अरु वैली और बेताब घाटी से वापस आकर कुछ देर बाजार में टहलते रहे। दिल की धड़कन तेज हो जाती है, उसको काबू में रखने की दवा। रोज एक लेनी होती है। अगले दिन की दवा नहीं थी पास में। सोचा ले ली जाये।
पहलगाम में किसी दवा की दुकान पर दवा नहीं मिली। किसी ने कहा -'अस्पताल में देख लीजिए। शायद मिल जाये।'
डॉक्टर लोग महाराष्ट्र, गुजरात और देश के अन्य प्रदेशों से आये थे। अमरनाथ यात्रा के चलते उनकी ड्यूटी लगी थी। डॉक्टर लोग लोगों को देख रहे थे और दवाएं लिखते जा रहे थे। इलाज बताते जा रहे थे।
दवा न मिलने पर हम वापस आ गए। इस संकल्प के साथ कि अगले दिन श्रीनगर में सबसे पहला काम दवा लेने का करेंगे। एक संकल्प और लिया कि अब जब भी कभी बाहर जाएंगे तो पूरे यात्रा के समय की दवा पास में रखेंगे। यह दूसरा वाला संकल्प हालांकि पहले भी कई बार ले चुके हैं। लेकिन संकल्प लेना और उसपर अमल करना अलग बात है। कई संकल्प लिए जाते हैं और लेने के बाद भुला दिए जाते हैं। हम लोग संकल्प भुलाई में उस्ताद हैं।
शाम को लिड्डर नदी के किनारे बहुत देर ध्यान मुद्रा में बैठे रहे कि सूरज भाई फिर से विदा होते समय नदी में नहाते हुए जाएं। नदी को रंगबिरंगा करके जाएं। लेकिन शायद सूरज भाई का मूड कुछ अलग था। वे बिना नदी में उतरे विदा हो गए। नदी भी उनसे बेपरवाह इठलाती हुई बहती रही। नदी की जगह कोई शायर होता तो शेर भी पढ़ता:
तुम्हें गैरों से कब फुरसत, हम अपने गम से कब खाली,
चलो बस हो चुका मिलना,न तुम खाली न हम खाली।
लेकिन मुस्कराती बहती नदी ने ऐसा कुछ नहीं कहा। मस्त, मुस्कराती बहती रही। उसको सूरज से कोई शिकायत नहीं। सृजन रत लोग शिकायत बाजी में उलाहनों, शिकायतों में समय और ऊर्जा बर्बाद नहीं करते।
अगली सुबह फिर गए नदी किनारे तो अमरनाथ यात्रा के यात्री जा रहे थे। उनके लिए गाड़ी वाले लगे हुए। सवारियों को ले जाने के जाने के लिए उनसे बात कर रहे थे। कल जो हमको ले गए थे अरु घाटी और बेताब वैली वो ड्राइवर भी थे वहां। यात्रा के लिए लकड़ी बेंचने वाला भी था। चाय वाला अलबत्ता नदारद था।
नदी किनारे लोग फोटोशूट में लगे थे। सेल्फ़ी प्वाइंट पर और पहलगाम लिखे बोर्ड के पास लोग फ़ोटो खींच रहे थे। कुछ लोग रेलिंग पर भी पोजरत थे।
वहीं एक बुजुर्ग सन्त जोगिया कपड़े पहने मिले। पास की छुटकी चिलम भरकर पीने का इंतजाम कर रहे थे। बात करने लगे तो उन्होंने चिलम भरना स्थगित करके बात करना शुरू किया।
नागपुर जिले की नरखेड़ तहसील के नादा शिंदे गांव के रामदेव सालमे आदिवासी गोंड हैं। 57 की उम्र। अमरनाथ यात्रा पर 11 जुलाई को चले थे, 13 को जम्मू पहुंचे। उसके बाद आगे अमरनाथ यात्रा के लिए आगे बढ़े। सारी यात्रा सरकारी माध्यम से। ठहरना कैम्पो में जहां खाना-पीना मुफ्त है।
2005 से गृहस्थ साधु हो गए रामदेव। बढ़ई का काम करते हैं। गांव में मंदिर बनवाया है। उसी में पूजा पाठ करते हैं। गांव जंवार में लोग उनको मिस्त्री, जवाई , महाराज जी या फिर सलामे बोलते। रामदेव कोई नहीं कहता।
तीन बेटियां हैं एक बेटा। दो बेटियों की शादी कर दी। एक की करनी है। 20 साल की है लड़की। लड़का अमर 18 साल का है। पढ़ाई छोड़ दी उसने अब साथ में काम करता है। बँटाई में खेती भी। लड़का भी कोई नशा नहीं करता।खर्रा(दारू) तक नहीं पीता।
दामाद दोनों अच्छे हैं। कोई नशा नहीं करता। आजकल लड़कियों की शादी में लोग बिना दारू वाला लड़का खोजते हैं। जैसे ही लड़का मिलेगा, तीसरी लड़की की भी शादी कर देंगे।
2005 से लगातार अमरनाथ यात्रा में आ रहे हैं रामदेव। बीच में दो साल कोरोना के कारण नहीं आ पाए। अगले बार बेटे को भी लाएंगे। पत्नी को नहीं लाये। तमाम् झमेला। घर में आराम से हैं।
हमको खुशी हुई कि यात्रा में कोई तो मिला जो हमारी तरह अकेले निकला है।
11 जुलाई को घर से निकले रामदेव के पास कोई मोबाइल नहीं। इस बारे में पूछने पर उन्होंने मोबाइल के बारे में अपनी राय बताते हुए कहा -'मोबाइल में सब झूठे बाते करते। फालतू टाइम बेस्ट। खाने के टाइम मोबाइल, हगने के टाइम मोबाइल।'
रामदेव हाथ में चिलम लिए कसमसा रहे थे। चिलम भी उनकी हथेली में दबी सोच रही होगी -'आगे की यात्रा कहाँ रुक गयी। आग किधर है।'
रामदेव को उनकी चिलम के साथ छोड़कर हम आगे यात्रा कैम्प की तरफ गए। लंगर भी थे वहां। 12 कैम्प लंगर थे। उसकी व्यवस्था देखने के लिए अंदर जाने की कोशिश की। लेकिन काफी पूछताछ के बाद उन्होंने मना कर दिया।
मना करने के दौरान कैम्प की व्यवस्था के बारे में बताया वहां तैनात जवान ने। यह भी की यात्रा करनी है तो शुरू में आना चाहिए। बाद में बाबा बर्फानी भक्तों की भीड़ के चलते आकार में छोटे हो जाते हैं।
लौटते में फिर लिड्डर नदी को देखते हुए आये। सुबह सुबह नदी मन लगाकर प्रफुल्लित मुद्रा में बह रही थी।
https://www.facebook.com/share/p/emVzFwziMwZWhkXQ/
No comments:
Post a Comment