Tuesday, August 29, 2017

अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी

लौट के घर में घुसे तो याद आया -'अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी। ' सोचा- छूट गयीं तो छूट गयीं। कल सही। लेकिन फ़िर मन नहीं माना। फ़ौरन ’उल्टेपैडल’ निकले गंगा दर्शन के लिये। पैडलियाते हुये गये तो गिनते भी गये। कुल 150 पैडल दूर हैं गंगा हमारे घर से। लेकिन यह तब जब ढाल भी मिली। लौटते में दो सौ से ज्यादा हो गये पैडल। लम्सम दो सौ पैडल धर लीजिये।
किनारे तक पानी था। एक आदमी जाल समेट रहा था। पता नहीं कुछ मिला कि नहीं। बगलिया के झोपड़ियों के सामने से नदी देखी। पानी फ़ुर्ती से बहा चला जा रहा था। मानो दुबला होने के लिये ’ब्रिस्कवॉक’ कर रहा हो। कोई डॉक्टर बताइस होगा पानी को। तेज चला करो वर्ना ब्लॉकेज हो जायेगा। बाईपास करना होगा।
पानी गलबहियां डाले चला जा रहा था। क्या पता अगल-बगल बहता पानी कितनी दूर पहले मिला हो। क्या पता हरिद्वार में साथ बहता पानी यहां आते-आते बिछुड़ गया हो। कहीं कोई पानी थककर सुस्ताने लगा हो और उसके साथ का पानी आगे चल दिया हो। रमानाथ जी गलत थोड़ी कहते हैं:
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे, कह नही सकते
जिंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
दो पुल के बीच से पानी तेजी से बहा चला जा रहा था। दो पुलों के बीच पानी की पिच जैसी बनी थी। आये जिसको मैच खेलना हो। कुछ देर बाद सूरज भाई अपनी किरणों के साथ कबड्डी खेलेंगे पानी की पिच पर। दायीं तरफ़ टैंकर लादे रेल खड़ी थी। बायीं तरफ़ लोग शहर की तरफ़ भागे चले जा रहे थे।
ऊपर नुक्कड़ पर चाय की दुकान थी। लेकिन कोई ग्राहक नहीं था। हम भी हड़बड़ाये थे लौटने को। फ़िर भी चलते-चलते पूछ ही लिये कहां के रहने वाले हो? बोले- ’सुल्तानपुर से आये थे तीस साल पहले।’ कई तबेलों में भैंसे बंधी थी। एक आदमी गाय दुह रहा था। उसी जगह एक दिन एक औरत झाड़ू लगाती दिखी थी। डेढ हाथ का घूंघट डाले सड़क साफ़ कर रही थी।
लौटते हुये तमाम स्कूली बच्चे तेजी से स्कूलों में जमा होते दिखे। चलती सड़क के बाहर खड़ा चपरासी पीटी मास्टर सरीखा उनको रुकने और सड़क पार करके अंदर आ जाने का निर्देश दे रहा था।
यह तो हुआ लौटने का किस्सा। शुरुआत तो सुबह नीबू-मिर्चे से हुई। सड़क किनारे कई साइकिलों में लोग नीबू मिर्चे की डलिया टाइप लादे कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे। हमें लगा कहीं मार्च पर निकल रहे होंगे। पता चला कि अचलगंज से आये हैं शहर नीबू-मिर्च बेंचने। 40-50 किलोमीटर दूर से शहर नीबू-मिर्च बेंचने वाली बात कुछ अटपटी लगी। हमने पूछा - ’कैसे आते हो? ट्रेन से क्या?’
यही हमारी ट्रेन है। एक ने अपनी साइकिल कसते हुये बताया। फ़ोटो खैंचकर दिखाई तो खुश हो गये। बोले - ’ये तो सब साइकिलें आ गयीं।’
आगे एक महिला एक चाय की दुकान की बेंच पर फ़सक्का मारे बैठी मोबाइल पर बतिया रही थी। किसी को जोर-जोर से कुछ हिदायत दे रही थी। मुंह ऊपर किये। ऊपर किया मुंह किसी डिस एंटिना सरीखा लगा जिससे सिग्नल सीधे अगले के काम में पहुंचे।
एक बड़ी दुकान के बाहर एक दरबान रात की ड्युटी के बाद ऊंघने का काम निपटा रहा था।
आगे सड़क किनारे फ़ुटपाथ पर एक 'श्वान युगल' 'उत्कट प्रेम क्रिया' में संलग्न था । एक आदमी उनकी निजता में दखल देते हुये भगाने के प्रयास में उनको पत्थर मारने की कोशिश में लगा था। लेकिन वे श्वान युगल -“ देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं” कविता का भाव ग्रहण करते हुये अपने काम में लगा रहा। फ़ुटपाथ से सड़क पर आ गया।
वहीं सड़क किनारे दो रिक्शों पर रिक्शे वाले गपिया रहे थे। एक तसल्ली से पूरे से रिक्शे पर पांव फ़ैलाये लेटा था। दूसरा बैठा हुआ बतिया रहा था। दोनों सीतापुर के महोली कस्बे के रहने वाले हैं। लेटा हुआ रिक्शेवाला दस दिन पहले कानपुर आया है। ससुराल उन्नाव के आगे हरौनी में है। बीबी मायके आ गयी है। वह भी आ गया कानपुर। कुछ दिन रिक्शा चलाता है। जहां कुछ पैसे हो जाते हैं, ससुराल चला जाता है। बीबी को पता नहीं कि वह कानपुर में रिक्शा चलाता है।
अनिल शर्मा नाम है रिक्शे वाले का। उमर पर कयास लगे। हमने कहा 25-30 होगी। बोला- 35 साल है। हमने मान लिया। उसकी उमर वही जानेगा न! दो बच्चियां हैं। अभी स्कूल जाना सीख रही हैं।
रिक्शे पर शहंशाह की तरह आरामफ़र्मा होने का कारण बताया अनिल शर्मा ने कि सवारी 10-11 बजे के बाद मिलती हैं। इसलिये सुबह तसल्ली से आराम करते हैं। दोपहर से रात तक चलाते हैं रिक्शा। किराये का 50 रुपया पड़ता है।
लौटते हुये फ़ूलबाग पार्क में तमाम सेहतिये लोगों की भीड़ दिखी। बाहर चाय-मट्ठे की दुकानें। एक पहलवान जी चाय की दुकान। कभी पियेंगे यहां चाय सोचते हुये आगे निकल आये।
घर के पास चौराहे पर कूड़े के बिस्तरे पर कुछ सुअर सोते हुये दिखे। अभी उनकी सुबह हुई नहीं थी। आराम से सो रहे थे। उनके पास ही एक आदमी रिक्शे पर सो रहा था। गंदगी से सुअर के मुकाबले दूरी में बहुत कम अन्तर होगा। लेकिन नींद शायद एक जैसी ही गहरी थी दोनों की।
पास ही एक आदमी फ़ुटपाथ पर बीड़ी पी रहा। उसके साथ का आदमी मोबाइल हाथ में थामे सामने ताक रहा था। उसके बगल में एक आदमी शीशे में देखते हुये बाल काढ रहा था। सबको देखते हुये हम खरामा-खरामा चले आये। यह कैंट इलाका है। सबसे संभ्रात टाइप। यहां इतनी गंदगी है। तो बाकी शहर का क्या हाल होगा। सोचते हुये घर आ गये। फ़िर घर आकर याद आया कि अल्लेव गंगा तो छूट ही गयी। उसका किस्सा बता ही दिया।
अब आप मजे करिये। हम भी निकलते दफ़तर की तरफ़। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे हैं। 

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