Thursday, May 01, 2014

देश सेवा का ठेका

आजकल चुनावों का मौसम है।

इस मौसम में देशसेवा के ठेके तय किये जाते हैं। ठेका हासिल करने के लिये आजकल टेंडर भरे जा रहे हैं।

देश का 25 साल की उमर का नागरिक जो घोषित रूप से पागल, दीवालिया और अपराधी नहीं है वह देशसेवा के काम के लिये अपनी अर्जी लगा सकता है।

ऐसे तो कई पागल, दीवालिया और अपराधी चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन वे घोषित नहीं हैं। इसलिये देशसेवा का टेंडर भर रहे हैं। जनता जानती है कि वे पागल, दीवालिया या फ़िर अपराधी हैं। लेकिन उनको पागल, दीवालिया या अपराधी घोषित करना जनता के अधिकार में नहीं है। जिनको यह काम मिला है उनका कहना है-"जनता इनको बहुमत से चुन रही है फ़िर इनको कैसे अपराधी घोषित कर सकते हैं।" 

पागल, अपराधी और दीवालिया होना अयोग्यता नहीं है। घोषित होना अयोग्यता है।
जो देशसेवा के लिये लड़ रहे हैं वे अपने को सुपात्र बताने के लिये तरह-तरह से अपनी खूबियां बता रहे हैं। जैसे कोई सामान बेचने वाला अपने सामान की खूबी बताता है उसी तरह। 

अपनी खूबी बताने के साथ-साथ वे जनता को यह भी बताते जा रहे हैं कि जिनमें यह खूबियां हों देशसेवा का ठेका उसी को मिलना चाहिये। अपनी खूबियों में कमी होती तो दूसरों की खामियां गिना देते। 

पिछले दिनों एक बयान आया कि जनता की सेवा के लिये सीना चौड़ा होना चाहिये।
तमाम बहस हुयी इस पर। वो तो कहो एक राय नहीं बनी इसपर वर्ना अब तक सारे बॉडीबिल्डर लिये बुलवर्कर शपथ ले चुके होते।

नेताओं की सुरक्षा में लगे चौड़े सीने वाले तमाम कमांडो अपने हथियार नेताओं को थमाकर देश संभाल लिये होते।

इसके बाद बयान आया कि चौडे सीने वाला नहीं दरियादिल वाले को देशसेवा का काम मिलना चाहिये।

दरियादिल मतलब जिसका दिल दरिया के समान हो- उदार।

लेकिन दिल दरिया के समान होने का मतलब में लफ़ड़ा है। एक तो देखने तय करने का झंझट। क्या जनता की जगह डा. त्रेहन तय करेंगे कि किसको देशसेवा का अधिकार दिया जाये।

दूसरा झंझट मतलब में है। पता चला कि जिसका दिल देखा जायेगा वो गंदा और खडूस मिलेगा। अगला कहेगा -"हमने तो पहले ही कहा था कि हमारा दिल दरिया के समान है। देश के सारे दरिया गंदे हैं। सूखे हैं। आप हमें देश सेवा के ठेके से कैसे वंचित रख सकते हैं। "

कोई नेता बयान देता है चुनाव में जीतने के बाद वो कानून बनवायेगा कि बलात्कारियों को फ़ांसी की सजा न मिले।

यह योग्यता है अगर चुनाव जीतने की तब तो बलात्कारियों के वकीलों को शपथ ग्रहण करा देना चाहिये।

चुनाव जीतने के बाद स्विसबैंक का पैसा स्वदेश में लाने का वायदा करने वाले तो देश सेवा का काम मिलने के इतने आश्वस्त हैं कि अपने हिस्से का पैसा स्विस बैंक से लाकर चुनाव में लगा भी दिये। ठेका मिलने के पहले काम पूरा । 

कोई विकास का हल्ला मचाये है। कोई कहता धर्मनिरपेक्षता जरूरी है। किसी की नजर भ्रष्टाचार पर है। किसी की सुशासन पर। 

देश के हाल आजकल सरकारी विभागों में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों सरीखे हैं। ठेका किसी को भी मिले लेकिन खटना उन्हीं को है। केवल ठेकेदार का नाम बदलना है। खटने के बावजूद न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती उनको। ठेकेदार उनके हिस्से की मजदूरी भी मार लेता है। 

देश बेचारा देश सेवा का ठेका हासिल करने के लिये जूझ रहे ठेकेदारों को देख रहा है। वह जानता है बैनर और नाम भले अलग दिखें लेकिन असल में सब ठेकेदार एक सरीखे हैं। 

देश बेचारा देशसेवा का ठेका अलाट होने के इंतजार में है। जिसको देशसेवा का काम मिलेगा वह देश की पीठ पर सवार होकर चाबुक फ़टकारते हुये कहेगा- "चल बे मेरे प्यारे देश। इस तरफ़ चल।उधर नहीं बे इधर। तेरी सेवा का ठेका हमें मिला है। तुझे हमारी मर्जी से चलना पड़ेगा। समझ गया न। "

समझे या न समझे देश को चलना उसी के इशारे पर है जिसको ठेका मिला है देश चलाने का।

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