Sunday, October 09, 2011

ऐसे ही एक पहलवानी भरा इतवार…

http://web.archive.org/web/20140419214616/http://hindini.com/fursatiya/archives/2251

ऐसे ही एक पहलवानी भरा इतवार…

इतवार का दिन नौकरी पेशा वालों के लिये आराम का दिन माना जाता है। कुछ इसे बचे काम निपटाने का दिन भी मानते हैं। लेकिन यह वैचारिक मतभेद हर इतवार को खतम हो जाता है क्योंकि बचे काम निपटाने वाले भी अपने काम निपटाने का काम अक्सर अगले इतवार तक के लिये स्थगित कर देते हैं। नतीजतन इतवार का दिन आराम का दिन ही होकर रह जाता है।
किसी नियम सिद्धि के लिये अपवाद की आवश्यकता का भी नियम है। इसी जालिम नियम का पालन करते हुये आज सुबह-सुबह बच्चे को लेकर ’राष्ट्रीय विज्ञान मेधा खोज परीक्षा’ के अखाड़े में जाना पड़ा। अखाड़ा से अगर आप थोड़ा चकित होना चाहें तो हो लें। कुछ देर की बात है। आगे आप शायद सहमत हो जायें।
घर से वाया गुमटी होते हुये परीक्षा केन्द्र वाले स्कूल जाना हुआ। सड़क फ़ुल वात्सल्य से हमारी गाड़ी को उछालती, संभालती रही। पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सड़क की चौड़ाई आमतौर पर गाड़ियों की चौड़ाई से ज्यादा क्यों रखी जाती है। ऐसा इसलिये होता है ताकि गाड़ी जब किसी गढ्ढे में पड़कर उछले तो वापस आकर सड़क पर ही गिर सके। गुमटी शहर का कभी सबसे अच्छा बाजार माना जाता था। आज यह शहर के अन्य सभी बाजारों की लुटा-पिटा सा दीखता है। कहीं सड़क खुदी है,कहीं सड़क के नीचे का नाला परदा प्रथा का विरोध करते हुये अपने मुखड़े से सड़क का घूंघट हटाकर निर्द्वंद बहता है। बेहया सा। गढ्ढों में पड़कर उछलने से दिमाग में फ़ंसा निदा फ़ाजली जी शेर झटके से याद आ गया:
यूं जिंदगी से टूटता रहा, जुड़ता रहा मैं,
जैसे कोई मां बच्चा खिलाये उछाल के।

सड़क को देखकर यह भी लगा कि आने वाले कुछ दिनों में कहीं यह सरस्वती नदी की तरह लुप्त न हो जाये। पूरी सड़क पर गाड़ियां तितर-बितर देश के घपलो घोटालों सी पसरी थी। जानवर दिखे नहीं सुबह। शायद वे भी इतवार मना रहे हों।
स्कूल पहुंचकर गेट के खुलने का इंतजार किया। बच्चे का रोल नंबर और परीक्षा केन्द्र रात में ही घंटों फ़ोनियाने के बाद रात बारह बजने से कुछ मिनट पहले ही बता दिया गया। हमने प्रतिभा खोजने वालों की प्रतिभा और इंतजाम को नमन किया कि उन्होंने परीक्षा शुरु होने के कुछ घंटे पहले ही बच्चों का परीक्षा केन्द्र तय कर दिया।
केंद्र का फ़ाटक जब खुला तो बच्चे और अभिभावक नोटिस बोर्ड की तरफ़ लपके ताकि कमरा नंबर पता कर सकें। लोग ज्यादा थे और नोटिस बोर्ड एक ही इसलिये वहां मांग और आपूर्ति का नियम लागू हो गया। नोटिस बोर्ड के सामने वह चीज जमा हो गयी जिसे अपने यहां भीड़ के नाम से जाना जाता था। उसके बाद वह हुआ जिसे भीड़ का सहज व्यवहार माना जाता है और जिसे आम जनता धक्कममुक्का के नाम से जानती है। पहले भीड़ आपस में धक्कममुक्का करती रही। फ़िर उसने इसमें अपने आसपास के परिवेश को भी शामिल कर लिया। अब परिवेश के नाम पर सबसे नजदीक नोटिस बोर्ड ही था सो वह ही इस प्रक्रिया का शिकार बना।
धक्कममुक्का का शिकार बने नोटिस बोर्ड पर अचानक गति विज्ञान के नियम ने हमला बोल दिया और वह परिणामी बल की दिशा में विस्थापित होने लगा। जैसे ही एक तरफ़ थोड़ा सा विस्थापन हुआ वैसे ही न्यूटन जी का तीसरा नियम भी ताल ठोंक कर मैदान में आ गया। बोर्ड दूसरी तरफ़ विस्थापित होने लगा। इसके बाद तीसरी तरफ़ और अंतत: सब तरफ़ विस्थापित होने लगा। आखिर में नोटिस बोर्ड की हालत निर्दलीय विधायक सरीखी हो गयी। वह उधर ही विस्थापित हो जाता जिधर बल-बहुमत होता।
लेकिन बात केवल बोर्ड के विस्थापन तक ही सीमित न रही। इस बीच बल प्रयोग की अधिकता के चलते नोटिस बोर्ड का रूप परिवर्तन भी होने लगा। बोर्ड और स्टैंड में पहले मतभेद हुआ। फ़िर मनभेद हुआ। स्टैंड एक तरफ़ जाना चाहता तो बोर्ड दूसरी तरफ़। मतभेद/मनभेद के बाद दोनों के बीच दरार पड़ गयी। फ़िर वह दरार बढ़ भी गयी। अंतत: हुआ यह कि नोटिस बोर्ड और उसके स्टैंड का गठबंधन टूट गया। दोनों पाकिस्तान और बांगलादेश की तरह अलग-अलग हो गये। जनता स्टैंड को नीचे छोड़कर बोर्ड की तरफ़ लपक ली। इससे उपयोगिता के सिद्धांत की भी खड़े-खड़े पुष्टि हो गयी। अब मामला नोटिस बोर्ड तक ही केन्द्रित होकर रह गया।
हमने बहुत मेहनत से भीड़ के अन्दर घुसकर नोटिस बोर्ड के नजदीक पहुंचने की बहुत कोशिश की। लेकिन बहुत देर तक असफ़ल रहे। रह-रहकर अपना मोबाइल भी देखते रहे। यह विचारते हुये कि कहीं कोई इसे पार न कर दे। लेकिन मोबाइल मेरे पास आखिर तक बना रहा। इससे पुष्टि हुई कि मोबाइल चोर या तो आराम तलब होते हैं या फ़िर वहां जाना पसंद नहीं करते जहां प्रतिभा की खोज होती हो!
