Saturday, April 30, 2022

पैसे ठिकाने लगाने की गारंटी



जब कभी किसी मॉल जाना होता है, उसकी जगर-मगर देखते हैं। खासकर शाम के बाद तो लगता है कि कहीं स्वर्ग है तो यहीं हैं।
स्वर्ग अगर कहीं होगा भी तो उसकी व्यवस्था कैसे होती होगी? स्वर्ग में रहने वाले लोगों की व्यवस्था कौन देखता होगा? उनके लिए खाने-पीने का इंतजाम कैसे होता होगा? साफ-सफाई कैसे होती होगी? क्या स्वर्ग में भी गैरबराबरी होती होगी-जिसके खाते में ज्यादा पुण्य उसका रुतबा ऊंचा, जिसके खाते में कम पुण्य वह रुतबे लाइन में नीचे। क्या पता वहां भी चुनाव होते हों। लेकिन अगर चुनाव होते होंगे तो फिर स्वर्ग और अपनी धरती में क्या अंतर।
बात मॉल की हो रही थी। कल एक मॉल जाना हुआ। लोग मस्त-प्रसन्न-उत्फुल्ल-प्रफुल्लति मुद्रा में चहलकदमी करते दिखे। खूबसूरत लोग। खूबसूरती के मामले में देखा जाए तो मॉल में शहर खूबसूरती का सबसे बड़ा जमावड़ा होता है। सब खूबसूरत लोग लगता अपनी खूबसूरती चेहरों और अदाओं में लादकर मॉल में आते हैं, दिखा-देखकर चले जाते हैं।
किसी भी शहर के मॉल आपके पैसे को ठिकाने लगाने की गारंटी हैं। पैसा लेकर आइये, खाली जेब वापस जाइये।
मॉल में एक्सकेटर पर लोग एक मंजिल से दूसरी पर जा रहे थे। कोई-कोई तो आने-जाने का वीडियो भी बनाते दिखा। कोई सेल्फिया रहा था। कोई नेट सर्फिंग करते उतरते-चढ़ते दिखा। जोड़े से भी लोग लगे थे सेल्फ़ियाने में। घर में जो बचा रह गया होगा प्रेम वह एक-दूसरे पर उड़ेकते हुए यहां फोटोबाजी कर रहे थे-ताकि सनद रहे।
एक एक्सेलेटर के पास तीन महिलाएं बड़ी देर तक खड़ी रहीं। लोगों को चढ़ते उतरते देखती महिलाएं शायद सीढ़ियों पर चढ़ने में हिचक रहीं थीं। बहुत देर तक उनको खड़े देखकर मैने उनका हौसला बढ़ाने की कोशिश की। लेकिन वे मेरे झांसे में नहीं आईं। उनके हाव-भाव से लगा कि वे एक्सेलेटर पर चढ़ने को बहुत कठिन, अपने बस के बाहर मान चुकी थीं। हमने उनके इस भाव को हिलाने की कोशिश की लेकिन वे हमसे बिना सहमत हुए कुछ देर खड़ी देखती रहीं सीढ़ियों को और फिर बाहर की तरफ चल दीं।
हमने सोचा कि जिस देश में महिलाएं जेट चला रहीं हैं वहीं कुछ महिलाएं सीढ़ियों पर चढ़ने में हिचक नहीं। लेकिन यह बात महिलाओं तक ही नहीं सीमित, तमाम पुरुष भी ऐसे ही होंगे। इससे अलग बात यह भी कि ये लोग कम से कम मॉल तक आ गए। शहर की बड़ी आबादी ऐसी भी होगी जो यहां माल तक भी नहीं आ पाती होगी। इसी का विस्तार किया जाए तो देश-दुनिया की तमाम आबादी शहर देखने को तरस जाती होगी। गैर बराबरी की यह विविधता अनूठी है। किसी भी आबादी के तबके से वंचित दूसरा तबका सहज रूप से उपलब्ध हो जाएगा।
एक दुकान में कपड़े देखने आए थे। दो साल पहले बिना नाप/ट्रायल लिए गए थे। फिट नहीं आये। बदलना बाकी था। ट्रायल में हर बार कुछ न कुछ लफड़ा हो जाता। कभी पेट अटक गया, कभी हाथ। अपने शरीर के बेडौलपने पर मुझे अक्सर रश्क भी होता है। मॉल में कपड़े फिट नहीं आते। पैसे बच जाते हैं।
पता चला कि दुकान का किराया साढ़े तीन लाख महीना है। मतलब करीब 35-40 मजदूरों की महीने की तन्ख्वाह।
सामान ज्यादा हो गया तो एक बच्चा साथ भेज दिया नीचे तक पहुँचने। फ्रेंचकट दाढ़ी वाला बच्चा पता चला बीकॉम पढ़े है। देहरादून से पढ़ाई की। अब यहां साफ-सफाई का काम करता है। पिता बिल्डिंग कांट्रेक्टर हैं, नेपाल में काम है। लेकिन कोरोना काल में काम बंद हो गया तो फिलहाल कानपुर में बहन मासकॉम की पढ़ाई करके दिल्ली में काम करती है।
मां के बारे में पूछा तो बताया -'2013 में नहीं रहीं।' उदास हो गया बच्चा मां की याद करके।
हर सवाल के तुरंत और यांत्रिक जबाब। जिंदगी बड़ी जालिम और रूखी टाइप है बालक की। बताया -'काम मिलते ही कहीं और जाएगा। फिलहाल यहीं ठीक है। भीषण गर्मी में माल में नौकरीं सुकून है।
सड़क आ गयी। बच्चा वापस चला गया। सड़क पर ट्रैफिक रेंग रहा है। मेट्रो के लिए खुदाई हो रही है। तेज चलने की तैयारी के लिए शहर ठहरकर इंतजार कर रहा है।

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Friday, April 22, 2022

अभी पूरा आसमान बाकी है

 



