Sunday, August 28, 2022

लिफ़ाफ़े में कविता – एक रोचक उपन्यास



पिछले साल अरविन्द तिवारी जी का चौथा व्यंग्य उपन्यास आया – ‘लिफ़ाफ़े में कविता।‘ इसके पहले अरविन्द जी के तीन उपन्यास आ चुके हैं –‘दिया तले अंधेरा’, ‘हेड ऑफिस के गिरगिट’ और ‘शेष अगले अंक में’। ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ का इंतजार काफी दिनों से थे। ‘शेष अगले अंक में’ के बारे में लिखते हुए 23 नवंबर, 2016 को लिखा था मैंने:
“अरविन्द तिवारी जी को उनके इस बेहतरीन उपन्यास के लिए बधाई। अब उनके कवि सम्मेलनों पर केंद्रित अगले उपन्यास -'लिफ़ाफ़े में कविता' (नामकरण बजरिये -Alok Puranik आलोक पुराणिक) का इंतजार है।“
मतलब लगभग पाँच साल लग गए अरविन्द तिवारी जी को लिखा हुआ उपन्यास छपवाने में। प्रकाशक के यहाँ पड़ा रहा। कुछ कोरोना के चलते हुए और कुछ प्रकाशकीय उदासीनता। जब अरविन्द तिवारी जी जैसे ख्यातनाम लेखकों के साथ ऐसा होता है तो आम और अनाम लेखक के साथ कैसा होता होगा इसका कयास लगाया जा सकता है।
बहरहाल, उपन्यास आते ही इसको मंगाया गया। 192 पेज का यह उपन्यास आते ही पढ़ लिया गया। पहली पढ़ाई अक्टूबर, 2021 में हो गई थी। उपन्यास आए करीब छह महीने होने को आए, लेकिन लगता है अभी कल ही तो छपा है, कुछ दिन पहले ही तो पढ़ा है। समय कितनी जल्दी बीत जाता है, पता नहीं चलता।
पहली बार पढ़ने के बाद ही इस उपन्यास पर अपने विचार लिखने की मन किया लेकिन फिर टल गया। अब जब लिखने के मन किया तो लगा कि फिर से पढ़कर ही लिखा जाए। दुबारा पढ़ा। पढ़ते हुए फिर लगा कि गजब की रोचकता है इस उपन्यास में। वास्तव में रोचकता अरविन्द तिवारी जी के लेखन का प्राणतत्व है। जबसे उनसे परिचय हुआ, लगभग छह वर्ष हुए, तबसे उनके जो भी लेख छपे वे सब मैंने पढे हैं और पुराना लेखन भी पढ़ा है तो इसका कारण उनसे जुड़ाव के साथ-साथ उनके लेखन की सहज रोचकता है। सबसे अच्छी बात यह कि वे आज भी लेखन में निरंतर सक्रिय हैं।
अपने विपुल लेखन के कारण अरविन्द जी को सम्मान भी मिले लेकिन वही मिले जिनके लिए सिर्फ लेखन ही योग्यता होती है। व्यक्तिगत संबंध, मठबाजी, गुटबाजी और ‘तुम मुझे दिलाओ, मैं तुम्हें दिलाऊँ’ घराने वाले सम्मान उनको नहीं मिले तो इसका कारण मेरी समझ में अरविन्द जी का अकेले और शिविरहीन होना है। उनकी किताबें भी संयोग से ऐसे प्रकाशकों से आईं जिनमें से अधिकतर ने पहले संस्करण के बाद दूसरे छापे नहीं। अरविन्द जी की छोटे कस्बे में रहते हुए, आत्मप्रचार की तिकड़मों से अनजान न होने के बावजूद उनको आत्मसात करने में अक्षमता भी इसके पीछे कारण होगी।
अरविन्द तिवारी जी के व्यक्तित्व का खूबसूरत पहलू यह भी है कि वे नए से नए लेखक को न सिर्फ पढ़ते हैं वरन उनके लेखन पर अपनी बेबाक राय और उत्साहवर्धक टिप्पणियाँ भी करते रहते हैं।
अरविन्द तिवारी जी के नए उपन्यास के बारे में लिखने के पहले उनके बारे में यह लिखना कुछ ऐसा भी लग सकता है मानो हम उनका पहली बार परिचय कर रहा हों। कहा जा सकता है कि हिन्दी व्यंग्य से जुड़े लोगों के लिए उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। लेकिन ऐसा कहना भी सच नहीं है। मैं खुद ही अरविन्द तिवारी जी को छह साल पहले जानता नहीं था। हिन्दी व्यंग्य से जुड़े कुछ लोगों के लिए भगवान का दर्जा प्राप्त ज्ञान चतुर्वेदी जी के बारे में सेंट्रल रेलवे स्टेशन की सर्वोदय पुस्तक भंडार में किताबें देखते हुए एक बहुपाठी इंसान ने पूछा था –‘ये क्या लिखते हैं , कैसा लिखते हैं?’
