सुबह की शुरुआत सुबह की सैर के साथियों से मुलाक़ात से हुई । पहुँचते ही फ़ोटो बाज़ी हुई। फटाफ़ट फ़ोटो। जो लोग वापस चल दिए थे उनमें से कुछ लौट आए फ़ोटो के लिए। बेंच, चबूतरा बन जाने से लोग खुश थे। तराई हो रही है बेंच, चबूतरे की। एकाध दिन में बैठने लगेगें लोग उस उन पर।
शाहजहाँपुर गर्रा और खन्नौत नादियों के बीच स्थित है। खन्नौत नदी कैंट के पास से ही बहती है। आज मन किया नदी दर्शन किया जाए। पता किया तो थोड़ी दूर ही सड़क किनारे से रास्ता है नदी का। चल दिए।
सामने सूरज भाई अपने आगमन की सूचना दे रहे थे। उनकी अगवानी में आसमान लाल हो गया था। एकदम वीआइपी इंतज़ाम। दिशाएँ अपने नायक की अगवानी में लाल हो रहीं थी। मामला ख़ूबसूरत हो रहा था।
सड़क किनारे कई लोगों से पूछकर नदी के रास्ते उतर गए। धूल भरा रास्ता आगे कीचड़ सना हो गया था। बग़ल के खेत की सिंचाई हुई थी। बचा हुआ पानी पगडंडी पर आ गया था। जूते गीले हो गए। अग़ल-बग़ल कुछ कँटीले पेड़ भी मिले। रास्ता थोड़ा और ऊबड़-खाबड़ हुआ। यह भी लगा कि कहीं कोई जंगली जानवर न मिल जाए, हमला कर दे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ देर में ही नदी दिख गयी। घर से कुल मिलाकर अधिक से अधिक दो किलोमीटर दूर होगी नदी। लेकिन नदी किनारे आने में दो साल गुजर गए।
नदी के पानी से भाप जैसी उड़ रही थी। लगा इतवार की सुबह धूप स्नान करती नदी चाय पी रही है और उसके कप से भाप उड़ रही है। फूंक-फूंक कर चाय पी रही है नदी। यह भी हो सकता है नदी सुबह-सुबह भाप स्नान कर रही हो। बीचोंबीच सूरज भाई नदी में नहा रहे थे। जिस जगह डुबकी लगा रहे थे सूरज भाई वह जगह ललछौंही हो गयी थी।
नदी में दो लोग कपड़े धो रहे थे। रोज़ आते हैं धोने। नदी में रखे पत्थर पर पटक-पटक कर धो रहे थे कपड़े। यह घाट पीपल घाट कहलाता है। पीपल घाट इसलिए क्योंकि पहले यहाँ एक पीपल का पेड़ था। बाढ़ में बह गया पेड़ लेकिन नाम घाट का पीपल घाट ही है। जहां पीपल का पेड़ था वहाँ अब बबूल के दो पेड़ खड़े हैं।
लौटने में खेत से होते हुए आए। रास्ते में एक साइकिल पर कपड़े लादे ले जाते अमित मिले। वो भी कपड़े धोने जा रहे थे। इतवार के दिन जाते हैं नदी किनारे कपड़े धोने। बाक़ी दिन फ़ैक्ट्री में काम करते हैं।
लौट कर सड़क के रास्ते आगे बढ़े। लोग अभी भी कसरतायमान थे। हवा खैंच रहे थे, छोड़ रहे थे। पेट अंदर बाहर कर रहे थे।
रास्ते में एक भाई जी ठेलिया पर तरह-तरह का सामान लादे दिखे। सामान क्या यह समझिए ठेले पर वालमार्ट लिए जा रहे थे। डाल-चावल-हल्दी-मिर्च-तेल आदि घरेलू उपयोग का सामान। पास के गाँव ले जाकर बेंचते हैं। बताया कि रोज़ के 300-400 बच जाते हैं। घर-घर जाकर सामान बेंचने का चलन पहले भी था लेकिन बाज़ार अब ज़्यादा तेज़ी से घर आ रहा है। सेवा से अधिक रोज़गार की मजबूरी ज़्यादा बड़ा कारण है इसके पीछे।
अगले मोड़ पर एक बच्चा साइकिल चलाता दिखा। क़द की कमी के कारण कैंची साइकिल चला रहा था। बार-बार सड़क से दूर घर तक आते-जाते साइकिल चला रहा था। पास ही एक बुजुर्ग हल्के-हल्के जागिंग जैसा कुछ करते हुए कसरतायमान थे।
