Thursday, August 24, 2023

डल झील -शहर के अंदर बसा शहर



निशात बाग से निकलकर डल झील की तरफ़ बढ़े। बाग से बाहर निकलते ही क़ुल्फ़ी वाले को देखकर क़ुल्फ़ी खाने का मन हुआ। लेने गये तो सोचा सबके लिये ली जाये। एक बार में दस क़ुल्फ़ी ले गये। 25 रुपये की एक । बस में पूछा कौन -कौन खाएगा ? सब बंट गईं। अपने लिए लेने के मुड़े तब तक बस चल दी। लोगों ने कहा -‘ अब छोड़ो। देर हो रही।’
अपनी लाई हुई क़ुल्फ़ी मित्रों को खाते देखते रहे। चुपचाप। इसीलिए समझदार लोग कल्याण की शुरुआत ख़ुद से करते हैं।
बस सड़क पर टहलती हुई थोड़ी देर में डल झील के किनारे पहुँची। बस से उतरते ही सामने कुल्फी वाला दिखा। थोड़ी देर पहले कुल्फी खाने से वंचित जाने की याद ने ठेलिया तक पहुंचाया और हमने लपककर कुल्फी खरीदी। 20 रुपये की एक। कुल्फी खाते हुए शिकारे पर बैठे। बैठते ही चल दिये डल झील भ्रमण पर।
क़ुल्फ़ी बेचने वाला बालक भागलपुर का था।
शिकारे के चलते ही उसको अगल-बगल से छोटी नावों ने घेर सा लिया। हर नाव पर कोई न कोई छुटकी दुकान। किसी में चाय बिक रही है, किसी में कहवा, किसी में कुल्फी। जेवर, कपड़े, कलाकृतियां, फल मतलब की हर उस चीज की दुकान जो आप शिकारे पर बैठकर खरीद सकते हैं।
सामानों के अलावा कश्मीरी ड्रेस में फोटोबाजी वाले शिकारे भी मौजूद थे झील में। चलता-फिरता फोटो स्टूडियो। हमारे साथ के लोगों में से कुछ को उन लोगों ने उठाकर उन्होंने उनके फोटो खींचे और कुछ देर में प्रिंट भी थमा दिए।
हम इधर-उधर देखते हुए झील भ्रमण कर रहे थे। इस बीच बगल की नाव से कहवा भेज दिया गया। 40 रुपये का एक कप। इसके बाद कुल्फी भी आई। वो भी चालीस की ही। अपना माल बेचकर इधर-उधर हो गयी नाव।
नाव वाले ने बताया जाड़े में जब झील झम जाती है तो लोग यहां पर क्रिकेट भी खेलते हैं। दिसम्बर से जनवरी-फरवरी तक शिकारे ठहर जाते हैं। फिर मार्च से शुरू होती है चल-पहल।
उधर आसमान में सूरज भाई अपनी विदा वेला में रंगबिरंगे हो रहे थे। बहुरंगी परिधान धारण किये खूबसूरती से पूरी कायनात को टाटा-बॉय बॉय कर रहे थे।
झील में तैरता हुआ बाजार भी मिला। हर हाउसबोट पर एक दुकान। कपड़ों, जेवर, कलाकृतियां और तमाम तरह की दुकानें। दुकान पर बैठे लोग टकटकी लगाए हर शिकारे को ताक रहे थे। लेकिन लोग उनको देखते हुए चुपचाप आगे बढ़ते जा रहे थे।
आगे कुछ लोग मछली पकड़ने के लिए झील में कांटा डाले बैठे थे।
एक महिला एक छुटकी नाव में अपने बच्चे को बैठाए सरपट जाती दिखी। उसका झील में जाना ऐसे लगा जैसे कोई महिला भरे बाजार में स्कूटी पर बच्चे को बैठाए चली जा रही हो।
नाव वाले ने बताया यहां झील में कई गांव हैं। स्कूल हैं। अपने आप में पूरा शहर है झील। शहर जिसमें गांव भी हैं, स्कूल भी, दुकान भी, खेत भी । थाना भी, पोस्टआफिस भी , रहने को होटल भी।
एक बहुत बड़ा बाजार है डल झील। हजारों परिवारों को रोजगार देती है डल झील।
वेनिस के बारे में सुना है पानी के बीच बसा है। डल झील इस मामले में अनोखी है। एक शहर में बनी झील जो अपने में एक शहर है, एक बहुत बड़ा बाजार है।
लौटते हुए नाव वाले ने बताया कि एक फेरे का उसे 400 रुपये मिलता है। बाकी जो लोग अपनी खुशी से दे दें। हम लोगों ने भी अपनी खुशी से कुछ दिया और किनारे पर उतर गए।
बाहर बस हमारा इंतजार कर रही थी। हम बस में बैठकर होटल वापस आ गए। वहां रात का खाना हमारा इंतजार कर रहा था।

