Wednesday, September 06, 2017

बाजार सबसे बड़ी विचारधारा है- आलोक पुराणिक




आलोक पुराणिक से सवाल-जबाब की अगली कड़ी में आज पेश हैं राजनीति और भाषा संबंधी प्रश्नों पर बातचीत। राजनीति के मामले में जहां उनका मानना है -"अब वह डिबेट ही अप्रासंगिक हो गयी है कि पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है। अब सवाल है पार्टनर तुम्हारी इकोनोमिक्स क्या है। " वहीं भाषा के सवाल पर उनका कहना है -"जहां भाषाई शुद्धता और व्यापक संवाद के बीच चुनना होगा मैं व्यापक संवाद चुनूंगा"। नये पुराने की बहस के बारे में आलोक पुराणिक फ़र्माते हैं- " हरेक को यह हक है कि वह खुद को महानतम घोषित कर दे, बस झगड़ा तब शुरु हो जाता है जब वह दूसरों से भी यह मनवाने पर तुल जाये कि उसे महानतम मान लिया जाये। "
यह तो हमने अपनी समझ में लब्बो-लुआब बताया। विस्तार से जानना हो तो आप खुद बांच लीजिये। सवाल-जबाब का सिलसिला शुरु होता है अब!
सवाल 1: व्यंग्य में राजनीतिक घटनाओं / चरित्रों के उपयोग को आप कितना जरूरी समझते हैं।
जवाब-राजनीति का मतलब सिर्फ नेतागिरी, सरकार की राजनीति या विपक्ष की राजनीति नहीं है। राजनीति टेलीकाम कंपनियां भी कर रही हैं और सास बहू के बीच भी हो रही है। पति पत्नी के बीच भी राजनीति है। राजनीति का अर्थ मैं व्यापक लेता हूं, सत्ता समीकरणों की उठापटक राजनीति है। मां बच्चे को कह रही है कि दूध पी ले, टीवी देखने दूंगी, यह भी राजनीति है और बच्चा कह रहा है लो एक रोटी ज्यादा खा ली, लाओ अब मोबाइल से खेलने दो। यह भी राजनीति है। राजनीतिक घटनाएं तात्कालिक हैं, पर उनके असर दीर्घजीवी हैं। व्यंग्यकार का काम उन दीर्घजीवी असरों की पड़ताल है। कुछ चरित्र राजनीति के इतने शाश्वत हैं कि वे शायद ही कभी ना जायें राजनीति से जैसे भजनलाल। कुल मिलाकर राजनीति हर सत्ता समीकरणों के बीच का खेल है, वो चाहे जिन पक्षों के बीच भी हो रहा हो। राजनीति समझे बगैर व्यंग्य नहीं किया जा सकता।

