Sunday, October 21, 2018

जिंदगी के स्कूल में पढाई की फ़ीस नहीं पडती

चित्र में ये शामिल हो सकता है: भोजन
जिंदगी का स्कूल रोज खुल रहता है, कभी छुट्टी नहीं होती यहां

सुबह सूरज भाई उगे। देखते-देखते जियो के मुफ़्तिया नेट कनेक्शन की तरह हर तरफ़ उनका जलवा फ़ैल गया।
इतवार की तीसरी चाय ठिकाने लगाकर हम भी निकल लिये। यह निकलना ऐसा ही थी जैसे चुनाव के मौके पर अपनी पार्टी में टिकट न मिलना पक्का होते ही लोग पार्टी बदल लेते हैं। घर में चौथी चाय का जुगाड़ भी नहीं था।
ओवरब्रिज खरामा-खरामा बन रहा था। एक ट्रक अधबने पुल की छाती पर चढा उस पर मिट्टी गिरा रहा था। पता नहीं कब इस पर बजरी गिरेगी, कब सड़क बनेगी, कब पुल चालू होगा।
नुक्कड़ की नाई की दुकान पर लोग बाल बनवाने के लिये अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। आगे एक पंचर बनाने की दुकान पर दुकान मालिक ग्राहक के इंतजार में अपनी फ़ोल्डिंग पर इस तरह अधलेटे हुये थे जैसे मुगल सम्राट अपने दरबार में तख्ते ताउस पर विराजते होंगे। दुकान के सामने हवा भरने का पंप किसी तोप की तरह हवा भरने के लिये तैयार था। सामने कई साइकिलों के ब्रेक शू, डिबरी, नट, बोल्ट और फ़ुटकर पुर्जे मोमिया पर पसरे हुये धूप सेंक रहे थे। बुजुर्ग और बेकाम आये पुर्जे अपनी मूंछे ऐंठते हुये कहते से दिखे-’पुर्जे हम भी थे कभी काम के।’
बगल से एक खड़खड़ा वाला किसी मकान की पुरानी इंटे लादे हुये ले जाता हुआ दिखा। आधी-अधूरी ईंटे खड़खड़े में किसी चुनाव में हारे हुये प्रत्यासियों सी पड़ी थीं। उनको इंतजार था कि वे फ़िर से किसी मकान में लगकर अपनी जिन्दगी सार्थक करें।
मूंगफ़ली, चने, लईया की दुकाने खुल गयीं थी। ग्राहकों के इंतजार में सावधान खड़ी थीं। एक दुकान पर एक बच्चा अखबार के लिफ़ाफ़े बना रहा था। आटे की लेई से अखबार को आहिस्ते-आहिस्ते चिपका रहा था। स्पीड इस कदर तसल्ली नुमा और धीमी गोया पुराने जमाने का कोई कोई आशिक अपनी मोहब्बत को अंजाम पर पहुंचाने में लगा हो। हमको अपने बचपन के दिन आ गये जब हम स्कूल से बचे समय में लिफ़ाफ़े बनाते थे। सौ लिफ़ाफ़े मे छह पैसे मिलते थे बनवाई। दिन भर में कभी-कभी हजार-हजार तक लिफ़ाफ़े बना डालते थे। हमने बच्चे के बगल में खड़े होकर फ़ुर्ती से लिफ़ाफ़े बनाकर बताया ऐसे बनाओ , जल्दी बनेंगे। वह बनाने लगा।
लिफ़ाफ़े बनाते हुये बच्चे ने बताया -'पुलिस वाले पन्नी पर धरपकड़ करते हैं। मां-बाप का नाम पूछते हैं। यही लिये लिफ़ाफ़े बना रहे हैं। बच्चे ने यह भी बताया कि स्कूल का मुंह नहीं देखा है उसने। अलबत्ता छोटा भाई जाता है स्कूल। ट्यूशन भी लगा है। पढाई बहुत मंहगी है।'
स्कूल की पढाई मंहगा बवाल है इसलिये हिन्दुस्तान में अनगिनत बच्चे सीधे जिन्दगी के स्कूल में दाखिला ले लेते हैं जहां फ़ीस और ट्यूशन का कोई झंझट नहीं।
आगे एक दुकान पर एक महिला मूंगफ़ली भूंज रही थी। नीचे आगे जल रही थी। महिला सारी मूंगफ़लियां बड़ी कड़ाही में उलटती-पुलटती हुई भूंज रही थी। हमने फ़ोटो लेने को पूछा तो बोली आंचल समेटते हुये बोली – ’लै लेव।’
फ़ोटो देखकर खुश हुईं। हमने नाम पूछा तो बताया – ’फ़ूलमती।’ हमारे मुंह से फ़ौरन निकला – ’हमरी अम्मा का नाम भी फ़ूलमती था।’ वो मुस्कराई। साथ खड़ी बच्ची ने पूछा-’फ़ोटो अखबार मां छपिहौ?’ हमने कहा –’न।’ इस पर फ़ूलमती बोलीं-’चहै जहां छापौ। कौनौ चोरी थोरो करित है। अपन मेहनत करित है।’
सुरेश के रिक्शे अड्डे पर राधा नहीं थीं आज। पता चला कि 21 दिन पहले अपने नाती-पोतन की याद आई तो चलीं गयीं। आठ महीने रहीं। सुरेश ने बताया-’ जब आई थीं तो कह रहीं थीं जाते समय 100 रुपये दे देना। नाती-पोतों को दस-दस रुपये देंगे। जब गईं 1500 रुपये सबने मिलकर दिये। दो साड़ी ब्लाउज दिलाये। दस पैकेट बिस्कुट, पानी की बोतल लेकर भेजा एक रिक्शे वाले के हाथ। सबसे होशियार आदमी के साथ कि उनको गाड़ी में बैठाके आये। अब तक पहुंच गयीं होंगी।’
एक अन्जान बुजुर्ग महिला किसी अड्डे पर आकर आठ महीने रहे। खिलाने-पिलाने, दवा-दारू , रहने के इंतजाम के बाद पैसे रुपये देकर विदा की जाये। हमको भोपाल के हाजी बेग की कही बात याद आई- ’इंसानियत का रिश्ता सबसे बड़ा होता है।’
आगे एक चारपाई पर दो बच्चे खेल रहे थे। उनके हाथ में दो मिट्टी की मूर्तियां थीं। वे उसे बारी-बारी से चारपाई पर रखी दरी के नीचे अपने हाथ की मूर्तियों को रखते-छिपाते हुये खेल रहे थे- जैसे कई जम्हूरियत में सियासी पार्टियां इबादतगाहों के मुद्दे उछालती-छिपाती रहती हैं।
गंगा का पानी घट गया था। दो लोग पानी में कटिया डाले मछली फ़ंसने का इंतजार कर रहे थे। हमको बुद्धिनाथ मिश्र का गीत याद आया:
एक बार और जाल फ़ेंक रे मछेरे,
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
नदी तसल्ली से बह रही थी। उसको कोई हड़बड़ी नहीं थी आगे जाने की। शायद अपने साथ चल रहे और बिछुड़ गये पानी को याद कर रही हो। पता नहीं कहां-कहां का पानी साथ मिलकर यहां बह रहा हो। न जाने कितना साथ चला पानी रास्ते में बिछुड़ गया हो। न जाने कित्ता पानी किसी बांध की हवालात में गिरफ़्तार होकर बंदी पड़ा हो। मन किया नदी को रमानाथ अवस्थी की कविता सुनायें:
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
मंदिर के पास गुप्ता जी मिले। हमने पूछा आंख बनवाई नहीं अभी तक? बोले- ’सोचते हैं दूसरी आंख का भी आपरेशन करा लें जाड़े में तब इकट्ठे बनवा लें।’ हमने फ़िर कहा –’आप बनवा लेव चश्मा पैसे हम दे देंगे।’ बोले-’कानपुर में पैसे बहुत मांगता है चश्मा वाला। सुना है शुक्लागंज में ढाई सौ रुपये में बनाता है कोई। लड़के से कहा है पता करने को।
हमको अपने गांव के चाचा की याद आई। उनकी रोशनी कम हुई। हमने सुझाया –’ आंखे/चश्मा काहे नहीं बनवा लेत हौ?’
चाचा बोले- ’का करैंक है बबुआ बुढापे मां। घर ते खेत औ खेत ते घरै तक आवैं क है। इत्ता देखात है। बस और का करैंक है फ़ालतू मां पैसा फ़ूंकैक (क्या करना है बेटा बुढापे में ? घर से खेत. खेत से घर आना जाना है। इतना दिखाई देता है। और क्या करना है। फ़ालतू में पैसा क्यों खर्च करना)
छह महीने हो गये गुप्ता जी को अपनी आंख के लिये चश्मा बनवाने की सोचते। इतने दिन में मनमाफ़िक न होने पर कारपोरेट बिना कुछ सोचे-समझे सरकार बदल देते हैं। जबकि इसी समय में अपने देश का एक आम इंसान अपने लिये चश्मा बनवाना टालता रहता है।
84 साल के होने को आये गुप्ता जी का भतीजा वहीं बैठा अपने औजार दुरुस्त कर रहा था। पूछने पर मुंह में भरा मसाला सड़क पर थूंकते हुये बताया –’हलवाई का काम करते हैं। कल कहीं काम लगा था वहीं से लौट रहे थे तो सोचा चाचा के हाल-चाल लेते चलें।
रास्ते में तमाम रिक्शेवाले अपने रिक्शों की साफ़-सफ़ाई, साज-सिंगार कर रहे थे। चाय की दुकान पर बैठे लोग टीवी देखते हुये बातिया रहे थे। साइकिल की पंचर की दुकान पर पंचरबाज अभी तक अपने तख्ते ताउस पर लेटा ग्राहक का इंतजार कर रहा था। घर में घुसते ही सूरज भाई खुपडिया पर धूप की चपत लगाते हुये बोले- ’हो गयी आवारगी?’
हम उनको कुछ जबाब दें तक तक वो और ऊपर उचककर पूरी कायनात में रोशनी और गर्मी बांटने लगे।

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