Sunday, December 24, 2017

नानी की दुकान


भोपाल की सुबह बड़े तालाब के किनारे टहलते हुए बीती। लौटते हुए नानी की दुकान पर चाय पी गयी। पोहा खाया गया।
दो महीने हुए नानी को अपनी दुकान लगाए। इसके पहले एक हॉस्टल में बच्चों के लिए खाने-पीने का इंतजाम देखती थी। इंजीनियर बच्चे पहले साल सीधे होते हैं, दूसरे साल में शरारतें सीख जाते हैं। इसीलिए तीसरे साल के बच्चों को हॉस्टल में नहीं रखती थीं।
नानी की दुकान नाम नातिन , रोशनी के, कहने पर रखा गया।
हौसला गजब का। हाईस्कूल तक पढ़ीं हैं नानी लेकिन भाषा पर चकाचक अधिकार। पति 28 साल पहले नहीं रहे।
पोहा और चाय चकाचक। दोनों के दाम पांच रुपये। हमने कहा- 'हमारी तरफ से आप भी चाय पियो, पोहा खाइए।' उन्होंने चाय तो पी लेकिन पोहा बोलीं -अभी खाएंगे।
सुबह पोहा, फिर समोसा, फिर पूड़ी-सब्जी और दीगर नाश्ते की व्यवस्था। घर परिवार की तमाम बातें साझा हुईं। बताया की उनका नाम कांता शुक्ला है।
सामने ही नानी की नातिन रोशनी धूप में अखबार बांच रही थी। हमने पूछा - "नानी को कुछ सहयोग करती हो? " वह बोली -"गल्ला काटते हैं।" गल्ला काटना मतलब काउंटर पर बैठना।
नानी के देवर बड़े लेखक हैं। कोई व्यास जी। नानी कोई और काम भी करना चाहती हैं। आगे बढ़ना चाहती हैं।
नानी की चाय पीकर और उनके हौसले की तारीफ करते हुए हम वापस लौटे।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10213288151451775

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