आगे सड़क पर रुको, देखो और जाओ का अंग्रेज़ी अनुवाद का बोर्ड लगा था -STOP , LOOK, GO के LOOK (देखो) की जगह Luck (भाग्य) लिखा था। वैसे एक तरह से लिखत की चूक से अधिक यह सच भी है। सड़क पर चलते हुए सुरक्षित रहने में भाग्य का भी काफ़ी योगदान होता है।
मोड़ पर कुछ भैंसे बंधी थी। दूध बिकता होगा यहाँ। जाड़े से बचने के लिए वहाँ खड़े कुछ लोग और भैंसे दोनों ही आग की तरफ़ अपना पिछवाड़ा किए आग सेंक रहे थे। बग़ल में पूरी सड़क को घेर कर एक ट्रैक्टर खड़ा था। ट्रैक्टर से भूसा उतर रहा था। एक लड़का जो शायद ड्राइवर होगा ट्रैक्टर का, ट्रैक्टर के अगले पहिए पर बैठा मोबाइल में डूबा था।
मोबाइलिंग करते-करते ही लड़के ने बताया आजकल भूसा हज़ार रुपए टन आता है। एक ट्रैक्टर में क़रीब दस से बारह टन भूसा लद जाता है। अक्सर लोग दिमाग़ में भूसा भरने की बात करते हैं। पता नहीं कितना भूसा लगता है, दिमाग़ में भरने के लिए !
जहां भूसा उतर रहा था वहाँ सूरज भाई आसमान में ऊँचाई पर विराजमान थे जैसे उनको उतरवाई की निगरानी का काम सौंपा गया हो।
आगे चलकर फिर नदी की तरफ़ आ गए। नदी किनारे तमाम लोग कपड़े धो रहे थे। कुछ लोग किनारे और कुछ लोग नदी के बीच। पत्थर पर पटक-पटक कर कपड़े से मैल निकाला जा रहा था। गोया कपड़े को मैल की संगत की सजा मिल रही हो- 'तूने मैल से दोस्ती की कैसी?'
कपड़े धोने वालों में से एक ने बताया कि नदी कहाँ से आती है यह नहीं पता लेकिन इसमें पानी हमेशा रहता है। गर्मी के दिनों में भी पानी रहता है नदी में। आगे रिलायंस कम्पनी में भी नदी का पानी इस्तेमाल होता। वहाँ बत्ती (बिजली) बनती है।
नदी के पानी से निकलकर एक आदमी मसाले की पुड़िया खोलकर खा रहा था। पानी से निकलने के बाद भी पैर सर्दी के कारण उसकी जाँधे थरथरा रहीं थी। यह घाट गोला घाट, खन्नौत घाट कहलाता है।
नदी में कपड़े धोने के अलावा कुछ लोग किनारे साबुन लगाकर भी कपड़े धो रहे थे। बालू में गढ्ढे खोदकर उसको मोमिया (पालीथीन) से ढँककर पालीथीन का तब जैसा बना लिया था। उसी तब में डिटर्जेंट, साबुन डालकर कपड़े धो रहे थे। पालीथीन का टब -एक अनूठा जुगाड़।
जहां लोग कपड़े धो रहे थे, वहीं एक आदमी जगह-जगह घूमते हुए चींटियों के लिए चीनी और आटा डाल रहा था। हमने पूछा -'यहाँ चींटियाँ हैं कहाँ?'
वो झल्लाते हुए बोला -'हैं भाई, अभी आएँगी, खाएँगी अपना दाना-पानी।'
हमने जानकारी के लिए नाम-पता पूछना चाहा कि कब से खिला रहे चींटियों को दाना? वह बोला -'कुछ नहीं बताएँगे, न नाम न यह कि कब से खिला रहे हैं। फ़ोटो भी नहीं खिंचाएँगे।' कहते हुए घूम-घूमकर चींटियों को दाना डालने लगे।
कपड़े धोते लोगों ने उनके बारे में बताया -' दिन भर यहीं रहते हैं। चींटियों को दाना डालते हैं। शाम को वापस जाते हैं।'
आगे सड़क दिखने लगी। मकानों से निकली हुई गंदगी आहिस्ते-आहिस्ते नदी में दाखिल हो रही थी। शहर के बाहर के मकानों के बारे में धूमिल की कविता की तर्ज़ पर कहा जाए तो -'जिसका पिछवाड़ा देखा, गंदा ही पाया।'
नदी किनारे से उचककर आगे सड़क से जुड़ गए। सड़क पर शहर अपनी गति से भागता चला जा रहा था ।
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