Wednesday, August 16, 2017

जंह-जंह देखा अंधकार को, मारू डंका दिया बजाय

आज सुबह निकलते ही देखा कि सूरज भाई आसमान की गद्दी पर विराज चुके थे। उनके चेहरे पर अंधकार के संहार की विजय पताका फ़हरा रही थी। दिशायें उनके सम्मान में गीत पढ रही थीं। उजाला वीर रस में उनकी वीरता का बखान कर रहा था:
जंह-जंह देखा अंधकार को, मारू डंका दिया बजाय,
गिन-गिन मारा अंधियारे को, टुकड़े-टुकड़े दिये कराय
सबहन किया उजेला, रोशनी सबहन दई बिखराय,
करौं बड़ाई का सूरज की, आगे वर्णन किया न जाय।
किरणें उजेले की चापलूसी पर मुस्कराते हुये सूरज दादा को देख रही थीं। जहां उजेले ने ’आगे वर्णन किया न जाये’ कहा वहीं खिलखिलाने लगीं और उसको ’कामचोर चापलूस’ कहकर चिढाने लगीं। उजेले ने उसकी बात का बुरा नहीं माना। चापलूस किसी की बात का बुरा नहीं मानते। एकनिष्ठ भाव से चापलूसी करते हैं। उनका ध्यान अपने आराध्य की चापलूसी करना होता है। बुरा मानने से ध्यान भटकता है। चापलूसी प्रभावित होती है। जिस उद्धेश्य से चापलूसी की जा रही है उसकी प्राप्ति में विलम्ब होता है।
शुक्लागंज पुल पर लोगों की आवाजाही शुरु हो गयी थी। गंगा जी एकदम चित्त लेटी हुई थीं। लहरें उनके वदन पर गुदगुदी सरीखी कर रहीं थीं। गंगा जी लहरों की गुदगुदी को वात्सल्य भाव से निहारी चुपचाप लेटी हुई थीं। नदी की लहरों को देखकर यह भी लगा कि ये सब बुजुर्ग नदी के बदन की झुर्रियां हैं जो हवा के बहने से इधर-उधर हिल-डुल रही हैं।
एक जगह पानी का गोला अंदर धंसा हुआ गोल-गोल घूमता चला आ रहा था। लगा नदी की नाभि है। लगा नदी कपालभाति कर रही हैं। अपनी नाभि को इधर-उधर घुमा रही हैं। सूरज भाई को मुफ़्त का पानी मिल गया इसलिये नदी में उतरकर नहाने लगे। छप्प-छैंया करते हुये। जहां नहा रहे थे उसके आसपास उजाला, किरणें, जगमगाहट उनके मने उनके कुनबे के सारे लोग भी जमा हो गये थे।
पुल पर कुछ लोग दौड़ते हुये चले आ रहे थे। किसी युनिट के जवान होंगे। हमें जबलपुर के हिकमत अली की बात याद आ गयी जो तीस-चालीस मील दूर ढोलक बेंचने जाते थे। उन्होंने जबलपुर में सुबह सड़क पर जवानों को देखते हुये पूछा - ’ये लोग सड़क पर दौड़ते क्यों हैं?’
इस बार सीधे गंगा नदी पहुंचे। घाट के किनारे एक आदमी अपने हाथ में चटाई जैसी कोई चीज घुमा रहा था। रस्सी की बंटाई कर रहा था। उससे करीब 100 मीटर की दूरी पर दो सुतलियों को मिलाकर उनके ऊपर पतली पन्नी लपेटती जा रही थी। इस तरह सुतली पन्नी में लिपटकर आकर्षक बन जा रही थी। पन्नी को पास से देखा तो वे सब पान मसाले की पाउच की कतरन थीं। किलो के भाव लाये होंगे।
महिला ने बताया कि ये रस्सी तमाम कामों में आती है। सिकहर भी बनते हैं। सिकहर गांवों में दही आदि ऊंचाई पर लटकाकर रखने वाले मिट्टी के बर्तन होते हैं।
महिला रस्सी लपेटती जा रही थी। दूसरे सिरे पर खड़ा आदमी लकड़ी के औजार को घुमाते हुये सुतली बंटता जा रहा था। एक तरफ़ घुमाने पर रस्सी बंट रही थी। दूसरी तरफ़ घुमाने लगता तो रस्सी खुल जाती। बंटने और बांटने में बस इरादे का अंतर होता है।
महिला ने बताया कि कानपुर की ही रहने वाली है। बुजुर्ग लोग यहीं रहते हैं। रस्सी बंटाई से सौ-पचास की कमाई हो जाती है।
पास ही एक बच्ची उनींदे आंखों बर्तन मांज रही थी। झोपड़ी के पास ही बच्चे सो रहे थे।
गंगा नदी अपने अंदाज में बह रहीं थीं। खड़ेश्वरी बाबा की झोपड़ी के बाहर गुब्बारे लगे थे। कल स्वतंत्रता दिवस मनाया होगा। लोग नदी में नहा रहे थे। एक बाबा जी गंगा की रेती से लोटा मांज रहे थे। दूसरे नहाने के बाद पटते वाला जांघिये धारण करते दिखे। महिलायें नाक बंद करके डुबकी लगा रहीं थी।
कुछ लोग बाल बनवा रहे थे। लगता है उनके यहां गमी हो गयी थी। आज बाल बनने का दिन था। एक नाऊ बाल बनाकर बाल रेती पर गिराता जा रहा था। कुछ देर में बाल नदी में सम जायेंगे। यही हमारा स्वच्छ ’गंगा-निर्मल गंगा अभियान’ है।
