प्रश्न: संन्यास लेकर जो मठाधीश , महंत, या धर्म के उपदेशक हो जाते हैं क्या उनकी इच्छायें वास्तव में मर जाती हैं?
-नरसिंहपुर से विजय बहादुर
उत्तर: मेरा ख्याल है, जब तक कोई ऐसा कार्य या ