महाभारत काल में द्रोणाचार्य जी बहुत प्रसिद्ध गुरु थे। तमाम राजकुमारों को ट्यूशन पढाने के चलते दूर-दूर तक उनका नाम था। राजकुमारों को ट्यूशन पढ़ाना तो उनकी मजबूरी थी लेकिन इस बात को उन्होंने इस तरह प्रचारित किया कि जो भी उनके यहां ट्यूशन पढ़ता था वो राजकुमार बन जाता था। यह प्रचार आजकल के बड़े-बड़े कोचिंग संस्थानों की तर्ज पर था जिसमें वे लोग हर इम्तहान के टापर को पकड़कर उसका फ़ोटो लगाते हुये उनसे बयान दिलवाते हैं कि उनकी सफ़लता सिर्फ़ उस कोचिंग में पढ़ने के चलते हुयी। कभी-कभी तो एक-एक टापर की सफ़लता के पीछे इतनी कोचिंगों का हाथ सिद्ध होता है कि यह तय करना मुश्किल होता है कि इतनी कोचिंग में आने-जाने में ही दिन में जितने घंटे लग जाते हैं उतने घंटे तो दिन में होते भी नहीं। खैर !
जब सब राजकुमार पढ-लिख गये तो द्रोणाचार्य खाली हो गये। कोई नया काम करने की सोची। पहले तो विश्वामित्र की तर्ज पर लोगों को सीधे स्वर्ग भेजने का काम शुरु करने की सोची । लेकिन फ़िर जब याद आया कि वे राजा त्रिशंकु को स्वर्ग में इंट्री कराने में असफ़ल रहे थे तो उन्होंने विचार छोड़ दिया।
इसके बाद द्रोणाचार्य जी ने अपनी अच्छे ट्यूटर की धाक का उपयोग करते हुये बड़े कोचिंग संस्थान खोले। जैसे आजकल हर शहरों की ’कोचिंग मंडी’ में लाखों बच्चे इंजीनियर/ डाक्टर बनाने की कोचिंग में भर्ती के लिये भागे चले आते हैं वैसे ही द्रोणाचार्य जी के संस्थान में हर साल अनगिनत बच्चे भरती होने के लिये आने लगे। खूब पैसा पीटा उन्होंने। देखते-देखते द्रोणाचार्य जी की गिनती देश के बड़े धनिकों में होने लगी। उनकी सफ़लता के किस्से चलने, दौड़ने लगे।
ऐसे में ही महाभारत का युद्ध शुरु हो गया। युद्ध की बात तो खैर लोगों ने अपने मन से उड़ा दी है। सच में तो उस समय एक बड़ा चुनाव हुआ था। कौरव और पाण्डव पहले एक ही पार्टी में थे। महाभारत का जब चुनाव हुआ तो दोनों में समाजवादी पार्टी की तरह वर्चस्व की लडाई थी इसलिये भाई-भाई एक दूसरे के खिलाफ़ चुनाव प्रचार में जुट गये।
द्रोणाचार्य कौरवों और पाण्डवों दोनों के गुरु थे। उनके पास जमा पैसे के चलते दोनों उनको अपनी पार्टी में शामिल करना चाहते थे। लेकिन लोकतंत्र में बहुमत के महत्व को विचारते हुये द्रोणाचार्य जी कौरवों की पार्टी में शामिल हो गये और उनके पक्ष में धुंआधार प्रचार करने लगे।
एक दिन ऐसे ही द्रोणाचार्य बीच कुरुक्षेत्र में माइक पर दहाड़ते हुये कौरवों के समर्थन में भाषण दे रहे थे। ऐसे-ऐसे कटाक्ष कर रहेथे पांडवों पर कि उनके हाल बेहाल हो गये। लेकिन कटाक्ष का कोई जबाब न होने के चलते पांडव बेचारे सर झुकाये चुपचाप गुरु जी को बीच मैदान दहाड़ते सुन रहे थे। महाभारत के चुनाव में अपनी लगभग निश्चित पराजय से दुखी हो रहे थे बेचारे पांडव।
उस समय के पांडवों के ’प्रशांत किशोर’ कृष्ण जी ने जब पाण्डवों के ऐसे हाल देखे उन्होंने द्रोणाचार्य की ताकत का कारण पता किया। उनको पता चला कि जब से द्रोणाचार्य जी के पास कोचिंग की कमाई का पैसा आना शुरु हुआ है तब से उनका आत्मविश्वास बहुत बढ गया है। वे ट्रंप की तरह बड़बोले भी हो गये हैं।
द्रोणाचार्य जी की ताकत उनके पास इकट्ठा अथाह पैसे में जानकर कृष्ण जी ने युधिष्ठर को कुछ सिखाकर गुरु द्रोण के पास भेजा। यु्धिष्ठर को अपनी तरफ़ आता देखकर द्रोण जी की आवाज गनगना उठी। वे और तेज आवाज में पाण्डवों के खिलाफ़ प्रचार करने लगे।
युधिष्ठर ने गुरु द्रोण की बातों का कोई जबाब नहीं दिया। सीधे मंच पर पहुंचकर गुरु के चरण छुये और कान में फ़ुसफ़ुसाकर कुछ कहा।
युधिष्ठर ने गुरु के कान में क्या कहा यह उस समय पता नहीं चला लेकिन बाद में तमाम लोगों ने नाम न बताने की शर्त के साथ बताया कि युधिष्ठर ने द्रोणाचार्य के काम में जो फ़ुसफ़ुसाया था उसका लब्बो-लुआब यह था -’ गुरुदेव आप जिन कौरवों के पक्ष में चुनाव प्रचार कर रहे हैं उन्हीं कौरवों ने बड़े नोट बंद करने की राजाज्ञा जारी कर दी है। उनको डर है कि कहीं चुनाव के बाद आप अपने पैसे के बल पर जीते हुये प्रतिनिधि खरीदकर खुद राजगद्दी न हड़प लें।’
युधिष्ठर की बात सुनते ही पहले गुरु द्रोण का दिल बैठ गया, इसके बाद उनकी आवाज और अंतत: वे खुद भी बैठ गये। एक बार जो बैठे तो फ़िर दुबारा उठ नहीं पाये।
विमुद्रीकरण के झटके न सह पाने के चलते हुई यह संभवत: पहली मौत थी।
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