अंतत: हम हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती के नियम का पालन करते हुये बोर्ड के एकदम पास पहुंचे। लोग उसके ऊपर थे। दायें थे। बायें थे। इधर थे। उधर थे। मतलब सब तरफ़ थे। उसकी हालत गुंडों के बीच फ़ंसी रजिया सी हो गयी थी। हल्का हो जाने के कारण उसे लपक कोई उठा लेता जैसे चील चूहा पंजे में ले जाती है। लेकिन उसी समय कोई दूसरा उसे बाज की तरह झपटकर वापस वहीं ले आता। उसका परिणामी विस्थापन शून्य ही रहा।
जब अपने बच्चे का कमरा नंबर पता करके हम निकलने लगे तो जनता ने निकलने नहीं दिया। हम पीछे निकलने की कोशिश करते-जनता धकिया के आगे कर देती। हमारी हालत ब्लागर की सी हो गयी जो आता तो अपने से है लेकिन अगर वह बताकर वापस जाना चाहे तो लोग उसे जाने नहीं देते। फ़िर हमने नीचे झुककर निकलने की सोची तो जनता सहयोग देकर और नीचे करने लगी। एक बारगी लगा हम फ़र्श के गले लग जायेंगे। लेकिन हम झटके से एक तरफ़ निकले लेकिन वहां खड़ी मोटर साइकिल ने रास्ता रोक लिया। शायद वह भी किसी का कमरा नम्बर देखने में लगी थी।
जब कमरे पहुंचे तो देखा कि वह अन्ना मय था। हर कमरे में ’अन्ना नहीं ये आंधी है’ वाले पोस्टर लगे थे। उन आंधी वाले कमरों में पंखे मंथर गति से चल रहे थे। एक हाल नुमा कमरे में 20 वाट का सीएफ़एल जल रहा था। रोशनी इतनी पर्याप्त थी कि अगर किसी का मन करे तो रोशनी के सहारे यह विश्वास के साथ कह सकता था कि उस कमरे में एक बल्ब जल रहा था। न सिर्फ़ इतना बल्कि कोशिश करके यह भी बता सकता था कि बल्ब कमरे में किधर लगा हुआ था। कमरे की मेज-कुर्सी ऐसी थीं जैसे किसी अनगढ़ स्केचिये बच्चे ने जो मेज-कुर्सी बनाई उसई को लकड़ी पहना के वहां धर दिया गया।
जो कमरा बताया गया बच्चे की सीट उसमें थी नहीं। ’ जिन खोजा-तिन पाइयां’ के जीपीआरएस की पूंछ पकड़कर जब हम मेज तक पहुंचे तो वह कमरा बताये कमरे से तीन कमरे दूरी पर था।
इस बीच हमने जल्दी-जल्दी आसपास का माहौल देखा। बहुत दिन बाद तीन मंजिले से किसी की छत पर पड़ी खटिया देखी। मोहल्ला देखा। खटिया देखते ही ’सरकाई लेव खटिया जाड़ा लगे’ गाना याद आया लेकिन फ़िर हमने गाने से कहा यहां उचित नहीं है तुमसे और ज्यादा हेल-मेल। बाद में मिलेंगे।
और ज्यादा कुछ देखते-करते तब तक स्कूल वालों ने कुछ अनाउंस करना शुरू कर दिया। शोर में कुछ सुनाई नहीं दिया लेकिन जिस तरह लोग बाहर जाने लगे उससे लगा कि उन सबको बाहर कर दिया गया है जो बच्चों की मेधा परीक्षा में विघ्न पहुंचा सकते हैं। महाजनो एन गत: स: पन्था का अनुसरण करते हुये हम भी बाहर आ गये।
हम इतने में ही पसीने-पसीने हो लिये। जो बच्चे वहां वहां अपनी मेधा की जांच करवाने आये होंगे उनका क्या हाल हुआ होगा। कल्पना की जा सकती है।
यह तो एक दिन की बात है। ऐसे न जाने कितने वाकये होते हैं जब बच्चों की मेधा की परीक्षायें होती रहती हैं। इनमें सफ़ल होना भले मेधा की बात होती हो लेकिन इसमें सम्म्लित होने में मेधा का कम पहलवानी का रोल ज्यादा होता है।
इसके बाद भी जब अगर नारायणमूर्ति जी कहें कि मेधा के स्तर में गिरावट आयी है तो किसी को भी बुरा लग सकता है। शायद ऐसा हुआ हो कुछ मेधा पहलवानी में खर्च हो गयी हो।
लौटते समय देखा कि गुमटी चौराहे पर किसी भी तरह की मेधा परीक्षा के झांसे से दूर दिहाड़ी मजूर अपने-अपने औजार लिये अपने आज के खरीदार के इंतजार में खड़े थे।

94 responses to “ऐसे ही एक पहलवानी भरा इतवार…”

  1. मनोज कुमार
    आपके इस अभूतपूर्व कानपुर वर्णन-दर्शन की यात्रा के दौरान चेहरे पर सदैव मुस्कान तिरती रही। सड़कों की दयनीय दशा का वर्णन हमें हमारे प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री के शासनकाल की सड़कों की याद दिला गया।
    इस आलेख को पढ़ने के बाद राहत की सांस ले रहा हूं कि चलो अच्छा हुआ कि हमने कभी मेधा परीक्षा न दी और न ही हमारे बच्चों ने यह जहमत उठाई।
    मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..सफाई अभियान और अकाल कोष
  2. पंकज उपाध्याय
    Pure Awesomeness… A perfect post…
  3. shikha varshney
    :) आपकी तो तुलनाए न …बस ..मुस्कराहट हटने ही नहीं देतीं होटों से.एक से एक जबरदस्त वाक्य .मजा आ गया.
    shikha varshney की हालिया प्रविष्टी..स्वप्न, परी और प्रेम.
