Saturday, August 05, 2017

हर कला विकसित होते-होते ’कलाबाजी’ हो जाती है -परसाई



परसों ’ज्ञान चतुर्वेदी सम्मान’ पर अपनी बात रखी। इसके बाद परसाई जी का एक लेख पढा। अच्छा लगा तो सोचा आपसे भी साझा करें। परसाई जी का यह लेख उनके कल्पना पत्रिका में छपे लेखों के संकलन ’और अन्त में’ से लिया गया है। किताब का पहला संस्करण 1980 में आया था। मतलब लेख उसके पहले का होगा।
लेख इनाम के संदर्भ में है। लेख के कुछ पंच पहले पेश करते हैं :
1. भारतीय लेखक की हालत अजीब हो गई है। अदना से अदना लेखक के चेहरे पर मुझे एक लाख का चैक चिपका दिखता है।
2. जिसे इनाम चाहिये वह चुप ही रहेगा।
3. जो इनाम की आलोचना कर रहे हैं , वे अपना भविष्य बिगाड़ रहे हैं। उन्हें इनाम नहीं मिलेगा।
4. जो जय बोल रहे हैं, उन्हें भी नहीं मिलेगा क्योंकि इनामदाता जानते हैं कि ये लॉटरी और वर्ग पहेली के इनामों में भी इसी तरह जय बोलते हैं।
5. इनाम उन्हें मिलेगा, जो चुप हैं।
6. हर कला विकसित होते-होते ’कलाबाजी’ हो जाती है। इसलिये जो आगे देखता है, जो भविष्यदृष्टा है, वह कला को छोड़कर ’कलाबाजी’ पर ध्यान देता है।
7. मान भी लिया कि पक्षपात होगा, तो क्या गलत होगा? कोई पैसा भी दे गांठ से और आप उसे बतायें कि अमुक को दे दो! कोई सार्वजनिक चन्दे का पैसा तो है नहीं !
8. भारतीय लेखक, विशेषकर हिन्दी लेखक विचित्र होता है। वह सर पर कफ़न बांधे रहता है। इसे पैसा नहीं दो तो शिकायत करता है कि लेखक को कुछ नहीं मिलता। और पैसा देने लगो, तो दूर भागता है। पैसे की कीमत ही नहीं समझता वह।
अब लेख भी बांच लीजिये।
प्रिय बन्धु,
दुनिया के आकाश और भारत के साहित्याकाश , दोनों में एक साथ हलचल मच गई। उधर क्रिसमस द्वीप पर बम विस्फ़ोट हुआ , इधर दिल्ली में एक लाख के इनाम की घोषणा हुई। दोनों विस्फ़ोट एक साथ हुये- पता नहीं किसने किसके साथ समय साधा! भारतीय लेखक की हालत अजीब हो गई है। अदना से अदना लेखक के चेहरे पर मुझे एक लाख का चैक चिपका दिखता है।
भारी हलचल है। पुरस्कार के पक्ष में और विपक्ष में लोग बोल और लिख रहे हैं। ’जय’ और ’धिक’ के नारों से आसमान ऐसा भर गया कि प्रेमीजनों को रेडियो सीलोन के गाने सुनने में कठिनाई पड़ रही है। लोग मुझसे कहते हैं कि तुम इस पर कुछ क्यों नहीं बोलते। मैं कहता हूं , मैं चुप हूं, क्योंकि मुझे इनाम चाहिये। जिसे इनाम चाहिये वह चुप ही रहेगा। जो इनाम की आलोचना कर रहे हैं , वे अपना भविष्य बिगाड़ रहे हैं। उन्हें इनाम नहीं मिलेगा। जो जय बोल रहे हैं, उन्हें भी नहीं मिलेगा क्योंकि इनामदाता जानते हैं कि ये लॉटरी और वर्ग पहेली के इनामों में भी इसी तरह जय बोलते हैं। इनाम उन्हें मिलेगा, जो चुप हैं। शीतयुद्द में तटस्थ देशों को लाभ मिलता है; भिलाई और राउरकेला दोनों हाथ आते हैं। इसीलिये हम चुप हैं। हमें यह इनाम लेना ही है।
मेरे सामने प्रश्न यह है कि यह इनाम किसे मिलेगा। घोषणा को ध्यान से पढने पर मेरे हाथ ’कला की दृष्टि’ शब्द पड़े। यही योजना की पकड़ है। विशुद्ध कला की दृष्टि से जो ग्रंथ श्रेष्ठ होगा, उसी पर इनाम मिलेगा। आप जानते हैं कि हर कला विकसित होते-होते ’कलाबाजी’ हो जाती है। इसलिये जो आगे देखता है, जो भविष्यदृष्टा है, वह कला को छोड़कर ’कलाबाजी’ पर ध्यान देता है। जो लोग इनाम के पक्ष-विपक्ष में बोल रहे हैं, वे कला को दृष्टि में रखकर सोच रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि साहित्य रचना कला की सीमा से आगे बढकर ’कलाबाजी’ तक पहुंच गई है। जो कला में अटके रहेंगे, उनका भविष्य बिगड़ेगा।