रामनाथ अवस्थी जी के प्रसिद्द गीत का मुखड़ा है:
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात,
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।
इसी गीत का एक और अंश है:
"रात लगी कहने सो जाओ,
देखो कोई सपना,
जग ने देखा है बहुतों का
रोना और तड़पना।"
यह पंक्तियां उनपर लागू होती हैं जिनको नींद की समस्या होती है। अपन को तो जब लेट जाएं, नींद आ जाती है। पहले देर में सोते थे। आजकल जल्ली सोना, जल्दी जगना। जगने का मतलब उठ जाना नहीं होता। जग-जग के सोना भी होता है। जगे दो पेज किताब पढ़ी, करवट बदलकर या किताब रखकर 'नींद ब्रेक' ले लिए। फिर जग गए। किताब पढ़ने लगे , सोचते हुए कि अब उठते हैं।
कृष्ण बलदेव जी की डायरी पढ़ते हुए कई रोचक जुमले दिखे। एक जगह अचानक लिख दिया:
"सफलता का अश्लीलतम नमूना, अमिताभ बच्चन।"
इसके अलावा अपने बारे में और उन लेखकों के बारे में जिक्र भी किया है जिनको उन्होंने पढ़ा है। अनाइस नीन का जिक्र करते हुए लिखा:
"नीन से पहले किसी औरत ने अंग्रेजी में इतना खुलकर और इतनी तफसील के साथ नहीं अपनी जज्बाती, नाफ़ियाती, जिनसी जिंदगी के बारे में नहीं लिखा और अपने दोस्तों, आशिकों, पति, पिता को इतनी बारीकी से नहीं कुरेदा या टटोला। मर्दों में भी मिल्लर के अलावा किसी लेखक ने इस तरह की खूबसूरत दिलेरी नहीं दिखाई।"
आगे नीन और मिल्लर का जिक्र करते हुए लिखा :
" अनाइस नीन मर्दबाज औरत थी, उसी तरह जिस तरह हेनरी मिल्लर औरतबाज मर्द। दोनों आजाद इंसान थे। दोनों शादी के घेरे में बन्द होकर नहीं रह सकते थे। इस लिहाज से वे एक-दूसरे के आदर्श थे।"
अपन पहली बार नाम सुन रहे थे इन लेखकों का। नेट पर खोजा तो पता चला कि नीन जी 1903 में पैदा होकर 1977 में रुखसत भी हो गईं। उनके गुजर जाने के 26 साल बाद वैद जी उनके बारे में लिख रहे हैं जिसको हम 19 साल बाद पढ़ रहे हैं। इंसान के अलग हटकर किये काम और कारगुजारियां लंबे समय चर्चा में रहते हैं। यह भी पता चला कि नीन ने 7 डायरियां लिखीं। एक डायरी की कीमत पेपरबैक में कीमत 17 डॉलर मतलब 1300 रुपये। 7 डायरी मतलब 9100 रुपये। टल गई खरीद।
डायरी पढ़ना स्थगित करके घूमने निकले। सड़क गुलजार थी। स्कूल जाते बच्चे उसे और खूबसूरत बना रहे थे। एक बच्ची ऑटो में कॉपी खोले पढ़ती जा रही थी। शायद उसका टेस्ट हो।
पार्क में लोग घूम रहे थे, खेल रहे थे, वर्जिश कर रहे थे। एक पहलवान टाइप आदमी झूले की सीढ़ियों में पैर फँसाये उल्टा लेटा ईंटो पर हथेली रखे वर्जिश कर रहा था। पूरा पार्क चहक रहा था।
रामलीला पार्क में भी लोग खेल, टहल रहे थे। पार्क के एक हिस्से में पानी भरा था। शायद पाइप लीक है। न जाने कब से ऐसा है। देखकर लगा कि कितना पानी बह गया होगा लापरवाही में।
रामलीला मंच के सामने एक बच्चा ईंटों का विकेट लगाए बैटिंग कर रहा था। गेंद फेकने वाली लड़की थी। लड़का बल्ला घुमाता, गेंद कभी बल्ले पर आ जाती, कभी निकल जाती। जब आ जाती तो लड़की भागकर गेंद लाती। फिर फेंकती।
एक दूसरी लड़की भी फील्ड पर है। किसी को ठीक से खेलना नहीं आता। न बच्चियों को गेंद पकड़ना, न बच्चे को देखकर गेंद मारना। लेकिन उत्साह है खेलने का। खेल रहे हैं।
पता चला बच्चे की कल की बैटिंग बकाया थी। आज मिली है। सो बल्ला घुमा रहा है। लड़कियां गेंद फेंक रही हैं। एक बार में छह-छह गेंदे मिलती हैं खेलने को। खेल रहे हैं, तीन लोगों की पूरी टीम।
पता चला बच्चा 9 वीं में पढ़ता है, बच्चियां बीए में। जीएफ कालेज में। कालेज में नई टीम बनी है लड़कियों की क्रिकेट की। बच्चियां भी हैं टीम में। कुछ भी नहीं आता खेलना। लेकिन हौसला है, सीख रही हैं। दो दिन हुये सीखते।
बातचीत में बच्चियां उत्साह और आत्मविश्वास से लबरेज दिखीं। कहा-'हम गांव के हैं। मेहनत करते हैं। बाकी लड़कियां शहर की। मेहनत नहीं करती। हम अभी खेल नहीं पाती लेकिन सीख जाएंगे।'
बच्चियों के हौसले और उत्साह से मन खुश हो गया। एक बार फिर याद आई पंक्तियां -"कुछ कर गुजरने के लिए मौसम नहीं नहीं मन चाहिए।"
हमारी फैक्ट्री के लोग सिखा देंगे।
बच्चियों में एक के पिता खेती करते हैं, दूसरी के प्राइवेट बैंक में। रंजना राजपूत और अंजली सक्सेना को क्रिकेट खिलाड़ियों के बारे में भी कुछ नहीं पता। क्रिकेट खिलाड़ियों के नाम पूछने पर बताया -सिंधु। नाम न पता हो लेकिन उत्साह तो जबर है।
हमने भी उनको दो-तीन ओवर खिलाये। बच्चों ने लप्पेबाजी करते खेला। कभी गेंद पीछे निकल गयी, कभी बल्ले से लगकर मैदान में।
आगे एक बच्ची को उसका कोच टाइक्वाडो सिखाते मिले। तमाम बच्चे बैट-बाल खेलते।
सड़क पर लोग टहल रहे। कुछ लोगों की चर्बी देखकर लगा कोई जुगत होती कि चर्बी वालों की चर्बी हड्डी वालों को ट्रांसफर हो जाती। दुनिया का बहुत भला हो जाता। लेकिन ऐसा होता कहां है।
स्कूल की दीवार पर लिखा दिखा:
खोल दे पंख मेरे कहता है परिंदा,
अभी और उड़ान बाकी है
जमीन नहीं है, मंजिल मेरी
अभी पूरा आसमान बाकी है।
खरामा-खरामा टहलते हुए घर आ गए। धूप सब जगह खिल गयी थी। अमलतास के पेड़ अपने फूलों के साथ खूबसूरत दिख रहे थे। मौसम खुशनुमा । सुबह हो गयी थी।

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हम इंसान हैं जो धरती को अपनी बपौती समझ गदर काटते रहते हैं

 यह तो हम इंसान हैं जो धरती को अपनी बपौती समझ गदर काटते रहते हैं। अपने को सबसे बुद्धिमान प्रजाति समझते हुए दुनिया की सबसे बड़ी बेवकूफियां करता रहता है। जिस धरती पर रहता है उसी को बर्बाद करने की हरकतें करता रहता है। उसके बाद नाटक करता है और धरती के नष्ट होने का स्यापा करता है।

सच कहा जाए तो इंसान की धरती विरोधी हरकतों के चलते धरती नहीं नष्ट होगी। गर्मी बढ़ने पर समुद्र का स्तर बढ़ेगा तो शहर डूबेंगे, आदमी तबाह होगा। धरती तो ऐसे ही अपनी धुरी पर घूमती रहेगी।
हो सकता है आज से सैकड़ों, हजारों साल बाद कोई और उन्नत प्रजाति के लोग धरती के बारे में अपनी राय बनाते हुए लिखें कि पहले धरती पर डायनासोर रहते थे जो किसी उल्कापिंड के चलते खत्म हुए। उसके बाद इंसान बुद्धिमान प्राणी थे। उन्होंने अपनी बुदगुमानी और लालच के चलते ही धरती का वातावरण इतना बर्बाद कर लिया कि निपट गए।

