आज सुबह टहलने निकले तो कैंट में सुरक्षा कर्मी चुस्टैद हैं दिखे। दो लोग बैरियर पर और दो पार्क में कुर्सियों पर बैठे। पास में टेंट। टेंट खुला सा था जैसे दीवार हटा दी गयी हो। हमने पूछा -'ये टेंट खुला क्यों है?' उन्होंने बताया-' गर्मी लगती है।'
तिराहे पर मेक इन इंडिया का टाइगर मुंह खोले खड़ा था। सीमेंट का बना। जब से बना है तब से मुंह खुला है। जबड़े दर्द करने लगे होंगे बेचारे के। लेकिन क्या करे? खड़ा है ऐसे ही जैसे बना था।
जयपुरिया स्कूल के आगे रेलवे क्रासिंग पर तैनात बच्चा मोबाइल में घुसा था। शायद 'स्पॉट माई ट्रेन' में आने वाली ट्रेन का हिसाब देख रहा था। क्रासिंग बन्द थी। एक रिक्शेवाला लड़का रिक्शे पर बैठे-बैठे झुककर क्रासिंग के नीचे से निकला। क्रासिंग थोड़ी ऊंची थी। नीची होती तो सर फट जाता।
क्रासिंग के पार लोग गड्ढा खोदकर काम में लगे थे। ओवरब्रिज बन रहा है क्रासिंग पर। तीन-चार खम्भे खड़े हो गए हैं। कुछ साल में ओवरब्रिज भी बन जायेगा। तब क्रासिंग पर बैठा लड़का कहीं और मोबाइल चलाएगा। रिक्शावाला लड़का बैटरी रिक्शा चलाने लगेगा या कुछ और करेगा।
तिराहे पर चाय की दुकान खुल गयी थी। आसपास के लोग वहां चाय पीते हुये बतिया रहे थे। एक लड़का सड़क पर घुमते हुए लाइव टाइप कुछ कर रहा था। मोबाइल सेल्फी मोड़ में हाथ में, कान में स्पीकर की लीड। हमने पूछा भी -'लाइव रिपोर्टिंग कर रहे हो?' उसने सुना नहीं होगा। लाइव रिपोर्टिंग करता रहा।
बगल में फुटपाथ पर तमाम लोग सोए हुए थे। फुटपाथ गरीब लोगों के रैनबसेरे हैं। एक रिक्शेवाला अपने रिक्शे पर चादर ओढ़े लम्बलेट था। बीच-बीच में कुनमुनाते हुए चादर ठीक करते हुए फिर तसल्ली से सोने लगता।
वहीं कानपुर लॉज का बोर्ड दिखा। ऊपर लिखा था -'ईस्थापित सं. 1940' । मन किया कहें -'ईस्थापित' नहीं बाबा -'स्थापित'। लेकिन सुनेगा कौन? कोई कहेगा -'कनपुरियों की वर्तनी कमजोर है।' लेकिन यह सोचा कि कोई कहेगा तो हम कहेंगे -'जब दुनिया में कहीं इलेक्ट्रॉनिक माध्यम नहीं था तब कानपुर में नेट चलता था। सन 1940 में इसका उद्घटान इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से हुआ था। इसीलिए ईस्थापित लिखा है।
बगल में दुर्गेश डेकोरेटर का बोर्ड लगा था। पता था घसियारी मंडी का। अब घसियारी मंडी कहाँ है यह पता नहीं मुझे। Anoop Shukla जी बताएंगे।
नुक्कड़ पर चाय की दुकान गुलजार थी। रिक्शेवाले अपने रिक्शे पर बैठे चाय पीते हुए सुबह की शुरुआत कर रहे थे।
एक हवा की दुकान पर एक पहिये की हवा भरवाने के दाम पांच रुपये लिखे थे। कभी चवन्नी में भरती थी हवा। आज चवन्नी के कहीं पता नहीं। एक रुपये के सिक्के तक को लोग लेने से मना कर देते हैं। बहुत बेइज्जती होती है चवन्नी और रुपये की।
चवन्नी से याद आया कि हमारे एक सीनियर किसी काम को मना करने का कारण बताते हुए कहते थे -'यार इस काम में मिलना एक चवन्नी नहीं। हमसे न करवाओ ये काम। हम न करेंगे इसे।'
आगे फुटपाथ पर एक लड़का अपनी पान-मसाले की गुमटी लगा रहा था। झोले से निकालकर पान मसाले के पाउच झालर की तरह सजा रहा था। पास ही रहता है।