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Tuesday, August 22, 2023

निशात बाग मने खुशियों का बगीचा



निशात बाग में लोग ही लोग थे। पिछले साल जब इसे देखने आए थे तो मौसम सुहाना था। इस बार गर्मी थी। पिछली बार हम अकेले थे। इस बार लोग साथ थे। पिछले साल की तमाम बातें याद आ गईं।
निशात बाग का अर्थ होता है- खुशियों का बगीचा। देखकर सही में मन खुश हो गया। दिल बाग-बाग हो गया।
निशात बाग को सन 1634 में बनवाया मुगल महारानी नूरजहां के बड़े भाई अब्दुल हसन आसफ खां ने बनवाया था। बताते चलें कि इसके पहले 1619 में मुगल बादशाह जहांगीर अपनी बेगम को खुश करने के लिए शालीमार बाग बनवा कर उनको भेंट दे चुके थे। उसकी देखादेखी ही नूरजहां के भाईजान ने निशात बाग बनवाया होगा।
निशात बाग जब बना तब मुगल बादशाह शाहजहाँ गद्दीनशीन थे। बाग को बनवाने वाले अब्दुल हसन रिश्ते में उनके ससुर थे। उनकी बेटी मुमताज महल शाहजहाँ की बेगम थीं। बाग की खूबसूरती से शाहजहाँ बहुत खुश हुए होंगे और उनके मन में तमन्ना रही होगी कि यह खूबसूरत बाग उनके ससुर उनको भेंट कर देंगे। तमन्ना क्या ऐसा सुना जाता है कि शाहजहाँ ने तीन बार इस बात की मंशा जाहीर की। लेकिन उनके ससुर साहब ने ऐसा नहीं किया। बादशाह शाहजहाँ को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने बगीचे में पानी की सप्लाई रुकवा दी। बाग सूखने लगा।
बादशाह शाहजहां द्वारा उनको भेंट न किए जाने पर बाग की पानी की सप्लाई रुकवा देने का काम उसे तरह का है जैसे किसी कालोनी का मेन्टीनेंस देख रहे किसी को परेशान करने की मंशा से किसी के घर की मरम्मत न कराएं पानी रोक दें, बिजली काट दें, सीवर लाइन चोक करवा दें। मनमानी का ये शाही अंदाज सदियों पुराना है।
शाहजहाँ का यह अंदाज उसी तरह का था कि जैसे लड़के वाले लड़की वालों से जिंदगी भर भेंट-उपहार की आशा लगाए रहते हैं। गनीमत है कि निशात बाग भेंट न देने पर मुमताज महल को परेशान करने के किस्से नहीं मिलते। हुए भी होंगे तो उस समय दहेज विरोधी कानून बना नहीं था। महारानी कहाँ एफ़ आई आर दर्ज करवातीं?
पानी की सप्लाई रुक जाने से निशात बाग उजाड़ होने लगा। पानी बादशाह ने रुकवाया था तो बेचारे अब्दुल हसन साहब करते भी क्या ! सुनते हैं एक दिन उदास निशात बाग में एक पेड़ के नीचे लेटे हुए थे। उनको उदास देखकर उनके वफादार नौकर ने शालीमार बाग से निशात बाग आने वाली पानी की सप्लाई खोल दी। पानी की आवाज सुनकर अब्दुल हसन ने घबड़ाकर नौकर से पानी की सप्लाई बन करनें को कहा। उनको डर था कि उनका दामाद बादशाह अपनी हुकूमअदूली से खफा होकर न जाने क्या बवाल करे?
लेकिन जब इस घटना के बारे में बादशाह शाहजहाँ को पता चला तो उसने नौकर और अपने ससुर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। बल्कि निशातबाग की पानी की सप्लाई चालू करवा दी। हो सकता है उनकी बेगम मुमताज महल ने भी कहा हो शाहजहाँ से –‘आपने मेरे पापा के बगीचे की पानी की सप्लाई क्यों रोक दी? फौरन चालू करवाइए उसे?’ उसकी बात मानकर ही शाहजहाँ ने अपना हुकूम वापस ले लिए हो।
अधिकार भाव से संचालित, मन माफिक काम न होने पर, नुकसान पहुंचाने वाले इस भाव से मनुष्य तो क्या देवता भी अछूते नहीं है। व्रत न करने पर पारिवारिक अहित, संपत्ति हरण और फिर व्रत करने पर सब कुछ बहाल हो जाने के किस्से इसकी पुष्टि करते हैं।
बहरहाल जो हुआ हो लेकिन आज के दिन निशात बाग में पानी की सप्लाई चालू है और श्रीनगर का यह सबसे बड़ा बाग मात्र 24 रुपए के टिकट पर आम जनता के देखने के लिए उपलब्ध है।
निशात बाग के पीछे एक झरना बहता है जिसका नाम गोपितीर्थ है। बगीचे में पानी इसी झरने से आता है। बगीचे में फूलों की दुर्लभ प्रजातियाँ , चिनार और सरू के पेड़ हैं। यह बगीचा इस इलाके का सबसे बड़ा सीढ़ीदार उद्यान है।
बगीचे में लोगबाग अकेले, दोस्तों-परिवार वालों के साथ टहल रहे थे। घुसते ही लोग फोटो खिंचवाने में जुट जाते। अलग-अलग पोज में फोटोबाजी। मियाँ-बीबी टाइप लोग एक-दूसरे से सट-सटा कर फोटोबाजी कर रहे थे।
बगीचे में घुसते ही बगीचे के सीन के साथ फ़ोटो खिंचाते लोग देखकर ऐसा लगा जैसे किसी मॉल में पहुँचकर लोग घुसते ही डलिया में सामान भरने लगते हैं यह सोचकर कि घर चलकर इसको कायदे से देखेंगे।
हमलोग ग्रुप में 20 लोग थे। सब लोग टहलते हुए एक बड़े लॉन में पहुंचे। सबने एक साथ फ़ोटो खिंचवाई। इसके बाद महिला साथियों ने रेल टाइप बनाकर अलग से फोटो खिंचवाई।
सबकी फोटो खिंचवाने के लिए पास बैठे कुछ युवकों में से एक का सहयोग लिया गया। फ़ोटो खींचने के बाद उसने पूछा -'कहां से आये हैं?'
हमने बताया -'कश्मीर से।'
उसने कहा-'कश्मीर से तो नहीं लगते। बोली से लगता नहीं।'
मतलब बोली भी इंसान का परिचयपत्र होती है। निवास स्थान प्रमाण पत्र।
फ़ोटो के बाद बगीचे की सैर की गई। बगल में खड़ी कुछ महिलाएं सनस्क्रीम के बारे में गुफ़्तगू कर रहीं थीं। किसी ने कहा -'कितनी भी पोत लो। लेकिन जरा देर में पिघल जाती है।'
आगे पानी के झरने के पास खड़े होकर लोगों ने फोटो खिंचवाई। हमारे ग्रुप के कुछ लोगों ने पानी में पड़े पत्थरों पर पैर रखकर दूसरी तरफ जाने की कोशिश की। उनकी जीवनसँगनियो ने उनको टोंका-'फिसल जाओगे।' कुछ मान गए। एकाध लोग नहीं माने और आहिस्ते से पत्थरों पर पैर रखकर पार हो गए। विजयी भाव चेहरे पर। उनकी जीवनसँगनियाँ अब उनको मुस्कराते हुए देख रहीं थी।
आखिर तक जाकर हम लोग लौट लिए। आहिस्ते-आहिस्ते टहलते हुए । हम तो टहलने आये थे। स्थानीय लोग तसल्ली से बाग में चादर बिछाए बैठे थे। पारिवारिक पिकनिक मना रहे थे।
एक महिला अपने परिवार के साथ लेटी हुई डंडी लगी गोल वाली लेमनचूस मुंह मे घुमाते हुए चूसती हुई तसल्ली से आपस में बतिया रही थी। जिस अंदाज में वह लेमनचूस मुंह में घुमा रही थी उसे देखकर मन किया उससे बात करके उसका वीडियो बनाएं। लेकिन फिर हिम्मत नहीं हुई। देखकर ही काम चलाया। आप भी कल्पना करके काम चलाइये।
पानी के फव्वारों में कुछ बच्चे भीगते हुए टहल रहे थे। उनके घर के लोग उनको देखे हुए थे। एक बच्चे ने तो एक फब्बारे के पानी निकलने वाली जगह पर उंगली रखकर उस फब्बारे का पानी बंद कर दिया। ऐसा लगा बच्चे ने फब्बारे का टेंटुआ दबा दिया हो। फब्बारे का दम घुटने लगा। उसका पानी बच्चे की उँगली के अगल-बगल से निकलकर छटपटाने लगा। थोड़ी देर में बच्चे ने फब्बारे से उंगली हटा ली। फब्बारा फिर से पानी बाहर फेंकने लगा।
बगीचे में तरह-तरह के फूल लगे हुए थे। एक सूरजमुखी का फूल बड़ा सा खिला था। उसके साथ लोगों ने फोटो भी खिंचाई। गेंदे के गबरू जवान फूल देखकर हमने घर में बगीचे का काम करने वाले को फोन किया कि यहां तो खूब फूल खिले हैं। वहां तुम बताते हो -'अभी मौसम नहीं आया।' उसने कहा -'आप वहां से बीज लेते आइये। हम लगाएंगे।'
बगीचे की खूबसूरती देखकर सोच रहे थे पुराने जमाने में बादशाह लोग कितने मजे में रहते थे। हुकूमत दिल्ली में और बीबी को उपहार में देने के लिए कश्मीर में बगीचा बनवा दिया।
बगीचे की कहानी बताई तो साथ की कुछ महिला साथियों ने कहा-'वो लोग अपनी बीबियों का ख्याल रखते थे। उनको बगीचे गिफ्ट करते थे। यहां हमारे ये तो एक गुलदस्ता नहीं देते कभी।'
इस शिकायत के जबाब ने दिया गया तर्क इतना लचर और काबिल-ए-खारिज था कि उसको न लिखना ही बेहतर। आप खुद अंदाज लगा लें।
करीब घण्टे भर निशात बाग की सैर करने के बाद हम बाहर आ गए और बस की तरफ बढ़ लिए।
पिछले साल की पोस्ट और फोटो देखने के लिए कमेंट में दिए लिंक को क्लिक करें।