सवाल 2: इस मामले में परसाई जी और शरद जोशी जी के राजनीतिक व्यंग्य में क्या अंतर पाते हैं?
जवाब-परसाई बहुत साफ तौर कांग्रेस-लेफ्ट संधि के समर्थक थे इतने कि उनके यहां उस आपातकाल के प्रति भी समर्थन मिलता है, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे बड़ा हनन माना जा सकता। पर इससे परसाई का समग्र व्यंग्य छोटा नहीं हो जाता। शरद जोशी को आप कांग्रेस-लेफ्ट का नहीं मान सकते, आखिरी दिनों में वह वीपी सिंह के इतने समर्थक हुए कि वीपी सिंह के समर्थन में लिखे गये व्यंग्य उनकी प्रतिष्ठा में चार चांद नहीं लगाते। बहुत महीन बात यह देखें कि ना परसाई ना शरद जोशी आज अपने खालिस पार्टीगत राजनीतिक व्यंग्यों के लिए याद किये जाते हैं, परसाईजी याद आते हैं इंसपेक्टर मातादीन चांद पर जो दलगत राजनीति पर नहीं है, शरद जोशी याद आते हैं-सरकार का जादू के लिए, जो किसी भी सरकार पर लागू हो सकता है। तो तात्कालिक राजनीति से क्लासिक व्यंग्य नहीं आता। क्लासिक व्यंग्य आ रहा है राजनीति के परिप्रेक्ष्य को समझने से और उसके वृहत्तर संदर्भ समझने से।
सवाल 3. राजनीतिक व्यंग्यों में आमतौर वामपंथी और दक्षिण पंथी रुझान चलन में माना जाता है। श्रीलाल जी ने खुद को बीच सड़क पर थोड़ा बायें तरफ़ चलने वाले व्यंग्यकार के रूप में परिभाषित किया था। आप अपने को वैचारिक रूप से कहां पाते हैं?
जवाब-नब्बे में सब बदल गया है। जब तक सोवियत संघ डूबा नहीं ,था तब तक दो खेमे साफ थे। साम्यवादी रुस वाला दूसरा अमेरिका पूंजीवाद वाला। सोवियत संघ डूबा तो साम्यवादी कामकाज को लेकर गहरे सवाल खड़े हुए। आज पूरी दुनिया में किसी भी देश में एक भी साम्यवादी कामकाजी सरकार नहीं है, साम्यवाद की खाल ओढ़े हुए पूंजीवादी सरकारें सब तरफ हैं। चीन साम्यवादी नहीं खालिस पूंजीवादी देश है। पूंजीवाद से बदतर क्योंकि पूंजीवाद और लोकतंत्र की संधि के चलते जो छूट लोकतंत्र में मिल जाती हैं, वह चीन में नहीं है। देखिये नब्बे के दशक के अंत में सोवियत संघ के डूबने के साथ साम्यवादी राजनीति का खेल इस अर्थ में खत्म हुआ कि वहां लफ्फाजी तो मिल सकती है, पर समस्याओं के ठोस हल नहीं मिलते। और फिर शुरु होता है पाखंड, सिंगूर में किसानों को किसने मरवाया कौन सी सरकार थी-साम्यवादी सरकार ही थी। विदेशी निवेश के लिए लाइन साम्यवादी नेता भी लगा रहे हैं, और वो भी जो साम्यवादी नहीं हैं। दरअसल इतना कनफ्यूजन हो लिया है नब्बे के बाद कि आप साम्यवादी और राइट का बहुत ज्यादा फर्क नहीं दिखायी देता सिवाय तेवर बाजी के। साम्यवादी वही सब कर रहा है जो करने का आऱोप दक्षिणपंथी सरकारों पर लगाया जाता है। अभी आप देखें दलित राजनीति की आईकोन मायावतीजी फार्महाऊस वाली हैं, समाजवादी नेता लालू जी की बिटिया मीसा भारती फार्महाऊस वाली हैं, भाजपा के बड़े नेता फार्म हाऊस वाले हैं, कांग्रेस के नेता तो पुराने फार्महाऊस वाले हैं, साम्यवादी नेताओं की आर्थिक शुचिता पर सवाल नहीं उठा सकते। साम्यवादी नेताओं पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आऱोप सबसे कम लगे हैं, पर साम्यवाद अब दुनिया भर में खालिस लफ्फाजी करता है, कहीं भी एक ठोस कामकाजी सरकार का, कामकाजी व्यवस्था का विकल्प नहीं देता है। तो कुल मिलाकर साम्यवाद या साम्यवादी विमर्श एक नैतिक विमर्श के तौर पर भले ही मौजूद हो, पर एक ठोस कामकाज राजनीतिक व्यवस्था देने की शक्ति इसकी जाती रही। भारतीय संदर्भों में जो बात राम मनोहर लोहिया कहते हैं, उसका आशय है कि कम्युनिस्ट कीड़ा कांग्रेसी कूड़े पर पलता है। गहरे निहितार्थ हैं इसके। कांग्रेस के श्रेष्ठ प्रवक्ता सीता राम येचुरी साम्यवादी हैं। सोवियत संघ डूबने के बाद आप गहराई से देखें, बाजार अपने आप में विचारधारा हो लिया है। मैं आपको थोड़ा और गहराई में उतर कर बताऊं साम्यवादी नेताओं के ब्रांड और दक्षिणपंथी नेताओं के ब्रांड एक जैसे होते हैं। अभी कुछ दिनों पहले एक साम्यवादी सांसद को उसकी पार्टी ने डपटा कि तुम एप्पल फोन को शो आफ करते हो, तो उसका जवाब था कि यह मेरा व्यक्तिगत मामला है। बाजार अपने आप में एक बड़ी विचारधारा के तौर पर नब्बे के दशक के बाद उभर गया है। अब वह डिबेट ही अप्रासंगिक हो गयी है कि पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है। अब सवाल है पार्टनर तुम्हारी इकोनोमिक्स क्या है। दिल्ली में मैं ऐसे कई साम्यवादी प्रोफेसरों को जानता हूं जो हर ब्रांड अमेरिका का यूज करते हैं और बताते हैं कि कैलिफोर्निया में रहा बेटा दे गया। साम्यवाद की भूमिका अब भारतीय संदर्भों में या विश्व संदर्भ में यह रह गयी है कि वो तमाम हालात का एक पक्ष प्रस्तुत करती है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। जैसे ऐसे कई श्रमिक संघर्ष हैं, जिनकी जानकारी आपको सीपीआईएम के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी में ही मिलती है, और कोई उन्हे कवर नहीं कर रहा है। वो संघर्ष महत्वपूर्ण हैं। उनके बारे में सबको जानना चाहिए। तो बतौर व्यंग्यकार मेरी नजर सब तरफ है, पर अब मैं आंख खोलकर देखता हूं कि दिखता है कि बाजार सबसे बड़ी विचारधारा है, जो सारी विचाराधाराओं को धीमे धीमे खुद में समाहित कर रही है। सरकार से कई मामलों में ज्यादा असरदार बाजार साबित हो रहा है। तो बाजार को समझना, उसके छद्म को समझना, यह बहुत जरुरी है व्यंग्यकार के लिए। मैं ना लेफ्ट ना राइट खुद को बाजार के खेल समझने कोशिश में पाता हूं।
सवाल 4. आपके एक पाठक ने आपसे मोहभंग की शिकायत करते हुये आपके दक्षिणपंथी होते जाने की शिकायत की है। पाठकों के इस उलाहने पर आपका क्या कहना है?
जवाब-बतौर व्यंग्यकार मैं खुद की चेकिंग इस तरह से करता हूं कि हर सत्ता केंद्र को व्यंग्यकार से शिकायत होनी चाहिए, हर सत्ता केंद्र को। चाहे वो व्यंग्य के मठाधीश हों या कांग्रेस हो या भाजपा हो या साम्यवादी दल हों या एनजीओ हों। पाठक कहता है कि आप उतने मोदी विरोधी नहीं हैं, जितना आपको होना चाहिए था, आप उतने राहुल गांधी समर्थक नहीं हैं, जितना आपको होना चाहिए था। मतलब आप कुछ भी कर लें, कुछ भी लिख लें, हमेशा कुछ लोग आपको यह कहने वाले होंगे कि आप यह नहीं हैं, वह नहीं हैं, आप उतने ऐसे नहीं हैं, उतने वैसे नहीं हैं। यह विमर्श अंतहीन है। हर रचनाकार को अपना फैसला खुद को लेकर तय करना होता है कि उसे क्या करना है। हरेक के पास विकल्प है, किसी खास राजनीति का प्रवक्ता बनने का, किसी विचार का वाहक बनने का, हरेक विचार की खिंचाई का। मैंने पहले बताया कि मेरी कोशिश होती है मैं ना लेफ्ट ना राइट, बाजार का खेल समझ पाऊं। मुझे अपनी तरह से अपनी बात कहने का हक है, पाठकों को शिकायत का हक है।
सवाल 5. आपके कुछ पाठकों की यह भी शिकायत है कि आपके राजनीतिक व्यंग्यों में आपने तुलनात्मक रूप से कमजोर स्थिति पर पहुंच गये राजनीतिक चरित्रों पर व्यंग्य लिये हैं, उनकी खिंचाई की है। मजबूत सत्ता पक्ष की कमियों पर कम ध्यान दिया है। जो लोग व्यंग्य को सत्ता की कमजोरियों को उजागर करने का औजार मानते हैं उनके अनुसार एक व्यंग्यकार के रूप में यह आपकी पक्षधरता पर सवाल है। आपका इस बारे में क्या कहना है?
जवाब-जो लोग राजनीतिक दलों को ही सत्ता मानते हैं, उनकी सत्ता की समझ अलग तरह की है। मैं बाजार की सत्ता को सबसे बड़ी सत्ता मानता हूं। व्यक्तियों पर फोकस करेंगे, तो आफतें हो जाती हैं। नीतिश कुमार दो महीने पहले परम प्रगतिशील थे, फिर अब भाजपा के साथ आने पर उन्हे एक झटके में फासिस्ट कहना राजनीतिक अबोधता का परिणाम हो सकता है। खेल सत्ता के हैं, नीतिश 2019 में फिर प्रोग्रेसिव हो सकते हैं, नीतिश प्रोग्रेसिव या राष्ट्रवादी होने के लिए राजनीति नहीं कर रहे हैं, कुरसी कैसे बचे, उनके लिए यह सवाल महत्वपूर्ण है। हम राजनीतिक अबोधपने में राजनीतिक विश्लेषण मचाये रहते हैं कि वो समाजवादी, वो राष्ट्रवादी वो फासिस्ट, कोई कुछ नहीं है, कुरसी की मार है। सत्ता सिर्फ राजनीति में ही नहीं है, बाजार की अपनी सत्ता है। मुकेश अंबानी हर सत्ता में ताकतवर हैं, हर सत्ता में, नितीश कुमार से ज्यादा ताकतवर मुकेश अंबानी हैं। दरअसल मोदी से ज्यादा ताकतवर मुकेश अंबानी हैं। मुकेश अंबानी बाजार की सत्ता के प्रतीक हैं। अर्थशास्त्र का विद्यार्थी होने के नाते मुझे साफ दिखायी पड़ता है-बाजार की सत्ता को समझना और उसके छद्म को उजागर करना बहुत जरुरी है। व्यापक संदर्भों में सारी राजनीति बाजार का टूल दिखायी पड़ती है। मैं फिर बार बार वही कहना चाहूंगा- मेरी कोशिश होती है, ना लेफ्ट ना राइट, बाजार का खेल समझ पाऊं, बाजार में ही लेफ्ट भी समाहित है और राइट भी।
सवाल 6: राजनीतिक स्थितियों पर व्यंग्य तात्कालिक होने के कारण वे अल्पजीवी होती हैं - आपका इस धारणा पर क्या कहना है?
जवाब-राजनीतिक दलों पर राजनीति पर लिखे गये व्यंग्य अल्पजीवी ही होते हैं। दूर तक व्यंग्य वही जाते हैं, जिनमें व्यापक मानवीय सामाजिक संदर्भ हों। व्यंग्यकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि जो राजनीतिक घटना आज सबसे अहम दिखायी पड़ रही है, कुछ बरसों बाद वह फुटनोट के काबिल भी ना बचेगी।
सवाल 7: आपके अनेक फ़ार्मेट में बच्चे की निबन्ध डायरी वाले फ़ार्मेट से आपके खास लगाव का क्या कारण है?
जवाब-निबंध फार्मेट बहुत छूट देता है। कहानी छूट नहीं देती। निबंध फार्मेट में कई सारी बातें एक साथ ही कह सकते हैं। इसलिए मुझे यह बहुत प्रिय है। कहानी में एक ढांचा होता है, आपको उसको निभाना होता है। निबंध में इधर कूद फांदकर फिर मुद्दे पर आ सकते हैं।
सवाल 8. आपके कुछ बहुत अजीज पाठकों नें आप पर भाषा से अतिशय खिलवाड़ करने वाला बताते हुये व्यंग्य की भाषा बिगाड़ने का श्रेय आपको दिया है। सोमवार को मंडे लिखने की आपकी अदा को भाषा को जबरियन तोड़ने-मोड़ने वाली आदत बताया है। इस पर आपका क्या कहना है?
जवाब-देखिये मुझे अपनी तरह की भाषा लिखने का हक है, पाठक को मुझ पर आरोप लगाने का हक है। कबीरदास को आलोचना में भाषा का डिक्टेटर बताया गया था। इससे कबीर के कहे का वजन कम नहीं हो जाता है। मैं क्या लिख रहा हूं वह महत्वपूर्ण है। भाषा के साथ प्रयोग करने का मेरा हक है, उसकी आलोचना का भी पाठक को हक है। पर मैंने जो भी किया, अपनी समझ से ठीक किया और आगे भी ऐसा ही या कुछ नया करुंगा। पाठकों ने मुझे पढ़ा आलोचना की, पर मैं आलोचना से डर कर कुछ भी नहीं बदलनेवाला हूं। मैं ठीक वही करुंगा, जो मुझे ठीक लगेगा। सबके ठीक अलग अलग हो सकते हैं। व्यंग्य में मैं संवाद के लिए आया हूं, भाषाई शुद्धता की रक्षा मेरा मूल काम नहीं है। जहां भाषाई शुद्धता और व्यापक संवाद के बीच चुनना होगा मैं व्यापक संवाद चुनूंगा। एकदम शुद्ध भाषा मुझे लिखना आता है, पर उसकी संवाद की क्षमताओं की सीमाओं का अहसास भी है मुझे। समाज शुद्धतावादी दायरों में नहीं चलता। भाषा बहती नदी होती है, उसमें बहुत कुछ बहता आता है। नदी यह नहीं कहती है ये नहीं आने दूंगी, वह नहीं आने दूंगी। मुझे लगता है कि चार-पांच सौ साल बाद इंगलिश हिंदी की एक बोली हो जायेगी। तोड़ना मरोड़ना, नये शब्द रचना, यह सब बदस्तूर चलेगा।
सवाल 9: भाषा में आपके तरह-तरह के प्रयोग क्या नयी पीढी तक अधिक से अधिक पहुंचने की कोशिश का भी नतीजा है?
जवाब-नया नया कुछ होना चाहिए। नयी पीढ़ी तक पहुंचना मेरे लिए बहुत ही जरुरी है। मैं क्या हर लिखनेवाला चाहेगा कि उसका पाठक हर वर्ग में हो। भारत की कुल आबादी का पचास परसेंट पच्चीस साल से नीचे का है, तो जाहिर है बड़ा पाठक वर्ग युवाओं से ही आ रहा है।
सवाल 10: आपका सबसे बड़ा पाठक वर्ग आपको कौन लगता है? युवा, बुजुर्ग बालक वृन्द?
जवाब-बीस साल से लेकर पचास साल तक के आयुवर्ग में मुझे अपने पाठक सबसे ज्यादा मिलते हैं।
सवाल 11: आपको व्यंग्य लिखते हुये दो दशक करीब हुये। आज के दौर में व्यंग्य में ताजगी, पठनीयता की शिकायतें होती हैं। पुराने समय के लोगों की बातें करते हुये अक्सर लोग कहते पाये जाते हैं कि अब उस समय के बराबर अच्छा लेखन नहीं होता। इस बारे आपका क्या कहना है।
जवाब-देखिये यह सतत रोना है। रोने की अपनी पालिटिक्स है। पुराने नयों को खारिज नहीं करेंगे, तो पुरानों को पूछेगा कौन। नयों को खारिज करो कि घटिया लिखते हैं ये, फिर बढ़िया कौन लिखता है, जी वो तो हम लिख गये हैं सत्तर के दशक में साठ के दशक में। यह वर्चस्व की लड़ाई है। पुराने नये को स्वीकार करके अपना ठिकाना नहीं छोड़ना चाहते या उन नयों के लिए ही छोड़ना चाहते हैं, जो उनका झोला उठाते हैं। वक्त बदल जाता है, लोगों के फ्रेम नहीं बदलते। शिकायत नये लेखकों से है कि अच्छा नहीं लिखते और फिर पाठकों से है कि बताओ कितने खराब हैं कि हमारा लिखा नहीं पढ़ते। बदलते वक्त में वही चलेगा जो या तो क्लासिक हो या सामयिक हो। अधिकांश रुदनवादी वही हैं, जो क्लासिक जैसा कुछ रच नहीं पाये और सामयिक रह नहीं गये है। अप्रासंगिक हो जाने का खतरा रुदन, चीख-चिल्लाहट, फ्रस्ट्रेशन में निकलता है। अच्छा बुरा बहुत सब्जेक्टिव शब्द हैं। हरेक के अपने अच्छे बुरे हैं। हो सकते हैं। फिर अच्छे बुरे की कसौटी क्या है। मेरे लिए दो कसौटी हैं-एक तो समय की छलनी के पार जो भी कृति आयी है, उसमें कुछ तो होगा ही। दूसरी कसौटी यह है कि कितना व्यापक पाठक समुदाय किसके पास है। बाकी तो हरेक को यह हक है कि वह खुद को महानतम घोषित कर दे, बस झगड़ा तब शुरु हो जाता है जब वह दूसरों से भी यह मनवाने पर तुल जाये कि उसे महानतम मान लिया जाये। पुरानों ने जो कुछ श्रेष्ठ किया है, वह नयों को स्वीकार करना पड़ेगा, श्रीलाल शुक्ल, परसाई, शरद जोशी, ज्ञान चतुर्वेदी को कौन सा नया अस्वीकार कर सकता है। भाई काम है, ठोस काम है, क्लासिक काम है, मानना ही पड़ेगा। पुरानों में नये विषयों पर लिखने का श्रम करने का आलस्य है, नये लोग नये विषय पढ़ रहे हैं। आप ही शोध करके बतायें, वीआरएस, बाजार, सेलरी के नये पैकेज जनित तनाव, बाजार के बवालों पर हमारे अभी के बुजुर्गों में से ज्ञानजी के अलावा कौन काम कर रहा है। ज्ञानजी ने काम किया है, तो उनकी चमक अलग है। आप, एकाध अपवाद छोड़ दें, ज्ञानजी का सम्मान हर नया करता है। पर ज्ञानजी जैसे सम्मान के लिए ज्ञानजी जैसे काम करने पड़ते हैं। अनार्जित सम्मान देने को बिलकुल तैयार नहीं हैं नये लोग।
आलोक पुराणिक से हुई यह बातचीत आपको कैसी लगी इस पर अपनी राय बतायें। आपके भी कुछ सवाल हों तो निसंकोच पूछें। सवाल इनबॉक्स कर सकते हैं या फ़िर मुझे मेल करिये anupkidak@gmail.com पर।

