जब रामचन्द्र जी लंका विजय के बाद अयोध्या लौटकर आये तो उन्होंने राजकाज संभालते ही कुछ बढ़िया काम करने की सोची। लेकिन भरत जी ने 14 साल में इतनी अच्छी तरह से शासन संभाला था कि उसमें कुछ करने की गुंजाइश ही नहीं बची थी।
लंका जीतकर रामजी को अपना अयोध्या का राजा बनना ऐसा लगा जैसे किसी प्रधानमंत्री को किसी राज्य का राज्यपाल बना दिया जाए।
लेकिन रामजी को तो इस स्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ा। वे तसल्ली से रह थे। वर्षों बाद बिना हल्ले-गुल्ले का जीवन बिताते हुए उनको जो आनन्द मिल उसकी उन्होंने पहले कभी कल्पना तक नहीं की थी।
लेकिन रामजी के 'जे बिनु काज दाहिने बाएं' उनको रोज कुछ न कुछ ऐसा क्रांतिकारी करने के लिए उकसाते रहते जिससे राम जी का अलग से भौकाल बने।रामजी चतुराई पूर्वक मुस्कराते हुए इस झमेले से खुद को बचाये रखते। उनके भक्त लोग उनकी इस रुख से दुखी रहते। लेकिन राम जी का कुछ बिगाड़ पाने में असमर्थ होने के चलते वे बेचारे चुप रहते और उनको कोई क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए उकसाने की नित नई तरकीब सोचते रहते।
एक दिन राम जी कुछ मौज के मूड में थे तो उन्होंने 'दिव्य बुद्धि दल' के प्रमुख से पूछ ही लिया -'क्या क्रांतिकारी करने का सुझाव देते हैं आप मुझे?'
यह पूछते ही सुझावों की झड़ी लग गईं। कुछ आप भी देखिये:
1. आपको लंका पर चढ़ाई करके फिर से उस पर विजय करनी चाहिए। लंका न सही तो किसी पडोसी राज्य पर ही विजय प्राप्त करनी चाहिए।
2. आपको राज्य से त्यागपत्र देकर फिर से राजगद्दी संभालनी चाहिए।
3. आपको राज्य में हरेक नागरिक के यहां छापा डलवाना चाहिये। जो इसका विरोध करे उसे राजद्रोही साबित कर देना चाहिए।
4. आपको सरयू नदी का पानी इस्तेमाल करने पर शुल्क लगा देना चाहिये। इससे राज्यकोष बढ़ेगा।
5. ध्वनि पदूषण रोकने के लिए आपको पूरी अयोध्या नगरी में बोलने पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए।
2. आपको राज्य से त्यागपत्र देकर फिर से राजगद्दी संभालनी चाहिए।
3. आपको राज्य में हरेक नागरिक के यहां छापा डलवाना चाहिये। जो इसका विरोध करे उसे राजद्रोही साबित कर देना चाहिए।
4. आपको सरयू नदी का पानी इस्तेमाल करने पर शुल्क लगा देना चाहिये। इससे राज्यकोष बढ़ेगा।
5. ध्वनि पदूषण रोकने के लिए आपको पूरी अयोध्या नगरी में बोलने पर पाबन्दी लगा देनी चाहिए।
रामजी इतने क्रांतिकारी सुझाव सुनकर दहल उठे। उन्होंने 'दिव्य बुद्धि बल' प्रमुख की तर्क शक्ति परखने के लिए पूछा - 'जब लंका और सारे पडोसी देश हमारे मित्र हैं तो उन पर हमला करने और उन पर विजय का क्या मतलब ?'
इस पर उत्साहपूर्ण आवाज में प्रमुख ने बताया -'राजा की कीर्ति विजय से ही बढ़ती है। राजकाज अच्छा करने मात्र से राजाओं को कोई याद नहीं करता। इसलिए आपको हर वर्ष किसी न किसी राज्य पर विजय प्राप्त करते रहना चाहिए।'
'लेकिन जब कोई पड़ोसी देश मित्र हो और युद्ध के लिए कोई कारण न हो तो कैसे उस पर हमला कर दें?' - राम जी को मजा आने लगा था बातचीत में।
'पडोसी राज्य से इस बात का आग्रह किया जाए कि वह हमारे राज्य से युद्ध करे। जो राज्य इस आग्रह को मानने से इंकार करे उस पर इसी बहाने से हमला कर सकते हैं कि उसने आपकी युद्ध करने की बात नहीं मानी।' -दिव्यदल प्रमुख का चेहरा चमचमा च तमतमा उठा।
रामजी इस तरह के सुझाव सुनकर चिंतित हो उठे। उन्होंने प्रमुख की सेवा पञ्जिका मंगवाकर देखी। पता चला कि वह अयोध्या आने के पूर्व लंका राज्य का प्रमुख सलाहकार था। राम जी ने उसको फ़ौरन 'दिव्य बुद्धि बल' विभाग से हटाकर ' दिव्यांगबुद्धि बल' दल में भेजा और भाई भरत को बुलाकर मंत्रणा की कोई ऐसा काम बाकी रखा हो भरत जी ने जिसे करके राम जी अपने भक्तों की ' कोई क्रांतिकारी काम' करने की इच्छा को पूरी कर सकें।
भरत ने राम जी की परेशानी पर विचार किया और कहा-'भैया, 14 साल तक मैंने आपके आज्ञाकारी सेवक की तरह काम किया। निस्वार्थ भाव से किया तो अब स्वर्ग के देवता लोग भी जब कभी घूमने आते हैं अयोध्या तो कहते हैं काश स्वर्ग में भी अयोध्या जैसी सुविधाएँ होतीं। मैंने सब योजनाओं का नामकरण भी आपके और माता जानकी के नाम ही किया था इसलिए फिलहाल तो नाम बदलने का क्रांतिकारी काम भी नहीँ किया जा सकता।'