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Monday, August 21, 2023

कोई किसी को जज नहीं करेगा



होटल में बतियाते गपियाते सवा तीन बजे गए। सबको कमरों में व्यवस्थित करने के बाद अनन्य ने ग्रुप में मेसेज किया:
आइए सब लोग 30 मिनट में नीचे रेस्टोरेंट में मिलते हैं। सब लोग अच्छे कपड़े पहनकर आएं। हम लोग खूबसूरत जगहें देखने जा रहे हैं।
इस पर किसी ने मजे लेते हुए पूछा :
‘क्या इसका मतलब यह है कि जब तुमने हमको रिसीव किया था तब हम अच्छे कपड़े नहीं पहने थे।’
अनन्य ने हंसते हुए जबाब दिये:
‘आप डैसिंग लग रहे थे।’
रेस्टोरेंट में सब लोगों के आने के बाद सबका आपस में परिचय हुआ। कोई भोपाल से आया था, कोई उडुपी से, कोई कोटा से , कोई अमृतसर से। कोई दिल्ली कोई कानपुर। सभी ने अपना परिचय देते हुए बताया उनको उनके बच्चों ने ठेल-ठाल कर लगभग जबरियन भेजा है कि जाओ घूमकर आओ। इन बच्चों में अधिकतर वे बच्चे थे जो अनन्य के साथ फिरगुन की ट्रिप पर जा चुके थे।इन बच्चो में अधिकतर बेटियां थीं। सबको भरोसा था कि उनकी तरह उनके मम्मी-पापा को भी ट्रिप में मजा आएगा।
रेस्टोरेंट में परिचय देते हुए लगभग सभी ने बताया कि वे फलानी जगह से आये हैं लेकिन मूलतः वे दूसरी किसी जगह से हैं। हमने बताया कि हम कानपुर से आये हैं और मूलतः भी कानपुर से ही हैं।
सबके परिचय के बाद अनन्य ने ट्रिप लीडर के रूप में ट्रिप का उद्देश्य बताया। उसने कहा:
“आपने अपने जीवन में बहुत कुछ किया होगा। अपने बच्चों के लिए और तमाम लोगों के लिए। अब आप इन छह दिनों में अपने लिए कुछ करेंगे। आपके बच्चों ने आपको यहां भेजा है, आपको एक गिफ्ट दिया है। यह मुझपर भरोसा है उनका। हम लोग बहुत सारी मस्ती करेंगे इन छह दिनों में जैसी हम लोग यंगस्टर के ग्रुप में करते हैं। हम घूमेंगे, बातें करेंगे, गाने गाएंगे, डांस करेंगे।
फिरगुन में हम अलग यह करते हैं कि लोगों के बारे में जानते हैं, उनसे दोस्ती बनाते हैं। जिस उम्र में आप लोग हैं उस उम्र तक आते-आते आपको लगता है कि जितने दोस्त बनने थे बन चुके। लेकिन जब आप इस तरह की ट्रिप करते हैं तो नए लोगों से मिलते हैं। नए दोस्त बनते हैं। उनकी कहानियां सुनते हैं। उनसे इंस्पायर हो सकते हैं। क्योंकि आपको नहीं पता कि दूसरे की लाईफ़ में क्या चल रहा है। उनके जीवन में क्या हुआ। तमाम अच्छी बातें। तो आप लोग बहुत सारी स्टोरीज अपने साथ लेकर जाते हैं। आप सभी को यहां देखकर बहुत मुझे बहुत खुशी हो रही है।मेरी ट्रिप लीडर के तौर पर 30 ट्रिप्स हो चुकी हैं। यह 31 वीं ट्रिप है। हम सब खूब मजे करेंगे।
आप सबसे मेरी एक ही रिक्वेस्ट है कि कोई किसी को जज नहीं करेगा। क्योंकि हमें नहीं पता किसका क्या बैकग्राउण्ड है। इतने सालों की जर्नी तय करके यहाँ तक आया है। अगर कोई ज्यादा फ़ोटो ले रहा है। कोई हंस रहा है। कोई गा रहा है। कोई ज्यादा फोटो ले रहा है। कोई खूब बातें कर रहा है कोई शांत है। तो हरेक चीज का एक रीजन होता है। तो हम किसी और को जज नहीं करेंगे। ढेर सारी यादें इकठ्ठा करेंगे। खूब मस्ती करेंगे। कोई रूल्स नहीं हैं। आइए चलते हैं।”
सबने ताली बजाकर अनन्य की बात की तारीफ की।
किसी को जज न करने वाली अनन्य की बात बड़ी अच्छी और मार्मिक भी लगी। अनुकरणीय भी। हम अपने रोजमर्रा की जिन्दगी में बिना जाने अपने आसपास के लोगों को बारे में राय बनाकर उनसे व्यवहार करते हैं। ऐसे में अक्सर उन लोगों के साथ और सच कहें तो खुद के साथ भी नाइंसाफी होती है क्योंकि अक्सर बाद में सच्चाई जानने के बाद पछतावा होता है।
होटल से निकलकर हम बस में बैठ गए। बस बाजार होते हुए डल झील के किनारे-किनारे होती हुई आगे बढ़ी। इतवार होने के कारण बाजार बंद था। दुकानों के बंद शटर के ऊपर लिखा था -save Dal Lake. शटर खुल जाने के बाद डल झील को बचाने का नारा शटर के साथ गोल होकर छिप जाता होगा।
डल झील को बचाने का मतलब उसको गन्दा न करने से है। तमाम लोग आते हैं, लोग उनको घुमाते हैं, डल झील के आसपास अनेक होटल हैं। अनगिनत दुकानें हैं। सब किसी न किसी तरह इसको गन्दा करने में सहयोग करते हैं। डल झील अनगिनत लोगों के लिए रोजगार का साधन है। यह बड़ा बाजार है। बाजार होने के चलते इसका गंदा होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। गंदगी करके फिर इसे बचाने के प्रयास देखकर मेराज फैजाबादी का शेर याद आता है:
पहले पागल भीड़ में शोला बयानी बेचना,
फिर जलते हुए शहरों में पानी बेंचना।
बाजार बंद होने के बावजूद सड़क पर भीड़ बहुत थी। जगह-जगह लोग ठेले लगाए खड़े थे। एक जगह तो प्रदर्शनी लगी थी।
सुरक्षा के लिए जगह-जगह सीआरपीएफ के जवान तैनात थे। झील के सामने सड़क पर कोई गाडी खड़ी होने की मनाही थी। पुलिस लगातार गस्त लगाती हुई, सायरन बजाते हुए गाड़ियां हटवा रही थी।
कुछ देर में हम निशातबाग पहुंच गए।