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Monday, September 04, 2017

आलोक पुराणिक के पंच




आज फ़िर कुछ पंच आलोक पुराणिक के व्यंग्य संग्रह ’ मर्सीडीज घोड़े बनाम 800 सीसी घोड़े’
1. चैन स्नेचर युवकों, उचक्के युवकों के चारित्रिक पतन के लिए कोई पारिवारिक मजबूरी नहीं, गर्लफ्रेंड्स जिम्मेदार हैं।
2. सही ट्रांसफार्मरों में गूगल का इंटरेस्ट नहीं है। सही ट्रांसफार्मरों में बिजली विभाग के इंजीनियरों, अफसरों की दिलचस्पी भी नहीं और गूगल की भी नहीं। इस लिहाज उखर्रा के बिजली विभाग वाले और गूगल वाले एक सा सोचते हैं। ग्लोबल फिनामिना इसे ही कहते हैं।
3. पहले पुरानी हिंदी फिल्मों में विनम्रता, सौम्यता की प्रतिमूर्ति निरुपा राय की तरह बात करती थीं, अब एक झटके में राखी सावंत टाइप अंदाज में निपटाने का अंदाज होता है। गूगल यह भी नहीं बताता कि पुराने से अंदाज में बात करने वाली सुंदरियां कहां मिलेंगी।
4. गूगल पर काफी जानकारियां हैं, पर काम की जानकारियां कम हैं। गूगल से निवेदन है कि कुछ काम की जानकारियां उपलब्ध कराये। जैसे ऐसे टीचर कहां मिलेंगे जो बगैर ट्यूशन के पढ़ाते हों। ऐसे क्रिकेटर कहां मिलेंगे, जो सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट में मन लगाते हों।
5. 1947 के बाद से पैदा हुए भारतीयों ने सालों साल से एक खबर लगातार देखी है कि भारत और पाकिस्तान में वार्ता का दौर चालू है। सरकार ठप हो जाती हैं, पर दौर ठप नहीं होता। मसले जैसे के तैसे रखे रहते हैं। पर इधऱ वाले उधर जाते रहते हैं, उधर वाले इधर खाते रहते हैं। पता नहीं क्या बातें होती हैं।
6. जिस व्यक्ति को मोबाइल के संबंध में आवश्यक जानकारियां ना हों, उसे मोबाइल निरक्षर माना जाना चाहिए।
7. विवेकानंद कौन थे, इस बात की जानकारी युवा पीढ़ी को भले ही ना हो, बारह मेगा पिक्सल कैमरे का मतलब क्या है, यह वह जरुर जानती है। यह ज्ञान और साक्षरता के नये लेवल हैं।
8. पानीपत की तीसरी जंग किन किन पार्टियों के बीच हुई थी, यह सवाल नयी पीढ़ी के कई नौजवानों के लिए अप्रासंगिक है। प्रासंगिक सवाल यह है कि टाप टेलीकाम प्लेयरों के बीच जो जंग चल रही है, उसमें से कौन कौन से नये आफर निकल कर आ रहे हैं।
9. कई बुजुर्ग परस्पर ये सवाल पूछते हुए पाये जाते हैं कि वैसी वाली बैबसाइटों को देखा था, अब उनकी हिस्ट्री मोबाइल रिकार्ड में दर्ज हो गयी है। वैबसाइट्स तो अच्छी थीं, पर उनकी हिस्ट्री का दर्ज होना ठीक नहीं है। इस हिस्ट्री को कैसे मिटाया जाये।
10. एक शहर में एक सड़क उन पार्षद के नाम है, जो उस शहर में नगरमहापालिका के मेयर थे और अपने मेयर काल में करीब सत्तावन करोड़ का घपला किया। उनके चेले चांटे आज भी हर साल उनकी पुण्यतिथि पर बताते हैं कि नौजवानों को पार्षदजी के बताये हुए रास्ते पर चलना चाहिए।
11. दिल्ली में बहादुरशाह जफर मार्ग जितना लंबा है, उसकी एक दहाई जगह भी अगर बहादुर शाह को दिल्ली में नसीब हो गयी होती, तो फिर उन्हे रंगून में बुरा वक्त ना काटना पड़ता।
12. बड़े बड़े दुश्मनों को पछाड़ने वाला स्पाइरमैन अपनी कंपनी को, खुद बिकने से नहीं रोक पाया, काहे का हीरोजी। मंदी विकट दुश्मन है,स्पाइडरमैन का बूता नहीं है, उससे लड़ने का।
13. मंदी अच्छे अच्छों से उठाईगिरी भी करवा देती है।
14. पुराने टाइप की सुंदरियां बहुतै सीधी हुआ करती थीं। बाइक कार की जिद नहीं करती थीं। तांगे और रिक्शे पर भी चल निकलती थीं। पर नयी चाल की हीरोइनें रिक्शे और तांगे वाले की तरफ देखती भी नहीं हैं।
15. कंपलसरी झूठ बोलना हर हजबैंड के लिए जरुरी होगा। मतलब यह होगा कि हर हजबैंड कहेगा कि वह खाना बनाने जा रहा है, पर वह नहाने चला जायेगा।
16. अभी कुछ हजबैंडों को बतौर माडल बनाकर साफ्टवेयर बनाने का काम हो रहा है। कोई भी पत्नी नहीं चाहती कि उसका हजबैंड बिल क्लिंटन जैसा हो। उधर हर रीयल हजबैंड दिल में बिल क्लिंटन बनने का अरमान लिये घूम रहा है। कोई कंप्यूटरी हजबैंड अगर कभी क्लिंटन जैसा बन गया, तो उसका इलाज यह होगा कि उसके दिमाग में किसी बाबा का साफ्टवेयर डाल दिया जायेगा, तब वह सिर्फ ब्रह्मचर्य का महत्व बताने लगेगा।
17. योग और मार्निंग वाक से बंदा साठ सालों के बजाय पिच्चासी साल जीता है। इससे तरह तरह की समस्याएं पैदा होती हैं। जैसे पिच्चासी साल के बुजर्ग बताते हैं कि उन्होने पाँच रुपये किलो के हिसाब से असली घी खरीदा है। और एक रुपये के पच्चीस किलो बासमती चावल खरीदे हैं। दिलीप कुमार की फिल्मों का टिकट दो रुपये पच्चीस पैसे में मिलता था। सोना सौ रुपये का एक किलो मिलता था। अब ये सब सुनकर 85 वर्षीय बुजुर्ग पर गुस्सा आता है कि भईया सोना सौ रुपये किलो मिल रहा था, तो काहे नहीं खरीद लिए एकाध कुंतल। अब हम परेशान हुए घूम रहे हैं 30,000 रुपये में दस ग्राम भी नहीं आ रहा है। सिर्फ बताने भर के हैं बुजुर्ग हैं कि सौ रुपये किलो सोना था और सौ रुपये कुंतल चाँदी मिलती थी। इससे नयी पीढ़ी में बुजुर्गों के प्रति, पुरानी पीढ़ी के प्रति आक्रोश पनपता है।
18. सुबह चार बजे बुजुर्गवार उठते हैं, तो नयी पीढ़ी के उन नौजवानों को बहुत तकलीफ होती है, जो देर रात तक तरह तरह की वैबसाइटों पर भ्रमण करके सोते हैं। रात को तीन बजे नयी पीढ़ी सोती है और सुबह चार बजे दादाजी खटपट शुरु कर देते हैं कि चलो घूमने।
19. योग मार्निंग वाक से साठ के बजाय पिच्चासी साल अगर जी भी जाये, तो क्या यह देखने कि आईटीओ दिल्ली पर ट्रेफिक जाम इतना हो गया है कि लोग मंडे की नौकरी के लिए शनिवार रात को निकलते हैं, फिर भी आईटोओ में फंस जाते हैं। या इसलिए कि वह देखे आलू 5000 रुपये के दस ग्राम मिल रहे हैं। उसके बचपन में जो टमाटर खाने के काम आता था, उसके पिच्चासी सालों की उम्र तक पहुंचने पर वह टमाटर 10,000 रुपये में सिर्फ दस ग्राम मिलने लगा। ऐसे दुखद सीन देखने को बंदा जीवित ही क्यों रहे।
20. मुझे एक साथ हनुमान भक्त समूह और मल्लिकाजी के समूह से जोड़ दिया गया। बाद में मुझे पता लगा कि मैं दोनों समूहों में हूं। और मेरा आचरण यथोचित होना चाहिए।
21. पेपर के लीक होने का भारतीय शिक्षा पद्धति में बहुत महत्व है।
22. जिन नलों में पानी रेगुलर आना चाहिए, वहां महीनों महीनों पानी जरा सा भी लीक नहीं होता। पर पेपर धड़ाधड़ लीक हुए चले जाते है। इंजीनियरिंग के, डाक्टरी के, अफसरी के पेपर लीक हो जाते हैं।
23. सांप्रदायिक सौहार्द्र बढ़ाने के लिए पेपर लीकीकरण को प्रोत्साहन देना चाहिए। इस तरह की स्कीम बनायी जानी चाहिए, कि हिंदू मुसलिम सिख ईसाई सब मिलकर सामूहिक तौर पर पेपर खऱीदें। इस तरह से सांप्रदायिक सौहार्द्र की भावना प्रगाढ़ होती है।

