Thursday, October 23, 2014

झाडे रहो कलट्टरगंज


 

सबेरे-सबेरे नींद खुली तो देखा सूरज भाई खिड़की के बाहर ट्रेन के साथ-साथ चल रहे थे। गोल बिंदी जैसे सजे थे आसमान के माथे पर। देखते-देखते उनके आसपास का आकाश भी उनके ही रंग में रंगता गया। फिर सबका रंग बदलता गया।

यमुना नदी पड़ी रास्ते में। सूरज का प्रतिबिम्ब ऐसे पड़ रहा था नदी में मानो वो दिया जला रहा हो नदी के किनारे। शाम को और लोग जलाएंगे दिया। भगायेंगे अँधेरा। लेकिन सूरज का तो यह रोज का काम है अँधेरे का। उनकी तो रोजै दीवाली मनती है। कोई दीवाली के मोहताज थोड़े हैं सूरज भाई।

ट्रेन की चेन जगह-जगह खिंचती है। लोग उतरते हैं। ट्रेन एक घंटा लेट है। एक यात्री रेलवे विभाग को मदिरियाते हुए गरियाता कि अब वे ट्रेन के समय सुधार का तो कोई प्रयास करेंगे नहीं। 500/600 किमी यात्रा 12 घंटा में हो रही है। देश बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है।

ट्रेन की पटरी के दोनों तरफ कूड़े का साम्राज्य सा पसरा है। कानपुर में ट्रेन का 'पालीथिन कारपेट' स्वागत हो रहा है। लगता है 'स्वच्छ भारत अभियान' कानपुर को गच्चा देकर निकल गया।

एक बुतरू कुत्ता ट्रेन की पटरी के बीच बैठा आराम से धूप सेंक रहा है। सूरज भाई उसको फुल विटामिन डी सप्लाई कर रहे हैं।

ऑटो वाला हमको ऑटो में बिठाकर अपनी कमीज बदल रहा है। खाकी वर्दी पहन रहा है। बताते हुए की चौराहे पर खाकी वर्दी वाले परेशान करते हैं।

कानपुर की सड़क पर चिर परिचित चहल-पहल है। सूरज भाई अब एकदम फुल फ़ार्म में हैं। दीवाली की मुबारकबाद देते हुए कह रहे हैं- झाडे रहो कलट्टरगंज।



अनूप शुक्ल

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