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Sunday, August 20, 2023

श्रीनगर एयरपोर्ट से होटल पैसेफिक

 


आज सुबह निकले कश्मीर के लिए। फ्लाइट सवा दस की थी। रात में कई बार जागकर समय देखा। अंततः सुबह साढ़े पांच बजे उठे। तैयार होकर नाश्ता करके साढ़े सात बजे निकले।
एयरपोर्ट समय पर पहुंचे। अंदर घुसने पर श्रीमती जी के पहचान पत्र के रूप में उनके आधार की फोटोकॉपी थी। सुरक्षा पर तैनात गार्ड ने कहा -'ओरोजिनल चाहिए।' हमने कहा -'यही है।'
उसने कहा -'इसको किसी राजपत्रित अधिकारी से अटेस्ट करवाओ। हमने फौरन बैग में मौजूद अपनी मोहर निकाली और फोटोकापी पर मार दी। उसने सिर्फ मोहर देखकर अंदर आने की अनुमति दे दी।'
इसके पहले कल कैंट एरिया में घुसने पर भी परिचय पत्र काम आया था।
सरकारी कागज और प्रमाणपत्र का जलवा ही अलग है।
एयरपोर्ट पर बोर्डिंग पास बनवाकर अंदर आये। एक जगह नाश्ता किया। तीन इडली 229 रुपये की। मद्रास में अम्मा की रसोई वाली योजना में इतने में 23 लोग नाश्ता करते हैं। लेकिन एयरपोर्ट की अलग ही दुनिया है, अलग ही दाम। हवा में उड़ने वालों की अलग ही दुनिया है।
एयरपोर्ट पर मित्र नीरज केला भाभी रेनू केला के साथ इंतजार कर रहे थे। जुलाई में रिटायर होकर पूरे मन से घूमने के लिए तैयार। हमारी फ्लाइट का टिकट रेनू भाभी ने ही कराया। जो टिकट हम तीस हजार रुपये में करा रहे थे, वो भाभी जी ने 25 हजार में करवा दिए। न जाने कौन-कौन कूपन लगाकर। नेट से खरीद भी एक कला है।
फ्लाइट समय पर ही चली। एयरइंडिया की कमान टाटा ग्रुप के हाथ में आने के बाद एयरहोस्टेस के ड्रेस बदली है। ड्रेस पहने व्योमबालायें एकदम घरेलू बालिकाएं लग रहीं थीं। जहाज हवा में उड़ा और दिल्ली के मकान माचिस के डब्बों के साइज में बदलते हुए ओझल हो गए। बादलों की भीड़ मिली। जहाज से बादल देखकर हमेशा ऐसा लगता है कि पूरी कायनात में सर्फ घोल दिया गया हो। सफेद और नीले बादल सर्फ के झाग और नीले पानी के घोल सरीखे लग रहे थे।
कुछ देर बाद एयरहोस्टेस ने नाश्ते के पैकेट थमा दिए। हमने पानी मांगा। उसने बताया इसी में है। पैकेट खोलकर देखा पानी की बोतल भी सैंडविच के साथ लेटी हुई थी। नाश्ता करके हाथ पोंछे ही थे कि जहाज नीचे उतरने लगा। थोड़ी देर में उतर भी गया।
एयरपोर्ट पर छोटे सुपुत्र अनन्य हमारा इंतजार कर रहे थे। उनकी फिरगुन कम्पनी की ट्रिप में हम पहली बार शामिल हो रहे थे। बालक ने उतरते ही सबको फिरगुन टोपी पहना दी यह कहते हुए कि यहाँ धूप तेज है। बच्चे बड़े होकर धूप से बचने के लिए इंतजाम करते हैं।
एयरपोर्ट पर सामान उठाया। बाहर निकलने के पहले फोटोबाजी हुई। भोपाल से आये पुनीत अग्रवाल जी सपत्नीक भी साथ में थे। सब लोग साथ होटल आये। बेटा बाकी के टूरिस्टों को लेने के लिए एयरपोर्ट पर ही रुक गया।
एयरपोर्ट से होटल आते हुए रास्ते में वही सब इमारतें दिखीं जो साल भर पहले दिखीं थीं। अंतर सिर्फ यह था कि पिछली बार स्वागत बरसात ने किया था इस बार धूप वेलकम कर रही थी। सूरज भाई भन्नाए हुए लग रहे थे। बहुत दिन से उनसे मुलाकात नहीं हुई थी। इसलिए शायद खफा लग रहे थे। लेकिन उनकी नाराजगी की चिंता नहीं। थोड़ी देर में खुश हो जाएंगे।
होटल वही था। जहां हम साल भर पहले रुके थे। जाना-पहचाना होटल। होटल में व्यवस्थित होकर चाय बनी। घर से लाई मठरी , लड्डू का लंच हुआ। आराम से बतियाते-गपियाते हुए आनन्दित हो रहे हैं। थोड़ी देर में ही निकलेंगे डल झील और श्रीनगर के बाग-बग़ीचे देखने।

