गंगा स्नान करके लौटती महिला |
सुबह टहलने निकले। सुलभ शौचालय दिखा। कुछ लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। एक आदमी अखबार पढ़ रहा था। शायद दबाब बना रहा हो। पता नहीं किस खबर को पढ़ते ही प्रेसर बन जाये। अलग-अलग रुझान वाले लोगों को अलग-अलग ख़बरों से प्रेशर बनते होंगे।
आजकल स्वच्छता अभियान पर जोर है। खुले में शौच की खिल्ली उड़ाते हुए उसके खिलाफ हवा बनाई जा रही है। गांवों में शौचालय बन रहे हैं। भले ही उनमें सामान रखा जा रहा हो। लेकिन बन रहे हैं तो उनका उपयोग भी होने लगेगा कभी।
सुलभ शौचालय के बाहर अखबार पढ़ते देख आइडिया आया कि खुले में शौच रोकने के लिए खूब सारे शौचालय बनाये जाएं। उनकी सुविधाएं बढ़ाई जाएं। अखबार के साथ इंटरनेट भी मुहैया करवाये जाएं। और भी हेन-तेन। इतना कि लोग घर के ट्वायलेट छोड़कर 'शौचालय मॉल' में आने लगे निपटान के लिए।
सरकार को यह सब करने में बहुत समय लगेगा। प्राइवेट सेक्टर को सौंप दिया जाए यह काम। तमाम निजी इंजीनियरिंग कॉलेज बेकार हो रहे। लड़के आ नहीं रहे भर्ती होने। वे सब बदल दिए जाएं बड़े शौचालयों में। पैसा वसूल हो जाएगा। शिक्षा अभियान को स्वच्छता अभियान में बदल दिया जाए।
मंदिर के बाहर भक्त, फूल की दुकान और भिखारियों का कम्बो पैकेज |
यह फालतू की सोच लिए-लिए हम आगे बढ़े। देखा एक महिला तेज-तेज चलती हुई जा रही थी। हाथ में लुटिया में पानी। बहुत मन लगाकर चल रही थी। आगे निकलकर हम साईकल स्टैंड पर खड़ी करके फोटो लिए। पूछकर। फ़ोटो खिंचाने से पहले उसने पल्लू सर पर धरा। चेहरे की व्यस्तता हटाकर सुकून वाली मुस्कान धारण की। लोटे को दोनों हाथ से पकड़कर संतुलित किया। फ़ोटो खिंचाई। देखने के बाद -थैंक्यू अंकल जी कहा।
पता चला कि रोज घण्टाघर से चलकर गंगा नहाने जाती हैं। करीब पांच किलोमीटर होगा। गंगा के प्रति आस्था। हम बताओ बगल में रहते हुए आज तक न नहाए। अनास्था है यह? एक दिन सूरज की किरणों के साथ चमकते हुए नहाएंगे। जल्ली ही।
आगे घंटाघर के पास एक मंदिर गुलजार हो रहा था। घण्टा बज रहा था। बाहर फूल वाला अपनी दुकान सजा चुके थे। मंदिर के सीन का कोरम पूरा करने के लिए भिखारी भी बैठ गए थे। एक को आने में कुछ देरी हुई तो लपककर आता दिखा। संग में बैठ गया। भक्त लोग खरामा-खरामा अंदर जाते हुए घण्टा बजाते चले गए। भगवान बेचारे अंदर बैठे होंगे। जो आता होगा उनको आशीर्वाद या प्रसाद या मनोकामना पूरी होने का आशीष दे देते होंगे।
इटवार की सुबह पराठे सेंकता बालक |
कभी-कभी सोंचते भी होंगे कि यार, यहाँ जाड़े ने ठिठुर रहे हैं। बाहर होते तो गुनगुनी धूप सेंकते। क्या पता कोई दूसरे देवता उनको समझाते -
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता,
कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता।
कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता।
घण्टाघर के आगे एक ठेलिये पर सब्जी -पराठा का ठेला लगा था। एक लड़का ठेलिये पर बईठे हुए उचक-उचककर पराठा सेंक रहा था। बतियाते हुए मुस्कराता गया। जितना शरीफ लोग दिन भर में नहीं मुस्कराते उतना पांच मिनट में मुस्करा दिया बच्चा। पढ़ने जाता है लेकिन इतवार होने के चलते पिता का साथ दे रहा था।
20 रुपये के दो पराठे सब्जी सहित भाव थे। जीएसटी का हिसाब गोल। कभी शायद पुलिस वाले हर ठेले वाले से जीएसटी की पूछताछ करने लगें। जब करेंगे तब देखा जाएगा अभी तो सुबह की गुनगुनी धूप का मजा लिया जाए।
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ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 21/10/2018 की बुलेटिन, विरोधाभास - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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