  4. rashmi ravija
    पूरी पोस्ट पढ़ते हुए…ऐसे कई वाकये याद हो आए…जब ऐसे ही बच्चों को परीक्षाएं दिलवाने एग्जाम सेंटर पर जाना पड़ा है..पर इस तरह की किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा. अक्सर तो अभिभावकों को वे गेट के अंदर आने ही नहीं देते कि भीड़ हो जायेगी…. बच्चे नोटिस बोर्ड पर खुद कमरा नंबर देख ही सकते हैं….और कहीं कहीं गेट के अंदर आने की अनुमति होती है…लेकिन..कमरे तक जाने की अनुमति तो बिलकुल नहीं होती…बस स्कूल परिसर में आप खड़े रह सकते हैं.
    मुंबई में ऐसे भी क्यू का चलन है…अगर सिर्फ चार लोग ही किसी ऑफिस के बाहर खड़े हों फिर भी अपने आप ही क्यू बना लेते हैं…और मुंबई भी किसी भी उत्तर भारत के शहर की तरह ही एक आम शहर है….काफी लोग उत्तर भारत के ही हैं…यहाँ आकर वे, ये सारे नियम-कायदे अपनी मर्जी से अपना लेते हैं…फिर हर जगह शांतिपूर्ण तरीके से कोई काम क्यूँ नहीं निबटा सकते.
  5. PD
    “खटिया देखते ही ’सरकाई लेव खटिया जाड़ा लगे’ गाना याद आया लेकिन फ़िर हमने गाने से कहा यहां उचित नहीं है तुमसे और ज्यादा हेल-मेल।”
    हम कुच्छो नै कहेंगे.. जे बेसी बोलेंगे तो लोग कहेंगे की बेसिए बोल रहा है.. बस चिंदी चोर जईसन मुस्की मार कर चल जाते हैं हियाँ से.. :)
    PD की हालिया प्रविष्टी..हार-जीत : निज़ार कब्बानी
  6. चंदन कुमार मिश्र
    पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सड़क की चौड़ाई आमतौर पर गाड़ियों की चौड़ाई से ज्यादा क्यों रखी जाती है। ऐसा इसलिये होता है ताकि गाड़ी जब किसी गढ्ढे में पड़कर उछले तो वापस आकर सड़क पर ही गिर सके।
    अच्छा तो यह बात है, हम भी जान लिए। बात तो बाद में। लेकिन रश्मि रविजा जी से कहना है कि चिदम्बरम के बयान में और आपके बयान में कुछ फर्क तो होना चाहिए। वरना मुम्बई के लोग कितने काबिल हैं, इसपर पूरी किताब का इन्तजाम हो सकता है…दूसरा क्यों, हमारे फुरसतिया जी ही काफी हैं…राजनीति के लिए तो आए नहीं हैं हम कि बयान वैसा दे जायँ, वरना कुछ और कह जाते…
    अब आप ही बताइए कि बच्चे इस पहलवानी प्रतियोगिता में आपके मोहताज रहें तो उनमें मेधा है?
  7. चंदन कुमार मिश्र
    ‘और मुंबई भी किसी भी उत्तर भारत के शहर की तरह ही एक आम शहर है….काफी लोग उत्तर भारत के ही हैं…यहाँ आकर वे, ये सारे नियम-कायदे अपनी मर्जी से अपना लेते हैं…’
    यह बयान एक मराठी मानुष ने दिया है या एक पाठक ने? साफ शब्दों में कहें तो कुछ तमीज आनी चाहिए…पता चले तो कितने लोग लाठी लेकर दौड़ जाएंगे। किसपर दौड़ेंगे, यह समझिए खुद?
    इस टिप्पणी को हटाया नहीं जाय, ऐसी फरमाइश कर रहे हैं। अब पूरा करने , न करने का काम तो मालिक का है…
  8. कविता वाचक्नवी
    बहुत बढ़िया गद्य –
    “सड़क फ़ुल वात्सल्य से हमारी गाड़ी को उछालती, संभालती रही। पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ कि सड़क की चौड़ाई आमतौर पर गाड़ियों की चौड़ाई से ज्यादा क्यों रखी जाती है। ऐसा इसलिये होता है ताकि गाड़ी जब किसी गढ्ढे में पड़कर उछले तो वापस आकर सड़क पर ही गिर सके। गुमटी शहर का कभी सबसे अच्छा बाजार माना जाता था। आज यह शहर के अन्य सभी बाजारों की लुटा-पिटा सा दीखता है। कहीं सड़क खुदी है,कहीं सड़क के नीचे का नाला परदा प्रथा का विरोध करते हुये अपने मुखड़े से सड़क का घूंघट हटाकर निर्द्वंद बहता है।
    सड़क को देखकर यह भी लगा कि आने वाले कुछ दिनों में कहीं यह सरस्वती नदी की तरह लुप्त न हो जाये। पूरी सड़क पर गाड़ियां तितर-बितर देश के घपलो घोटालों सी पसरी थी। जानवर दिखे नहीं सुबह। शायद वे भी इतवार मना रहे हों।”
  9. पद्मसिंह
    बहुते गज्जब…. गुमटी का नंबर बस इसी शहर मे होता है… बकिया इसी शहर मे सड़क के बीचों बीच मंदिर और शहर के ऐन बीच रेलवे लाइनों का जाल मिल जाता है… यही शहर मे मर्सिडीज और पगुराती गैया एक साथ सड़क पर विचरती हैं … जय हो
    पद्मसिंह की हालिया प्रविष्टी..भ्रष्टाचार – कारण और निवारण
  10. विवेक रस्तोगी
    अद्भुत आज इस पोस्ट को पढ़ने के बाद बहुत सारे भ्रम दूर हो गए, और यह बात सार्वभौमिक सत्य हो रही है की मेधा पहलवानी में खर्च हो रही है |
    विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हरी मिर्च वाली धनिये चटनी का स्वाद (Taste of Green Chilli Chutney)
  11. संतोष त्रिवेदी
    आपने इस पोस्ट के बहाने बच्चे की न सही मगर अपनी मेधा-परीक्षा तो पास ही कर ली है !बहुत गुर्दा है आपके भीतर !शायद ऐसे मौके आप भी चाहते हैं जब आपके अन्दर का रस बाहर निकले !