बहरहाल बात फिर ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ की। अपने इस उपन्यास में अरविन्द तिवारी जी ने हिन्दी कवि सम्मेलनों के किस्से, राजनीति और स्थितियों की विषद चर्चा रोचक अंदाज में की है। अरविन्द तिवारी जी खुद मंच से जुड़े रहे हैं , इस लिए उनके अंदरूनी किस्से भी विस्तार से जानते हैं। कवि सम्मेलनों के अनुभव और दुनियादारी के अनुभवों के कल्पना के मिश्रण को रोचकता की चाशनी में लपेटकर पेश की गई है ‘लिफ़ाफ़े में कविता।‘ कुछ सच्चे अनुभव नाम और घटनास्थल बदलकर पेश किए गए हैं, जस का तस करने में कौन बवाल झेलता घूमें पेंशन वाली उम्र में।
कवि सम्मलेनों के फुटकर किस्से तो अनेक सुने थे लेकिन उन पर इस विस्तार से उपन्यास पहला पढ़ा। मुस्ताक अहमद युसूफ़ी के ‘खोया पानी’ का ‘धीरजगंज का मुशायरा’ वाला एक रोचक किस्सा जरूर पढ़ा था। इस उपन्यास पर लिखने के दौरान ही मैंने वह अंश फिर से पढ़ा।
उपन्यास की शुरुआत स्वयंभू युवा कवि परसादी लाल के बी.एस.सी. पार्ट वन के तीसरे साल में फेल होने से होती है। बालक परसादी की कुंडली शानदार बनाई थी पंडितों ने इस लिए लाड़ प्यार में पला। शुरुआती परिचय के बाद अरविन्द जी लिखते हैं :
“बेटा लाड़-प्यार की अतिरिक्त किस्तों को झोल नहीं पाया।“
लाड़-प्यार में पले बेटे ने हर क्लास को दो वर्षों में उत्तीर्ण होने का रिकार्ड बनाया तो पिता पन्नालाल डंडा लेकर उन पंडितों की ढूँढने लगे ,जिन्हें जन्मपत्री बनवाई की दक्षिणा में बीसियों हजार दिए थे।
कालांतर में विद्रोह करता है बेटा। भारतीय समाज में नौजवान विद्रोह करने के नाम पर प्रेम विवाह के अलावा सिर्फ एक ही काम करते हैं वह है अपनी मर्जी से रोजगार चुनना। प्रेम के किस्से उपन्यास में आने थे इसलिए परसादी लाल ने दूसरी वाली क्रांति को चुना और कवि बनने की घोषणा की। कवि बनने की घोषणा के पीछे उनकी मंच की गहरी समझ थी जिसे उन्होंने इस तरह व्यक्त किया:
“आज मंच का कवि लाखों रुपए कमा रहा है। उसका जीवन किसी रईस से कम नहीं है। मैं मंच का कवि हूँ , चार गीत लिखकर जीवन में करोड़ों रुपए कमाऊँगा।“
परिवार से विद्रोह के बाद परसादीलाल कस्बे के स्थापित हास्य कवि लोमड़ की तरफ गम्यमान हुए जो दस मिनट के काव्य पाठ के लिए पैंतालीस मिनट तक चुटकुला पाठ करने के लिए कुख्यात थे।