Thursday, April 21, 2022

चींटियों के बहाने



आज सोते में करवट लेते हुए जरा सा आंख खुली तो देखा तीन बजे थे। पलट के सो गए। सोचते हुए कि चार बजे उठेंगे। नींद खुली तो सवा पांच बजे गए थे। तय समय से सवा घण्टा लेट। सवा घण्टे का नुकसान का जिम्मेदार कौन ? इस बात पर पौन घण्टे मगजमारी करते रहे। सोचते रहे। इस बीच घड़ी छह बजे के आउटर पर जाकर खड़ी हो गयी। सोचने के चक्कर में सब घण्टे हवा हो गए। अब और नहीं सोचना, सोचते हुए जग गए।
बाहर निकलकर आये। हवा मज़ेदार। सुहानी। फर्स्टक्लास वाली। अहसास दिलाती हुई कि पहले आ जाते तो कितना मजा और ले पाते। लेकिन कहा गया है न -'समय चूकि पुनि का पछताने।'
चारो तरफ पक्षी हल्ला मचा रहे थे। कोई कुहू-कुहू कर रहा था, कोई केहू-केहू। कांव-कांव , आहो-आहो टाइप भी सुनाई दिया। लेकिन पक्षियों में आपस में मारपीट जैसा कुछ नहीं हुआ। न कोई दंगा-फसाद। न कोई पुलिस आई , न किसी का कोई घोसला गिरा। उनके यहां चुनाव नहीं होने का फायदा मिला उनको।
पक्षी की बात से मुझे नवम्बर महीने में जयपुर में देखी गयी चींटियों की याद आई। जमीन पर बने एक बिल से निकलती हुई, उसी में घुसती हुई चीटियाँ बड़ी तेजी से आती-जाती दिखाई दीं थी। बिल बिल्कुल ब्लैक होल सा लगा मुझे, जिसमें घुसती चीटियाँ कहाँ गयीं, मुझे पता ही नहीं चला। उस समय चींटियों के बारे में न जाने क्या-क्या सोचा था, पांच महीने में अब सब भूल गया। इस बीच नई-नई बातें सोच लीं। अब जब उस वीडियो को देखा तो वे नई बातें भी गुम हो गयीं। एक दम नई बातों की सरकार बन गयी। बातों का 'नया मन्त्रिमण्डल' गठित हो गया है।
इस बीच चींटियों के बारे में सरसरी तौर पर पढ़ा। रानी चींटी सर्वेसर्वा होती है। अपने जीवन में लाखों अंडे देती है। 20-25-30 लाख। मतलब दुनिया के तमाम देशों की आबादी के बराबर। रानी चींटी 20 साल लगभग जीती है, जबकि बाकी चींटियां 40-50 दिन। कितना अंतर होता है रानी चींटी और अन्य चींटियों में। यह भी पता चला कि चींटियां लगभग 9 करोड़ साल पहले से पायी जाती थीं। मतलब आदमी से भी सीनियर हैं चींटियां। 12000 तरह की चींटियां पाई जाती हैं। मतलब आदमी से कई गुना अधिक। अगर आदमी और चींटियों का साझा संसार बन जाये तो चींटियां बहुमत में होंगी। उनकी सरकार बन जाएगी। चींटियां बहुमत में होंगी। आदमी अल्पमत में।
चींटियों के संसार में शासन कैसे चलता है पता नहीं। यह भी पता नहीं कि उनके यहां नेट, टीवी, व्हाट्सअप वगैरह हैं कि नहीं, दंगे होते हैं कि नहीं उनके यहां, जातिवाद, परिवारवाद के क्या हाल हैं वहां, छेडछाड और लिंगभेद का भी अंदाज नहीं। बहुत कम जानते हैं अपन उनके बारे में।
जानने को हम इंसान के ही बारे में कितना हैं, जैसा समझते हैं वैसी ही धारणा बना लेते हैं अगले के बारे में।
है कि नहीं ?

Wednesday, April 20, 2022

गुडमार्निंग-सुप्रभात



सबेरे-सबेरे मोबाइल खोलते ही कई गुडमार्निंग संदेशे दिखते हैं। कई बार तो भड़भड़ाकर एक के बाद एक के ऊपर एक ऐसे गिरते हैं जैसे मुम्बई की लोकल से यात्री उतरते होंगे। वो तो कहो अलग-अलग खाते से आते हैं, वरना क्या पता एक के ऊपर गिरने से हाथ-पैर टूट जाये संदेशों के। अंग-भंग हो जाएं। सन्देश दिव्यांग हो जाएं।
कई तो ऐसे दोस्तों के सन्देश अगल-बगल , ऊपर-नीचे दिखते हैं जिनका आपस में अबोला है। अनबन है। कोई वजह नहीं लड़ाई की लेकिन आदतन लड़ाका हैं लिहाजा एक-दूसरे को फूटी क्या पूरी तरह ठीक आंखों से भी नहीं देखना चाहते। उनको पता चल जाए कि हमारे मोबाइल में उनके गुडमार्निंग मेसेज सटे-सटे रहते हैं तो वे 'मेसेज मिसाइल'से हमारा मोबाइल उड़ा दें। इस मामले में पूरे अमेरिका मूड के हैं वे- 'जो हमारे दुश्मन का दोस्त वो हमारा दुश्मन है।' एक दुश्मन के साथ एक दुश्मन फ्री। बाजारवाद पर आधारित है यह राष्ट्रवाद।
बात गुडमार्निंग की कर रहे थे।पहले सुबहें ऐसे ही हो जातीं थी। बिना गुडमार्निंग मेसेज के। पिछले कुछ सालों से सुबह बिना गुडमार्निंग मेसेज के होना बंद हो गया है। सुबह के जरूरी कामों में शुमार हो गया है , गुडमार्निंग मेसेज भेजना।
किसी से पूछो सुबह क्या हो रहा है? जबाब मिलेगा -'कुछ नहीं गुडमार्निंग मेसेज भेज रहे हैं।' मतलब सुबह के संदेश नहीं भेजेंगे तो बहुत कुछ छूट जाएगा।
अगर मोबाइल और नेट से गुडमार्निंग मेसेज की सुविधा खत्म हो जाये तो अनगिनत लोग दुखी हो जाएं। उनको समझ ही नहीं आएगा कि वे करें क्या?
एक रिपोर्ट में बताया गया है कि शुभकामना संदेश के चलते इंटरनेट ट्रैफिक जाम हो जाता है। अरबों बाइट इधर-उधर होते हैं शुभकामना संदेशों के। नए-नए मोबाइल हासिल करने वाले तो पूरी श्रद्धा से इस 'शुभकामना यज्ञ' में आहुति देते हैं।
मोबाइल और नेट ने दुनिया के बड़ी आबादी वाले देशों को निठल्ला बना दिया है। जिसे देखो वही 'मेसेज कुली' बना हुआ है। शुभकामनाएं इधर-उधर कर रहा है। व्हाट्सअप मेसेज से दिमाग खराब कर रहा है। मुझे तो लगता है मोबाइल और नेट बड़ी आबादी वाले , विकासशील देशों के खिलाफ साजिश है विकसित देशों की। यहाँ हम लोग मोबाइल में डूबे रहते हैं, वहां वे फुर्ती से आगे बढ़ जाते हैं।
हमको लगता है कि अगर आज के आज मोबाइल अपने देश में बंद हो जाये तो दफ्तरों और काम वाली जगहों में कम से कम 25% ज्यादा काम होने लगे। लड़ाई-झगड़े में कुछ कमी आ जाये। मोबाइल और नेट अफवाह के सबसे तेज कूरियर एजेंट हैं। पलक झपकते एक की घृणा हजार लोगों तक डिलीवर कर देते हैं बिना किसी खर्चे के।
बात सुबह के संदेशे की हो रही थी। हम भी कहां पहुंच गए। सुबह के सन्देश के बहाने ऐसे-ऐसे खूबसूरत संदेशे आते हैं कि मन खुश हो जाता है। इतना उत्साह कि लगता है कि बस दुनिया उलट-पलट कर दें अपने काम-काज से। लेकिन जब तक शुरू करें , तब तक अगला मेसेज पढ़ने लगते हैं, दुनिया जस की तस रह जाती है।
सुबह-सुबह हम भी कहां की कहानी सुनाने लगे। आपको उलझा लिया। आपको तमाम गुडमार्निंग भेजने होंगे। जो आये होंगे, उनके जबाब देने होंगे। कर लीजिए लेन-देन। हम तो कर चुके जो करना था। कुछ और था नहीं करने को यहां आ गए। चलें अभी-अभी एक और गुडमार्निंग मेसेज आया है, उसका जबाब लिखना है।