    बिलकुल ललित-कमेंट्री की है आपने !मस्तियाते हुए कइयों को लपेटा भी है,पर सबसे बड़ी बात यह है कि इतवारी-मज़ा पूरा लिहे हैं !
    मानना पड़ेगा कि ‘कट्टा’ अब ‘ए.के -४७’ बन चुका है….मजाक-मजाक मा बढ़िया पोस्टियाय हो !
  12. संतोष त्रिवेदी
    और हाँ,बेटे के लिए शुभकामनाएँ ! मेधा-परीक्षा में वह ज़रूर सफल होगा !
  13. प्रवीण पाण्डेय
    मेधा का पसीना टपकाया या शरीर का।
    प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..मैकपुरुष का प्रयाण
  14. भुवनेश शर्मा
    बहुत दिनों बाद आपको फुर्सत से पढ़ा…. गज्‍जब
    आपके यहां ईमेल सब्सिक्रिप्‍शन का प्रसाद नहीं बंटता है क्‍या ?
    भुवनेश शर्मा की हालिया प्रविष्टी..Now Tweet in Hindi
  15. Devanshu Nigam
    पोस्ट हमेशा की तरह रिफ्रेशिंग है…मज़ा आ गया…और अपने दिन भी याद आ गए…मैं जब राष्ट्रीय मेधा खोज प्रतियोगिता देने गया था…( अब प्रतियोगिता देने जाने में तो कोई रोक नहीं है न) तो मेरे एक मित्र और मुझे दोनों को एक ही रोल नंबर मिला था ..आज तक समझ नहीं आया प्रतिभा और मेधा किसमे कम थी…
    अब जब मेधा इतनी घिसेगी तो थोडा तो फर्क आयेगा ही…
    रसरी आवत जात ते..सिल पर परत निसान…
    Devanshu Nigam की हालिया प्रविष्टी..तस्वीर ही सही…
    1. पंकज उपाध्याय
      सही मालिक :-) एक कुर्सी पर आधे आधे बैठे थे तुम लोग.. :-)
      1. Devanshu Nigam
        बैठाए तो अलग अलग गए थे…रिजल्ट साथ में आ गया ..वो कहते हैं ना..
        too many cook spoil the curry… :)
        Devanshu Nigam की हालिया प्रविष्टी..मोड़ पे बसा प्यार…
  16. rashmi ravija
    @चन्दन जी,
    वरना मुम्बई के लोग कितने काबिल हैं, इसपर पूरी किताब का इन्तजाम हो सकता है…
    आप बेशक किताब लिखें….पर जिस सन्दर्भ में मैने अपनी बात कही है…उस पर अभी भी कायम हूँ….क्यंकि मैने ऐसा ही देखा है. और जिंदगी का बड़ा हिस्सा पटना, दिल्ली में ही गुज़ारा है..इसलिए वहाँ के माहौल से भी वाकिफ हूँ. इसीलिए हर बार ये ख्याल आता है….कि वहाँ भी लोग क्यू सिसटम क्यूँ नहीं अपनाते ?
    प्रसंगवश बता रही हूँ…मुंबई आने से पहले श्रावण में या शिवरात्रि में मंदिर जाती जरूर थी..पर कभी शिव जी पर जल नहीं चढ़ा पायी..इतनी भीड़ होती थी और सब कुछ बहुत ही अव्यवस्थित होता था. पर यहाँ ..छोटे से मंदिर में भी एक क्यू बना होता है..और हर एक को दो मिनट के लिए ही सही…शिव-लिंग के पास पूजा का समय जरूर मिलता है और कोई पुलिस डंडा लेकर नहीं खड़ी होती है…लोग खुद ही स्व-अनुशासन बनाए रखते हैं.
    आपकी यह पंक्ति कुछ समझ नहीं आई….
    यह बयान एक मराठी मानुष ने दिया है या एक पाठक ने? साफ शब्दों में कहें तो कुछ तमीज आनी चाहिए…पता चले तो कितने लोग लाठी लेकर दौड़ जाएंगे। किसपर दौड़ेंगे, यह समझिए खुद?
    फिर भी इतना कह रही हूँ…ये मुंबई को कोई महिमामंडित करने का प्रयास नहीं है….पर उत्तर-भारत के शहरो में self discipline की कमी बहुत खलती है और सचमुच मेरी हार्दिक इच्छा है कि वहाँ भी लोग दादागिरी दिखा कर सबसे आगे खड़े होने का प्रयास ना करें…बल्कि systematic ढंग से किसी कार्य को अंजाम दें.
    rashmi ravija की हालिया प्रविष्टी..घूँघट की आड़ से….