उसी के बगल में एक आदमी फुटपाथ से अपना बिस्तर समेट रहा था। बिस्तर मतलब प्लास्टिक के बैनर जिसमें लिखा था -'धनतेरस और दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।' शुभकामनाओं के बैनर का बिस्तर बन गया। दुष्यंत जी की बात आगे बढ़ रही है:
न हो कमीज तो पावों से पेट ढंक लेंगे,
बहुत मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिए।'
सामने की फुटपाथ पर दो बुजुर्ग लेटे हुए अक्सर दिखते हैं। यहीं रहते हैं। आज बात की। पता चला दोनों भाई हैं। उम्र 70 और 75 । उम्र बताई छोटे भाई शिवप्रसाद ने। बड़े भाई ओमप्रकाश ने उसको कन्फर्म कर दिया। अब जो बता दी वही सही।
सालों से यहाँ रह रहे हैं। पिताजी लखनऊ में रहते थे। मकान था। सब बिक गया। यहां कई बहनें हैं। कई तरह के काम किये। रिक्शा चलाया, मजदूरी की और अब मांगकर गुजारा करते हैं।
'रिक्शा चलाते थे पहले। चोरी हो गया। फिर छोड़ दिया चलाना।' -छोटे भाई शिवप्रसाद ने बताया।
हमने कहा -'किराये पर भी तो मिलते हैं। ले लो।। चलाओ।'
'किराए वाले रिक्शे बेकार हैं। पुराने 2000 रुपये के मिलते हैं। नया 12000 का आता है।'-जानकारी दी शिवप्रसाद ने। रिक्शा चलाने में अब कोई दिलचस्पी नहीं शिवप्रसाद की। लेकिन वे रिक्शों के विशेषज्ञ की तरह रिक्शों के बारे में बताते रहे जैसे लिखना छोड़ चुका लेखक आलोचक बन जाता है।
वहीं बगल में रहने वाले एक आदमी ने इन भाइयों के बारे में बताया कि बहुत दिन से यहीं रहते हैं। सीधे हैं। छोटा भाई बड़े की सेवा करता रहता है।
खुद के बारे में भी बता दिया उन्होंने। बस्ती के रहने वाले हैं। 35 साल से यहीं रह रहे। कपड़े मंडी में काम करते हैं। दो बेटे पढ़ते हैं। बेटी की शादी हो गयी। जहाँ काम करते हैं उन मालिक ने रहने की जगह दे दी। परिवार के साथ रहते हैं। रहने की जगह पर तमाम सरिया और बिल्डिंग मैटेरियल रखा था। रहने की जगह देने के पीछे सामान की रखवाली का भाव भी होगा।
चलते समय शिवप्रसाद ने कुछ पैसे मांगे। हमारे टटोला दस-बीस रुपये हों तो दे दें। सौ का नोट मिला। मन नहीं हुआ सौ रुपये देने का। कहा लौट के आते।
आगे नार्थ स्टार अस्पताल के पास सन्नाटा। एक महिला अपने दो बच्चों को नहला कर कपड़े पहना रही थी। सड़क किनारे मोबाइल रिपेयर की गुमटियां दिखीं। लगभग सभी में मोबाइल के हर तरह के रिपेयर की बात लिखी थी। सुबह के समय सब दुकानें बन्द थीं। दस बजे के बाद गुलजार होता है -'मोबाइल रिपेयर बाजार।'
बगल की सड़क रेलवे स्टेशन की तरफ जाती है। लेकिन हम वापस लौट लिए।
हीर पैलेस के सामने नुक्कड़ पर चाय की दुकान खुली थी। फुटकर कराने की मंशा से हमने चाय पी। चाय के लिए आर्डर देने से पहले पूछा -'सौ के खुले हो जाएंगे?'
चाय पीते हुए लोग बतिया भी रहे थे। एक बोला -'मथुरा चले जाओ। मुफ्त प्रसाद मिल रहा है। खाना भी। अगला बोला -'एक दिन के लिए क्या जाना? और अब तो जन्माष्टमी हो गयी। अब थोड़ी मिलेगा मुफ्त।'
चाय पीते हुए एक ग्राहक ने चाय वाले से कहा -'जरा चाय पी के देखो तुम भी।'
चाय वाले ने पूछा -'का मीठी कम है?'