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Saturday, April 16, 2022

किताबों के बहाने



आजकल अपने पास मौजूद किताबों की लिस्ट बना रहे हैं। कल तक 274 किताबें हो गईं। अभी तक जिनकी लिस्ट बनी उनमें कुल पेज हैं 68345 कीमत 54184 रुपये। मतलब एक पेज की कीमत लगभग 79 पैसे। इन किताबों में से 74 किताबें भेंट में मिली हैं। मतलब कुल किताबों का 27% मुफ्त में मिला है। भेंट में मिली किताबो की कीमत है 14099 रुपये और उनमें कुल 14626 पेज हैं यानि कि भेंट में मिली किताबों का प्रति पेज दाम है लगभग 96 पैसे प्रति पेज। इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि भेंट में मिली किताबों की कीमत कुल किताबों की कीमत से 22% अधिक है।
भेंट में मिली किताबों के औसत दाम अधिक होने का कारण यह कि अधिकतर भेंट वाली किताबें पिछले पांच-सात साल की हैं। जबकि हमारे पास जो किताबें हैं वे काफी पुरानी हैं जब पेपरबैक किताबें दस रुपये तक में भी मिल जाती हैं।
भेंट में मिली किताब मतलब मुफ्त में मिली किताब। मुफ्त किताब की बात याद आते ही मुझे सरिता/मुक्ता में छपे विज्ञापन याद आते हैं -'क्या आप मांग कर खाते हैं, क्या आप मांगकर पहनते हैं? तो फिर आप मांगकर पढ़ते क्यों हैं?'
अपन किताबें आमतौर पर खरीदकर ही पढ़ते हैं। किताबें खरीदने का शौक एकमात्र शौक है अपना। इसके बावजूद 27% किताबें भेंट वाली हैं। कारण इसका यही कि मित्र लोग भेज देते हैं। ज्यादातर लेखकों ने खुद भेजी। यह सोचते हुए कि उनके बारे में लिखेंगे। लेकिन अफसोस यह कि उनमें से अधिकतर अनपढी या अधपढी ही हैं।
सबसे अधिक किताबें हमको हमारी दीदी Nirupma Ashok से भेंट में मिली। 1988 में 'ययाति' से शुरू हुआ यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। हर साल कोई न कोई किताब मिल जाती है।
किताबों की लिस्ट बनाते हुए उनमें पढ़ी/अधपढी/अनपढी की कैटेगरी भी बनाई। अधिकतर किताबें अधपढी की लिस्ट में हैं। हुआ ऐसा कि किताब पढ़ना शुरू किया फिर रुक गया। लगकर किताब पढ़कर पूरी करने का अभ्यास कम हो गया है। जबकि कभी पढ़ाई की गति अच्छी होती थी। सुरेंद्र वर्मा की 'मुझे चांद चाहिए' तथा गिरिराज किशोर जी की 'पहला गिरमिटिया' लगातार पढ़कर 3-4 में पूरी की थी। श्रीलाल शुक्ल जी की 'रागदरबारी' तो कालेज के दिनों में लगातार पढ़कर ही पूरी हुई थी।
अब पढ़ने की स्पीड कम हो गई है। किताबें कहती होंगी -'तुम बदल गए हो, अब मन लगाकर पढ़ते नहीं।' हम उनसे क्या कहें ? यह तो कह नहीं सकते -'मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग'। सच्चाई तो यह है कि किताबों से मोहब्बत बढ़ी है। लेकिन जताने का समय लगातार कम होता गया है।
मित्रों की किताबें पढ़कर उनके बारे में लिखने का मन है। तमाम लोगों से वादे भी किये हैं। मित्र लोगों से भेंट में किताबें लेने में इसीलिए संकोच भी होता है। लगता है उनका उधार बाकी है मेरे ऊपर जो तभी चुकेगा जब उस किताब को पढ़कर उसपर लिख लिया जाएगा।
दुनिया की तमाम बेहतरीन किताबें अभी पढ़ी जानी बाकी हैं। फिलहाल तो उतनी ही पढ़ लें जितनी अपने पास हैं। तमाम किताबें किसी की संस्तुति पर ली गईं लेकिन पढ़ नहीं पाए। 'कैच -22' की तारीफ ज्ञान चतुर्वेदी जी ने कई बार की। मंगा ली। शुरू की। लेकिन आधी ही पढ़ पाए। परसाई जी ने 'डान क्विकजोड' उपन्यास का जिक्र किया था किसी लेख में। कल वह उपन्यास भी मिला अधपढी किताबों के खाते में। 'Aunt Juliya and the scriptwriter' खरीदी Prabhat Ranjan की जोशी जी से बातचीत पढ़कर। वह भी आधी पर अटक गई। आज फिर निकाली है। जोशी जी की तो कई किताबें हैं, दुबारा पढ़ने को। जोशी जी मतलब मनोहर श्याम जोशी जी को पढ़ना तो अपने आप हो जाता है। बस किताब सामने दिख जाए।
मुझे लगता है कि किताबों को पढ़ने का सबस अच्छा समय बचपन और उसके बाद का समय होता है। जिसने पढ़ ली वह तर गया। बाद में पढ़ना मुश्किल भले न हो, पिछड़ बहुत जाता है। है कि नहीं।
लेकिन अब भी देर नहीं हुई। किताबें पढ़ने का कोई समय नहीं होता । जब मन आये शुरू हो जाएं। किताबें दुनिया के ख़ूबसूरत होने का एहसास दिलाती हैं। तमाम अलाय बलाय से बचाती हैं किताबें।

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Friday, April 15, 2022

बातन-बातन बतझड़ हुइगै



चौराहे के बाद अगल-बगल देखते हुए आगे बढ़े। एक जगह सड़क किनारे दो बच्चे साथ-साथ आते दिखे। बच्चे मतलब बच्ची-बच्चा। बच्ची बच्चे से कुछ बड़ी रही होगी। दोनों बहुत प्यार से बतियाते हुए आ रहे थे। बच्चा कुछ खा रहा था। मुझे लगा आइसक्रीम है। बच्चे जिस अंदाज में जा रहे थे वो बचपन की पक्की मोहब्बत वाली दोस्ती वाले दौर में लग रहे थे। बच्चा बेफिक्री से कुछ खाता हुआ, बच्ची तसल्ली से उसको देखते हुए, साथ जाती हुई।
उन बच्चों की फोटो लेने का मन हुआ। उनसे बतियाना शुरू किया। पूछा -'जगह कौन सी है? कहां जा रहे हो?' कहां जा रहे हो पूछते ही बच्चे थोड़ा असहज हो गए। लेकिन बच्ची ने मोर्चा संभाला। अनजाने बवाल का सामना करने के मामले में लड़कियां लड़कों से ज्यादा बहादुर होती हैं। बच्ची बोली-'स्कूल जा रहे हैं।' हमने पूछा -'इतवार है आज तो। आज कौन स्कूल खुला है?' बच्ची बोली-'खुला है स्कूल। अलिफ, बे पढ़ने जाते हैं।' हमने उनसे और बात करने और फोटो लेने की कोशिश की लेकिन वे भागकर एक बड़े अहाते में घुस गए। उनको लगा होगा ,-'ये बन्दा सही नहीं है।'
बच्चे के भागने से पहले पास से देखा तो पता चला नींबू चाट रहा था। जिसको हम आइसक्रीम समझे थे वह नींबू निकला। वो तो कहो पास से देख लिया वरना हम उसे आइसक्रीम ही समझते रहते।
समझने और देखने का यह फर्क होता है। अक्सर हम घटनाओं, लोगों, समाज के बारे में अपनी समझ से धारणाएं बनाते रहते हैं। जबकि असलियत हमारी समझ से अलग , बहुत अलग होती है।
आगे रोजा पावर प्लांट और उसकी कालोनी दिखी। थोड़ा और आगे जाकर फिर लौट लिए। शहर से करीब 13 किमी आ गये थे उस समय तक।
लौटते हुए एक चाय की दुकान पर चाय पी। राजू नाम है दुकान वाले का। ट्रक ड्राइवर थे। छह-सात साल पहले एक एक्सीडेंट में एक पैर कट गया था। तबसे चाय की गुमटी डाल ली। रिलायंस में सामान लाने वाले ट्रक ड्राइवर चाय पीते हैं। उनमें से ही एक ने ट्रक के एयरफिल्टर राजू को दे दिए जो दुकान पर लोगों के बैठने के लिए इस्तेमाल रखे हैं। राजू का नकली पैर वहीं बगल में रखा था। उन्होंने अपना कटा पैर , तहमद हटाकर दिखाया। कटे हुए पैर के निचले हिस्से को प्यार से सहलाया। फिर ढंक लिया।
अपनी दुकान के बारे में बताते हुए राजू ने कहा -'पैर कट जाने के बाद हमने सोचा यही अच्छा काम है। हमको कहीं बैठकर भीख मांगना अच्छा नहीं लगता। घटिया काम है वह। यहां तसल्ली से हैं।'
राजू की बेटी पढ़ाई करती है। हाईस्कूल में है।
राजू के साथ दुकान में बैठे अनिल ने तमाम किस्से सुनाए। पता चला उनके परिवार में खानदानी दुश्मनी के चक्कर में कई कत्ल और जेल के किस्से हुए। पड़ोस में बच्चों के कारण आपस में विवाद इतना बढ़ा कि पड़ोसी ने अनिल के घर के लोगों का कत्ल कर दिया। कुछ दिन बाद अनिल के चाचा ने बदले में पड़ोसियों के कत्ल किये। जेल रहे। उम्र कैद हुई। कुछ दिन पहले छूट के आये। 65 साल की उम्र में।
लड़ाई का कारण क्या था, जमीन-जायदाद या कोई और कारण। बताया कोई कारण नहीं। सिर्फ बच्चों की आपस की लड़ाई में बड़े भिड़ गए। कत्ल हो गये। फिर दुश्मनी खानदानी हो गयी। हमको आल्हा की लाइने याद आ गईं:
"बातन-बातन बतझड हुई गए
औ बातन में बाढ़ि गई रार। "
जरा-जरा सी बात पर खानदान तबाह हो जाते हैं। महाभारत हो जाता है।
दो चाय और एक बिस्कुट के पैसे हुए 25 रुपये। हमारे पास फुटकर सिर्फ 20 रुपये थे। बाकी 500 का नोट। राजू के पास फुटकर नहीं थे। लिहाजा 5 रुपये उधार करके आ गए।
लौटते में धूप तेज हो गयी थी। साइकिल चलाना भी मेहनती काम लगने लगा।
आसपास लोग अपने-अपने हिसाब से व्यस्त दिखे। एक मंदिर में लोग पूजा कर रहे थे। आरती हो रही थी। घण्टे-घड़ियाल बज रहे थे। कुछ महिलाएं , बच्चों के साथ थाली में पूजा , भोजन सामग्री लिए मंदिर की तरफ जाती दिखी।
वहीं पास ही एक गोबर के ढेर के पास दो महिलाएं कंडे पाथते दिखीं। आसपास से निर्लिप्त कंडे पाथती। आगे एक खूबसूरत लोहे के साइनबोर्ड के पिछवाड़े गोबर के कंडे सूखते दिखे। कंडे सूख रहे थे, साइनबोर्ड पता नहीं कैसा महसूस कर रहा हो।
जगह-जगह अरोरा जी से यौन रोगों से फौरन मुक्ति के विज्ञापन दीवारों की खूबसूरती बढ़ा रहे थे।
शहर पहुंचकर एक जगह चार-पाँच मजदूर एक मोटे प्लास्टिक के पाइप को सर पर लादे चले जा रहे थे -राम नाम सत्य है वाले अंदाज में। गोल घेरे वाले पाइप ने गली में घुसने से मना कर दिया। मजदूर लोग उसे नीचे रखकर खोलने लगे। अब सीधे होकर जाएगा पाइप।
वहीं बगल में कबाड़ी की दुकान पर एक मजदूर लोहे के एक ड्रम को पीट-पीटकर पिचका रहा था। बार-बार ड्रम पर चोट करते हुए उसे गोल से चपटा बना रहा था। हर चोट पर ड्रम पर लगी जंग ड्रम का साथ छोड़ती जा रही थी, जैसे चुनाव के समय कमजोर होती पार्टी से मतलबी नेता निकलकर दूसरी पार्टियों में चले जाते हैं। कठिन समय में साथ देने वाला ही सच्चा हितैषी होता है। जंग, पेंट और गन्दगी ड्रम के अस्थाई साथी थे। ड्रम पर पड़ी हर चोट के साथ विदा होते गए। ड्रम अपने लोहे के साथ पिचकता रहा।
मजदूर के हाथ में गड्ढे पड़ गए थे। बताया 300 रुपये रोज के मिलते हैं। न्यूनतम मजदूरी की बात क्या की जाए।
लौटते हुए कुछ बच्चे क्रिकेट खेलने जाते दिखे। जाते हुए, बतियाते, सेल्फ़ियाते, मस्तियाते।
बच्चों से बात की। बताया इतवार को खेलने जाते हैं। जीएफ कालेज में पढ़ते हैं।
हमने बच्चों की फोटो खींचने को कहा। खुशी-ख़ुशी तैयार हो गए। फोटो लेकर हम भी खुश हो गए। बच्चे देखकर खुश।
आप भी खुश हो जाइए। खुशी एक भाव है। मुफ्त है। कुछ लगता नहीं। महसूस करिये।
इस तरह इतवार की सैर पूरी हुई। साइकिलिंग हुई कुल जमा 26 किलोमीटर।

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Thursday, April 14, 2022

बुश बिल्कुल बांगड़ू नजर आता है

 "बुश बिल्कुल बांगड़ू नजर आता है, उसी की तरह बोलता और बिफरता है।"