  17. घनश्‍याम मौर्य
    विज्ञान और हास्‍य का बहुत बढि़या मिश्रण तैयार किया है आपने। बड़ा अच्‍छा स्‍वाद लगा इसका।
  18. ashish
    अरे कल इतवार को हमने भी शहर की सड़कों का वात्सल्य भाव के दर्शन किये . अब हम तो मेधा पाटेकर को जानते है केवल ये नई मेधा प्रतियोगिता कब से शुरू हुई? वैसे मेधा सेधा से कछु ना होत है .कोदो है तो पढाई भी हो जाती है और मेधा वाला प्रमाण पत्र भी मिल जाता है . . बहुते लोगों को जानता हूँ ऐसे मेघा वाले औलादों के पालक. और सुनिए जी सडक बन रही है अब .
    ashish की हालिया प्रविष्टी..ओ दशकन्धर
  19. eklavya
    ये………….’अ’ ……..टिप है……………., क्युंके……..आजकल टिपण्णी पे बरी बमचक मची है……………..
    ये आप के पोस्ट की कमी है…….के….टिपण्णी देने को मजबूर करते हैं…………..
    प्रणाम
  20. पूजा उपाध्याय
    ‘जब अपने बच्चे का कमरा नंबर पता करके हम निकलने लगे तो जनता ने निकलने नहीं दिया। हम पीछे निकलने की कोशिश करते-जनता धकिया के आगे कर देती। हमारी हालत ब्लागर की सी हो गयी जो आता तो अपने से है लेकिन अगर वह बताकर वापस जाना चाहे तो लोग उसे जाने नहीं देते। ‘
    आपकी ब्लॉग्गिंग के प्रति श्रद्धा देख कर हमारा मस्तक झुक जाता है, पहलवानी और प्रतिभा में भी आप ब्लॉग्गिंग को भूलते नहीं…कैसी भी समस्या हो, न हो, कैसे भी हालातों से गुजरें…मन एकदम अर्जुन की तरह मछली की आँख पर निशाना साधे रहता है. आप जैसे ब्लॉगर का ब्लॉग पढ़ कर हम धन्य धन्य हुए जाते हैं. अनूप जी…एकदम फुरसतिया मार्का पोस्ट, लहालोट हुए जा रहे हैं, पृष्ठभूमि में धिनचक, चकाचक जैसे ध्वनि गूँज रही है. जय हो!
  21. चंदन कुमार मिश्र
    रश्मि जी,
    मैंने भूत देखे हैं, इसलिए भूत होते हैं। यह वैज्ञानिक रवैया है।
    क्षेत्रीयता और अलगाववादी होने की …
    अगर ये कहा जाय कि गरीब गन्दे होते हैं तो इसका अर्थ इतना सीधा नहीं कि लोग समझाना शुरू कर दें। अब यह तो मैं नहीं स्वीकारने वाला कि कोई आदमी अकेले कुछ अनुभव करे और उसे इतिहास-भूगोल बना डाले। उत्तर भारत में तो मंदिरों में लगभग आदमी पूजा करता है और इतनी दिक्कत तो तभी हो सकती है जब भीड़ बहुत अधिक हो।
    किसी की स्थिति पर समाधान और सुझाव देने से पहले उसके कारणों पर भी ध्यान देना चाहिए न कि अपनी असुविधा देखी और पचास करोड़ लोगों पर आरोप मढ़ दिया जाय। हालांकि ऐसा हो ही जाता है कई बार।
    और क्यू तो हम बहुत जगह देखते हैं यहाँ। टिकट कटाते समय, बैंक में लगभग जगह। और बात रही शुक्ल जी वाली परीक्षा की तो भीड़ पूरे मुंबई में नहीं होती होगी? मौका मिलते ही उत्तर भारत पर बयान दे जाना इतना ठीक नहीं। हाँ, कमियाँ हैं, लोगों में कुछ कमी भी है लेकिन मुंबइया लोग १०० फीसदी निर्दोष, अनुशासित, बुद्धिमान हैं ही!
    सबसे आगे खड़े होकर काम करवाने की बात में इतना कहना है कि सब लोग तो नहीं हैं ऐसे। जिन इलाकों के लोगों की मेहनत से कुछ इलाके समृद्ध हैं, वे इस बात कहने के अधिकारी बिलकुल नहीं। अनुशासन एक तानाशाही ही है, इसकी व्याख्या नहीं करूंगा यहाँ…बंधुत्व और एकता तो अवश्य है हमारे यहाँ, जो अनुशासन से बहुत ज्यादा कारगर है। आपकी बातें गलत भी नहीं लेकिन अलगाववादी जैसा बयान देना ठीक नहीं लगा। उम्मीद है मुझे समझा जाएगा।
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)
  22. Jitu
    यार तुम तो कानपुर की नाक-हिये कटवा दिए. कानपूर में अभिभावक बच्चे को छोड़ने नहीं आते, बल्कि बगल में बैठकर परीक्षा में पास भी करवाते हैं, तुम तो दुबक कर निकल लिए, ऐसे अभिभावक होंगे तो बच्चों का भविष्य कैसा होगा?
    रही बात गुमटी की, क्या दिन थे वो, घंटों फाटक पर खड़े रहना, ट्रेन के इंतज़ार में सड़क के इधर उधर बेखटके ब्यूटी को निहारना, अचानक उनके वो दिखे तो अखियाँ फेर लेना, लेकिन फिर भी कनखियों से दूरदर्शन करते रहना| दरअसल अखियाँ फेर लेना मुहावरे का मतलब भी तभी समझ में आया था, खैर अब का कर सकते हैं, छोड़ आये हम वो गलियां, सिर्फ सिर्फ शुकुल के लिए, भाई अब तुम वहां पर हो तो परंपरा का निर्वाह करो, और हमें आखों देखा हाल बताते रहो.