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Saturday, August 19, 2023

विश्व फोटोग्राफी और ब्लागिंग बड्डे



इधर लिखना कम हुआ। कभी-कभी कोई मित्र कहता भी -'क्या बात है। आजकल पोस्ट नहीं आ रही! लिख क्यों नहीं रहे?'
हम कहते -'लिखना है। लिखेंगे। जल्द ही।'
आज रविरतलामी जी का मैसेज मिला -'कहां व्यस्त हैं? लिखना कम हो गया है।'
रवि रतलामी जी हमारे ब्लागिंग की शुरुआत के कारक हैं। अभिव्यक्ति पत्रिका में ब्लॉग के बारे में छपा उनका लेख पढ़कर ही हमने ब्लागिंग की शुरुआत की थी। विंडोज़ 98 में तख्ती डाउनलोड करके बड़ी मुश्किल से कुल जमा 9 शब्द लिख पाए थे पहली पोस्ट में-'अब कब तक ई होगा ई कौन जानता है।'
संयोग से इस बात को हुए आज पूरे 19 साल हुए। 19 साल पहले आज के ही दिन रविरतलामी जी की पोस्ट पढ़कर पूरे दिन भर मेहनत करके 20 अगस्त 2004 को ब्लॉग शुरू किया था। नाम रखा था फुरसतिया। इन 19 सालों में तमाम उटपटांग लिखा। उसी में कुछ छंटनी करके 6 किताबें आ गईं। दो-तीन आने की गुंजाइश है। यह सब ब्लागिंग और उसके बाद फेसबुकिया लेखन के चलते हुआ।
रवि रतलामी जी को फोन करके बताया कि लिखना जल्द ही शुरू होगा। इधर लिखना कम होने का कारण घूमने में कमी रही। इधर लगता है लिखना , घुमने पर आश्रित हो गया। घुमाई नहीं तो लिखाई बंद।
यह बात याद आते ही हम घूमने निकल लिये। दिल्ली आए थे आज। शाम को निकले। याद आया कि आज विश्व फोटो दिवस भी है। कुछ फोटो भी खींच ली जाएंगी।
गेस्ट हाउस से निकलते ही चौराहे पर बहते नल में लोग नहाते दिखे। इतनी सुविधा कहाँ मिलती है आजकल। लोग तसल्ली से साबुन मलते हुए सड़क पर पानी बहाते नहा रहे थे।
सड़क पार करते लोग सड़क से गुजरती गाड़ियों और ट्रॉफिक लाइट देख रहे थे। कब लाल हो बत्ती, गाड़ियां रुके और सड़क पार की जाए।
सड़क पर गुजरती गाड़ियों को देखते हुए सड़क पर निगाह गयी। चिटकी हुई सड़क देखकर लगा, सड़क की छाती अपने पर गुजरती गाड़ियों के बोझ से दरक गई हो।
आगे दिल्ली कैंट के बाहर फुटपाथ पर दो ड्राइवर बैठे मोबाइल देख रहे थे। पता चला वे ट्रक पर हरियाणा से सामान लेकर दिल्ली कैंट आये थे। सामान खाली करके वापस जाना है। नो एंट्री जोन रात को खुलेगी। तब जाएंगे आगे। तब तक मोबाइल दर्शन ही सही।
कुछ दूर पर एक बेंच पर तीन लोग बैठे बतिया रहे थे। हम भी बतियाने लगे। पता चला कि बिहार के गया जिले के हैं भाई लोग। यहां मजदूरी करते हैं। ऊंची जाति के हैं। खेती बटाई पर उठाकर दिल्ली कमाई के लिए चले आये हैं। बिहार सरकार से बेहद नाराजगी है। सरकार की अनाज योजना से खुश हैं। राजनीति, जाति और पार्टीबाजी के बारे में इतने रोचक डायलाग मारे कि सुनकर लगा कि बिहार के लोग सही में राजनीतिक रूप से बहुत जागरूक हैं।
आगे एक खम्भा सीधे खड़ा था। दूसरा उसको प्रणाम जैसा कुछ कर रहा था। इसी चक्कर में जड़ से उखड़ गया था। देखकर लगा किसी के भी सामने बहुत ज्यादा झुकने का परिणाम क्या होता है।
टहलते हुए बाजार दिखा। तमाम दुकानें जगर-मगर करती दिखीं। एक फास्ट फूड कार्नर पर लोग तसल्ली से खड़े खाना खा रहे थे। एक लड़का लड़की एक दूसरे से बतियाते हुए एक-दूसरे की आंखों में घुसे जैसे जा रहे थे। लड़की ने लड़के का चश्मा भी उतरवाकर देखा और खुद लगा लिया। इस बीच उनका आर्डर किया हुआ सामान आ गया और वे एक-दूसरे की आंखों में घुसे-घुसे खाने में मशगूल हो गए।
हमको एटीएम से पैसे निकालने थे। एक एटीएम से कोशिश की तो उसने बताया -' कार्ड खराब है।' दूसरे पर गए, उसने पैसे निकाल के थमा दिए। कोई-कोई एटीएम भी झूठ बोलते हैं।
लौटते में पैदल आ रहे थे। अचानक एक ई रिक्शा दिखा। पूछा -'चौराहे तक कित्ते पैसे लोगे?'
'बीस रुपये '- बुजुर्ग ने सर झुकाए हुए पैसे गिनते हुए कहा।
हमने कहा -'दस रुपये लेना।'
'अच्छा बैठो'- कहते हुए बुजुर्ग ने ई रिक्शा स्टार्ट कर दिया।
हम रास्ते भर सोचते आये कि बीस रुपये दे देंगे। इसी बहाने दोनों दस के सिक्के खप जाएंगे जो हर बार पर्स खुलते ही बाहर निकल भागते हैं। लेकिन चौराहे पर पहुचकर शायद हमारी नियत बदल गयी या सिक्के के प्रति प्रेम उमड़ आया। हमने दस रुपये ही दिए।
कमरे में लौटकर खाना खाया। कल सुबह कश्मीर निकलना है। साल भर पहले अकेले गए थे तब कम से कम सौ लोगों ने टोंका था -'अकेले क्यों आये?'
इस बार पत्नी और बेटा भी साथ में हैं। मित्रगण भी। मेरे बेटे Anany Shukla ने अपनी कम्पनी firguntravels.com की तरफ से पहली बार 40 से अधिक उम्र के लोगों के लिए यह ट्रिप प्लान की है। कुल जमा 22 लोग हैं साथ में अगले हफ्ते भर कश्मीर घूमेंगे। आप भी साथ में रहना। मजा आएगा।
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Monday, July 31, 2023

