(25 सितंबर,2010 को कन्हैयालाल नंदनजी का लम्बी बीमारी के बाद दिल्ली में निधन हो गया। उनके बारे में ज्ञानरंजन जी का लिखा एक संस्मरण देखिये। ज्ञानरंजन जी और नंदनजी साथ पढ़े थे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। यह संस्मरण ज्ञानरंजन जी ने शायद नंदन जी के निधन के दो-तीन साल पहले लिखा था।)
कन्हैयालाल नंदन से भौगोलिक रूप से मैं 1957-58 में बिछुड़ गया क्योंकि इसी साल के बाद वह इलाहाबाद छोड़कर मुंबई नौकरी में चला गया। हेरफ़ेर 4-6 महीने का हो सकता है। गदर के सौ साल बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हमने एक साथ डिग्री हासिल की और काले गाउन पहनकर फ़ोटो खिंचवाई थी। लगभग आधी शताब्दी का समय हमारे संबंधों के बीच सिनेमा की रील की तरह रोल्ड है।
वह ऐसा समय था कि चारों तरफ़ खजाना ही खजाना था और कोई लूटपाट नहीं करता था। जो चाहो वही मिलता था। पर क्या चाहें क्या न चाहें इसकी कोई तमीज नहीं थी। किताबों की, सत्संग की, कुसंग की,संवाद-विवाद की, लड़ने-झगड़ने और सैर-सपाटे और रचनात्मक उत्तेजनाओं की कोई कमी नहीं थी। असंख्य रचनाकार थे और कहानियां थीं। इतिहास में जाते लेखक थे,वर्तमान में उगते कवि थे और भविष्य की संभावनाओं वाले रचयिता। मर जाने पर भी किसी की जगह खाली नहीं हो जाती थी जैसा कि आजकल हो जाती है। एक मणिमाला थी जो अविराम चल रही थी।
साहित्य संसार से इतर रसायन में सत्यप्रकाश जी थे, गणित में गोरखप्रसाद, हिंदी में धीरेन्द्र वर्मा, अंग्रेजी में एस. सी.देव और फ़िराक। और वह दुनिया भी भरी-पूरी थी। न चाहो तो भी छाया हम पर पड़ रही थी। टेंट में पैसा नहीं होता था पर अपने समय के अपने समय को पार कर जाने वाले दिग्गजों को देख-सुन रहे थे। उनसे मिल रहे थे, सीख रहे थे। नंदन से ऐसे ही किसी समय मिलना हुआ और फ़िर वह तपाक से गहरी मैत्री में बदल गया। पचास सालों में अनंत वस्तुयें छूट गईं हैं। अनगिनत लोग विदा हो गये। करवट लेकर अब संपत्ति शास्त्र के कब्जे में अधमरे कैद पड़े हैं। मेरे सहपाठियों में से निकले मित्रों में केवल दो ही भरपूर बचे रहे। एक दूधनाथ सिंह और दूसरे कन्हैयालाल नंदन।
नंदन की दोस्ती का जाला किस तरह और कब बुना जाता रहा इसकी पड़ताल असंभव है। वह अज्ञात और अंधेरे समय की दास्तान है। हम छत पर बने कमरों में साथ-साथ पढ़ते थे। मेरी मां खाना खिलाती थी। हम वहीं पढ़ते-पढते सो जाते थे। बाकी समय नंदन साइकिल पर दूरियां नापते हुये जीविकोपार्जन के लिये कुछ करते थे। चित्र बनाते, ले-आउट करते, प्रूफ़ देखते थे। आज भी उतनी ही मशक्कत कर रहे हैं। बीमार होते हैं, अस्पताल जाते हैं और लौटकर उतनी ही कारगुजारी हो रही है। गुनगुनाते रहते हैं और काम चलता रहता है।
बेपरवाह और जांगर के धनी। उन्नीस-बीस साल के कठिन और काले दिनों में भी नन्दन ने कभी अपने सहपाठियों को जानने नहीं दिया कि वह चक्की पीस रहा है। दीनता तब भी न थी। नन्दन के चेहरे को हंसता हुआ देखकर भी कोई यह नहीं कह सकता था कि वह वाकई रो रहा है या हंस रहा है। सामने तो वह कभी रोया नहीं। जीवन में कब कोई किस तरह से आ जाता है इसे जानने की कोशिश बेकार है। यह एक रचना प्रक्रिया है जिसे खोलना बहुत फ़ूहड़ लगता है। रिश्ता बनाते समय दुनियादार लोग हजार बार सोच विचारकर यह तय कर लेते हैं कि लंबे समय में यह रिश्ता कहीं नुकसानदेह तो नहीं होगा। सारे भविष्य के संभावित लाभ-हानि वे सांसारिक तराजू पर नाप-तौल लेते हैं। फ़िर कदम बढ़ाते हैं।
मेरे और नंदन के बीच आज भी दुनिया का प्रवेश नहीं है। यहां किसी का हस्तक्षेप संभव नहीं। हमारी बीबियों का भी नहीं और उनका भी जो हमें इसी की वजह से नापसंद करते हैं।
एक सफ़ल व्यक्ति था और मैं भी कोई ऐसा असफ़ल नहीं हूं। लेकिंन नंदन का बायोडाटा ज्वलंत है। उसके चारो तरफ़ बिजली की लतर जल-बुझ ही नहीं रही , जल ही जल रही है। यह नंदन की सबसे बड़ी समस्या है। इस पर उसका बस नहीं है। इस सबके बावजूद जिस समाज में व्यवहारिकतायें भी तड़ाक-फ़ड़ाक से मुरझा जाती हैं और सौदेबाजी भी दो-चार से अधिक नहीं चल पातीं उसी समाज में हम 50 साल से एकदम अलग-अलग रास्तों पर चलते हुये किस तरह मित्र विहार करते रहे यह एक ठाठदार सच है। हमारा लिखना-पढ़ना, जीवन शैलियां ,काम-धाम, विचार-विमर्श कठोरतापूर्वक एक दूसरे से विपरीत रहा। हमने कभी एक-दूसरे को डिस्टर्ब नहीं किया। हमने कभी नहीं पूछा कि यह क्यों किया और यह क्यों नहीं किया।
(नई दुनिया, दिल्ली के 26 सितंबर,2010 के अंक से साभार!)
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