  23. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    कानपुर क्या वाकई इतना कबाड़ हो गया है? धन्य है प्रभु।
    वहाँ तो देश भर की प्रतिभाएँ जुटती हैं कंपटीशन के पहले और कंपटीशन के बाद भी।
  24. देवेन्द्र पाण्डेय
    अंतिम पंक्तियाँ अत्यंत मारक हैं।
  25. eklavya
    लेखक और पाठकों के बीच कुछ मरीज और उसके मुलाकातियों का-सा संबंध होता है। लेखक अपनी तकलीफों को मुलाकाती के सामने रखता है। इस ख्याल से कि यह लम्हा लेखक का है, पाठक कुछ सब्र से, कुछ लिहाज से लेखक को बोलने देता है। लेकिन लेखक फिजूल की या बे-लुत्फ बातें करता है तो पाठक पन्ना पलट देता है। मुलाकात खत्म हो जाती है।…….जी के गाँधी…….(भास्कर के सम्पादकीय पृष्ट से)
    व्यंगकारों पे भी ब्यंग…………..ये कोई विधा है या खालिस स्पिरिट………….
    आज-कल हम जैसे अदनों की भी टिप … ‘टाप’ के रख लेते हैं लोग……………..
    पिछले दिनों एक ‘शेर’…………ग़ज़ल शब्द से सुरुआत करी थी……………उसमे रद्दोबदल कर फिर से टांक
    दे रहे हैं…………”शेर निकले हैं, जब से कानपुरी-कट्टा….
    इरशाद करने लगे हैं, अखारे का पट्ठा”
    बकिया, आपके पोस्ट का क्या कहना…………बस्स, पूजाजी से सहमत हुए जाते हैं.
    प्रणाम.
  26. aradhana
    रोशनी इतनी पर्याप्त थी कि अगर किसी का मन करे तो रोशनी के सहारे यह विश्वास के साथ कह सकता था कि उस कमरे में एक बल्ब जल रहा था।…बड़ी कोशिश किये कि बिना हँसे पूरी पोस्ट पढ़ जाएँ, एल्किन हियाँ आकर हँसी छूट गयी. सच्ची, हमारे उत्तर भारत में चाहे वो परीक्षा केन्द्र का नोटिस बोर्ड हो चाहे रेलवे स्टेशन का भीड़ के बीच फंसकर वो ऐसे ही विज्ञान के नियमों की पुष्टि करता दीखता है :)
    रश्मि दी की बात सही है. हर महानगर का एक कल्चर होता है और सिविक सेन्स के मामले में मुम्बई, दिल्ली से लाख गुना अच्छा है. उत्तर भारत वालों को उनसे तहजीब सीखनी चाहिए, कहीं से अच्छी बातें सीखना बिलकुल बुरा नहीं है.
    aradhana की हालिया प्रविष्टी..दिल्ली पुस्तक मेले से लौटकर
  27. सतीश पंचम
    ये बात मैंने भी महसूस की है कि उत्तर भारत के मुकाबले मुम्बई के लोग अनुशासन के मामले में बीस ठहरते हैं। यहां भी बमचक है, कतार तोड़ कर आगे जाने की धक्कापेल है लेकिन उत्तर के मुकाबले कम। वहां जौनपुर, इलाहाबाद, बनारस के थियेटर में पहुंचो तो टिकट लेते समय छह छह हाथ घुसेड़े देखे हैं। जाने टिकट देने वाला कैसे समझ जाता है कि फलां हाथ को बालकनी चाहिये, फलां हाथ को स्टॉल।
    रही बात एक बिजली के बल्ब से पूरे कमरे के प्रकाशमान होने की एक बार मई महीने में कोई परीक्षा देने गया था गाँव। वहां शहर में ही एक स्कूल में सीट मिली थी। क्लास में एक भी बल्ब न ट्यूबलाईट। पंखा तक ससुर खड़र-खड़र करते हांफ रहा था। परीक्षार्थी शर्ट उतार कर बैठे थे, उसी शर्ट से हवा कर रहे थे। एस पी महोदय जांच के लिये आये थे तो कुछ परीक्षार्थी मजाक में ही पूछ बैठे – का हो, अइसे ही तोहूं सेलेक्ट भये रहे का ?
    क्लास में जिसकी ड्यूटी लगी थी वे शिक्षक महोदय जब हाजिरी संख्या और हाल टिकट के मिलान के लिये खिड़की छेंक कर खड़े हुए तो एक परीक्षार्थीयों ने डांट दिया – ऐ अजोरचन्न….., हट जाइये खिड़की से….काहे अन्हियार किये हैं :)
    सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..लेखन विधा में एक बीमारी ऐसी भी……….
    1. पंकज उपाध्याय
      हाहाहा :-)
  28. चंदन कुमार मिश्र
    काम शुरू हो गया…हा हा हा। अजीब हाल है, कुछ बोलो तो पूरी टीम बुलाने का इरादा है क्या?…
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)
  29. चंदन कुमार मिश्र
    यह संयोग ही है या दुर्योग ही है कि उत्तर भारत के लोग बस सीखें…
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..एक बार फ़िर आ जाओ (गाँधी जी पर एक गीत)
  30. सतीश पंचम
    चंदन जी,
    जहां तक सीखने सिखाने की बात है मैं इतना जरूर जानता हूं कि कई मामलों में उत्तर भारत बहुत बड़ा झंडू है। आपको खराब लगे तो लगे लेकिन सच्चाई यही है।
    और ऐसा भी नहीं कि दक्षिण एकदम से अलौकिक है। यहां भी बहुत अगड़-तगड़ है, बहुत सारे अहमक भ्रांतियां हैं, टुच्चई है लेकिन फिर भी उत्तर के मुकाबले दक्षिण में एक तरह का ‘गेन’ महसूस होता है।
    सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..लेखन विधा में एक बीमारी ऐसी भी……….