सैकड़ो सालों का इतिहास समेटे क़ुतुब परिसर में कुछ घंटे



कल दिल्ली वाक में शामिल हुए। आलोक पुराणिक जी और मनु कौशल जी ने लोगों को पिछले कुछ दिनों से दिल्ली घुमाना शुरू किया है। बकौल आलोक पुराणिक उनको इसकी प्रेरणा उनकी बिटिया इरा पुराणिक से मिली है जो लगभग हर इतवार को बस्ता पैक करके निकल जाती थी। बिटिया से सीखकर पिताजी ने भी शुरू किया दिल्ली टहलना। इस काम में उनके साथ मनु कौशल जी भी जुड़े हैं जिनके अंदर गालिब की आत्मा ने स्थायी रूप से डेरा जमाया हुआ है। पुरानी दिल्ली, लाल किला की घुमाई के बाद अब कुतुब परिसर नया ठिकाना है आवारगी की चाहत रखने वाले आलोक पुराणिक जी का।
इतवार की वाक में हम भी शामिल हुए। हमारे साथ तकरीबन 30 लोग और थे। टिकट के दाम आलोक जी ने पहले ही धरा लिए थे। 400 रुपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से। कामर्स के मास्टर होने की आड़ में उनका कहना है -'कोई काम मुफ्त में करना आर्थिक अपराध है।'
35 रुपये का टिकट भारतीयों के लिए है। परदेशियों के लिए टिकट के दाम ज्यादा हैं- शायद 500 रुपये। देशी होने का फायदा तो ठीक लेकिन परदेश के लोगों से भी ज्यादा पैसे लेना जमा नहीं। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के विपरीत काम है।
बहरहाल अंदर प्रवेश करने के बाद आलोक पुराणिक और मनु कौशल जी ने एंकरिंग शुरू की। शुरुआत में सबके परिचय हुए। कुछ वरिष्ठ नागरिक भी थे। बच्चे भी थे। टूर शुरू हुआ।
कुतुब परिसर का इतिहास कुतुबुद्दीन ऐबक से शुरू हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गोरी का गुलाम था। गोरी ने तराई की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया और अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का कामकाज सौंप कर वापस लौट गया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुतुबमीनार की शुरुआत करवाई जिसे बाद में उनके दामाद एल्तुतमिस ने पूरा करवाया। इल्तुतमिश के बाद उसकी बेटी रजिया सुल्तान गद्दी नशीन हुई। वह पहली महिला सुल्तान थी जिसके बारे में कहा गया कि रजिया में सिवाय औरत होने के कोई ऐब नहीं था। ऐसे समय में जब महिला होना अपने आप में ऐब माना जाता हो इल्तुतमिश ने अपनी बेटी को सुल्तान बनाया। कितनी आधुनिक सोच रही होगी गुलाम वंश के दूसरे शासक की।
गुलाम वंश के बाद खिलजी वंश की पारी शुरु हुई। अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी को ठिकाने लगाकर अलाउद्दीन गद्दीनशीन हुआ। मजे की बाद जलालुद्दीन अपने भतीजे को बेटे से ज्यादा चाहता था और बेटा भी अपने चाचा को बाप से ज्यादा इज्जत देता था। लेकिन मौका पाते ही अपने चाचा को निपटाकर अलाउद्दीन सुल्तान बन गया। इतिहास में हर तरह तरह के धतकरम हो चुके हैं।
खिलजी चाचा भतीजे की कहानी सुनते हुए मुझको पड़ोसी पाकिस्तान के किस्से याद आये जहां भुट्टो ने कई सीनियरों को नजरअंदाज करके जियाउलहक को सेना की कमान सौंपी थी। जियाउलहक भुट्टो से इतना डरता था कि एक बार सिगरेट पीते हुए भुट्टो के सामने पड़ने पर सिगरेट जेब में डाल ली। पैंट सुलग गयी लेकिन बोला नहीं। भुट्टो उसको अपना बंदर कहते थे। बाद में उसी बंदर ने उनकी गर्दन पर उस्तरा चला दिया और भुट्टो को निपटा दिया।
कहने का मतलब कि बहुत चापलूसी करने वाले, विनयवनत रहने वाले मुलाजिमों से सावधान रहने की जरूरत है।
बहरहाल बात हो रही थी कतुबपरिसर की। कुतुब परिसर की घुमाई शुरुआत अलाई मीनार से। अलाई मीनार की शुरुआत अलाउद्दीन खिलजी के समय हुई। सुल्तान की तमन्ना कुतुबमीनार से ऊंची और बुलंद मीनार बनवाने की थी। शुरुआत हुई। उनकी शान में कसीदे पढ़ने वालों ने लिखा -'मीनार के बनाने में सारे ग्रह लग गए।'
हिंदी साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल में कवियों को अपने आश्रयदाता राजाओं की तारीफ़ में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन की बात कही गई है। लेकिन यह काम उनके बहुत पहले शुरू हो गया था। अमीर ख़ुसरो बेहतरीन प्रतिभा से युक्त थे। वे अपने समय सात सुल्तानों के अजीज शायर रहे। उनकी सफलता में उनके द्वारा सुल्तानों की उदार तारीफ और बेहिसाब शाब्दिक चापलूसी का भी योगदान रहा होगा। हर सुल्तान की जी खोलकर तारीफ।
अलाई मीनार की शुरुआत तो हुई लेकिन मुकम्मल नहीं हो पाई और अलाउद्दीन मुकम्मल हो गए। बाद के सुल्तानों ने भी इरादा किया इसे बनवाने का लेकिन फिर लोगों की समझाइश पर हाथ खींच लिए।
इसी बहाने मोहम्मद बिन तुगलक की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए आलोक पुराणिक जी ने उनको बहुत बेवकूफ किस्म का जीनियस और जीनियस किस्म का बेवकूफ बताते हुए उनकी बेवकूफी के कई किस्से भी बयान किये यह कहते हुए कि इसको किसी से जोड़कर न देखा जाए। उनको पूरा भरोसा था कि यह कहने के बाद तुगलक के किस्सों से लोग आज के किस्से जरूर जोड़ लेंगे।
अलाई मीनार के बाद कुव्वतुल मस्जिद , लौह स्तम्भ, इल्तुमिश का मकबरा, अलाउद्दीन का मकबरा , उस समय के क्लासरूम और अलाई दरवाजा वगैरह देखना हुआ। इसी क्रम में शब्दों के सफर के लेखक पत्रकार अजित वडनेकर जी के हवाले से आलोक पुराणिक जी ने बताया कि महरौली नाम वराह मिहिर के मिहिर और पंक्ति माने कतार से पड़ा।
कुतुब पसिसर की मस्जिद कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद वहां मौजूद जैन मंदिरों के मलबे से बनाई गईं। इस बार का उल्लेख वहां के लेख में है।
परिसर में मौजूद लौह स्तम्भ चौथी शताब्दी का बताया जाता है। इस तरह कुतुब परिसर में चौथी सदी से लेकर आज तक का इतिहास आरामफरमा है। दुनिया में किसी एक जगह इतने लंबे समय की ऐतिहासिक इमारतें शायद ही मौजूद हों।
कुतुबुमीनार सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के नाम पर बनवाई बताई जाती है। लेकिन इसके पीछे की एक कहानी यह भी है कि वहीं पास में रहने वाले एक फकीर के नाम पर इसका निर्माण हुआ।
इल्तुतमिश की कब्र के बारे में बताने का काम आलोक पुराणिक जी ने बिटिया इरा पुराणिक को सौंप दिया। इल्तुतमिश ने अपनी सल्तनत अपनी काबिल बेटी रजिया को सौंपी इधर एंकरिंग का काम आलोक पुराणिक जी ने बिटिया को थमाया। इरा ने यह काम बखूबी पूरा किया।
अलाऊद्दीन खिलजी के मकबरे में उनकी कब्र बनी है। एक चबूतरा है। इसके किस्से सुनाते हुए आलोक पुराणिक जी ने उस पर कुत्ते के टहलने और एक कन्या द्वारा उस पर डांस करते हुए रील बनाने के किस्से सुनाए। अगर अलाउद्दीन इसको देखते सुनते तो कैसा महसूस करते , कहना मुश्किल है।
अलाऊद्दीन खिलजी की कब्र के बाद वहां बने क्लास रूम देखे गए जहां कभी लोग पढ़ाई करते होंगे। इसके बाद खुले में विस्तार से खुसरो पर चर्चा हुई।
खुसरो की काबिलयत, उनकी भाषाई पकड़ और आशुकवित्व पर विस्तार से चर्चा करते हुए आलोक पुराणिक जी ने उनके परम चापलूस और काम भर के छिछोरेपन का भी हसरत वाले अंदाज में कई बार उल्लेख किया इस अंदाज में गोया वह यह स्थापित करना चाहते हैं कि सदियों तक मशहूर होने वाला काम करने के लिए चापलूसी और थोड़ा छिछोरापन भी चाहिए होता है। इसी सिलसिले में ग़ालिब जी की बात भी चली जो मुगलों से वजीफे लेने के बाद उनके दुश्मन रहे अंग्रेजों से पेंसन हासिल कर ली। इसमें उनकी काबिलियत के साथ मिजाजपुर्सी का हाथ भी रहा। आजकल के मैनेजमेंट में तो मिजाजपुर्सी और चापलूसी भी काबिलियत में शुमार है।
खुले में क्लास लगी में अमीर खुसरो के चर्चे हुए। अपने हुनर और काबिलियत से सात सुल्तानों के प्रिय रहे खुसरो साहब। उनकी कविता, प्रतिभा के साथ उनकी पहेलियों के चर्चे भी हुए। सही हल बताने वाले को चॉकलेट मिली। हमको भी एक बार मिलीं। एक साथ तीन छुटकी चाकलेट। हमने मिलबांट कर खा लीं।
कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद का जिक्र करते हुए अपनी बात कहने के लिये लाल कपड़े में आने वाली फ़रियादिन का जिक्र भी हुआ। उसके तार रामायण काल के कोपभवन तक खिंचे। और भी न जाने कहाँ-कहाँ के किस्से टहलते हुए बिना टिकट इस घुमाई के दौरान बतकही में शामिल होते गए और किस्सा बनते गए। चौथी सदी से शुरु हुई कहानी का सिलसिला 21 वीं सदी तक चला।
आखिर में मामला अलाई दरवाजा पर निपटा। बुलंद दरवाजा बनने तक यह अपने यहाँ का सबसे बड़ा दरवाजा था। वहां सबके फोटो हुए। फोटो के साथ delhi walk का पोस्टर भी लगा पहले उल्टा फिर सीधा। इसके बाद सब लोग निकल लिए एक-एक करके।
करीब ढाई घण्टे के वाक के संक्षेप में किस्से यहां बयान हुए। बाकी फोटो और वीडियो नीचे लगाए जा रहे हैं। वीडियो देखकर आप दिल्ली से बाहर रहते हुए भी इस वॉक में शामिल हो सकते हैं। लेकिन अगर दिल्ली में हैं अगले इतवार को 6 अगस्त को कुतुब परिसर की वाक में शामिल हो सकते हैं। मजे की पूरी गारंटी। मजा न आने पर पैसे वापस लेकिन इसके लिए मजा न आने का सबूत पेश करना होगा। मुझे पूरा यक़ीन हैं कि आप सबूत पेश न कर पाएंगे। यकीन तो यह भी है कि अगर यहाँ के इतिहास में शामिल बुज़ुर्गवारों को भी मौका मिलता तो वे भी इस वॉक में शामिल होते। अमीर खुसरो भी अपनी पहेलियों के हल बताकर चाकलेट लूट रहे होते।
वीडियो कुछ यहां लग पाए। बाकी जो नहीं लग पाए वो अगली पोस्ट में।