उसने बताया नहीं। बोला -'पीके देखो फिर बताना।'
उसने चाय पी नहीं लेकिन तय हुआ कि उसके हिसाब से चाय कम मीठी थी।
चाय वाले ने बिना शर्मिंदा हुए सफाई दी। कुछ लोग कहते हैं चीनी कम डालो। कुछ कहते हैं और मीठा करो। इसीलिए हम ज्यादा नहीं डालते चीनी। जिसको कम लगती है उसको अलग से दे देते हैं। वैसे भी चाय गरम होते, उबलते हुए शीरा हो जाती है।
चाय कम मीठी तो नहीं थी। बल्कि हमारे हिसाब से ज्यादा ही थी।
अगला चाय पीकर चला गया। तब चाय की दुकान के पास पड़ी कुर्सी पर बैठे बीड़ी धौंकते हुए आदमी ने कहा -'चाय में चीनी कम पीनी चाहिए।'
हमने उससे कहा-'चीनी तो कम पीनी चाहिए। लेकिन बीड़ी भी तो नहीं पीनी चाहिए।'
उसने बिना शर्मिंदा हुए कहा -'लोग तो सुबह बिना मुंह धोए दारू पीते हैं। हम तो बीड़ी ही पी रहे।'
चीनी कम से हमको मृदुल कपिल की किताब चीनी कितने चम्मच की याद आई।
यह कुछ ऐसा ही हुआ जैसे राजनीतिक दल अपने दल के किये पाप को दूसरे दल के बड़े पाप की आड़ में छिपाते हैं।
चाय वाले ने आपबीती बताई-'हम तो यहीं पैदा हुए, यहीं जिये, यहीं मरेगें। 35 साल हो गए दुकान चलाते। पिताजी बलराम गोंडा से आये थे।'
चाय की दुकान से वापस होकर उन भाइयों की तरफ गए। दस रुपये दिए शिवप्रसाद को। दो चाय के पैसे। बोले -'हमारी चाय दस रुपये की आती है। दस और देव।'
दिए हमने। पूछा भी -'जाड़े में और बरसात में कहां सोते हो? नहाते कितने दिन में हो।'
जहां जगह मिल जाती है वहीं सो लेते हैं। जब पानी का जुगाड़ हो जाता है- नहा लेते हैं। उनकी आवाज और अंदाज में कोई दैन्य भाव नहीं था। न कोई पलायन। जो है उसमें मस्त। जो टी शर्ट पहनी थी शिवप्रसाद ने उसमें लिखा था -skil india कौशल भारत कुशल भारत। स्किल इंडिया की टी शर्ट पहने बेफिक्री से मांगते हुए जिंदगी काट रहे हैं लोग।
क्रासिंग खुली थी। एक आदमी रेल की पटरी के बीच की मिट्टी निकाल रहा था। वहीं एक बच्चा और एक बुजुर्ग भी खड़ा था। बुजुर्ग बच्चे को याद कर रहा था। पहले कोयले के इंजन चलते थे। लोग गाड़ी खड़ी करके कोयला गिरा देते थे। लोग बटोर लेते थे। उससे खाना बनता था। अब वो इंजन बन्द हो गए। बिजली के चलने लगे।
बच्चा बिना किसी तवज्जो के सुन रहा था। मैंने पूछा-'कहाँ पढ़ते हो?'
बताया -'मरियमपुर स्कूल। क्लास टू में।'
गरीब, नङ्गे पांव बच्चे से पूछा -'एडमिशन किसने करवाया?'
'मम्मी ने।'
'मम्मी क्या करती हैं?'
'काम करती हैं। कानपुर क्लब में।' -बच्चे ने बताया।
हम कुछ और पूछे तब तक वहीं खड़े दूसरे आदमी ने जानकारी दी-'ये मनमौजी है। जब मन करता है स्कूल जाता है। जब नहीं करता नहीं जाता। बाप दारू पीता है।'
'अब नहीं पीते' -बच्चे ने बाप के बारे में जानकारी दी। स्कूल जाने न जाने के बारे में कुछ नहीं बोला बच्चा। अलबत्ता उसके खुले हुए हाथ अब उसकी गर्दन के दोनों ओर कैंची की तरह मुड़ गए थे। मानो अपने बारे में नकारात्मक बातें सुनकर बचाव मुद्रा में आ गया हो। उसके गर्दन के दोनों तरफ कैंची मुद्रा में हाथ देखकर फिल्मों के दृश्य याद आ गए जिनमें विलेन से अपनी इज्ज़त बचाने की कोशिश में महिलाएं अपने हाथ मोड़कर सीना ढंकते हुए बचने की कोशिश करती हैं।
हम वापस हो लिए। एक रिक्शेवाला रिक्शा चलाते हुए चाय पीता आता दिखा। एक बंदर लंगड़ाते हुए सड़क पर कर रहा था।
सूरज भाई आसमान में जलवा नशीन थे। पूरी कायनात में उनकी सरकार चल रही थी। मन किया उनसे पूछें कि क्या आपके यहाँ भी चुनाव होते हैं? क्या आपके यहाँ भी संसदीय समिति होती है?
लेकिन हमने पूछा नहीं। क्या पता वो बुरा मान जाएं यह सोचते हुए कि हम अपनी तुलना उनके यहां से कर रहे हैं।
आजकल जरा-जरा सी बात पर बुरा मानने का फैशन है। कौन, कब, किस बात का बुरा मान जाए कुछ कह नहीं सकते।
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