बताइये कि कवर पेज कैसा है?
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