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Wednesday, July 19, 2023

बहुत उलझने हैं जिंदगी में



सुबह चाय की दुकान पर भट्टी सुलगनी शुरू हो गयी। पहले धुंआ उड़ता रहा। फिर आग जली। चाय बनने लगी। लोग इंतजार में हैं।
एक बुजुर्ग दुकान के बाहर रखी बेंच पर बीड़ी पी रहे हैं। बीड़ी पीते हुए धुंआ उड़ा रहे हैं। धुंए को उड़ते हुए धुंए के पार देख रहे हैं। नजरे दूर टिकी हुई हैं। क्षितिज को ताक रहे हैं। शायद सोच रहे हैं -'धुंआ वहां तक जाएगा। लेकिन धुंआ मुंह के पास ही थक कर हवा में ही बैठ गया है शायद। संभावनाएं इसी तरह दम तोड़ देती हैं।'
बुजुर्ग जिस तरह चुपचाप बैठे बीड़ी पी रहे हैं उससे लग रहा है कि कुछ सोच रहे हैं। सोच मतलब चिंता। गरीब आदमी जब सोचता है तो उसको चिंतन कहा जाता है। यही काम जब सम्पन्न करता है तो उसे चिंतन का नाम दिया जाता है। आजकल तो चिंतन शिविरों का हल्ला है।
जो काम एक गरीब आदमी बीड़ी पीकर कर लेता है उसी काम के लिये लाखों फुंक जाते हैं चिंतन शिविरों में।
एक बीच की उमर का आदमी टहलते हुए दुकान में घुसा। बोला-'माचिस है किसी के पास?'
किसी के पास से माचिस अपने आप उसतक पहुंच गयी। बीड़ी सुलगाते हुए बोला-'बहुत उलझने हैं जिंदगी में। दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं। समझ में नहीं आ रहा कैसे निपटा जाए इनसे।'
कोई कुछ बोलता नहीं हैं। वह चुपचाप बीड़ी पीने लगता है। साथ के लोगों से बातचीत करने लगा। पता चला -'ऑटो चलाता है। फजलगंज से सवारी लेकर आया है।'
चाय बन गयी। दुकान वाला कागज के ग्लास से नापकर एक पन्नी में चाय भरने लगा। पांच ग्लास चाय बांधकर उसने पन्नी का मुंह बंद कर दिया। ग्राहक को थमा दिया।
हमने कुल्हड़ में चाय मांगी। उसने चुपचाप केतली से चाय डाल दी कुल्हड़ में। कुछ चाय कुल्हड़ की दीवार को भिगो गयी। चाय पीते हुए अपनी बनाई चाय से तुलना करने लगे। हमको लगा हम भी चाय बढिया बना लेते हैं। मन किया कि खोल लें चाय की दुकान। जितनी देर बैठें , लोगों की गप्पाष्टक सुनते रहें। लिखते रहें। सीरीज बने -'चाय की दुकान से।' या ऐसा ही कुछ।
दस रुपये की है चाय। पहली बार चाय पी थी दुकान से तीस पैसे की। 42 साल में 300 गुना बढ़ गए हैं चाय के दाम। और भी न जाने कितना बदला है इस दरम्यान। बदलाव ही शाश्वत है दुनिया में।
इस तरह के अनगिनत आइडिए आते हैं दिन भर। लेकिन जितनी जल्दी आते हैं, उससे भी जल्दी फूट भी लेते हैं। सबके साथ होता होगा। हमारे दिमाग ऐसी सड़क की तरह होते हैं जिनमें दिन भर तरह-तरह के विचार गाड़ियों की तरह गुज़रते रहते हैं। कोई टिककर नहीं बैठता।
गाड़ी आ गई। लोग बाहर आने लगे। ऑटो वाले सवारियों को अपने कब्जे में लेने की कोशिश करने लगे-'आइए कल्याणपुर, आइए विजयनगर, आइए रावतपुर।' बीच में ऑटो वालों में आपस में कहा-सुनी भी हो गयी। मां-बहन भी हुई। लेकिन सवारियां आते ही लोग लड़ाई स्थगित करके उनकी तरफ मुड़ गए। इससे लगा कि गाली-गलौज, लड़ाई-झगड़ा खाली समय और दिमाग की उपज है।
एक सवारी को एक ऑटो वाले ने लपक लिया। सवारी ने पूछा -'कितने पैसे लोगे?'
ऑटो वाले ने बोला-'उतने ही जितने पिछली बार लिए थे।' सवारी उसके साथ हो ली। उसके बेटे ने पूछा-'आपने कैसे पहचाना कि यह ऑटो वाला वही है जो पिछली बार ले गया था।' सवारी ने कोई जवाब नहीं दिया। मुस्करा कर ऑटो वाले के पीछे चल दी।
स्टेशन से लौटते हुए लगा शहर कितना बदल गया है। पहचान में नहीं आता। जो जगहें दिमाग में बसी हई हैं वो इतनी बदल गयी हैं कि पहचानी नहीं जाती। उनके आसपास इतनी जगहें पैदा हो गई हैं कि लगता है नई जगह पर आ गए-'हम कहाँ आ गए हैं, तेरे साथ चलते-चलते।'
इस्टेट में एक आदमी सामने से भागता आ रहा है। कसरत कर रहा है। दूसरा आदमी पीछे की तरफ चलता हुआ सड़क पर चल रहा है। उसके पीछे आंख नहीं है। बिना देखे पीछे चल रहा है। कोई गड्ढा पड़ गया तो उसमें लुढ़क सकता है। लेकिन अगला इससे बेपरवाह पीछे की तरफ चल रहा है।
दुनिया में कई समाज भी तो इसी तरह बिना सोचे पीछे की तरफ चल रहे हैं। उनको किसी गड्ढे में गिरने की चिंता नहीं।
आसमान में सूरज भाई मुस्कराकर गुड मॉर्निंग कर रहे हैं।