  31. चंद्र मौलेश्वर
    बच्चों की मेधा की परिक्षा न हुई गोया उनका मेदा और भेजा टटोला गया है :) वैसे तो सनडे का दिन तो अंडे का दिन होता है॥
    चंद्र मौलेश्वर की हालिया प्रविष्टी..नीलम कुलश्रेष्ठ- एक समीक्षा
  32. आशीष श्रीवास्तव
    बहुत बढ़िया व्यंग्य है …
    असर और भी उम्दा है :) . उत्तर और दक्षिण के समर्थन में लोग बाग़ इकट्ठे होने लगे है .
    ऐसा असर तो आपने भी नहीं सोचा होगा लिखते समय …कमाल करते हो आप .
    हम भी MP से आकर उत्तर, दक्षिण और पूरब पच्छिम में रह चुके है , चुप कैसे रहे ??
    ” तहजीब का गुणगान , यहाँ भी है वहां भी ,
    कुछ लोग पहलवान , यहाँ भी है वहां भी ||
    :) :) :) :) :D
    आशीष श्रीवास्तव
  33. चंदन कुमार मिश्र
    वाह! क्या तमीज है जैसे जान बूझकर पहनी हुई फटी कमीज है…अभी वक्त नहीं…समय इतना नहीं कि अपशब्दों का जवाब दें…
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र
  34. वन्दना अवस्थी दुबे
    ऐ भैया, हमने तो पता नईं कित्ती बार ऐसी धकापेल झेली है :( ऐसी कि हम कहीं खड़े हैं और हमारे कंधे पे टंगा झोला किसी और की बगल में दबा है :) अपनी टूटती गर्दन सहलाने के लिए हाथ उठाया तो किसी और की सहला दी :) कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर लगे रोल नंबर देखने के लिए तो हमेशा ही दूसरों की चिरौरी करनी पड़ी :( दिल्ली की लोकल बसों के अन्दर तो हम कभी अपने पैरों पर गए ही नहीं :) दूसरों के धक्कों से अन्दर गए, और उन्ही धक्कों के सहारे अपने स्टॉप पर उतर भी लिए :) :) :)
    “सड़क को देखकर यह भी लगा कि आने वाले कुछ दिनों में कहीं यह सरस्वती नदी की तरह लुप्त न हो जाये। ”
    आखिर में नोटिस बोर्ड की हालत निर्दलीय विधायक सरीखी हो गयी। वह उधर ही विस्थापित हो जाता जिधर बल-बहुमत होता।
    भीड़ में से बाहर निकालने की ज़द्दोज़हद बहुत स्वाभाविक है :)
    हर कमरे में ’अन्ना नहीं ये आंधी है’ वाले पोस्टर लगे थे। उन आंधी वाले कमरों में पंखे मंथर गति से चल रहे थे।
    वाह!!!
    कमरे की मेज-कुर्सी ऐसी थीं जैसे किसी अनगढ़ स्केचिये बच्चे ने जो मेज-कुर्सी बनाई उसई को लकड़ी पहना के वहां धर दिया गया।
    क्या बात है!! गज़ब कल्पना.
    बहुत बढ़िया पोस्ट है. एकदम चकाचक. पढ़ते हुए हम भी पसीना-पसीना हो गए :)
    वन्दना अवस्थी दुबे की हालिया प्रविष्टी..कोई आहट, कोई हलचल हमें आवाज़ न दे……
  35. चंदन कुमार मिश्र
    ऊपर सतीश जी के लिए है। और फुरसतिया जी के लिए…किताब हम कहाँ लिखने लायक हैं, यहाँ तो उत्तर भारतीय लोग सीखने ही आते हैं, हम भी सीख लेंगे। किताब का इन्तजाम न कि किताब का लिखना…कहा था…समय निकालेंगे रात तक…कुछ कहने के लिए…मजा आया, सुनकर मुझे भी मजा आया। सामूहिकता का सौन्दर्य जैसे युद्ध में, आतंकवादीयों में, भक्तों में(भक्त होने के लिए भगवान का होना आवश्यक नहीं, ये लोग किसी के भी भक्त हो सकते हैं, कुर्सी के भी, लोटा के भी, सब्जी के भी, किसी प्रदेश के भी), परीक्षा में, कुत्तों में, बंदरों में, सबमें ध्यान रखिएगा सामूहिकता का…इन्तजार कर रहे हैं…लिखिए जल्दी…
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र
    1. विवेक रस्तोगी
      किताब कोई भी लिखे ऑनलाईन लिखिये, हम भी उसके पाठक रहेंगे।
      विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हरी मिर्च वाली धनिये चटनी का स्वाद (Taste of Green Chilli Chutney)
  36. चंदन कुमार मिश्र
    देवेंद्र जी की बात महत्व की है…इस बार वन्दना जी भी बन्हिआ कह गयीं…
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र
  37. rashmi ravija
    @अनूप जी,
    सही कहा…’हर शहर का अपना मिजाज़ होता है,’ उसे वैसे ही बने रहने देना चाहिए और उसमे रद्दोबदल की कोई गुंजाईश..अपेक्षा…चाहत नहीं होनी चाहिए.
    एक्चुअली उसकी चर्चा भी नहीं करनी चाहिए :)
    और मुंबई सिर्फ आपराधिक राजधानी और .सबसे बड़ा स्लम ही नहीं है ..ढूँढने पर इस से बढ़कर और कई कमियाँ मिल जायेंगी…{ ‘सुकेतु मेहता’ की ‘मैक्सिमम सीटी’ इसमें बहुत सहायता करेगी :)}
    पर यहाँ सन्दर्भ सिर्फ और सिर्फ लोगो में civic sense और स्व-अनुशासन का था.
    खैर जगजीत सिंह यूँ ही नहीं कह गए..’बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी…’ सचमुच दूर तलक गयी…:)
    (किसका लिखा है..नहीं मालूम..गाया जगजीत सिंह ने है, बस इतना पता है .)
    rashmi ravija की हालिया प्रविष्टी..सुबह से ही आँखों में नमी सी है….