‘दस मिनट के काव्यपाठ के लिए पैंतालीस मिनट चुटकुला पाठ’ के बहाने अरविन्द तिवारी जी आज के कवि सम्मलेन मंच के हाल बयान करते हैं जहां वीर रस का कवि भी बिना चुटकुलों के नहीं जमता। आज के मंच का हाल तो यह है कि कवि वही जमता है जो बढ़िया चुटकुलेबाज हो।
लोमड़ कवि से मुलाकात के बाद मनुहार कवि के भी दीदार होते हैं जिनकी बीमारी हमेशा शातिर किस्म की होती। अखिल भारतीय स्तर के कवि सम्मेलन बिना जाने का नाम नहीं लेती।
‘लोमड़ कवि नहीं चाहते थे कि उनके बाल सखा परसादी लाल कवि सम्मलेन के धंधे में उतरें।‘ अरविन्द जी यह लिखने के बाद यह भी लिख सकते थे –“जिस तरह हिन्दी में उपन्यास लिखने वाले व्यंग्यकार नहीं चाहते कि कोई और उपन्यास लिखे या उसकी चर्चा हो और उनको पुरस्कृत किया जाए।“ लेकिन नहीं लिखा। यही उनकी ताकत है, यही उनकी कमजोरी है। वर्ना तो छोटे-बड़े लगभग हर तरह के सम्मान, पुरस्कार पर लगातार कब्जा करते रहने वाले भी स्यापा करते रहते हैं –“लोग हमारा विरोध करते हैं।“
परसादी लाल कालांतर में अपने बाल सखा लोमड़ कवि के जरिए कवि सम्मलेनों (और साहित्यिक सम्मानों ) के ‘गिव एवं टेक’ के शाश्वत नियम के सहारे ज्वलंत जगतपुरिया के रूप में लांच किए गए।
लोमड़ कवि द्वारा लांच किए जाने के बाद ज्वलंत जयपुरिया ने जिला मुख्यालय के ओज कवि अंगद की संगत में कवि सम्मलेनों के मूल मंत्र - ‘मंचीय कवि के लिए सबसे बड़ा पैसा होता है’ और ‘पिटाई से कवि लोकप्रिय होता है’ सीखे ।
कवि अंगद की संक्षिप्त नाराजगी को अंग्रेजी शराब के सहारे दूर करके ज्वलंत जयपुरिया मध्य प्रदेश के कवि निर्निमेश जिन्होंने उनमें संभावनाएं देखकर उनको अपनी पुत्री के लिए पसंद कर लिया। कवि निर्निमेश की सांवले रंग की पुत्री आभा ने गौरवर्णीय नवयुवक कवि ज्वलंत जयपुरिया को देखकर बता दिया –‘आपका चेला मुझे पसंद है। ‘
इसके बाद आभा अपने पिता के चेले को आधुनिक बनाने लगी। उनके बीच ‘स्त्री-पुरुष’ हुआ। शादी की बात चली। ज्वलंत जयपुरिया के पिता पन्नालाल ने मुनादी पिटवाई कि उनका लड़का आवारा और वेश्यागामी हो गया है। ज्वलंत जयपुरिया न चाहते हुए भी आभा के साथ ‘शादी गति’ को प्राप्त हुए। शादी होते ही अलगाव भी शुरू हो गया। अलगाव के कारण भी वही थे जो लगाव के थे –‘कवि जी को बेहतर विकल्प उपलब्ध थे और दोनों लोग एक-दूसरे के बारे में जो जानते थे वह आपस में कहने भी लगे थे।‘
कवि ज्वलंत जयपुरिया कालांतर में राज्य अकादमी के अध्यक्ष बने। उनके जलवे के साथ विरोध भी बढ़ा। उन्होंने अपने राज्य अकादमी अध्यक्ष के पद का समुचित उपयोग करते हुए अपने ससुर के गढ़ भोपाल में शानदार कार्यक्रम करवाया।