मैं जब स्कूल में पढता था , तब हर साल किसी लड़के को सर्वोच्च आचरण पर इनाम मिलता था। इनाम का निर्णय हैडमास्टर साहब, ड्रिल मास्टर की सलाह से करते थे। सर्वविदित है कि स्कूलों में लड़कों के आचरण पर नजर रखने की जिम्मेदारी ड्रिल मास्टर पर होती है। जिन लड़कों को इनाम पाना होता, वे इन दोनों की निगाह में अच्छे लड़के बनने का प्रयत्न करते थे। वे दिन में दस बार हैडमास्टर को ’नमस्ते सर!’ कहते थे। जहां कहीं हैडमास्टर दिख जाते, एकदम झुककर ’नमस्ते सर!’ छोटी छुट्टी में, बड़ी छुट्टी में, स्कूल बंद होने पर, खेल के मैदान में हर बार ’नमस्ते सर’ कहते थे। इसी तरह ड्रिल मास्टर को खुश करते थे। बड़े मान से कवायद करते, उनके हर काम करने को तैयार रहते, उनके लिये पास के बगीचे से अमरूद तोड़कर ले आते। साल के अन्त में अच्छे आचरण के लड़के का नाम घोषित होता और वह इनाम पा जाता। कभी ऐसा भी होता था कि जो अपने को सबसे अच्छा लड़का सिद्ध करता, उसे न मिलकर इनाम दूसरे को मिल जाता क्योंकि वह दूसरा लड़का स्कूल कमेटी के किसी सदस्य का कोई होता। मगर एक बात विचित्र होती- ’जिसे इनाम मिलता, वह लड़कों के बीच बहुत निकम्मा और सत्वहीन माना जाता। साल-भर इनाम लेने की कोशिश में वह ऐसी ’कलाबाजियां’ करता कि जब उसे इनाम मिलता तो हमें लगता एक हममें से सबसे निकम्मे, दब्बू और व्यक्तित्वहीन लड़के को चुन लिया गया। फ़िर भी कोशिश होती ही थी क्योंकि इनाम बड़ी चीज है।
बन्धु, स्कूल की सीखी बातें जीवन भर काम आती हैं। इनाम पाने की इस तरकीब के उपयोग करने का अब मौका आया है। हैडमास्टर को ’नमस्ते सर’ का सिलसिला जमाता हूं। ड्रिल मास्टर को खुश करने के प्रयत्न भी करूंगा। लोगों ने घोषणा के बाद जैसा बातावरण बना दिया है, उसमें कई लोग कोशिश करने में झेपेंगे। जो साहस से काम लेगा, उसे इनाम मिल जायेगा।
बन्धु, लोग अटकलें लगाने लगे हैं- अमुक को मिलेगा, अमुक प्रकार के साहित्य को मिलेगा, अमुक विचारधारा वालों को मिलेगा। उधर से जबाब आता है कि निर्णय निष्पक्ष होगा। मैं कहता हूं, इस मामले में हमें नाई से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। नाई रे नाई मेरे सिर में कितने बाल? नाई ने निहायत संजीजगी से कहा- ’अभी सामने आये जाते हैं!’ पहला इनाम साल भर में मिल ही जायेगा। उसी से पता चल जायेगा। और मान भी लिया कि पक्षपात होगा, तो क्या गलत होगा? कोई पैसा भी दे गांठ से और आप उसे बतायें कि अमुक को दे दो! कोई सार्वजनिक चन्दे का पैसा तो है नहीं !
बन्धु भारतीय लेखक, विशेषकर हिन्दी लेखक विचित्र होता है। वह सर पर कफ़न बांधे रहता है। इसे पैसा नहीं दो तो शिकायत करता है कि लेखक को कुछ नहीं मिलता। और पैसा देने लगो, तो दूर भागता है। पैसे की कीमत ही नहीं समझता वह। घोषणा-पत्र में इसी नासमझी को ध्यान में रखकर समझाया गया है कि हे लेखक, तुझे पाठक मिलने से उतनी खुशी नहीं होती जितनी पैसा मिलने से। इतना साफ़ समझाने पर भी कोई न समझे तो वह अभागा है। भई हम तो हेडमास्टर को ’ नमस्ते सर’ कहेंगे।
- हरिशंकर परसाई ’और अंत में’ पुस्तक से।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212233217759092

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