कृष्ण बलदेव वैद जी की डायरी में 'बांगड़ू ' शब्द पढ़कर अपनी एक पोस्ट याद आई जिसमें मैंने बारात में दूल्हे की बात करते हुए 'बाँगड़ू' शब्द का प्रयोग किया था:
"बारात का केन्द्रीय तत्व तो दूल्हा होता है। जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार।कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स कोई वीरांगना हैं या कोई वीर ।पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव 'बांगड़ू कोलाज' चला आ रहा है। "
मजे के बात जिस समय मैंने यह शब्द प्रयोग किया था तब इसका ठीक-ठीक मतलब नहीं पता था। लेकिन यह अंदाज था कि इसका मतलब वही होता है जो मैं कहना चाहता हूँ।
29 जनवरी, 2003 को जब वैद जी ने डायरी में बुश के बारे में यह लिखा तब अगर उनको कोई बताता कि उनके बारे में एक लेखक की यह राय है तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होती ? शायद वो पूछते -' इसका मतलब क्या है?' मतलब बताए जाने पर शायद कहते -ऐसा है ? मैं ऐसा दिखता हूं? ग्रेट ! या इसी तरह की कोई बात ! क्या पता वे वैद जी के यहां कोई कार्रवाई करवा देते। 🙂
डायरी के अंश पढ़ते हुए वैद के मन की बातें पता चलती हैं। रोचक टिप्पणियाँ। कुछ अंश :
7-2-2003
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सेमिनारों का अपना एक संसार है -एक पूरा तंत्र। एक सेमीनार की कोख से दूसरा , दूसरे की कोख से तीसरा...... । मैं इस संसार से दूर हूँ।
21-2-2003
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पाली ने फोन पर बताया कि साहित्य अकादमी के हिन्दी पुरस्कार के लिए इस बार राजेश जोशी और मुझमें चुनाव था। अशोक, केदारनाथ सिंह और लीलाधर
जगूड़ी ज्यूरी में थे। अशोक ने मेरा पक्ष लिया, बाकी के दोनों ने राजेश जोशी का। यह सब पाली को 'आउटलुक' (हिन्दी) में प्रकाशित विमलकुमार की रिपोर्ट से मालूम हुआ।
2-3-2003
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गर्मी की धमकियाँ शुरू। देश का छकड़ा ढिचकूँ-ढिचकूँ। सब नेता थके-मांदे और बिके -चुके। अधिकतर के चेहरों पर चिकनी-चुपड़ी चालाकी। यह मैं किधर भटक गया। मुझे देश के नेताओं( और अभिनेताओं) से क्या लेना-देना। मुझे 'तड़पने' के लिए साहित्य के नेता(और अभिनेता) ही काफी हैं, खासतौर पर अब जब कोई काम नहीं कर पा रहा।
15-3-2003
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इराक अमरीकी सरकार के जुनून का शिकार बनकर रहेगा, बावजूद इस हकीकत के कि दुनिया भर की अक्सरियत इस हमले के खिलाफ है। तबाही होगी। इराक टूट-फूट जाएगा। सद्दाम हुसैन बच जाए या मार दिया जाए उस से कोई फरक नहीं पड़ेगा। दहसत-पसंदगी बढ़ जाएगी। इस्लामी कट्टरवाद बढ़ेगा, भारत-पाक झमेला और उलझेगा।
दिल्ली जी महदूद मिडल क्लास जिंदगी के बाहर भारत में भयंकर दुख है, दरिद्र है, बीमारियां हैं, बदसूरती है , अन्याय है जिसके बावजूद करोड़ों लोग जी रहे हैं , ऐसे जैसे सब अनिवार्य हो। दिल्ली के अंदर भी दुख कम नहीं।
मैंने अपने काम में गरीबी और दरिद्र और भूख को उकेरने की कई कोशिशें की हैं, लेकिन कोई बड़ा शाहकार अभी तक इस विषय पर नहीं लिख पाया।
19-3-2003
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इराक पर हमला होने वाला है। सद्दाम हुसैन अगर पागल है तो बुश काम पागल और खतरनाक नहीं ।
23-3 -2003
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इराक पर चल रहे हमले की जो तस्वीरें टीवी पर देखने को मिलती हैं उन से वहां हो रही हौलनाक तबाही की तसवीर सामने नहीं आती। लगता है जैसे आतिशबाजी हो रही हो, आकाश में होली खेली जा रही हो। कोई चीखोपुकार सुनाई नहीं देती, कोई दुख दिखाई नहीं देता, एक मनसूई सी रंगीनी , एक रंगीन खेल तमाशा।
01-04-2003
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इराक पर हमला जारी है। यह लड़ाई महीनों चलेगी। खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं होगी। अमरीकी सरकार नुकसान उठाएगी। इस्लामी कट्टरपन और दहशत पसंदगी को बढ़ावा मिलेगा।
पढ़ी जा रही है अभी तो डायरी ! आप क्या पढ़ रहे हैं ?

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Wednesday, April 13, 2022

ऑटो पर हिमालय



खन्नौत नदी के पुल से आगे बढ़कर दायें मुड़ गए। हरदोई की तरफ। सोचा थोड़ी देर और साइकिलियाया जाए। सुबह चकाचक खिली थी। धूप अभी तेज नहीं हुई थी। चलते गए आगे।
सड़क के दोनों छोर पर लोग अपने-अपने हिसाब से दिन शुरू कर चुके थे। कोई कुछ काम करता दिखा, कोई बतियाता हुआ। घरों के बाहर बैठे सड़क से गुजरते लोगों को देखते दिखे। कोई सिर्फ सामने से गुजरते लोगों को देख रहा था, हवाई अड्डे में चेकिंग करते हुए सामान के स्कैनर की तरह।