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पंचबैंक


Nirmal Gupta के 'इस बहुरूपिया समय में' व्यंग्य संग्रह के इसी शीर्षक वाले लेख से।
1.यह समय बहुरूपियों का है। जिसके पास जितने अधिक मुखौटे और उन्हें समयानुसार ओढ़ने का सलीका है, वह उतना ही कामयाब दुनियादार है।
2.खांटी ईमानदार होना आत्महंता होने का पर्याय है।
3.गधा भी चाहता है कि जहां तक सम्भव हो उसकी मूरत घोड़े जैसी दिख जाये।
4.हमारे मुल्क की जनता सचमुच बड़ी भावुक है।वह ग़ुरबत में रहकर भी या तो किसी आकाशी चमत्कार का इंतजार करती है या अपने प्रारब्ध को कोसती है।
5.राजनेता वही अच्छा होता है जो अपना काम चाहे जैसा करे, जनता को उसकी कमियों के लिए समय असमय डांटता फटकारता रहे।

Sunday, September 03, 2017

आलोक पुराणिक के पंच



’आलोक पुराण’ की कड़ी में पेश हैं आज उनकी किताब ’ मर्सीडीज घोड़े बनाम 800 सीसी घोड़े’ के कुछ पंच मने चुनिंदा संवाद। इन किताब को और इसके अलावा भी दीगर लोगों को बांचते हुये लगा कि अपने समय के लेखकों को पढते हुये हम हड़बड़ी में रहते हैं। जिस तरह वे शुरुआत में ब्रांडेड हो गये उसी चश्मे से देखते रहते हैं उन्हें। लेखकों को तसल्ली से पढा जाना चाहिये। चाहे वे ,,,,,,, हों या ,,,,,,,कोई और। खाली जगह में आप किसी भी लेखक का नाम भर सकते हैं। अपना भी। 
फ़िलहाल आइये सीधे पंचबैंक पर:
1. पहले नकलची मेहनती होते थे, अब इतने आलसी हो लिये हैं कि सीधे गूगल सर्च से नकल कर रहे है।
2. व्यंग्यकार की जिन बातों को सीरियसली लिया जाना चाहिए, उन पर लोग हंसने लगते हैं।
3. नयी पीढ़ी की दिक्कतें बहुत हैं। तमाम तरह की लाइनों में लगकर इसकी संवेदनशीलता जाती रही है। एडमीशन के लाइन, बाहर निकलने के लिए लाइन, नौकरी के लिए लाइन, नौकरी से बाहर जाने के लिए लाइन। लाइन ही लाइन, मिल तो लें।
4. लेखक के जीवन के बहुत कष्टकारी क्षण होते हैं, वो, जब उसे किसी और को लेखक मानना पड़े। लेखक इसी खुशफहमी पे तो जीता है, जो है, वही है। बाकी सब लिक्खाड़ हो सकते हैं, पर लेखक नहीं।
5. कई लेखक बहुत स्मार्ट होते हैं, पहले ही अपनी किताब की भूमिका लिखकर लाते हैं और कहते हैं जी आप तो बस साइन कर दो। लिख तो हमने ली है, पर आपके नाम से ही जायेगी।
6. अपना इलाका छोड़ते ही आइटम या बंदा मशहूर हो लेता है। अपने इलाके में फेमस होने में दिक्कत होती है।
7. अपना इलाका छोड़ते ही बंदे में अपार साहस आ जाता है। जैसे दिल्ली में बेहद शरीफ माने जाने वाले लोग थाईलैंड जाते ही ऐसी ऐसी हरकतें करने लगते हैं कि परम लुच्चे तक शरमा जायें, उन्हे देखकर।
8. आजकल जो कैमरा दिखता है, वह मोबाइल फोन भी होता है। वह म्यूजिक प्लेयर भी होता है। वह एफएम रेडियो भी होता है। मतलब कैमरा कैमरा कम, और आइटम ज्यादा होता है। प्योर कैमरा तलाशना आजकल ऐसा ही मुश्किल काम है, जैसे सच्चरित्र नेता को तलाशना।
9. इंडिया में अगर पुल, हाईवे, सड़क की बात करो, तो वो भी नेता तक पहुंच जाती है। सारी राहें नेता की तरफ जाती हैं। नेता हर तरफ जाता है। सड़क से लेकर हवाई जहाज तक में खाता है। हर बात में नेता का जिक्र निकल ही आता है।
10. इंडिया में किसी विषय पर बोलने के लिए उसे जानना जरुरी नहीं है। जो ओलंपिक में कभी कोई खेल ना खेला हो, वह ओलंपिक समिति का अध्यक्ष बन जाता है।
11. प्रेम करना इधर बहुत हार्ड हो गया है, क्योंकि सौ रुपये का एक आईलवयू वैलंटाइन कार्ड हो गया है। वह चवन्नी का नहीं आता। चवन्नी का तो अब उसका लिफ़ाफ़ा भी नहीं आता। लकी थे वो प्रेमी, जो चवन्नी में काम निपटा कर चले गये। अब तो कोई लिमिट नहीं है ।
12. देश-भक्ति कायदे से की जाये, तो बहुत टनाटन रिजल्ट दे जाती है।
13. हमने अपने देश से प्रेम करना चाहिए। ऐसी बात अकसर कही जाती है। और पंद्रह अगस्त के आसपास तो बहुत जोर से कही जाती है।
14. सब अपनी मर्जी के देश तलाश लेते हैं और उनसे प्रेम करने लगते हैं। गली के लुच्चे लफंगे सुंदरियों को ही देश मानते हैं, और उनसे प्रेम दिखाते हैं, बदले में पिटाई खाते हैं। देश-प्रेम की राह कंटकों भरी है। सीधी राह नहीं है। इस राह में पिटाई है, जेल है।
15. कई नेतागण तमाम गैस एजेंसियों और पेट्रोल पंपों को देश मानते हैं और उनसे प्रेम करने में जुट जाते हैं। कई नेता अफसर किसी हाऊसिंग सोसायटी के फ्लैटों को देश मान लेते हैं, और उनसे प्रेम करने लगते हैं। कभी प्रेम सफल हो जाता है, कभी नाकाम भी हो जाता है।
16. नेता लोग शहर के बीचों बीच के प्लाट को देश समझते हैं और उससे प्रेम करने में जुट जाते हैं। पर जैसा कि कहा जाता है कि सच्चा प्रेम सीधा सादा नहीं होता। प्रेम में प्रतिद्वंद्वी आ जाते हैं। विरोधी पार्टी के नेता भी उसी प्लाट से प्रेम करने लग जाते हैं और दो रकीबों या दो प्रतिद्वंदियों में आपस में जंग छिड़ जाती है।
17. हर बंदा अपने हिसाब से देश को तलाश कर उससे प्रेम में जुट सकता है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि यह देश-प्रेम बहुत ही फ्लैक्सिबल होता है। फ्लैक्सिबल तो यूं रबड़ भी होती है, पर उसमें इतनी कमाई नहीं होती, जितनी देश-प्रेम में होती है। सारे सीनियर देश-प्रेमियों के खाते स्विस बैंक में होते हैं, सारे रबड़ कारोबारियों के खाते स्विस बैंक में नहीं होते।
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जब समस्या चरम पर हो तब समझो उसका समय पूरा हुआ

आज जरा तसल्ली से निकले टहलने। शुक्लागंज की तरफ जाने वाली सड़क पर कई रिक्शे वाले अपने रिक्शों का सिंगार कर रहे थे। उनको नहला-धुलाकर राजा बेटा बना रहे थे। एक रिक्शेवाले भाई बाल्टी में पानी भरे टायर को ब्रश से रगड़ रहे थे जैसे घोड़े की पीठ पर खरहरा चलाते हैं वैसे ही टायर का पेट और पीठ धो रहे थे।
'ठेका देशी शराब' खुला नहीं था लेकिन लोग बगलिया के घुसते और बोतल लेकर निकलते दिखे।
पुल की मुंडी पर जलती लाइट पुल के मुहाने पर जमा कूड़े पर फोकस किये थी। लाइट को शायद सूरज की रोशनी पर भरोसा नहीं था। इसीलिए जल रही थी।
पुल पर एक बुजुर्ग लोहे का दरवज्जा साइकिल के कैरियर पर लादे चले जा रहे थे। साईकल पर लदा दरवज्जा कभी दायें घूमता तो कभी बायें। साईकल दायें-बायें के दबाव में गठबंधन सरकार सी अस्थिर हो रही थी।कुछ देर हिल-डुल के बाद बुजुर्ग वार साइकिल से उतरकर पैदल हो गये। लोहे के दरवज्जे का हिलना-डुलना बन्द हो गया। इससे यह सीख मिली कि जब कभी आपके साथ के लोग आपको ज्यादा हिलाये-डुलायें तो पैदल हो जाना चाहिये। लोग शान्त हो जायेंगे।
गंगा का पानी उतर गया था। जिस जगह पर पिछले हफ़्ते पानी भरा था वहां जमीन निकल आई थी।बच्चे रेती में विकेट लगाये क्रिकेट खेल रहे थे। बाढ का पानी मानो सर्जिकल स्ट्राइक करके लौट गया था।
एक आदमी पुलिया पर बैठा बीड़ी सुलगा रहा था। हथेली को मुंह के पास ले जाकर बीड़ी सुलागते आदमी को देखकर ऐसा लगा मानो वह दियासलाई और बीड़ी के अकेले मिलने की जगह बना रहा हो। बीड़ी और दियासलाई अकेले में मिलते ही सुलगने लगे। दियासलाई भक्क से जलकर बीड़ी को सुलगाकर बुझ गई। बीड़ी देर तक सुलगती रही -शायद दियासलाई की याद में।
नुक्कड़ पर ही बैसवारा हेयर कटिंग सैलून दिखा। कल को कोई इस फ़ोटो को देखे और पढे निराला जी बैसवारे के रहने वाले थे तो यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि निराला जी का कटिंग सैलून चलता था।
गंगा तट पर जयफ़्रेंडसग्रुप के साथी बच्चों को पढाने में लगे थे। जब हम पहुंचे तो बच्चों को पीटी कराते हुये गिनती सिखा रहे थे गुरुजी लोग। बाद में कुछ देर तक बात हुई जयफ़्रेंड्सग्रुप के लोगों से। रचना लेखपाल का काम करती हैं गोरखपुर में। साथियों ने बताया कि वे वहां भी लोगों की सहायता करती रहती हैं। निशुल्क सेवा करते देखकर उनके साथ के कमाऊ साथी रचना को सिरफ़िरी बताते हैं। आज के समय सिरफ़िरे लोग ही कुछ अलग करने की कोशिश करते हैं।
गंगातट पर मछलियों को चारा खिलाने वाले और कुत्तों को ब्रेड खिलाने वाले अपने काम में लगे थे। पुल के नीचे साधु लोगों ने मंदिर बनाकर जगह पर कब्जा कर रखा था। अपने डेरे बना रखे थे। खड़ेश्वरी बाबा अपने डेरे से बाहर निहार रहे थे लोगों को। चाय वाले की दुकान धूप में पूरी तरह नहाकर पसीने-पसीने हो गयी थी। हमने कहा तो वे बोले- ’अब बस कम ही होनी है धूप।’
मतलब जब समस्या चरम पर हो तब समझो उसका समय पूरा हुआ।
लौटते में देखा एक जगह लोग पानी की पांच हजार लीटर की पानी की टंकी से लगे नलों से नहा रहे थे। पानी की टंकी के ऊपर सोलर पैनल लगा है। उसकी बैटरी सबमर्शिबल पम्प से जुड़ी है। उससे जमीन से पानी टंकी में चढता रहता है।
आने वाले समय में बड़ी बात नहीं कि हर आदमी अपनी पीठ पर सोलर पैनल बस्ते की तरह लादे घूमे। बड़ी बात तो यह भी नहीं आने वाले समय में दुनिया की तमाम मल्टीनेशनल कम्पनियां सूरज की रोशनी पर कब्जा किये अपने-अपने पैनल लगाये बिजली और रोशनी बेंच रही हों। पाउच में रोशनी बिके।
पुल के नीचे दो लोग पल्ली बिछाये हजामत बनाने के लिये बैठे थे। गुम्मा हेयर कटिंग सैलून की तर्ज पर ’पल्ली हेयर कटिंग सैलून’ या फ़िर ’मोमिया हेयर कटिंग सैलून’। बगल में एक बुजुर्गा अपनी खटिया पर मोमिया सिल रही थीं। मानों अपनी खटिया को झबला पहना रहीं हों। वहीं एक और बूढा माता सड़क किनारे अपने दरवज्जे पर बैठे गेंहूं फ़टक रहीं थीं। बीच-बीच में सड़क की तरफ़ भी देखती जा रही थीं। मतलब सब तरफ़ नजर थी।
लौटते में लोहे के पुल से आये। पुल की शुरुआत में ही मसाला बेंचती महिला साथ में चाय पीते आदमी से बतिया रही थी। पुल के बीच में एक आदमी गंगा की तरफ़ मुंह किये पुल से चिपका लेटा था। गंगा इस सब से बेखबर खरामा-खरामा बहती जा रही थीं। गंगा भी शायद इतवारी मूड में थीं। तसल्ली से बह रहीं थीं।