राम जी यह सुनकर किंचित उदास हो गए। बोले- 'भैया भरत, कुछ तो छोड़ा होता मेरे करने के लिए। इन भक्त लोगों ने तो मेरा जीना दूभर कर रखा है। अब तुम ही कुछ उपाय सोचो ताकि हम कुछ क्रांतिकारी करने की अपने भक्तों की मांग पूरी कर सकें। जानकी भी दुखी रहती हैं इन मांगों से।'
राम जी के मुंह से जानकी का नाम सुनकर भरत को याद आया। उन्होंने राम से कहा -'भैया , एक काम करिये। मैंने जो मुद्राएं चलाई थीं उनमें आपकी पादुकाओं के चित्र थे। अब उनका कोई मतलब नहीं है। आप मुद्राओं के स्थान पर अपनी और सीता भाभी के चित्र वाली नई मुद्रायें जारी करें। इससे सीता भाभी को भी अयोध्या से जुड़ाव प्रतीत होगा। अभी तक वे यहाँ आने के बाद से कष्ट ही पाती आई हैं।"
राम जी ने शुरुआत में तो ना-नुकुर की लेकिन फिर भरत जी के समझाने पर इस शर्त के साथ मान गए कि नई मुद्रा बस चला देंगे लेकिन पुरानी को फौरन बंद न करेंगे। वैसे भी रामराज्य में कोई काला धन, आतंकवाद , नकली मुद्रा जैसा चलन था नहीं जिसके बहाने पुरानी मुद्रा को फौरन बन्द किया जाए।
नई मुद्रा पर राम-सीता की फोटो थी। चलने लगी वह भी। लोगों ने इसी बहाने राम-सीता के दर्शन किये। लेकिन जैसे भ्रष्टाचार की आदत हो जाने पर लोग साफ़ तरीके से काम करना नहीँ चाहते वैसे ही लोग नई मुद्रा के शुरू हो जाने पर भी पुरानी मुद्रा से ही काम चलाते रहे। लोगों में नए नोट के प्रति ज्यादा रुझान नहीं था।
एक बार जब खुद की फोटो वाली मुद्रा चल गईं तो रामजी को और उनसे ज्यादा उनके भक्तों को लगने लगा कि जो लोग नई मुद्रा व्यवहार में नहीं ला रहे वे जानबूझकर गड़बड़ कर रहे हैं।रामजी के भक्तों ने लोगों के बीच जाकर नई मुद्रा व्यवहार में लाने को कहा। जिन लोगों ने मान लिया उनका तो ठीक। जिन कुछ लोगों ने इसमें ढील दिखाई उनका बहिष्कार करने का आह्वान किया यह कहते हुए:
जाके प्रिय न राम-वैदेही
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही।
मतलब जिन लोगों को राम-सीता के चित्र वाली मुद्राएं पसन्द नहीं हैं उनको दुश्मन की तरह त्याग दिया जाए भले ही वे कितने ही प्रिय न हों।
इसके बाद तो भभ्भड़ मच गया। सब लोगों ने अपनी मुद्राएं बदली। नई राम सीता के चित्र वाली मुद्रा लागू हुई।
इसी में एक क्षेपक कथा भी है। जब सभी लोग नई मुद्रा व्यवहार में लाने लगे तो किसी हनुमान जी से जलने वाले व्यक्ति ने उलाहना दिया कि हनुमान जी तो कोई मुद्रा नहीं रखते। क्या राम-सीता उनको प्रिय नहीं है। कुछ दिन तो गुपचुप बातें हुईं फिर सभी यह सवाल करने लगे।
बात जब हनुमान जी तक पहुंची तब भी उन्होंने कुछ कहा नहीं। लेकिन एक दिन राम दरबार में सरे आम किसी ने टोंक दिया। राम जी ने उसको डपटने के लिए मुंह खोला तब तक हनुमान जी ने भरे दरबार में अपना सीना किसी मंदिर के कपाट की तरह खोलकर दिखा दिया। उनके हृदयस्थल पर राम-सीता की वही मूर्ति बनी हुई थी जो नई मुद्रा में छपी थी।
सभी लोग हनुमान जी की जय बोलने लगे। जिसने उनपर पर आरोप लगाया था उसकी आवाज सबसे ऊँची थी। राम जी ने लपककर हनुमान जी को गले लगाया। अपने राज्य के सारे अधिकार उनको सौंप दिए। तब से लोग कहने लगे:
राम दुआरे तुम रखवारे
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।
मतलब राम के दरबार की आप रक्षा करते हैं। बिना आपकी आज्ञा के कोई राम दरबार में प्रवेश नहीं कर सकता।
कलयुग तक आते -आते इस चौपाई का मतलब बदला और बिगड़कर जो हुआ उससे लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं और मानने लगे हैं कि बिना मुद्रा के दरबार में कोई काम नहीं होता।
कभी-कभी बजरंगबली को यह सब देखकर गुस्सा आता है । मन करता है कि ऐसा करने-कहने वालों पर गदाप्रहार कर दें। किन्तु कर नहीं पाते। आखिर भगवान अपने भक्तों से ही हारते हैं।
बोल बजरंगबली की जय। सियावर रामचन्द्र की जय। सब संतों की जय। दुष्टों का नाश हो। भक्तों का कल्याण हो।
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