महिलाओं के कपड़े बदलने का स्थान इतनी दूर बनाया गया था कि कोई महिला वहां जाने का मन न करे। स्थान भी क्या , बस जरा सी आड़ टाइप। उसके पास जिस चबूतरे पर इतवार को बच्चे पढ रहे थे उसपर एक सुअर परशुरामी सा करता हुआ टहल रहा था।
नदी किनारे कुछ लोग बैठे हुये मछलियों को चारा खिला रहे थे। चारा मतलब बिस्कुट, ब्रेड। मछलियां किनारे आकर बिस्कुट, ब्रेड खा रही थीं। झुंड के झुंड। हमने भी खिलाये उनसे बिस्कुट लेकर। तीन-चार खिलाने वालों में कोई चमड़े की बेल्ट बनाता है, कोई तिरपाल बनाने वाली फ़ैक्ट्री में सुपरवाइजर है।
मछलियां लपक-लपककर आ रहीं थीं। किसी मछली के मुंह में और किसी की पीठ पर खून का निशान दिखा। बताया कि यह कांटा का निशान है। बच गयीं हैं फ़ंसने से। बच गयी इसलिये यहां हैं वर्ना किसी डलिया में बिकने के लिये तड़फ़ रही होंगी। कविता पंक्ति अनायास याद आ गई:
एक बार और जाल फ़ेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
गीत मछली विरोधी है। भाव मछलियों के मन के खिलाफ़। कौन मछली जाल में फ़ंसना चाहेगी भला।
लौटते हुये देखा एक दो महिलायें पुल के फ़ुटपाथ पर आल्थी-पाल्थी मारे बैठी थीं। बतियाती जा रहीं थीं। एक इतनी जोर से कन्धा घुमाऊ कसरत कर रही थी मानो कन्धा उखाड़कर ही रुकेगी। एक लड़का मोटरसाइकिल की गद्दी पर बैठा फ़ुटपाथ पर बैठे दोस्त से गप्पास्टक में जुटा था।
दो बच्चे स्कूल जाते दिखे। बतियाते हुये चले जा रहे थे। दोनों की ड्रेस अलग। आगे कुछ दूर पर बच्चा बच्ची को बॉय कहकर गली में मुड़ गया। उसका स्कूल अलग था। बच्ची आगे चल दी। बताया कि वीरेंद्र स्वरूप पब्लिक स्कूल में कक्षा 7 में पढती है। स्कूल सवा सात बजे लगता है। लेकिन वह जल्दी आती है। मेरा चिरकुट मन उसके जल्दी स्कूल आने के कारण खोजने में जुट गया। लेकिन जहां मन की चिरकुटई का एहसास हुआ फ़ौरन मन को इत्ती जोर से डांटा कि उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। डर के मारे थरथराता रहा बहुत देर तक।
एक बहुत पुरानी लकड़ी की कुर्सी उससे और भी पुरानी प्लास्टिक की कुर्सी के साथ ताले और जंजीर में जकड़े दिखे। जर्जर कुर्सियां जिनको कोई जबरियन भी न ले जाना चाहे उनको ताले में बंद देखकर कैसा लगा होगा उनका आप कयास लगाइये। सबसे बढिया कयास वाले को चाय पिलायेंगे।
क्रासिंग के पास एक आदमी सड़क पर झाड़ू लगा रहा था। सड़क के कूड़े को सड़क में ही मिलाता जा रहा था। जैसे लोग भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर भ्रष्टाचार करते रहते हैं वैसे ही वह आदमी गंदगी की सफ़ाई के नाम गंदगी इधर-उधर कर रहा था। हल्ला मचाते हुये गिनती गिनता जा रहा था। बता रहा था - ’किलो भर आटा लिया है, नमक के पैसे नहीं हैं।’
बच्चे स्कूल जा रहे थे। तीन सहेलियां एक-दूसरे का हाथ थामे हुये स्कूल जा रहीं थीं। दो बच्चे भी हाथ थामे हुये थे। एक बच्चा एक हाथ से दूसरे का हाथ थामे हुये दूसरे हाथ से कुछ गिनती सी करता जा रहा था। जब तक बच्चे एक-दूसरे का हाथ थामे स्कूल जाते रहेंगे, दुनिया की बेहतरी की गुंजाइश बनी रहेगी। अल्लेव केदारनाथ सिंह की कविता याद आ गई:
"उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुये मैंने सोचा
दुनिया को इस हाथ की तरह की तरह
नर्म और मुलायम होना चाहिये।"
सात बज गये थे। लपककर घर पहुंचे। घरैतिन स्कूल जाने के लिये ऑटो पर सवार हो चुकी थीं। गेट पर पहुंचते ही निकली। मुस्कराते हुये गेट बंद करने का आदेश दिया। हमने खुशी-खुशी आदेश का पालन किया। हमारी सैर से घर लौटने की हाजिरी लग चुकी थी।
अब दफ़्तर की हाजिरी का समय हो गया इसलिये चला जाये। आप भी मजे करिये। ठीक न ! 

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