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पाखंड को समझना व्यंग्यकार का काम है - आलोक पुराणिक

आलोक पुराणिक के व्यंग्य लेखन में फ़िल्मों के जिक्र अक्सर रहते हैं। उनमें भी राखी सावंत, मल्लिका सेहरावत और सन्नी लियोनी फ़ुल जोरदारी से आती हैं आलोक पुराणिक के लेखों में। बाजार, फ़िल्म और लेखन के इसी तामझाम से जुड़े कुछ सवाल-जबाब बांचिये आलोक पुराणिक से:
सवाल1 : आपके लेखन में फिल्मों के जिक्र खूब रहते हैं। लगता है फिल्में खूब देखी बचपन में। पहली पिक्चर कब देखी? कौन सी देखी। कैसे देखी।
जवाब-फिल्मों की बहुत गंभीरता से लेता हूं बचपन से ही। अब भी लगभग हर फिल्म मैं देखता हूं, लगभग इसलिए कि कुछ फिल्में छूट जाती हैं। फिल्म कैमरे की अभिव्यक्ति है, कैमरे बहुत ही सशक्त माध्यम है अभिव्यक्ति का। मैं अब कैमरे को ज्यादा गंभीरता से लेने लगा हूं। खैर, पहली फिल्म जो मुझे याद है-वह है दो बूंद पानी- स्कूल से दिखाने ले गये थे, तब मैं पांच छह साल का रहा होऊंगा। पीतल की मेरी गागरी-यह गीत मेरी स्मृति में पहला फिल्मी गीत है। 1979 यानी जब मैं कक्षा मैं नौ में था, तब से फिल्में व्यवस्थित तौर पर देखीं। घर से कोई बंधन नहीं रहा। मैं आठ साल का था, तब पिता नहीं रहे, मां काम भर का भरोसा करती थीं कि चलो ठीक ही है लड़का, तो फिल्म देखने पर बंदिश नहीं थी। आगरा में महालक्ष्मी और बसंत सिनेमा टाकीज में मैंने सैकड़ों फिल्में देखी हैं। फिल्में बहुत जरुरी हैं हर उस व्यक्ति के लिए जो अपने वक्त के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीति को समझना चाहता है। रचनात्मक व्यक्ति के लिए फिल्में एक सबक हैं कि कैसे रचनात्मकता को तरह तरह से स्वर दिये जाते हैं। मैं तो कामर्स पढ़ाते वक्त, स्टाक बाजार पढ़ाते वक्त फिल्मों को सुझाता हूं कि ये ये फिल्में देख लेना। फिल्में अर्थशास्त्र भी बताती हैं पहले फिल्मों में उद्योगपति टैक्सटाइल मिल का मालिक होता था, फिर शाहरुख के जमाने से हीरो साफ्टवेयर इंजीनियर होने लगे। यह फिल्म नहीं अर्थशास्त्र का आख्यान है, साफ्टवेयर ने टेक्सटाइल को बहुत पहले पीट दिया है।
सवाल 2. यादगार पिक्चरें जिनको फिर फिर देखना चाहते हैं। किस कारण यादगार हैं?
जवाब-गाईड,मौसम, दीवार, शोले, परिंदे-सब अलग-अलग कारणों से। गाईड अपने वक्त से बहुत आगे की फिल्म थी और यह कामयाब हुई। संबंधों की जटिलता को अलग तरह से व्य़ाख्यायित करती है यह फिल्म। मौसम बिलकुल ही अलग विषय की फिल्म थी- बाप के सामने बेटी अपना तन परोस रही है, बाप को पता है, बेटी को नहीं पता कि यह उसका बाप है। कमलेश्वर और गुलजार की जोड़ी ही यह काम कर सकती थी, इतने संवेदनशील विषय को थोड़ा भी कम परिपक्व बंदा हाथ लगाता तो फिल्म छिछोरी हो जाती। दीवार अपने वक्त की आर्थिकी राजनीति को पेश करती है। ईमान से दो वक्त की रोटी मुश्किल है और बेईमान के लिए मुंबई का पूरा आकाश है। शोले तो खैर टैक्स्टबुक पिक्चर है, किस तरह से चरित्र गढ़े जाते हैं। किस तरह से डायलाग गढ़े जाते हैं। क्या है, जो लंबे समय तक दिलो-दिमाग पर छाया रहता है। परिंदे कम चर्चित फिल्म है-विधू विनोद चोपड़ा की, इसमें नाना पाटेकर का किरदार दिमाग पर छा जाता है। नदिया के पार -यह फिल्म में कई बार देख चुका हूं, और हमेशा देख सकता हूं। सहजता से बड़ी कामयाबी कैसे मिलती है, यह फिल्म बताती है। हालांकि राजश्री वालों ने लगभग इसी थीम पर बाद में कई फिल्में बनायीं, पर नदिया के पार की बात अलग है।
सवाल 3. पसंदीदा हीरो और हीरोइन कौन हैं? हिरोइन की किस अदा पर फिदा हैं?
जवाब-अमिताभ बच्चन का जो असर हमारी पीढ़ी पर है, वैसा असर किसी का किसी भी पीढ़ी पर ना होगा। 11-12 साल की उम्र से अमिताभ बच्चन की फिल्में देखना शुरु किया-डान, मुकद्दर का सिकंदर, सुहाग, सिलसिला-अमिताभ बच्चन अल्टीमेट हैं, उन जैसी वैरायटी किसी के पास नहीं है। उनकी आवाज, डायलाग डिलीवरी कमाल है। अभिनेत्री मुझे तब्बू बहुत शानदार लगीं, पर उन्हे फिल्म जगत में वह सब नहीं मिला, जिसकी वह हकदार थीं। कलाकार का नसीब भी एक बात होती है।
सवाल 4: आपके व्यंग्य लेखन में फिल्मों की जानकारी का कितना योगदान है।
जवाब-फिल्में अर्थशास्त्र समाजशास्त्र राजनीति को एक हद तक समझाती हैं, समाज की नब्ज पर हाथ रखती हैं। समाज के तापमान का एक हद तक पता फिल्मों से चलता है। इसलिए आप कह सकते हैं कि फिल्मों का मेरे रचनाजगत में महत्वपूर्ण योगदान है।
सवाल 5: कभी किसी व्यंग्य उपन्यास/ लेख पर फ़िल्म बनने की संभावना देखते हैं ?
जवाब-राग दरबारी का सीरियलीकरण होना शुरु हुआ था, पर वह ज्यादा हो नहीं पाया। राग दरबारी अपने आप में फिल्म या सीरियल का स्त्रोत है, ज्ञान चतुर्वेदीजी के काम पर कैमरा चलना शुरु हो गया है। अगर आप मेरे काम और कैमरे का रिश्ता पूछें तो कारपोरेट पंचतंत्र की कहानियां सीरियल का रुप ले सकती हैं।

सवाल 6: आपके लेखों में राखी सावंत, मल्लिका सहरावत और सन्नी लियोनी का जिक्र अक्सर आता है। इसका क्या कारण है?
जवाब-राखीजी, मल्लिकाजी और सन्नीजी के अभ्युदय के पीछे एक आर्थिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक परिवेश है, जो बदल रहा है। सन्नीजी आसमान से नहीं आ जाती हैं, वह तब आती हैं जब उनके लिए माहौल तैयार हो। सन्नीजी अभी केरल में गयी थीं, उनकी लोकप्रियता का वहां आलम यह था कि थोड़ी दूर चलना भी उनके लिए मुश्किल हो गया। अपने समाज का विद्यार्थी होने के नाते मेरी रुचि हर उस व्यक्तित्व में है, जिसकी बात समाज सुन रहा है या जिससे समाज किसी भी तरह से प्रभावित हो रहा है। सन्नीजी मूलत कनाडा में रहनेवाली ऐसी अभिनेत्री थीं कि जिनका एक संबंध भारत से भी रहा। अब वह भारत में सुपर स्टार हैं। बाबू आलोक नाथ के संस्कारी भारत में पूर्व पोर्न स्टार सन्नी लियोनी सुपर स्टार , यह विसंगति समझने के लिए सन्नीजी को समझना होगा। विसंगति पकड़ना व्यंग्यकार की ड्यूटी है। देखिये इंसान मूलत पाखंडी जीव है और भारतीय परम पाखंडी हैं, क्योंकि अतीत का महान विरासत का बोझ भी उन्हे ढोना है और नये जमाने की मौज भी उन्हे लेनी है। राम नामी चोला ओढ़कर सन्नी लियोनी की पोर्न फिल्म भी देखनी है। राम रहीम जैसे बलात्कारी बाबा ठीक इसी जमीन से उगते हैं। पाखंड को समझना व्यंग्यकार का काम है। सन्नी लियोनीजी धार्मिक बाबा राम रहीम से ज्यादा सम्मानित हैं। सन्नीजी का जिक्र बार-बार इसलिए होता है कि उनके बहाने इस समाज के पाखंड को उधेड़ना ज्यादा आसान हो जाता है।

