http://web.archive.org/web/20140419213559/http://hindini.com/fursatiya/archives/1387
….मॉडरेशन के इंतजार में टिप्पणियां
By फ़ुरसतिया on May 4, 2010
स्थान: एक ब्लॉग का टिप्पणी बक्से के बाद का स्थान!
पात्र: माडरेशन के इंतजार में बाट जोहती कुछ टिप्पणियां।
मौसम: ठीकै है। ब्लागानुकूल!
माडरेशन: वह प्रक्रिया जिसके द्वारा किसी ब्लॉग पर आई टिप्पणियों को स्वीकृत, अस्वीकृत या बदला जाता है।
टिप्पणी बक्से में कुछ टिप्पणियां बाहर निकलने के लिये फ़ड़फ़ड़ा रही हैं। नहीं,नहीं! गल्त हो गया जी – हड़बड़ उपमा के चलते। तनिक यहिका सुधार के पढ़ लिया जाये। टिप्पणियां फ़ड़फ़ड़ा नहीं रही हैं। वे हड़बड़ा रही हैं। हड़बड़ी में हैं लेकिन शान्त हैं। सावधान, अटेंशन मुद्रा में। मानो मन मारकर अपना राष्ट्रगान गा रही हैं। वे अपने ब्लॉग स्वामी का इंतजार कर रही हैं-अहिल्या की तरह। उनको पक्का भरोसा है कि ब्लॉग स्वामी किसी भी क्षण आयेगा और उनको अहिल्या की मुद्रा से निकालकर बीड़ी जलैइलो जिगर मां बड़ी आग है की गतिमान मुद्रा में लाकर धर देगा।
समय बिताने के लिये टिप्पणियों ने अंत्याक्षरी का विकल्प चुनने की बजाय बतकही का वरण किया और आपस में वह करने लगीं जिसे उर्दू शायर लोग गुफ़्तगू और दिलजले अफ़साना निगार चेमगोइयां कहते हैं। टिप्पणी बक्से में किसी भी सार्वजनिक स्थल की गरिमा के अनुरूप अंधेरा ही अंधेरा है! हाथ को हाथ तो छोड़िये टिप्पणी को टिप्पणी नहीं सुझा रही है। इसी के चलते टिप्पणियों को दूरी का अन्दाज ही नहीं हो रहा है। नतीजतन, बतकही का आलम यह है कि कोई बगल की टिप्पणी से तो चिल्लाकर बतिया रही है लेकिन दूर की टिप्पणी से ऐसे फ़ुसफ़ुसाकर बतिया रही हैं गोया कि उनके कान और इनके होंठ जुड़वां भाई हों।
कुछ टिप्पणियां ऐसी भी हैं जिनको सिर्फ़ अंधेरे में ही दिखता है। अंधेरा देखकर वे उसी तरह प्रमुदित हो रही हैं जिस तरह सामानों की कमी को देखकर जमाखोर! उनकी खुशी छलक-छलक जा रही है। इसी छलकी हुई खुशी के चलते टिप्पणी बक्से का फ़र्श कुछ गीला हो गया है और कई टिप्पणियां फ़िसल-फ़िसल जा रही हैं। गिरने से कुछ के तो एकाध भी शब्द टूट फ़ूट जा रहे हैं। जिनके शब्द टूट-फ़ूट रहे हैं वे टटोल-टटोलकर फ़र्श पर से जो भी शब्द मिल जा रहा है उसे अपने से सटा ले रही हैं जिस तरह घरों में अचानक किसी अतिथि के आ जाने पर दरवाजे के खड़ी घर की स्त्रियां और कुछ नहीं तो दरवाजे पर पड़ा परदा ही ओढ़ लेती हैं। इसके चलते अर्थ का अनर्थ तो हो ही रहा है कुछ-कुछ मामलों में तो अनर्थ का भी अर्थ हो जा रहा है।
आप देखिये कुछ मूल टिप्पणियां की धजा कैसी बन गयी है:
मूल टिप्पणी: आप बहुत अच्छा लिखते हैं।
बदली टिप्पणी: आप बहुत बहुत लिखते हैं।
मूल टिप्पणी: आप जैसे सुधी लेखक से ऐसे ही संतुलित लेखन की अपेक्षा थी। आपने मेरा दिल जीत लिया। आपकी लेखनी को सलाम।
बदली टिप्पणी: आप जैसे चिरकुट लेखक से ऐसे ही संतुलित बेवकूफ़ी की अपेक्षा थी। आपने उनका दिल जीत लिया। आपकी बेवकूफ़ी को साधुवाद।
मूल टिप्पणी: आप बड़ी आसानी से कठिन से कठिन बात को सरल शब्दों में व्यक्त कर लेते हैं।
बदली टिप्पणी: आप बड़ी आसानी से सरल से सरल बात को उलझाऊ शब्दों में व्यक्त कर लेते हैं।
मूल टिप्पणी: आपके लेखन में मुझे में हरिशंकर परसाई जी के लेखन की छ्टा दिखती है।
बदली टिप्पणी: आपके हरकतों में मुझे मुन्ना भैया पानवाले के लन्तरानियों की छटा दिखती है।
अब और ज्यादा क्या दिखायें। हर क्षण कोई टिप्पणी खुशी छलका रही है। कोई गिर रही है। कोई अपने गिरे हुये शब्द बटोर रही है। टिप्पणियों को अपने अर्थ-अनर्थ से मतलब नहीं! वे केवल शब्द गिन-बटोर-सहेज रही हैं। देखकर लग रहा है टिप्पणीतंत्र न हो हुआ प्रजातंत्र हो गया -केवल वोट गिने जा रहे हैं।
टिप्पणियां पहली बार एक जगह इकट्ठा हुई हैं लेकिन हरकतें ऐसी कर रही हैं जैसे एक-दूसरे को तीसरे-चौथे को दसवें-बाहरवें को छब्बीसवें-सत्ताइसवें को जन्म-जन्मांतर से जानती हों। उनकी बातचीत सुनकर कभी तो यह भी आभास होता है जैसे वे टिप्पणियां न होकर ब्लॉगर हों और उनको किसी गलतफ़हमी के चलते यहां बक्से में थोड़ी देर के लिये ठूंस दिया गया हो तथा उन्होंने मौका देखकर ब्लॉगर मिलन कर डाला हो। सब एक दूसरे से हंसी-मजाक कर रही हैं। एक-दूसरे की तारीफ़ कर रही हैं। एक दूसरे को अच्छा और बहुत अच्छा बता रही हैं। मामला गर फ़िरदौस बर रुये जमीनस्त जैसा न समझ लिया जाये इसलिये टिप्पणियां सांसारिक लोकाचार का पालन करते हुये बुराई-भलाई भी करती चल रही हैं। ज्यादा हम क्या कहें आप खुदै उनकी बातचीत सुन लीजिये:
बुजुर्ग टिप्पणी ने उसको झटके से गले लगा लिया और प्यार जैसा कुछ करने लगी। उसने उसको इत्ती जोर से गले लगाया कि लोग उनका प्रेम देखकर निहाल हो गये। लेकिन बाद में घटना की वीडियो रिकार्डिंग देखने/सुनने वालों ने बताया कि बुजुर्ग टिप्पणी बालिका टिप्पणी को फ़ुसफ़ुसाकर हड़काते हुये कह रही थी- सबके सामने मातु कहती है बेवकूफ़! दीदी नहीं कह सकती। वह आगे भी गुस्साती लेकिन उसके ऊपर आर्थिक चेतना और सामाजिक चेतना ने धावा बोल दिया और उसने फ़टाक से दो बातें तय की:
१. इस बार ब्यूटी पार्लर का पूरा पेमेन्ट नहीं करना है।
२. पहला मौका मिलते ही बच्ची की मानस गुटका की आदत छुड़वाकर कविता/अकविता पुड़िया की आदत डलवानी है।
इसके बाद बुजुर्ग टिप्पणी ने उसके समर्थन में बहुत हल्ला मचाया। हल्ला मचते देखकर लोग गुल्ला भी मचाने लगे। स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में है टाइप हो गयी।
बात आगे बढ़ती तब तक ब्लॉग स्वामी कहीं से आवारगी करके आ गया। आते ही उसने बिना देखे सारी टिप्पणियों को माडरेट कर दिया। सारी टिप्पणियां अपनी-अपनी पोस्टों पर जाकर विराजमान हो गयीं। सब जगह खुशी का माहौल व्याप्त हो गया। टिप्पणियां अंधेरे से निकलकर उजाले में आने से इत्ती खुश थीं , इत्ती खुश थीं कि खुशी जाहिर नहीं कर पा रहीं थीं।
कुछ मिनट अंधेरे में रहने के चलते बेजान टिप्पणियों की हालात जब ऐसी हो जाती है तो उनके क्या हाल होते होंगे जो सदियों से अंधेरे में रहने को अभिशप्त हैं। जब कभी वे उजाले में आयेंगे तब कित्ते खुश होंगे!
जैसे टिप्पणियों के दिन बहुरे वैसे सबके बहुरैं।
पात्र: माडरेशन के इंतजार में बाट जोहती कुछ टिप्पणियां।
मौसम: ठीकै है। ब्लागानुकूल!
माडरेशन: वह प्रक्रिया जिसके द्वारा किसी ब्लॉग पर आई टिप्पणियों को स्वीकृत, अस्वीकृत या बदला जाता है।
टिप्पणी बक्से में कुछ टिप्पणियां बाहर निकलने के लिये फ़ड़फ़ड़ा रही हैं। नहीं,नहीं! गल्त हो गया जी – हड़बड़ उपमा के चलते। तनिक यहिका सुधार के पढ़ लिया जाये। टिप्पणियां फ़ड़फ़ड़ा नहीं रही हैं। वे हड़बड़ा रही हैं। हड़बड़ी में हैं लेकिन शान्त हैं। सावधान, अटेंशन मुद्रा में। मानो मन मारकर अपना राष्ट्रगान गा रही हैं। वे अपने ब्लॉग स्वामी का इंतजार कर रही हैं-अहिल्या की तरह। उनको पक्का भरोसा है कि ब्लॉग स्वामी किसी भी क्षण आयेगा और उनको अहिल्या की मुद्रा से निकालकर बीड़ी जलैइलो जिगर मां बड़ी आग है की गतिमान मुद्रा में लाकर धर देगा।
समय बिताने के लिये टिप्पणियों ने अंत्याक्षरी का विकल्प चुनने की बजाय बतकही का वरण किया और आपस में वह करने लगीं जिसे उर्दू शायर लोग गुफ़्तगू और दिलजले अफ़साना निगार चेमगोइयां कहते हैं। टिप्पणी बक्से में किसी भी सार्वजनिक स्थल की गरिमा के अनुरूप अंधेरा ही अंधेरा है! हाथ को हाथ तो छोड़िये टिप्पणी को टिप्पणी नहीं सुझा रही है। इसी के चलते टिप्पणियों को दूरी का अन्दाज ही नहीं हो रहा है। नतीजतन, बतकही का आलम यह है कि कोई बगल की टिप्पणी से तो चिल्लाकर बतिया रही है लेकिन दूर की टिप्पणी से ऐसे फ़ुसफ़ुसाकर बतिया रही हैं गोया कि उनके कान और इनके होंठ जुड़वां भाई हों।
कुछ टिप्पणियां ऐसी भी हैं जिनको सिर्फ़ अंधेरे में ही दिखता है। अंधेरा देखकर वे उसी तरह प्रमुदित हो रही हैं जिस तरह सामानों की कमी को देखकर जमाखोर! उनकी खुशी छलक-छलक जा रही है। इसी छलकी हुई खुशी के चलते टिप्पणी बक्से का फ़र्श कुछ गीला हो गया है और कई टिप्पणियां फ़िसल-फ़िसल जा रही हैं। गिरने से कुछ के तो एकाध भी शब्द टूट फ़ूट जा रहे हैं। जिनके शब्द टूट-फ़ूट रहे हैं वे टटोल-टटोलकर फ़र्श पर से जो भी शब्द मिल जा रहा है उसे अपने से सटा ले रही हैं जिस तरह घरों में अचानक किसी अतिथि के आ जाने पर दरवाजे के खड़ी घर की स्त्रियां और कुछ नहीं तो दरवाजे पर पड़ा परदा ही ओढ़ लेती हैं। इसके चलते अर्थ का अनर्थ तो हो ही रहा है कुछ-कुछ मामलों में तो अनर्थ का भी अर्थ हो जा रहा है।
आप देखिये कुछ मूल टिप्पणियां की धजा कैसी बन गयी है:
मूल टिप्पणी: आप बहुत अच्छा लिखते हैं।
बदली टिप्पणी: आप बहुत बहुत लिखते हैं।
मूल टिप्पणी: आप जैसे सुधी लेखक से ऐसे ही संतुलित लेखन की अपेक्षा थी। आपने मेरा दिल जीत लिया। आपकी लेखनी को सलाम।
बदली टिप्पणी: आप जैसे चिरकुट लेखक से ऐसे ही संतुलित बेवकूफ़ी की अपेक्षा थी। आपने उनका दिल जीत लिया। आपकी बेवकूफ़ी को साधुवाद।
मूल टिप्पणी: आप बड़ी आसानी से कठिन से कठिन बात को सरल शब्दों में व्यक्त कर लेते हैं।
बदली टिप्पणी: आप बड़ी आसानी से सरल से सरल बात को उलझाऊ शब्दों में व्यक्त कर लेते हैं।
मूल टिप्पणी: आपके लेखन में मुझे में हरिशंकर परसाई जी के लेखन की छ्टा दिखती है।
बदली टिप्पणी: आपके हरकतों में मुझे मुन्ना भैया पानवाले के लन्तरानियों की छटा दिखती है।
अब और ज्यादा क्या दिखायें। हर क्षण कोई टिप्पणी खुशी छलका रही है। कोई गिर रही है। कोई अपने गिरे हुये शब्द बटोर रही है। टिप्पणियों को अपने अर्थ-अनर्थ से मतलब नहीं! वे केवल शब्द गिन-बटोर-सहेज रही हैं। देखकर लग रहा है टिप्पणीतंत्र न हो हुआ प्रजातंत्र हो गया -केवल वोट गिने जा रहे हैं।
टिप्पणियां पहली बार एक जगह इकट्ठा हुई हैं लेकिन हरकतें ऐसी कर रही हैं जैसे एक-दूसरे को तीसरे-चौथे को दसवें-बाहरवें को छब्बीसवें-सत्ताइसवें को जन्म-जन्मांतर से जानती हों। उनकी बातचीत सुनकर कभी तो यह भी आभास होता है जैसे वे टिप्पणियां न होकर ब्लॉगर हों और उनको किसी गलतफ़हमी के चलते यहां बक्से में थोड़ी देर के लिये ठूंस दिया गया हो तथा उन्होंने मौका देखकर ब्लॉगर मिलन कर डाला हो। सब एक दूसरे से हंसी-मजाक कर रही हैं। एक-दूसरे की तारीफ़ कर रही हैं। एक दूसरे को अच्छा और बहुत अच्छा बता रही हैं। मामला गर फ़िरदौस बर रुये जमीनस्त जैसा न समझ लिया जाये इसलिये टिप्पणियां सांसारिक लोकाचार का पालन करते हुये बुराई-भलाई भी करती चल रही हैं। ज्यादा हम क्या कहें आप खुदै उनकी बातचीत सुन लीजिये:
- कब खुलेगा ये बक्सा! जल्दी से माडरेट करे ये मुआ तो जरा खुली हवा में सांस लेने को मिले। यहां तो दम घुट गया खड़े-खड़े!