कोई-कोई लोग नजर की दायरे में आने से देखना शुरू करके तब तक देखते जब तक सड़क से गुजरता इंसान नजरों से ओझल न हो जाए। इससे अलग कुछ लोग ऐसे भी थे जिनकी सड़क से गुजरते लोगों में दिलचस्पी नहीं थी। वे आसामान ताक रहे थे। आसामान की कुछ बदलियाँ उनकी इस ताकाझाँकी से असहज होकर तेज चाल से दूर भागती दिखीं। उनको भागते देख बादल उनके पीछे लग लिए। वो तो कहो आसमान में एंटी रोमियो पुलिस बल नहीं है वरना बीच आसमान बादल को मुर्गा बनाकर बदली से बादल के हाथ में राखी बँधवाकर ही जाने देता दोनों को।
क्या पता आगे जाकर बदली, बादल के कान में फुसफुसा के कहती हो,’ वो देखो चबूतरे पर बैठा आदमी मुझे घूर रहा है। क्या पता इस पर बादल उससे कहता हो ,’ चिल यार, तुम हो ही इतनी खूबसूरत कि तुमको कोई भी देखते रहना चाहेगा।‘ बदली शायद मुस्कराते हुए उससे कहती हो –‘तुम बहुत बदमाश हो।‘
आगे एक पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर तमाम लोग बैठे बतियाते दिखे। चबूतरे के पास ही तमाम मिट्टी के बर्तन भी बिक रहे थे। सुराही , गमला , गुल्लक और दीगर बर्तन। आज के समय में जब सिक्के चलन से लगभग बाहर हो गए हैं। ऐसे में गुल्लक बनते और बिकते देख लगा कि एक ही समय में हम एक साथ कितने समयों में जी सकते हैं।
पेड़ के नीचे चबूतरे में बैठे लोगों को तसल्ली से बतियाते देखकर लगा कि आज के समय में नेट एडिक्शन से छुटकारे का उपाय यही है कि जगह-जगह पुलिया, चबूतरे बनवाए जाएं जहां बैठकर लोग आपस में बतियाएं। लेकिन बड़ी बात नहीं कि चबूतरे बनते ही लोग मांग करने लगे कि हर चबूतरे के पास मुफ़्त वाई-फ़ाई की व्यवस्था की जाए ताकि वहां बैठकर तसल्ली से सर्फिंग/चैटिंग की जा सके।
चबूतरे के बगल में ही एक गोशाला दिखी। बड़ी सी गोशाला में करीब सौ के करीब गायें होंगी। बताने वाले ने हालांकि पाँच सौ बताईं। अलग-अलग उम्र की गायें। शुरू में ही बच्चा गायें, आगे बड़ी, बुजुर्ग गायें। तमाम गायों की हड्डियाँ दिख रही थीं। इस तरह कि अगर जरूरत पढे तो बिना एक्सरे के साफ दिख जाएँ, गिनती हो सके। कुछ गायें दूध भी देती होंगी। कई दूधिये दूध के डब्बे/पीपे लिए अंदर आते दिखे। कुछ गायें अपने सुबह का नाश्ता करते दिखीं। नाश्ते में भूसा था। थान के बुफ़े सिस्टम में मुंह से मुंह से सटाये तसल्ली से चारा खाते हुए बछियों के चेहरों को देखकर लगा कि परमानन्द अगर कुछ होता है तो वह यही है जो इन गायों के चेहरों पर पसरा है।
गौशाला के आगे ही एक जगह , जंगले के अंदर कुछ लोग बैठे, बतकही में मशगूल थे। एक बाबाजी धुआँ उड़ाते दिखे। बाहर लिखा था – ‘समाधि श्री उदासी बाबा, राम बाग। ‘ उदासी बाबा के बारे में पहली बार सुना था। पहली नजर में लगा कि समाधि बाबा लोगों की उदासी दूर करते हों या फिर उदास रहते हों। वहाँ मौजूद लोगों से जानकारी ली तो पता चला कि मेरा सोचना गलत था। वहाँ मौजूद लोगों ने बताया कि –“उदासी बाबा नानक जी के पुत्र श्रीचंद के सेवक थे।“
आज जानकारी ली तो पता चला कि उदासी एक अलग संप्रदाय था-‘ सिख धर्म में गुरु नानक के बाद ही एक अलग संप्रदाय का निर्माण हो गया था, जिसका नाम था – उदासी मत। इसकी स्थापना उनके बेटे बाबा श्रीचंद ने ही की थी। सिख संप्रदाय में गृहस्थी व समाज में रह कर जीवन को पवित्र बनाने पर जोर था, जबकि ‘उदासी मत’ में संसार के पूर्ण त्याग पर बल दिया गया।‘
कुछ देर वहाँ रुककर हम आगे चल दिए। बाहर निकलकर देखा तो एक नया आया हुआ आदमी जेब से चिलम निकालकर कुछ धुआँ जैसा उड़ाने लगा। वहाँ मौजूद लोगों ने भी इसमें सहयोग दिया। उदासी दूर करने का हर एक का अपना-अपना अंदाज होता है।
आगे चौराहे पर एक ट्रैक्टर में तमाम लोग बैठे कहीं जा रहे थे। शायद राम नवमी के मौके पर कहीं पूजा करने जा रहे होने। ट्रैक्टर बीच सड़क पर कुछ देर खड़ा रहा। यातायात रुक गया। एक आदमी मोटरसाइकिल पर गैस सिलेंडर लिए ट्रैक्टर के निकलने का इंतजार करता रहा। ट्रैक्टर के मुड़ने , चलने और आगे बढ़ने को जिस अंदाज में वह देख रहा था उससे लगा कि उसकी स्टेअरिंग है जिसको सहारे वह ट्रैक्टर को नियंत्रित कर रहा है। ट्रैक्टर के निकलने के बाद मोटरसाइकिल वाला निकल लिया। हम भी आगे बढ़ गए।
सड़क किनारे एके झोपड़ी में चलती एक दुकान के बाहर खड़े आटो पर बर्फ की कुछ सिल्लियाँ लिए खड़ा था। भारती जी के निबंध , ठेले पर हिमालय की तर्ज पर, आटो पर हिमालय। बर्फ बेचने वाला बच्चा सूजे से छेद करके बर्फ के दुकड़े कर रहा था। एक छोटी सिल्ली के चौथाई हिस्से को दुकान वाले को सौंप दिया। छोटी सिल्ली के चौथाई हिस्से को पाव बताते हुए दाम भी बताए – ‘पौवा साठ।‘ मतलब चौथाई सिल्ली साथ रुपये की।
बर्फ वाला चौथाई सिल्ली के अलावा और भी बर्फ देना चाहता था दुकान वाले को। दुकान वाले ने माना किया। बर्फ वाले ने इस बुजदिली के लिए उसका उपहास टाइप किया। आह्वान किया किया कि बिजनेस में रिस्क लेना आना चाहिए। लेकिन दुकान वाला उसके झांसे में नहीं आया। आटो वाला आटो स्टार्ट करके अपनी बर्फ समेत आगे चल दिया। हम भी आगे निकल लिए !