सवाल 7-राखी सावंत और सन्नी लियोनी में तुलना करने को कहा जाए तो कैसे देखते इनको।
जवाब-वही जो लोकल और ग्लोबल का फर्क है। सन्नीजी की मार्केटिंग ज्यादा दुरुस्त है, वैसा ब्रांड राखीजी ना बना पायीं। राखीजी ब्रांडिंग, मार्केटिंग का वह असर नहीं समझ पायीं, जिसका इस्तेमाल सन्नीजी बखूबी बरसों से कर रही हैं।
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सवाल-जबाब के बारे में अपनी राय बताइये। आपको आलोक पुराणिक से कोई सवाल पूछने हों तो मुझे इनबॉक्स में भेजें या फ़िर मेल करें anupkidak@gmail.com
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Saturday, September 02, 2017

आलोक पुराणिक से बातचीत




आलोक पुराणिक हमारे समय के महत्वपूर्ण व्यंग्यकार हैं। हम तो उनको ’व्यंग्य के अखाड़े का सबसे तगड़ा पहलवान’ मानते हैं। लेकिन खलीफा लोगों द्वारा खुद को व्यंग्य का विनम्र सेवक बताने वाले अंदाज में दस किताबों का यह लेखक खुद को 'व्यंग्य का विद्यार्थी' ही बताता है।
सबसे तगड़ा पहलवान वाली बात पर तो आलोक पुराणिक ने एतराज नहीं किया। लेकिन जब हमने उनकों ’व्यंग्य बाबा’ की उपाधि देनी चाहिये तो उन्होंने तत्काल एतराज करते हुये खुद को ’व्यंग्य बाबा’ मानने से मना कर दिया। आज जब हरियाणा में बाबा राम रहीम की जो दशा हुई उससे लगा कि ये व्यंग्यकार अपने समय से कितने आगे देखता है।
आलोक पुराणिक सितम्बरी लाल हैं। 30 सितम्बर को 51 को हो लेंगे आलोक जी। हम उनके और उनके लेखन के काफ़ी लम्बे समय से प्रशंसक हैं। व्यंग्य में कई प्रयोग किये हैं आलोक पुराणिक ने। करते रहते हैं। हाल में ’फ़र्स्ट पोस्ट’ के एकलाइना आने लगे हैं। उनके पाठकों की संख्या काफ़ी है। मेरी समझ में आज के समय में सबसे अधिक पढे जाने वाले व्यंग्यकार हैं आलोक पुराणिक।
आलोक पुराणिक की सबसे अच्छी खूबियों में यह है कि वे बेफ़ालतू की बातों में समय बरबाद करने की बजाय लिखने-पढने के काम में लगे रहते हैं। दूसरों को भी सलाह देते रहते हैं ऐसी ही। उनका कहना है आगे बढने के लिये या तो ’वर्क चाहिये या फ़िर तगड़ा नेटवर्क’। आलोक पुराणिक नेटवर्क की बजाय वर्क पर भरोसा करते हैं।
ये तो हुई भूमिका टाइप। अब काम की बात यह कि आलोक पुराणिक के 51 वें जन्ममाह के अवसर पर मेरा विचार उनसे रोज विभिन्न मुद्दों पर सवाल करने का है। शुरुआत आज से कर रहे हैं। आप भी अगर कोई सवाल करना चाहें तो मुझे इनबॉक्स में भेजें या फ़िर ईमेल करें anupkidak@gmail.com पर। सवाल-जबाब के अलावा आलोक पुराणिक पर सितम्बर माह में नियमित लेखन की कोशिश भी जारी रहेगी। इनमें आलोक जी के ’व्यंग्य पंच’ होंगे, उनके बारे में लेख होंगे और उनकी खिंचाई भी होगी तारीफ़ के साथ। इसके अलावा इरादा तो इस सबको इकट्ठा करके किताब बनाने का भी है। कितना हो पाता है यह समय बतायेगा।
आज आलोक पुराणिक से जो सवाल हुये वो किताबों के बारे में। आप भी सवालों को मुलाहिजा फ़र्मायें।

1. सवाल: पढ़ने की शुरुआत कैसे हुई? सबसे पहले पढ़ी यादगार किताब/किताबें कौन हैं?
जवाब: मेरी नानी के यहां बहुत तरह की किताबें-पत्रिकाएं आती थीं। बहुत छोटेपन में यानी छह-सात साल की उम्र में ही उनके यहां चंदामामा, कल्याण, दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि पत्रिकाएं देखीं। आठ साल की उम्र में आगरा में एक स्वर्गीय हेमचंद्र जैन के परिवार से संपर्क में आया। हेमचंद्रजी लाइफ इंश्योरेंस कारपोरेशन में काम करते थे, उनकी व्यक्तिगत लाइब्रेरी जितनी दिव्य थी, वो मैंने दिल्ली में बड़े बड़े प्रोफेसरों और पत्रकारों के यहां भी नहीं देखी। उस दौर की हर पत्रिका, हर कामिक्स उनके यहां आती थी। वहां बहुत पढ़ाई की। नाच्यौ बहुत गोपाल-अमृतलाल नागर की बहुत कम उम्र में पंद्रह-सोलह में पढ़ ली थी। कमाल था यह उपन्यास। बीकाम में आते ही राग दरबारी-श्रीलाल शुक्ल पढ़ा। इसने बाकायदा जादू किया। पर तब मैं व्यंग्य लेखन से बहुत दूर था। व्यंग्य लेखन करुंगा कभी, तब तो यह भी ना सोचा था। आर्थिक पत्रकार, कामर्स से जुड़े काम-धंधे करुंगा, तब यही सोचता था।
2. सवाल: अभी तक कि पढ़ी बेहतरीन किताबें जो एकदम याद आयें वो कौन हैं।
जवाब : राग दरबारी-श्रीलाल शुक्ल, हम ना मरब-ज्ञान चतुर्वेदी, छावा-शिवाजी सावंत,वे दिन-निर्मल वर्मा, दीवाने गालिब, दीवाने मीर,नासिर काजमी और जौन एलिया-बिलकुल अलग ढंग के शायर हैं इनका काम। बैंकर टू दि पुअर-डा मुहम्मद युनुस।
3. सवाल: कौन सी किताबें न पढ़ पाए अब तक जिनको पढ़ने का मन है।
जवाब: ओशो का कहा सारा अब किताबों की शक्ल में है, वह पढ़ना है। राम मनोहर लोहिया की लिखी-बोली एक एक लाइन पढ़नी है। कार्ल मार्क्स का लिखा कहा एक एक शब्द पढ़ना है। सुशोभित शक्तावत की लिखा सब कुछ पढ़ना है। अमेरिकन निवेशक वारेन बूफे की आत्मकथा पढ़नी है। वैल्युएशन पर डाक्टर दामोदरन का लिखा सब कुछ पढ़ना है। बहुत पढ़ना है, पढ़ना ही है।
4. सवाल: हालिया पढ़ी गई और पढ़ी जा रही किताबों के नाम और खासियत।
जवाब: राममनोहर लोहिया के लोकसभा में दिये गये भाषण पढ़ रहा हूं, दूसरा खंड। कमाल बात करते थे लोहियाजी, मुल्क की वैसी गहरी समझ कम नेताओं में रही है। खुलकर पूरी दबंगई से वो लाल बहादुर शास्त्री को डपटते थे।वैसी हिम्मत और मेधा कम नेताओँ को नसीब हुई।
5. सवाल: अपनी पहली किताब के अलावा कौन किताब सबसे ज्यादा पसन्द है।
जवाब-कारपोरेट पंचतंत्र, नोट कीजिये मेरे जाने के बाद मेरी एकमात्र किताब यही होगी जो मेरे ना रहने के बहुत बाद तक रहेगी।
6. सवाल: किताबें पढने के लिए चुनते कैसे हैं?
जवाब-कामर्स का प्राध्यापक होने के नाते, आर्थिक पत्रकार होने के नाते, व्यंग्यकार होने के नाते, पढ़ने का दायरा बहुत व्यापक है। इतिहास से लेकर शेयर बाजार तक सब कुछ आ जाता है। कोई भी किताब जो कुछ नया कहती दिखती है, खरीद लेता हूं।
7. सवाल: पढ़ते कब, कैसे हैं। पढ़ने की स्पीड क्या है?
जवाब: जहां जब वक्त मिल जाये बैग में किताबें होती हैं हमेशा। स्पीड अच्छी खासी है। साल में मोटे तौर पर कम से कम आठ-दस किताबें तो कम से कम पढ़ ही लेता हूं, अलग अलग विषयों की।