- अरे आता होगा यार! हड़बड़ी क्या है। कहीं गया होगा बॉस के पास पांव फ़िराने। आयेगा! करेगा! उसके सरदर्द में तुम काहे अपने विक्स वेपोरब मल रही हो!
- नई यार वो बात नहीं! लेकिन बोर हो गये यहां अंधेरे में वेट करते-करते।
- हमको न बताओ! यहां बोर हो गयी या वहां पोस्ट से सटने का मन कर रहा है! इंतजार सहन नहीं हो रहा। हमसे तो न छुपाओ।
- अरी हट! सबको अपने जैसा समझती है। हम कोई ऐसे-वैसे बलॉगर की टिप्पणी नहीं हैं। हमारा मालिक जरा सा कहीं देख लेता है इधर-उधर की हरकत तो फ़ौरन टिप्पणी मिटा देता है। फ़िर भले ही वही टिप्पणी बोल्ड में दुबारा करे।
- बड़ा मूडी है तेरा मालिक। सेन्सेक्स से याराना लगता है क्या उसका?
- कुछ मत पूछ! लगता है अल्ला मियां ने उसके दिमाग में अल्टरनेटिंग करेंट फ़िट करके भेजा है। कभी स्थिर रहता ही नहीं। हर पल बदलता रहता है। करेंट की तरह काम करता है उसका दिमाग।
- अरी बहना तू इत्ती गरम काहे हो रही है! लगता है एकदम अभी-अभी किसी विचारोत्तेजक पोस्ट से चलकर आई है। क्या किसी धार्मिक पोस्ट पर जाना है तुझे!
- न री बहन मुझे भाईचारे वाली पोस्ट पर जाना है। आजकल लोग भाईचारे का आवाहन भी गुस्से में ही करते हैं।
- अच्छा! मुझे तो लगा कि सिर्फ़ हिन्दी सेवा को ही गुस्से का प्रयोग करने की अनुमति मिली है। ये नयी बात पता चली कि भाईचारे में भी गुस्सा अलाउड है।
- अरे भाईचारा तो छोड़ो! आजकल तो प्रेम की बातें भी गुस्से से ही शुरु करने का रिवाज है। जो जोड़ा जित्ता उखड़ लेता है आपस में उसका ही प्रेम जमता है।
- अच्छा, तभी आजकल देखती हूं कि तुमसे बात नहीं करनी, भाड़ में जाओ, हेल विद यू का बहुत चलन है प्यार-मोहब्बत में।
- हां यार,आजकल हर जगह बिना गर्मी के बात शुरू ही नहीं होती। एक जगह तो क्या हुआ कि मीटिंग शुरू हुये घंटा बीत गया और कोई बात ही नहीं शुरू हुई। कारण पता चला कि न कोई झल्लाया न गुस्साया न कपड़े फ़टे तो बात क्या होगी खाक! फ़िर एक ने उठकर समाज की दुर्दशा, पतन, अन्याय और न जाने किस-किस पर गुस्सा उतारा तब कहीं बातचीत शुरू हो पायी।
- सच कह रही हो! इसीलिये ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती जा रही है। लोग बेचारे पेट्रोल, डीजल की खपत कोस रहे हैं। जबकि असली मुजरिम गुस्सा है।
- अरी छोड़ यार तू बता कैसी है। बड़ी चिकनी-चुपड़ी लग रही है। बात क्या है। कोई चक्कर तो नहीं किसी कमेंट से।
- अरे न भाई! असल में तुमको बताऊं कि जिसके की बोर्ड से मैं निकलकर आई हूं वैसे तो वो बड़ा खडूस है। बुद्धिजीवी टाइप का। लेकिन जब उसका माथा खराब होता है तो अपनी टिप्पणियों में बड़ा प्यार उड़ेल देता है। मैं ऐसे ही किसी ब्लॉगर के खराब समय की उत्पत्ति हूं।
- उत्पत्ति नहीं उत्पात बोल री। मैं सब समझती हूं उत्पत्ति, निष्पत्ति,आपत्ति,विपत्ति के लटके-झटके । नानी से ननिहाल की बातें तो मती कर।
- उत्पत्ति, निष्पत्ति,आपत्ति,विपत्ति कहकर तो तू भाई चारे वाली पोस्टों की तरह बोर करने लगी। कोई चटपटी बात कर री!किसी अनामी, बेनामी किस्से सुना। अच्छा ये बता ये बेनामी टिप्पणियां होती कैसी हैं! दिखती कैसी हैं।
- ऐसे पूछ रही है तू जैसे मेरा बेनामी, अनामी टिप्पणियों से बहुत याराना है!
- नही वो बात नहीं! तू सीनियर टिप्पणी है न! शायद तुझे कुछ पता हो।
- अरे कैसी होती हैं मेरे, तेरे जैसी होती हैं। ये समझ ले जैसे अनाथालय के बच्चे होते हैं। उनके मां-बाप उनको पैदा करके छोड़ देते हैं मरने-भटकने के लिये वैसे ही बेनामी टिप्पणियां होती हैं। कमजोर मना ब्लॉगर की अवैध संतान होती हैं बेनामी टिप्पणियां। वे कमजोर मन वाले भी क्या करें। जरा सा अभिव्यक्ति सुख लूटने के चक्कर में फ़ंस जाते हैं। उनको पता ही नहीं चलता और टिप्पणी ठहर जाती है। वे उसे छोड़कर भाग लेते हैं। कोई उदार ब्लॉगर उसे पाल-पोस लेता है। ज्यादातर तो हलाक ही कर देते हैं।
- अच्छा! कभी देखी नहीं न इसलिये पूछा!
- अरे छोड़ क्या देखना। वो देख वो कित्ती क्यूट सी गुड़िया जैसी टिप्पणी दिख रही है। क्या लिखा है पढ़ जरा उसे तू। मुझे दिख नहीं रहा अंधेरे में।
- अरे कुछ लिखा नहीं! स्माइली बनी है बस!
- जरूर खुन्नस में होगा करने वाला। आजकल खुन्नस में लोग मुस्कराने बहुत लगें हैं! खुन्नस में मुस्कराने का रिवाज ही चल पड़ा है।
- हां सच है। मैंने भी देखा कि एक के लिये किसी ने ऊलजलूल बातें लिखीं। पढ़कर उसका दिमाग गर्म हो गया। उसने तुरन्त एकदम खौलती हुई टिप्पणी लिखी और पोस्ट करने के पहले स्माइली लगा दी। स्माइली बेचारी पोस्ट पर जाने तक सहमी सी , ब्लागर के गुस्से से झुलसती सी ऐसे खड़ी रही जैसे डीटीसी बसों में छोटे शहर की लड़की पहली बार चढ़ी हो।
- सच में आजकल तो मरन है स्माइलियों की।आजकल तो स्माइलियां कहती हैं भगवान अगले जनम मोहे स्माइली न बनईयो।
- हां लोग स्माइली का बुद्धि की तरह गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। यही हाल रहा तो एक दिन बुद्धि की तरह स्माइली भी बदनाम हो जायेगी।
- यार कभी-कभी तो लगता है कहां आ फ़ंसे इन ब्लॉगरों के चक्कर में! उधर कहीं कोने में किताबों में पड़े रहते। कभी तो मन उदास हो जाता है कि क्या हो गया इस ब्लॉग दुनिया को!
- अरे तू तो परिपक्व ब्लॉगर की तरह बात करने लगी। क्या चक्कर है री! जो ऐसे जिम्मेदाराना डायलाग मारने लगी। कुछ उलटा-पुलटा तो नहीं खा लिया टिप्पणी बक्से में आने के पहले! एवोमीन लेगी! मैं हमेशा रखती हूं। पता नहीं कब जरूरत पड़ जाये।
- चल भाग बड़ी आयी एवोमीन वाली! जरा सा एक्टिंग भी नहीं करने देती! तू मेरी सहेली नहीं दुश्मन है। जा तेरे को धार्मिक तो सांस्कृतिक पोस्ट पर भी जगह न मिले! परिपक्व टिप्पणी कहीं की।
बुजुर्ग टिप्पणी ने उसको झटके से गले लगा लिया और प्यार जैसा कुछ करने लगी। उसने उसको इत्ती जोर से गले लगाया कि लोग उनका प्रेम देखकर निहाल हो गये। लेकिन बाद में घटना की वीडियो रिकार्डिंग देखने/सुनने वालों ने बताया कि बुजुर्ग टिप्पणी बालिका टिप्पणी को फ़ुसफ़ुसाकर हड़काते हुये कह रही थी- सबके सामने मातु कहती है बेवकूफ़! दीदी नहीं कह सकती। वह आगे भी गुस्साती लेकिन उसके ऊपर आर्थिक चेतना और सामाजिक चेतना ने धावा बोल दिया और उसने फ़टाक से दो बातें तय की:
१. इस बार ब्यूटी पार्लर का पूरा पेमेन्ट नहीं करना है।
२. पहला मौका मिलते ही बच्ची की मानस गुटका की आदत छुड़वाकर कविता/अकविता पुड़िया की आदत डलवानी है।
इसके बाद बुजुर्ग टिप्पणी ने उसके समर्थन में बहुत हल्ला मचाया। हल्ला मचते देखकर लोग गुल्ला भी मचाने लगे। स्थिति तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रण में है टाइप हो गयी।
बात आगे बढ़ती तब तक ब्लॉग स्वामी कहीं से आवारगी करके आ गया। आते ही उसने बिना देखे सारी टिप्पणियों को माडरेट कर दिया। सारी टिप्पणियां अपनी-अपनी पोस्टों पर जाकर विराजमान हो गयीं। सब जगह खुशी का माहौल व्याप्त हो गया। टिप्पणियां अंधेरे से निकलकर उजाले में आने से इत्ती खुश थीं , इत्ती खुश थीं कि खुशी जाहिर नहीं कर पा रहीं थीं।
कुछ मिनट अंधेरे में रहने के चलते बेजान टिप्पणियों की हालात जब ऐसी हो जाती है तो उनके क्या हाल होते होंगे जो सदियों से अंधेरे में रहने को अभिशप्त हैं। जब कभी वे उजाले में आयेंगे तब कित्ते खुश होंगे!
जैसे टिप्पणियों के दिन बहुरे वैसे सबके बहुरैं।
Posted in बस यूं ही | 40 Responses
सुप्रभातम….
टिप्पड़ियों में ही उलझा दिया ….बड़ी मुश्किल से निकल के खुली हवा में सांस ले पाया …कपडे और फट गए !
शुभकामनायें !
तीन-चार दिन पहले किसी ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ रहा है. ब्लॉगर का कहना था कि ऐसा कुछ लिखा जाना चाहिए जिसे अगर आज से पांच-सात साल बाद लिखने वाले के बेटे-बेटियां पढ़ें तो उन्हें गर्व हो. लगता है आपने वह पोस्ट पढ़ ली थी….:-)
टिप्पणी को जल्दी माडरेट कीजियेगा. अगर कहीं मेरी टिप्पणी की मुलाक़ात अपने डॉक्टर साहब की टिप्पणी से हो गई तो हंगामा हो जाएगा…:-)
: ) : )
………
ऐसा टिप्पणी पुराण न कहीं देखा न सुना..अद्भुत [विचित्र]कल्पना है!
–बहुत गहरी रिसर्च हो रही है..ऐसा लगता है.
–मौसम का[जैसे सर्दी /बरसात/गर्मी का भी कुछ असर पड़ता है क्या इन पर?
–आभार इस मजेदार पोस्ट के लिए!
टिप्पणियों के लिए आपातकालीन व्यवस्था के तहत बुलेटप्रूफ जैकेटों और हेलमेट की आपूर्ति के लिए टेंडर दिए जा चुके हैं…
टिप्पणी अधिकार आयोग में मेरी शिकायत जाने के बाद मैंने अपने मॉ़डरेशन का ही गला घोट कर कत्ल कर दिया…
जय हिंद…
….इतना क्रिएटिव आदमी सरकारी महकमे में भला क्या कर रहा है?? बताया जाए।
-मुझे तो लगा कि सिर्फ़ हिन्दी सेवा को ही गुस्से का प्रयोग करने की अनुमति मिली है। ये नयी बात पता चली कि भाईचारे में भी गुस्सा अलाउड है।
-जरूर खुन्नस में होगा करने वाला। आजकल खुन्नस में लोग मुस्कराने बहुत लगें हैं! खुन्नस में मुस्कराने का रिवाज ही चल पड़ा है।
-स्माइली बेचारी पोस्ट पर जाने तक सहमी सी , ब्लागर के गुस्से से झुलसती सी ऐसे खड़ी रही जैसे डीटीसी बसों में छोटे शहर की लड़की पहली बार चढ़ी हो।
-हां लोग स्माइली का बुद्धि की तरह गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। यही हाल रहा तो एक दिन बुद्धि की तरह स्माइली भी बदनाम हो जायेगी।
और… चलते-चलते दर्शन भी…
-कुछ मिनट अंधेरे में रहने के चलते बेजान टिप्पणियों की हालात जब ऐसी हो जाती है तो उनके क्या हाल होते होंगे जो सदियों से अंधेरे में रहने को अभिशप्त हैं। जब कभी वे उजाले में आयेंगे तब कित्ते खुश होंगे!
… … आपकी लेखनी को सलाम !
बड़ी ई और छोटी इ के बाद इसी तरह की क्रियेटिविटी की उम्मीद थी आपसे.. टिप्पणियों की बातो में री, धत जैसे शब्दों ने माहोंल बना दिया.. लगता है कंचन कँवर की बातो को सीरियसली लेकर अब आपने लिखना चालु ( चालु लेखन ना समझे) कर दिया है..
हम तो धन्य हुए ऐसी पोस्ट बांच कर.. इस पोस्ट के लिए आपको सौ लम्बर
masijeevi ji ki bat ka javab diya jaye
धाँसू-फांसू-हांसू पोस्ट है
पढ़कर मजा आ गया ।
“हड़बड़ी में हैं लेकिन शान्त हैं। सावधान, अटेंशन मुद्रा में। मानो मन मारकर अपना राष्ट्रगान गा रही हैं।”
“लोग स्माइली का बुद्धि की तरह गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। यही हाल रहा तो एक दिन बुद्धि की तरह स्माइली भी बदनाम हो जायेगी।”
आऊ ये ईज़ाद तो कमाल का है-
’इसीलिये ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती जा रही है। लोग बेचारे पेट्रोल, डीजल की खपत कोस रहे हैं। जबकि असली मुजरिम गुस्सा है”
क्या कोसा है टिप्पणी ने टिप्पणी को-
“जा तेरे को धार्मिक तो धार्मिक, सांस्कृतिक पोस्ट पर भी जगह न मिले! ”
और सबसे मज़ेदार हिस्सा-
” जिसके उसकी लात लगी वह अंधेरे में देख सकने वाली टिप्पणी थी। वह अपने बगल की बुजुर्ग टिप्पणी के पास गयी और मात लात वह मुंहझौंसी मारा कहकर रोने लगी
सबके सामने मातु कहती है बेवकूफ़! दीदी नहीं कह सकती। वह आगे भी गुस्साती लेकिन उसके ऊपर आर्थिक चेतना और सामाजिक चेतना ने धावा बोल दिया और उसने फ़टाक से दो बातें तय की:
१. इस बार ब्यूटी पार्लर का पूरा पेमेन्ट नहीं करना है।
२. पहला मौका मिलते ही बच्ची की मानस गुटका की आदत छुड़वाकर कविता/अकविता पुड़िया की आदत डलवानी है”
जय हो. इतने बारीक विषयों पर इतने बेबाक और शानदार तरीके से लिख पाना सबके वश की बात नहीं.
और भेली पर छींटे की तरह चक्कर मारता रह गया ! ज्यादा गुड़ { गुड भी } रहता है तो कहाँ से
खाना खाएं , इसका भी संकट पैदा हो जाता है !
@ टिप्पणियों को दूरी का अन्दाज ही नहीं हो रहा है …..
——— टीपों के कथ्य की एकमयता पर सही फरमाया है ! कहने को नाम अलग – अलग
होते हैं पर सब जहां पहुँचती है कह देती हैं – ” हम चलेंगे साथ-साथ , डाले हांथों में हाँथ ” !
…
बदली टिप्पणियाँ मूल टिप्पणियों पर भारी हैं ! इनमें ज्यादा यथार्थ है , दिखने वाला … मूल
में एक दूसरा यथार्थ है जो दिखाने वाला है , जो कि दिख ही जाता है !
…
३१ – सों में बातें ऐसी हैं कि जैसे पखेरू कचड़े में मूड़ बोरते हों और फिर बनारस की गंगा में
नहा-नहा कर एक दुसरे को प्यार करने लगते हों , जैसे कोई उनसे कहा हो — ” ब्लॉग जगत की
शोषित टीपों एक हो ” !
…
@ जैसे टिप्पणियों के दिन बहुरे वैसे सबके बहुरैं। — लीलावती , कलावती की तरह ! याद आ
गया !
………….. और ,,,
masijeevi ji ki bat ka javab diya jaye
टिप्पणियों के इतिहास में मील का पत्थर .. कहीं कहीं तो इतनी हंसी आई कि संभालना मुश्किल हो गया … अभी तो ये रचना मैं कई लोगों को सुनाने के मूड में हूँ .. और ये रहा स्मिले उम्मीद है ये सहमी हुई नहीं होगी..
ढेर सारी शुभकामनायें.
संजय कुमार
हरियाणा
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
“जैसे टिप्पणियों के दिन बहुरे वैसे सबके बहुरैं।”
भगवान करें आपके हिस्से में ऐसी ही मस्त टिप्पणियों की बरसात होती रहे।
बाँचा नहीं बल्कि पढ़ा ।
कुश हमसे ” सौ लम्बर ” उधार माँग कर पहले ही यहाँ खर्च चुके हैं !
भंयंकर रचनात्मकता.. घोर क्रियेटिविटी…
ओर हाँ अमरेन्द्र की टिपण्णी एक दम धांसू है.ढक चिक बोले तो
— मैं तो टिप्प्णी करके, पोस्ट कमेंट पर क्लिक कर दूसरे पोस्ट पर चला जाता हूं!
—- असाधारण शक्ति का गद्य, बुनावट की सरलता और रेखाचित्रनुमा वक्तव्य सयास बांध लेते हैं, कुतूहल पैदा करते हैं। आपका टिप्पणियों से साक्षात्कार दिलचस्प है।
आप ही उन बिचारियो का दर्द समझ सकते है… मज़ा आ गया उनको बतियाते पढकर.. तो अगला क्या ला रहे है? लोगो के कमेन्टबाक्स पर लिखे स्वागत- मैसेजेज :P..
जी सही समझा मॉडरेशन-रूम सिर्फ़ ब्लॉग-स्वामी की ही शानो-शौकत का प्रतीक नही है..हम टिपकर्ता/टिप्पजीवियों के टीपाधिकारों का हिस्सा है..हम भी लिखने से पहले ही टीप को मॉडरेट कर सकते हैं…ब्लॉकतंत्र उह्ह मेरा मतलब है कि ब्लॉगतंत्र मे ब्लागस्वामी को भी बस उतने ही अधिकार हैं जितने हम जैसे टिप्पपुरोहितों के..जो हॉस्टल के दिनों के नाँई हर कमरे के बंद दरवाजों के नीचे से अपनी टीपे खिसका कर खिसक लेते हैं..सो जरा मॉडरेशन के ग्रीन रूम मे अपनी टिप्पणी के चेहरे पर भी रंग-रोगन मेकअपादि कर के पेश करते हैं..
खैर संक्षेप मे कहूँ तो जबदस्त पोस्ट..खतरनाक..हमारे जैसे पैदाइशी बोर प्राणियों के साथ घनघोर अत्याचार (शायद इंफ़ार्मेशन एंड बोर-कास्टिंग मिनिस्ट्री वाले सुन रहे हों इसे) यूँ कहें कि मजा आ गया..और देखों तुरंत दुकान मे घुस कर अपनी औकात के मुताबिक माल भी निकाल लाये..अपनी पसंद का…यह वाला..’मात लात वह मुंहझौंसी मारा’
हाँ वैसे वर्तनी-करेक्शन की सलाह और रोमनभाषी वाली टिप्पणियां के वार्तालाप की कवरेज सुनने से तो वंचित रह ही गये हम..खैर फिर सही..
और हाँ हमारे जैसे क्षुद्र टीपार्थियों को मॉडरेशन की विलासिता कहाँ..आखिर ब्लॉग-प्रभु ही बन सकते हैं टिप्प-पालक और टिप्पविनाशक (’दाँत चिआरने वाला स्माइली’)
..फिर आता हूँ
आप काफी अच्छा लिखते है, कठिन से कठिन बात को भी बहुत सरल शब्दों मे कह देते है।
(बाकी व्याख्या आप स्वयं कर लेना)
( कृपया इसे जस का तस प्रस्तुत करें । इसमे ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं है )
और
बेनामी टिप्पणियों को अनाथ…सबके सामने मातु कहती है बेवकूफ़! दीदी नहीं कह सकती।…पसन्द आ गए(पसन्द आए नहीं, आ गए…ध्यान दें)
ये चित्र क्यों लगाया है, कहीं ये दोनों टिप्पणियाँ तो नहीं?
आप शेर बिगाड़ने के लिए तो पहले से कट्टा कानपुरी का बहाना खोजते हैं, अब विज्ञान के नियम और धार्मिक वचनों माने प्रवचनों को भी बिगाड़ने का काम ले लिया?…
कभी कभी लगता है कि कितना अच्छा होता टिप्पणियों में माडरेशन के वक्त सीधे काट-छाँट करने का विकल्प होता, शायद होता भी हो, मुझे जानकारी नहीं है…
वैसे कई बार हम प्रोफ़ाइल और नाम की नकल लेकर टिप्पणी कर सकते हैं। चित्र भी लाया जा सकता है, अगर किसी खास लेखक महोदय की दवाई करनी हो…हाँ, यह सब आई पी पता देखने वालों के लिए नहीं है
अब लगता है कि आप ब्लाग-टिप्पणी आदि पर एक किताब लिख चुके हैं, आप पहले लेखक हो जाएंगे जो इन पर किताब लिख सके, मौका है महान बन जाइए…
वैसे कहीं पढ़ा था कि एक कुर्सी बहुत दुखी होती है, शायद किसी कहानी में…अब टिप्पणियाँ भी सजीव हो गईं…बचना जरूरी हो सकता है
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..इधर से गुजरा था सोचा सलाम करता चलूँ…