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Monday, April 11, 2022

रमता जोगी बहता पानी

 


कल बहुत दिन बाद साइकिलिंग की। गद्दी पर हाथ मारा तो साइकिल फौरन तैयार हो गयी चलने को। कोई मनौना नहीं कि इत्ते दिन बाद चल रहे हैं तो आदत छूट गयी, हम न चलेंगे। यह सब इंसानों के चोंचले हैं।
कैंट रोड पर सुबह की चहल-पहल थी। कोई टहल रहा था, कोई आपस में बतिया रहा था। कोई अंगड़ाई ले रहा था। अंगड़ाई लेने का अंदाज ऐसा कि कविता याद आई -'ले अंगड़ाई उठ हिले धरा, करके विराट स्वर में निनाद।'
एक बेंच पर कुछ लोग एक-दूसरे पर कतार में खड़ी साइकिलों की तरह गिरकर सेल्फी ले रहे थे। उनको देखकर लगा 'सेल्फी ही सत्य' है। बगल की बेंच में बैठे एक जन मोबाइल में देखते हुए हंस रहे थे। शायद किसी से बतियाते हुए।
मैदान में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। चल-पहल थी चारो तरफ। मार्निंग वाकर की बेंच अलबत्ता खाली थी। कोई बैठा नहीं दिखा। शायद टहलकर चले गए थे।
लेकिन आगे बायीं तरफ एक जगह सुबह की सैर के साथी दिख गए, इंद्रजीत जी, डॉ त्रेहन, शुक्ला जी और अन्य साथी। एक हेल्थ कैम्प के पास मौजूद थे। एक अस्थायी गुमटी पर मेगा हैल्थ कैम्प लगा था। डायबिटीज जैसी कुछ जांच मुफ्त में होने का इंतजाम। मुफ्त शब्द देखते ही मुझे याद आया -'इस दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं है।'
सुबह के सैर के साथियों से हाल-चाल का आदान प्रदान हुआ जैसे मुलाकात होने पर लोग अपने विजिटिंग कार्ड की अदला-बदली होती है। फ़ोटो भी हुए। फोटो के बिना कोई मुलाकात मानी कहां जाती है।
आगे एक लड़का अपने कुत्ते को टहला रहा था। देखते-देखते दौड़ाने लगा। कुछ देर में जंजीर छूट गई। अब कुत्ता लड़के को दौड़ाने लगा। कुछ दूर के भागने के बाद कुत्ता रुक गया। एक बार पालतू हो जाने के बाद आजाद होने की इच्छा मर जाती है। कुत्ता और लड़का दोनों मिलकर हांफने लगे। हांफते हुए दोनों ने एक-दूसरे को देखा। ताज्जुब की बात लड़के ने कुत्ते के साथ सेल्फी नहीं ली। शायद कुत्ते को पसंद न हो।
पास से गुज़रते हुए देखा कुत्ते की पीठ अधगंजी थी। बाल कहीं-कहीं उड़े थे। शायद इसीलिए कुत्ते को फोटो लेना पसंद न हो।
फुटपाथ पर खड़ी एक ठेलिया बीच अचानक ढाल के सहारे सड़क की तरफ चलने लगी। आहिस्ते से सड़क पर उतरकर बीच सड़क तक आई। इसके बाद वापस पीछे लुढ़कते हुए फुटपाथ किनारे की नाली के सहारे टिककर खड़ी हो गयी। ठेलिया की चाल ढलान पर निभर थी। ढलान खत्म होते ही उसका चलना रुक गया। चलने के लिए दूसरे के भरोसे रहने वाले बहुत दूर नहीं जा पाते हैं।
इस बात को साहित्य पर लागू करते हुए Arvind Tiwari जी ने लिखा -“कुछ लोग साहित्य में ढलान के सहारे ही उतरे हैं ।”
आगे एक बन्दर सीधी चाल से सड़क पार करता दिखा। पूंछ को झंडे की तरह लहराते हुए शाही अंदाज में सड़क पार की उसने, बिना दाएं-बाएं देखे। गोया सड़क का खलीफा हो बन्दर। हम भी सम्मान में 'थम' हो गए।
गोविंद गंज क्रासिंग पर एक महिला आते-जाते लोगों से भीख मांग रही थी। सुनते हैं भीख मांगना अपराध है। लेकिन हर तरफ मांगने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। अकेले भीख मांगना गलत माना जाता हैं। लेकिन मांगना जायज कानूनन हक माना जाता है। संगठन की यही ताकत है। संगठित होकर किया अपराध, अपराध नहीं माना जाता। लूटपाट और हत्या अकेले किये जाने पर अपराध है। लेकिन संगठित होकर करने पर क्रांति कहलाई जाती है।
महिला के बगल ने बैठे दो बच्चे मोबाइल पर कोई पिक्चर देख रहे थे। आस-पास से, दीन-दुनिया से बेखबर।
क्रासिंग पार फल वाला अपनी ठेलिया सजा रहा था। दूसरी तरफ एक ऑटो वाला ड्राइविंग सीट पर बैठा इत्मीनान से बीड़ी पी रहा था। उसके बीड़ी पीने के बेफिक्र और निश्चित अंदाज को देखकर लगा मानो कोई बादशाह अपने तख्ते-ताउस पर बैठे तसल्ली से हुक्का गुड़गुड़ा रहा हो। लेकिन यह उपमा ठीक नहीं। बादशाहों को तसल्ली कहाँ हासिल होती है। उनको तो हर समय अपने तख्त के छिनने की चिंता लगी रहती होगी। जरा दी गफलत हुई कि छिन गयी सल्तनत। बादशाह सलामत से मरहूम बादशाह सलामत में तब्दील हो गए।
ऑटो वाले ने बताया कि पास से सवारी लेकर चर्च में छोड़नी है। इसके दो घण्टे बाद वापस घर छोड़ना है। कप्तान साहब के बगल की खाली पड़ी जमीन झोपड़ी डाल ली है। गुजर-बसर हो रही है।
आगे एक आदमी सड़क किनारे बैठा अखबार पढ़ रहा था। तसल्ली से एक-एक खबर को सूंघते-दिमागस्थ करते हुए। उसके बगल में एक छोटा बच्चा कुछ देर अखबार को बगल से देखता खड़ा रहा, फिर ऊबकर अंदर भाग गया।
जगह-जगह मिठाई की दुकानें गुलजार थीं। हर ठेलिया पर जलेबी छन रही थी। कुछ लोग खड़े होकर खा रहे थे, कुछ ले जा रहे थे। जलेबी बनाता , छानते लोग जिस तल्लीनता से अपने काम में लगे थे उसको देखकर लगा कि नवनिर्माण में जुटे हैं। मोटे कपड़े के छेद से कड़ाही में मैदे की छोटी सीढ़िया बनाकर उनको उलट-पुलटकर सेंकते और फिर चासनी में डुबाकर निकालते लोग। अद्भुत। अनिवर्चनीय।
बहादुरगंज के आगे बीच सड़क पर खड़े दो बुजुर्ग आपस में बतिया रहे थे। एक बुजुर्ग पटरे का जांघिया पहने उसके अगले, बीच के हिस्से को अनिर्वचनीय आनंद से खुजलाते हुए पैजामा पहने दूसरे बुजुर्ग से तसल्ली से बतिया रहे थे। दूसरे बुजुर्ग का जनेऊ उनकी बनियाइन से झांक रहा था, चुटिया कम बालों के बीच 'बालों के मन्त्रिमण्डल' की तरह अलग प्रभावी दिख रही थी। उनके ऊपर नीचे के दांत इस तरह टूटे थे, गोया एक दूसरे की शक्ल न देखने का प्रण लेकर निपट गए हों। ऊपर के दांत नीचे के मसूढ़े में और नीचे का दांत ऊपर के मसूढ़े में फिट, आलिंगनबद्ध। बीच में जो दांत आया, निपट गया।
तसल्ली से 'सड़क चैट' करते बुजुर्ग हमको देखकर चुप हो गए। हमने कुछ इधर-उधर के सवाल पूँछकर 'बुजुर्ग जोड़े' की फोटो लेनी चाही तो दोनों मनाकर खरामा-खरामा चल दिये। दो बुजुर्गों की तसल्ली पूर्ण बातचीत में हम बाधक बने।
घण्टाघर के आगे मंदिर के पास सड़क किनारे कुछ साधू दिखे। पता चला कि वे अयोध्या जी होकर आए हैं। आगे कहीं और जाने की योजना बना रहे हैं। कहां जाने का विचार है पूंछने पर 'साधु प्रवक्ता' ने बयान जारी किया -' सांप, साधु, सिर्री (पागल , सिरफिरा) का कोई ठिकाना नहीं होता' । मतलब कहीं भी जा सकते हैं। एक साधु ने बताया -' हरिद्वार जाने की सोच रहे हैं। कोई साथी मिल जाएगा तो चले जायेंगे।'
हमको याद आया -'रमता जोगी, बहता पानी, इसको कौन सके बिरमाय।
बातचीत करते साधुओं से निर्लिप्त और थोड़ा अलग टाइप बैठे साधु अपने में डूबे बीड़ी पीते , धुंआ उड़ाते चुपचाप बैठे थे। उनकी मुखमुद्रा देखकर लगा मानो चुनाव में हार गई पार्टी का कोई प्रमुख नेता 'पार्टी में रहे या सरकार बनाने वाली पार्टी में शामिल हो जाये' जैसे अहम मसले पर चिंतन कर रहा हो।
हम साधुओं से बतिया ही रहे थे कि एक लड़का अपने जबर कुत्ते को टहलाते हुए लाया और एक खम्बे के पास खड़ा कर दिया। कुत्ते ने टांग उठाकर खम्भे को सींचा। सिंचाई पूरी होते ही उसके चेहरे पर तसल्ली पसर गयी। 'इस सिंचाई अभियान' को देखकर लगा कि अगर सड़कों किनारे लगे खम्भे हटा लिए जाएं तो तमाम कुत्तों की किडनियां खराब हो जाएं। फिर क्या पता भविष्य में होने वाले चुनावों में आश्वासन दिए जाएं -'अगर हम चुनाव जीते तो आपके कुत्तों के लिए हर सौ मीटर पर एक खम्भा लगवाएंगे।'
चौक मोहल्ले में एक जगह फुटपाथ पर बैठे कुछ बुजुर्ग आपस में बतिया रहे थे। घर से बाहर बुजुर्ग मस्त होकर चुहल कर रहे थे।
देखते-देखते , पैडलियाते-पैडलियाते हम केरूगंज पहुंच गए। केरूगंज मतलब शहर की शुरुआत। थोड़ा बांए चले तो खन्नौत नदी का पुल। नदी किनारे तमाम धोबी कपड़े धो रहे थे। कपड़ों की गंदगी नदी को भेंट कर रहे थे। भैंसे 'रिवर बाथ' कर रहीं थी। सुअर किनारे रहकर पानी पी रहे थे।
नदी पार एक मकान पर डॉक्टर अरोरा का इश्तहार हल्ला मचाते हुए लगा था। इश्तहार में सेक्स मरीजों का आह्वान किया था तुरन्त मिलने के लिए। लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं दिखी, न कोई भीड़। कोई इलाज नहीं चाहता, बस बीमारी का रोना।
देखते-देखते सड़क पर से एक सवारी गुजरी। पुल हिलने लगा। हम सहम गए। फौरन साइकिल समेटी और आगे बढ़ गए।

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