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Friday, September 01, 2017

मोबाइल के अच्छे दिन


पिछले दिनों हमारा मोबाइल पानी में गिर गया। पानी घुस गया। मोबाइल बैठ गया। जिस मोबाइल में अनगिनत फोन नंबर थे। फ़ोटो थे और कई जानकारियां थीं उसने काम करना बन्द कर दिया। सूचनायें मोबाइल में हैं लेकिन हम तक नहीं पहुंच रहीं । शयद ऐसे जैसे कि देश समृद्ध हो रहा है लेकिन गरीब भूखों मर रहे हैं।
हमारे लिये तो मोबाइल कोमा में गया। उसको होश नहीं आ रहा। गया है सर्विस सेंटर। लौटकर जब आयेगा तो शायद पुराने नंबर मिट गये हों। फोटो गायब हो जायें। सब कुछ नया-नया हो। अभी नया है। साल नहीं हुये खरीदे हुये। बल्कि खरीदा कहां था। बच्चे ने उपहार दिया था। पच्चीस साल शादी के हुये तब। मंहगा मोबाइल किस्तों में खरीद कर दिया। पिता प्रेम की किस्तें अभी पूरी नहीं हुयीं। लेकिन मोबाइल बैठ गया।
अभी तो नया है मोबाइल। वारण्टी पीरियड में है। लेकिन पानी में गिरा है तो वारण्टी लागू न होगी। लेकिन अभी साल नहीं हुआ रिपेयर के लिये ले लिया सर्विस सेन्टर वाले ने। एकाध साल हो गये होते तो क्या पता सर्विस सेंटर वाला कहता -"इसमें जितना खर्चा आयेगा उससे अच्छा तो नया ले लीजिये।"
असल में तकनीक इतनी तेजी से बदल रही है आजकल कि कुछ पूछो न! हर नयी चीज पाकिस्तान की सरकार सरीखी हो गयी है। जहां जरा खराबी दिखी लोग कहते हैं- बदल डालो।
मोबाइल का खराब होना आदमी के कोमा में जाने जैसा ही है। आदमी जब कोमा में जाता है तो बाहरी दुनिया से संपर्क स्थगित हो जाता है। होश में आने पर कभी-कभी अपने साथ जुडे लोगों को पहचान नहीं पाता। कभी कुछ दिन बाद याद आता है। कभी जिन्दगी भर के लिये भूल जाता है। टोट्टल मेमोरी लॉस। मने कि स्मृति लोप।
स्मृति लोप कैसा होता होगा। कुछ ऐसा जैसे कि यादों के द्वीप को बाकी की दुनिया से जोड़ने वाली सडक बह गयी हो। यादें सिकुडी बैठीं हैं राहत के इंतजार में। कोई आये और उनको उठाकर, बचाकर के जाये। जुड जाये कनेक्शन बाहरी दुनिया से। फ़िर से उनकी आवा-जाही शुरु हो जाये दुनिया में। कभी जुड़ने में देर हो जाती है तो शायद यादें निराश होकर मर जाती हों। उनकी सांस टूट जाती हो। कभी-कभी कोई याद बहुत देर होने के बाद भी जिन्दा बच जाती है जैसे कि किसी भूस्खलन के मलवे से ( जिसमें सैकडों लोग जिन्दा दफ़न हो जाते हैं ) कोई बच्ची जीवित बच जाती है। जिन्दगी मुस्कराती है।
संकट के समय विरोधी अपना विरोध भुलाकर अस्तित्व बचाने के लिये एक हो जाते हैं। सांप, नेवला, आदमी, जानवर बाढ़ के समय एक ही पेड़ के नीचे खडे होकर बाढ उतरने का इंतजार करते हैं। धुर विरोधी एक साथ चुनाव लड़ते हैं।
सर्विस सेंटर में पड़ा मोबाइल कुछ-कुछ ऐसे सोच रहा होता जैसा अस्पताल में पड़ा मरीज सोचता है। मोबाइल के फोन नंबर, पते, फोटो, फ़ाइलें जो कभी आधुनिक सोसाइटियों के बासिन्दों की तरह एक-दूसरे को पहचानतें तक न हों वे क्या पता एक-दूसरे को दिलासा दे रहे हों चिन्ता न करो। हम जल्दी ही ठीक होकर सर्विस सेंटर से बाहर जायेंगे। हम एक बार से सीने के पास वाली जेब में बैठकर घनघनायेंगे। कभी वाइब्रेशन तो कभी साइलेंट मोड में जायेंगे। हमारे खींचे हुये फ़ोटो भी फ़िर से क्यूट, स्वीट, ब्यूटीफ़ुल कहलायेंगे। हमारे भी अच्छे दिन आयेंगे।
मोबाइल के मुंह से अच्छे दिन की बात सुनकर लगा कि उस बेचारे को भी पता नहीं कि अभी वारण्टी पीरियड की देहरी नहीं लागी है अगले ने पर मूल कीमत का एक तिहाई रिपेयर में ठुकने वाला है।
मोबाइल भी देश के आम आदमी की तरह भोला है। अच्छे दिन का इंतजार कर रहा है।

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Thursday, August 31, 2017

नोटम नमामि के पंच

जयपुर निवासी यशवंत कोठारी जी Yashwant Kothari अध्यापक, लेखक, घुमक्कड़, उपन्यासकार सामाजिक कार्यकर्ता व्यंग्यकार मने क्या नहीं हैं। मतलब बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने हमारे ’पंचबैंक’ को देखकर अपनी दो किताबें मुझे सस्नेह भेजीं। ’ नोटम नमामि’ व्यंग्य लेखों का संग्रह है। ’असत्यम, अशिवम, असुन्दरम’ व्यंग्य उपन्यास है। कुल जमा 31 किताबों के लेखक यशवंत के नाम व्यंग्य की 12 किताबें हैं। उनके बारे में फ़िर कभी। फ़िलहाल यशवंत कोठारी जी के व्यंग्य संग्रह ’नोटम नमामि’ के कुछ पंच यहां पेश हैं।
1. जो नंगा नहीं होना चाहते वे लोकतंत्र को नंगा कर देते हैं।
2. आजादी के पचास वर्षों गांधी जी की लंगोट से चलकर हम लोकतंत्र की लंगोट तक पहुंच गये हैं।
3. भावताव में पत्नी का निर्णय ही अंतिम और सच साबित होता है।
4. पति का उपयोग केवल थैले, झोले या टोकरियां उठाने में ही होता है। बाकी का सब काम महिलायें ही संपन्न करती हैं।
5. जो नायिका एक फ़िल्म में पद्मिनी लगती है, वही किसी अन्य फ़िल्म में किसी अन्य नायक के साथ हस्तिनी लगने लगती है।
6. पूरा देश दो भागों में बंट गया है। लोन लेकर ऐश करने वाला देश और लोन नहीं मिलने पर भूखा प्यासा देश।
7. भूख से मरते आदिवासियों को कोई रोटी खरीदने के लिये लोन नहीं देता है, मगर उद्योगपति को नई फ़ैक्ट्री या व्यापारी को नई कार खरीदने के लिये पचासों बैंक या वित्तीय कंपनियां लोन देने को तैयार हैं।
8. हर तरफ़ लोन का इंद्रधनुष है, मगर गरीब को शुद्ध् पानी नसीब नहीं।
9. सत्ता के लोकतंत्र में बहुमत के लिये कुछ भी किया जा सकता है। घोड़ों की खरीद-फ़रोख्त से लगाकर विपक्षी से हाथ मिलाने तक सब जायज है।
10. हिंदी वास्तव में गरीबों की भाषा है। भाषाओं में बी.पी.एल है हिन्दी। हिन्दी लिखने वाले गरीब्, हिन्दी बोलने वाले गरीब, हिन्दी का पत्रकार गरीब, हिन्दी का कलाकार गरीब।
11. दफ़्तर वह स्थान है, जहां पर घरेलू कार्य तसल्ली से किये जाते हैं।
12. लंच में बड़े-बड़े लोग बड़ी डील पक्की करते हैं और छोटे-छोटे लोग छोटी-छोटी बातों के लिये लड़ते-झगड़ते एवं किस्मत को कोसते हैं।
13. कुछ लोग लंच घर पर ही करने चले जाते हैं और वापस नहीं आते।
14. लंच एक ऐसा हथियार है, जो सबको ठीक कर सकता है। लंच पर जाना अफ़सरों का प्रिय शगल होता है।
15. दफ़्तरों में लंच का होना इस बात का प्रतीक है कि देश में खाने-पीने की कोई कमी नहीं है।
16. कुढना, जलना या दुखी होकर बड़बड़ाना ह्मारा राष्ट्रीय शौक हो गया है। जो कुछ नहीं कर सकते वे बस कुढते रहते हैं।
17. पति पत्नी पर कुढता है, पत्नी पति पर कुढता है। दोनों मिलकर बच्चों पर कुढते हैं।
18. इस देश में सिवाय कुढने के , चिडचिडाने के हम कर भी क्या सकते हैं।
19. कुढने से हाजमा दुरुस्त होता है, स्वास्थ्य ठीक रहता है, नजरें तेज होती हैं, किसी की नजर नहीं लगती और सबसे बड़ी बात, कुढने के बाद दिल बड़ा हल्का महसूस होता है।
20. जो व्यक्ति परनिंदा नहीं कर सकता , वह अपने जीवन में कुछ भी नहीं कर सकता।
21. परनिन्दा आम आदमी का लवण भास्कर चूर्ण है, त्रिफ़ला चूर्ण है , जो हाजमा दुरुस्त रखत है। पेट साफ़ करता है। मनोविकारों से बचाता है और स्वस्थ रखता है।
’नोटम नमामि’ के प्रकाशक हैं ग्रंथ अकादमी , पुराना दरियागंज नई दिल्ली-110002
किताब का पहला संस्करण 2008 में आया और इस हार्ड बाउंड किताब के दाम हैं एक सौ पचहत्तर रुपये मात्र।