ज्वलंत जयपुरिया की शराबनोशी और अय्याशी के किस्से उजागर होने लगे। हिन्दी के माफिया ज्वलंत जयपुरिया से ईर्ष्या करने लगे। हिन्दी के एक डॉन भी अपने चेले का नाम पुरस्कार से कट जाने के कारण नाराज हुए।
उधर कवि निर्निमेश भी भोपाल कवि सम्मेलन के बाद अपने दामाद से खफा थे। पहले भी अपने दामाद की पिटाई करवाने में असफल हो चुके थे। अनंत: डॉन और कवि निर्निमेश की संयुक्त नाराजगी ने दिल्ली की कारगर्ल माधुरी के जरिए ज्वलंत जगतपुरिया का स्टिंग आपरेशन करवाया। माधुरी से बलात्कार के आरोप में कवि जेल गति को प्राप्त हुए। बाद में आभा से तलाक हुआ। मुआवजे में आगरे की कोठी देकर वे वापस अपने पुश्तैनी कस्बे जगतपुर में अपने बालसखा लोमड़ कवि, जिनकी नौकरी उनकी हरकतों के चलते छूट गई थी, के साथ मुंशी जी की दुकान पर चाय पीते पाए गए।
इस तरह अरविन्द तिवारी जी ने लिफ़ाफ़े में कविता के माध्यम से एक बार फिर साबित किया कि दुनिया गोल है।
सहज, सरल भाषा में कवि सम्मेलनों के माध्यमों से किस्सों के माध्यम से दुनियावी उठकपठक को रोचक अंदाज में पेश किया है लिफ़ाफ़े में कविता के माध्यम से। इसमें कवि सम्मलेन के संयोजक मनुहार जी की भैंसे खोलवा कर कवियों का भुगतान कराने का किस्सा है तो ओज कवि अब्दुल लतीफ़ ‘मक्कार’ के एक कविता के बाल पर उर्दू न आने के बावजूद राज्य उर्दू अकादमी का अध्यक्ष बन जाना भी है। कवियों की उखाड़-पछाड़ तो खैर है ही। हूटिंग, पीना-पिलाना तो खैर अब आम बात हुई कवि सम्मलेनों में लेकिन पिटाई कुछ ज्यादा ही करवाई अरविन्द जी ने कवियों की।
उपन्यास हालांकि काफी देर से आया लेकिन अच्छा छपा है। आकर्षक छपाई, बढ़िया कवर पेज और प्रूफ की गलतियों से रहित किताब को पढ़ना अच्छा अनुभव रहा।
अरविन्द तिवारी जी को उनके उपन्यास ‘लिफ़ाफ़े में कविता’ के लिए बधाई। आशा है जल्द ही उनका होटलों पर केंद्रित उपन्यास भी जल्द ही आएगा। फिलहाल तो उसके पूरा होने और नामकरण के बाद छपाई का इंतजार है।
पुस्तक का नाम : लिफाफे में कविता (व्यंग्य उपन्यास)
लेखक : अरविंद तिवारी
विधा – उपन्यास ; संस्करण – 2021 ;
पृष्ठ संख्या – 192 ; मूल्य – 400/- रुपए
प्रकाशक – प्रतिभा प्रतिष्ठान, 694- बी, चावड़ी बाजार, नई दिल्ली 110006

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