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Monday, July 10, 2023

लेखकों के खतों पर बातचीत

 लेखकों के खतों पर बातचीत। लेखक की कोई निजता नहीं होती।

सदियों-दशकों पहले कुछ रोशनियाँ लिफ़ाफ़ों में बंद कर प्रियजनों को भेजी गईं थीं, जो रविवार शाम मर्चेंट चेम्बर हाल के पहले तल पर शहर के साहित्यप्रेमियों की मौजूदगी में चमक उठीं। यह कुछ चुनिंदा ख़तों की ख़ुशबू थी, जिसका सुरूर क़रीब चार घंटे श्रोताओं पर तारी रहा। वक्ताओं के ख़ास अन्दाज़-ए-बयां ने ख़ुशबू और रोशनी की जुगलबंदी में रंग भर दिए। साहित्यिक संस्था अनुष्टुप की ‘लिफ़ाफ़े में कुछ रोशनी भेज दे’ शीर्षक से तीसरी गिरिराज किशोर स्मृति व्याख्यानमाला यादगार बन गई।
इस मौक़े पर पहला व्याख्यान प्रख्यात लेखक प्रियंवद का था। उन्होंने कहा कि मेरे विचार में लेखक की कोई निजता नहीं होती। वह कथा, उपन्यास, इंटरव्यू, संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी आदि में खुद को ही तो खोलता है। ऐसे में उसके जीवन का सब कुछ सार्वजनिक होना चाहिए। यह एक तरह का साहित्य ही है। ख़त हर समय और समाज की अमूल्य धरोहर हैं। उन्होंने माँ को लिखे जेम्स जायस के पत्र,भाई थियो को लिखे चित्रकार वान गाग के पत्र, मित्र सुरेंद्रनाथ को लिखे शरतचंद्र के पत्रों के अंश सुनाए और कहा कि इनसे साहित्य की बेहतर समझ विकसित होती है। बताया कि पहला गिरमिटिया समेत कई चर्चित क्रतियो के लेखक स्व.गिरिराज किशोर और अन्य लेखकों में हुए पत्राचार को किताब की शक्ल में लाने का काम वह पिछले दो साल से कर रहे थे। यह काम पूरा हो चुका है। किताब के पहले खंड की पहली प्रति उन्होंने गिरिराज किशोर की पुत्री शिवा को सौंपी। किताब दो खण्डों में आएगी। हलीम मुस्लिम पी जी कालेज में उर्दू के प्रोफ़ेसर खान अहमद फ़ारुक ने अदबी खतूत के सफ़र पर कहा कि उर्दू अदीबों के ख़त भी मशहूर रहे हैं। इनमें ग़ालिब, अबुल कलाम आज़ाद, मोहम्मद अली रूदौलवी के खतूत ख़ास तौर पर मशहूर रहे हैं, क्योंकि वे आम रविश से हटकर लिखे गए हैं। अगर ग़ालिब के खतों पर बात की जाए तो उनकी ज़िंदगी, उनकी शायरी से कहीं बेहतर ढंग से उनके खतूत में नुमाया हुई है। साहित्यसुधी मनोचिकित्सक डा आलोक बाजपेई ने दिलचस्प अन्दाज़ में ख़त-ओ-किताबत की पुरानी दुनिया से लेकर मौजूदा वक्त में सोशल मीडिया के ज़रिए होने वाली बातचीत के अंतर को पेश किया। कार्यक्रम की शुरुआत लेखिका अनीता मिश्रा के स्वागत वक्तव्य से हुई। संचालन कर रहे डा आनंद शुक्ल ने मुक्तिबोध के खतों का ज़िक्र करते हुए ख़ूबसूरती से कार्यक्रम को गति दी। लेखक गिरिराज किशोर की बेटी शिवा ने अनुष्टुप परिवार व उपस्थित श्रोताओं को धन्यवाद दिया। कार्यक्रम में भावना मिश्रा, पंकज चतुर्वेदी, संध्या त्रिपाठी, सईद नकवी, प्रताप साहनी, मौलि सेठ आदि रहे।
दुनिया में केवल उसने मुझे पहचाना:
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मेरा 24 घंटे का साथी भेलू। इस दुनिया में केवल उसने मुझे पहचाना था। जब उसने मुझे काटा, तब सब लोग डर गए थे। उस वक्त रवि बाबू की पंक्तियाँ याद आई ‘तोमार प्रेम आघात, आछे नाइक अवहेला’ उसका प्रेम आघात था,पर अवहेला नहीं था। उसके पूर्व कभी इतना दर्द मुझे नहीं मिला। डाक्टर इलाज कर रहे हैं। पागल कुत्ते के काटने पर जो करना चाहिए,वही। 28 इंजेक्शन, जिनमें आजतक 10 लग चुके हैं, अब 18 बाक़ी रहे। इंसान को ज़िंदा रहना है,कारण -योर लाइफ़ इज टू वैलुएबल। बहरहाल, यह भी देख लिया जाए कि आख़िर कहाँ तक क्या होता है।
(मित्र सुरेंद्रनाथ को 25.04.1925 को लिखे लेखक शरतचंद्र का लिखा पत्र)
इंतज़ार है ….मुझसे क्या कहा जाएगा :
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मैं और कुछ नहीं कर सकता था। मैंने वही किया जो मेरे हाथ करना पसंद करते थे। मेरा ख़याल है बिना शब्दों के भी मुझे समझा जाना चाहिए। मैं उस दूसरी औरत को नहीं भूला जिसके लिए मेरा दिल धड़कता था, लेकिन वह दूर थी और उसने मुझे मिलने से इंकार कर दिया था, और यह औरत सर्दी में सड़कों पर बीमार, गर्भवती, भूखी भटक रही थी। …. तुम्हारे हाथों में मेरी रोटी है। क्या तुम इसे छीन लोगे और मुझसे मुँह मोड़ लोगे? मैंने सब कह दिया है। इंतज़ार है कि मुझसे आगे क्या कहा जाएगा?
( नीदरलैंड में जन्मे मशहूर चित्रकार वान गाग द्वारा मई 1882 को अपने भाई को थियो को लिखा पत्र)

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