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Tuesday, August 29, 2017

अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी

लौट के घर में घुसे तो याद आया -'अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी। ' सोचा- छूट गयीं तो छूट गयीं। कल सही। लेकिन फ़िर मन नहीं माना। फ़ौरन ’उल्टेपैडल’ निकले गंगा दर्शन के लिये। पैडलियाते हुये गये तो गिनते भी गये। कुल 150 पैडल दूर हैं गंगा हमारे घर से। लेकिन यह तब जब ढाल भी मिली। लौटते में दो सौ से ज्यादा हो गये पैडल। लम्सम दो सौ पैडल धर लीजिये।
किनारे तक पानी था। एक आदमी जाल समेट रहा था। पता नहीं कुछ मिला कि नहीं। बगलिया के झोपड़ियों के सामने से नदी देखी। पानी फ़ुर्ती से बहा चला जा रहा था। मानो दुबला होने के लिये ’ब्रिस्कवॉक’ कर रहा हो। कोई डॉक्टर बताइस होगा पानी को। तेज चला करो वर्ना ब्लॉकेज हो जायेगा। बाईपास करना होगा।
पानी गलबहियां डाले चला जा रहा था। क्या पता अगल-बगल बहता पानी कितनी दूर पहले मिला हो। क्या पता हरिद्वार में साथ बहता पानी यहां आते-आते बिछुड़ गया हो। कहीं कोई पानी थककर सुस्ताने लगा हो और उसके साथ का पानी आगे चल दिया हो। रमानाथ जी गलत थोड़ी कहते हैं:
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे, कह नही सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
दो पुल के बीच से पानी तेजी से बहा चला जा रहा था। दो पुलों के बीच पानी की पिच जैसी बनी थी। आये जिसको मैच खेलना हो। कुछ देर बाद सूरज भाई अपनी किरणों के साथ कबड्डी खेलेंगे पानी की पिच पर। दायीं तरफ़ टैंकर लादे रेल खड़ी थी। बायीं तरफ़ लोग शहर की तरफ़ भागे चले जा रहे थे।
ऊपर नुक्कड़ पर चाय की दुकान थी। लेकिन कोई ग्राहक नहीं था। हम भी हड़बड़ाये थे लौटने को। फ़िर भी चलते-चलते पूछ ही लिये कहां के रहने वाले हो? बोले- ’सुल्तानपुर से आये थे तीस साल पहले।’ कई तबेलों में भैंसे बंधी थी। एक आदमी गाय दुह रहा था। उसी जगह एक दिन एक औरत झाड़ू लगाती दिखी थी। डेढ हाथ का घूंघट डाले सड़क साफ़ कर रही थी।
लौटते हुये तमाम स्कूली बच्चे तेजी से स्कूलों में जमा होते दिखे। चलती सड़क के बाहर खड़ा चपरासी पीटी मास्टर सरीखा उनको रुकने और सड़क पार करके अंदर आ जाने का निर्देश दे रहा था।
यह तो हुआ लौटने का किस्सा। शुरुआत तो सुबह नीबू-मिर्चे से हुई। सड़क किनारे कई साइकिलों में लोग नीबू मिर्चे की डलिया टाइप लादे कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे। हमें लगा कहीं मार्च पर निकल रहे होंगे। पता चला कि अचलगंज से आये हैं शहर नीबू-मिर्च बेंचने। 40-50 किलोमीटर दूर से शहर नीबू-मिर्च बेंचने वाली बात कुछ अटपटी लगी। हमने पूछा - ’कैसे आते हो? ट्रेन से क्या?’
यही हमारी ट्रेन है। एक ने अपनी साइकिल कसते हुये बताया। फ़ोटो खैंचकर दिखाई तो खुश हो गये। बोले - ’ये तो सब साइकिलें आ गयीं।’
आगे एक महिला एक चाय की दुकान की बेंच पर फ़सक्का मारे बैठी मोबाइल पर बतिया रही थी। किसी को जोर-जोर से कुछ हिदायत दे रही थी। मुंह ऊपर किये। ऊपर किया मुंह किसी डिस एंटिना सरीखा लगा जिससे सिग्नल सीधे अगले के काम में पहुंचे।
एक बड़ी दुकान के बाहर एक दरबान रात की ड्युटी के बाद ऊंघने का काम निपटा रहा था।
आगे सड़क किनारे फ़ुटपाथ पर एक 'श्वान युगल' 'उत्कट प्रेम क्रिया' में संलग्न था । एक आदमी उनकी निजता में दखल देते हुये भगाने के प्रयास में उनको पत्थर मारने की कोशिश में लगा था। लेकिन वे श्वान युगल -“ देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं” कविता का भाव ग्रहण करते हुये अपने काम में लगा रहा। फ़ुटपाथ से सड़क पर आ गया।
वहीं सड़क किनारे दो रिक्शों पर रिक्शे वाले गपिया रहे थे। एक तसल्ली से पूरे से रिक्शे पर पांव फ़ैलाये लेटा था। दूसरा बैठा हुआ बतिया रहा था। दोनों सीतापुर के महोली कस्बे के रहने वाले हैं। लेटा हुआ रिक्शेवाला दस दिन पहले कानपुर आया है। ससुराल उन्नाव के आगे हरौनी में है। बीबी मायके आ गयी है। वह भी आ गया कानपुर। कुछ दिन रिक्शा चलाता है। जहां कुछ पैसे हो जाते हैं, ससुराल चला जाता है। बीबी को पता नहीं कि वह कानपुर में रिक्शा चलाता है।
अनिल शर्मा नाम है रिक्शे वाले का। उमर पर कयास लगे। हमने कहा 25-30 होगी। बोला- 35 साल है। हमने मान लिया। उसकी उमर वही जानेगा न! दो बच्चियां हैं। अभी स्कूल जाना सीख रही हैं।
रिक्शे पर शहंशाह की तरह आरामफ़र्मा होने का कारण बताया अनिल शर्मा ने कि सवारी 10-11 बजे के बाद मिलती हैं। इसलिये सुबह तसल्ली से आराम करते हैं। दोपहर से रात तक चलाते हैं रिक्शा। किराये का 50 रुपया पड़ता है।
लौटते हुये फ़ूलबाग पार्क में तमाम सेहतिये लोगों की भीड़ दिखी। बाहर चाय-मट्ठे की दुकानें। एक पहलवान जी चाय की दुकान। कभी पियेंगे यहां चाय सोचते हुये आगे निकल आये।
घर के पास चौराहे पर कूड़े के बिस्तरे पर कुछ सुअर सोते हुये दिखे। अभी उनकी सुबह हुई नहीं थी। आराम से सो रहे थे। उनके पास ही एक आदमी रिक्शे पर सो रहा था। गंदगी से सुअर के मुकाबले दूरी में बहुत कम अन्तर होगा। लेकिन नींद शायद एक जैसी ही गहरी थी दोनों की।
पास ही एक आदमी फ़ुटपाथ पर बीड़ी पी रहा। उसके साथ का आदमी मोबाइल हाथ में थामे सामने ताक रहा था। उसके बगल में एक आदमी शीशे में देखते हुये बाल काढ रहा था। सबको देखते हुये हम खरामा-खरामा चले आये। यह कैंट इलाका है। सबसे संभ्रात टाइप। यहां इतनी गंदगी है। तो बाकी शहर का क्या हाल होगा। सोचते हुये घर आ गये। फ़िर घर आकर याद आया कि अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी। उसका किस्सा बता ही दिया।
अब आप मजे करिये। हम भी निकलते दफ़तर की तरफ़। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे हैं। 

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Friday, August 25, 2017

चलो तुमको स्टेटस बनाते हैं

शेर लिखकर कहा, चलो तुमको स्टेटस बनाते हैं,
शेर फूट लिया कहकर - शेरनी को बताकर आते हैं।
एक चिरकुट सा लेख लिखा, अख़बार से खबर आई,
थोड़ा और घटिया बनाकर भेजो, फौरन छपवाते हैं
वो मिले राह में बोले इमेज इत्ती चौपट बनाई तुमने
लफ़ड़ा क्या है यार, लोग तुमको भला आदमी बताते हैं।
-कट्टा कानपुरी

Monday, August 21, 2017

मिड डे मील मतलब बच्चों के लिए बिस्कुट

कल सुबह फिर गंगा किनारे जाना हुआ। जयफ्रेंडशिप ग्रुप के लोग बच्चों को पढ़ाने में लगे थे। अलग-अलग समूह में बच्चों को अक्षर ज्ञान, गिनती और साधारण जोड़-घटाना सिखाया जा रहा था। कुल मिलाकर 5 मिली-जुली कक्षाएं चल रहीं थीं। तीन नीचे, दो ऊपर चबूतरे पर।
कुछ-कुछ देर में सिखाने वाले बदलते जा रहे थे। आसपास के लोग कौतूहल से तमाशे की तरह देख रहे थे इसे। कुछ लोग वीडियो बना रहे थे। कुछ लोग इसे भला काम बताते हुए अपनी तरफ से राय भी देते जा रहे थे।
पढ़ाने वाले के हैं। रायचन्द लोग भी शुक्लागंज के हैं। बड़े-बुजुर्ग भी हैं। इसलिए हर सलाह को अदब से सुनना उनकी मजबूरी भी है।
एक ने बताया -'बाबा जी बहुत खुश हैं। कह रहे थे कि अगर कुछ मदद चाहिए तो देंगे। यहां पुल के नीचे टट्टर से घिराव करवा देंगे। ट्रस्ट मदद करेगा।'
मतलब हठयोगी बाबा जी लोगों से मिले पैसे से बच्चों के प्रयास को अपने ट्रस्ट में मिला लेंगे।
मदद की बात और भी लोगों ने की- 'जो मदद चाहिए -बताना 24 घण्टे में हो जाएगा काम।'
एक इस काम को पीपीपी मतलब पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की तरह चलाने का सुझाव उछाल दिया। बच्चों को स्कूलों में भर्ती कराने का सुझाव। मतलब जो करें वो सब यही लोग करें। अगला केवल सुझाव देगा।
एक ने भौकाल दिखाते हुए सब बच्चों के लिए मिड डे मील की व्यवस्था की बात कही। मिड डे मील मतलब बच्चों के लिए बिस्कुट। कहकर थोड़ी देर में टहल लिया।
यहां पढ़ने आने वाले ज्यादातर बच्चे स्कूलों में जाते हैं। गंगापार गोलाघाट ज्यादा बच्चे जाते हैं। शुक्लागंज वाले स्कूल में ठीक से पढाई नहीं होती। मास्टर बच्चों को मारते, डांटते हैं।
यह सुनते ही एक ने कहा-'अरे ऐसे कैसे कर सकता है। बताना बीएसए से कह देंगे। टाइट कर देगा।' गोया बीएसए के टाइट करते ही स्कूल सुधर जाएगा।
जयफ्रेंडशिप ग्रुप की शुरआत गंगा किनारे सफाई से हुई । बरसात में पानी बढ़ गया तो सफाई का काम रुक गया। ग्रुप के लोगों ने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया।
सबसे कठिन काम बच्चों को पढ़ने के लिए इकट्ठा करने का है। कुछ बच्चे तो आ जाते हैं, बाकी को उनके घर से लाना होता है।
क्लास के बाहर कई लोग अपने बच्चों को पढ़ता देख रहे हैं। उनमें से ज्यादातर खुद अनपढ़ हैं। हम उनको भी पढ़ने को कहते हैं तो वे हंसने लगते हैं।
क्लास के बाहर खड़े कई लोग वहां पढ़ाते लोगों को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। वे बताते हैं ये स्कूल में बच्चों की डांस टीचर हैं।
पढ़ाने का सबका अंदाज अलग-अलग है। रचना सुबह ही आई हैं। बच्चों को ककहरा सिखाते हुये 'ज्ञ' तक पहुंचती हैं। बच्चो को बताती हैं 'ज्ञ से ज्ञानी, खत्म कहानी।' इसके बाद टीचर बदल जाता है। दूसरी बच्ची पढ़ाना शुरू करती है।
गंगा जी किनारे तक आई हुई हैं। अपने किनारे चलते खुले स्कूल को देख रही हैं। मजे से बह रही हैं। एक परिवार मछली को आटा खिला रहा है। लोग नाक बन्दकरके नदी में डुबकी लगा रहे हैं। एक बूढ़ा माता नदी में पैठी फूल सजाती हुई शायद महादेव की पूजा में जुटी हैं।
चाय वाले भाई हमको देखते ही खुश हो गए थे। लपककर चाय पिलाई। बताया -'हम इंतजार कर रहे थे।'
पता चला कि वे कुछ महीने पहले तक एक हलवाई की दुकान पर काम करते थे। अब इधर तख्त डाल लिया। दुकान लगा ली। क्वालिटी से समझौता नहीं करते। दूर-दूर से लोग आते हैं चाय पीने।
चाय की बात करते ही हमारी भी चाय आ गई। हम पीते हैं। आप भी आ जाइये। पिलाते हैं। 

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