  38. rashmi ravija
    @ वैसे चन्दन जी से दुबारा मुखातिब होने का मन नहीं था..पर सोचा दुबारा पूछ ही लिया जाए, (पहली बार में उन्होंने बताया ही नहीं )…लगा शायद…चन्दन जी की लिखी इन पंक्तियों पर ब्लॉग लेखक कोई प्रतिक्रिया देंगे….पर वे भी चुप रहे तो….इन पंक्तियों का अर्थ बता ही दीजिये .
    “यह बयान एक मराठी मानुष ने दिया है या एक पाठक ने? साफ शब्दों में कहें तो कुछ तमीज आनी चाहिए…पता चले तो कितने लोग लाठी लेकर दौड़ जाएंगे। किसपर दौड़ेंगे, यह समझिए खुद?”
    मराठी मानुष तो मैं हूँ नहीं…बिहार की हूँ,जाहिर है पाठक के तौर पर ही कहा है……पर किसे तमीज आनी चाहिए?? ये कौन लोग लाठी लेकर दौड़े आएँगे??…और किस पर??…एक्सप्लेन प्लीज़
    rashmi ravija की हालिया प्रविष्टी..सुबह से ही आँखों में नमी सी है….
  39. eklavya
    ऐ भैया, हमने तो पता नईं कित्ती बार ऐसी धकापेल झेली है ऐसी कि हम कहीं खड़े हैं और हमारे कंधे पे टंगा झोला किसी और की बगल में दबा है अपनी टूटती गर्दन सहलाने के लिए हाथ उठाया तो किसी और की सहला दी कॉलेज के नोटिस बोर्ड पर लगे रोल नंबर देखने के लिए तो हमेशा ही दूसरों की चिरौरी करनी पड़ी दिल्ली की लोकल बसों के अन्दर तो हम कभी अपने पैरों पर गए ही नहीं दूसरों के धक्कों से अन्दर गए, और उन्ही धक्कों के सहारे अपने स्टॉप पर उतर भी लिए…..
    ऐसेच ही कुछ लिखा जिया भाई लोगों……………थूकम-फझिहत के लिया बहुत बरी दुनिया है ब्लॉगजगत में.
    ……….यहाँ मौज-मजे की बात की जाई…………
    व्यंग की यही खासियत है के हर कोई इसे अपने से जोरकर देखने लगता है………कुछ जादा हो गया. क्षमा.
    प्रणाम.
  40. चंदन कुमार मिश्र
    रश्मि जी,
    जगजीत साहब के चलते ही बोल नहीं रहा। शुरू में ही लिख चुका था, खुद समझिए। और वैसे भी आपकी इच्छा नहीं थी दुबारा मुखातिब होने की। माफी चाहते हैं, कष्ट हुआ आपको। फिर से माफी मांगते हैं क्योंकि जिस व्यक्ति को मुखातिब होना ही नहीं था, उसे बोलना पड़ा या उसने कुछ कहा। अब इतनी हिम्मत नहीं कि हम आपकी तौहीन करें और फिर मुखातिब होन पड़े। शुक्रिया।
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..गरीबी का हिसाब-किताब और मेरा अर्थशास्त्र
  41. चंदन कुमार मिश्र
    विवेक जी, सेना में तानाशाह लोग होते हैं या नहीं, बेहतर तो सेना वाले बताएंगे ही…हाँ…अपनी इज्जत का फटा हुआ ढोल जो पीट सकते हैं, वे सच बोलें तभी। जिसे हमें अनुशासन कहकर मूर्ख बनाया जाता है, वह तानाशाही जैसा होता है। अन्तर बस विनम्रता और कायरता/दब्बूपन जितना होता है…समझने वाला जैसे समझे…हाँ, हम कोई वीर-बहादुर होने का दावा नहीं करते हैं।
  42. archanaa
    कुछ् बदलने वाला नहीं लगता है..
    वही सड़क,वही गढ्ढे, वही बच्चे ,वही परीक्षा, वही खोज……
  43. Abhishek
    एकदम चकाचक पोस्ट है जी. वन ऑफ दी बेस्ट ! एक एक लाइन में मज्जा आया.
    टिपण्णी पढ़ने में बहुत समय खोटा हुआ :) लोग काहे उलझ पड़ते हैं जी.?
  44. Anonymous
    एकदम झकास टाइप का व्यंग …मज़ा आ गया
  45. Anonymous
    पहली बार मुझे इस बात का एहसास हुआ क सड़क क चौड़ाई आमतौर पर गाड़य क चौड़ाई से यादा य रखी जाती है। ऐसा इसिलये होता है ताक गाड़ जब कसी गढे म पड़कर उछले तो वापस आकर सड़क पर ह िगर सके। ग
    बहुत सटीक visleshan. मैं भी एअक वर्ष तक केडीए में तैनात रहा हु तब मोतीझील से रेलवे स्तातों का सफ़र उतना ही समय लेट था जितना कानपूर से लखनऊ.
    इया बहतरीन व्याख्या के लिए साधुवाद.e
  46. ePandit
    विज्ञान के फॉर्मूलों को सिचुएशन में क्या खूबसूरती से फिट किया आपने। मजा आ गया पढ़कर। बच्चे के साथ-साथ आपकी भी परीक्षा हो गयी।
    ePandit की हालिया प्रविष्टी..मॅक्टिनी – दुनिया का सबसे छोटा कम्प्यूटर [वीडियो]
  47. Ashish
    Notice board ka visthapan – bahut badhiya laga.
    Ashish की हालिया प्रविष्टी..ज़िन्दगी को चखता जा
  48. vaibhav gaumat
    :-)
  49. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] ऐसे ही एक पहलवानी भरा इतवार… [...]

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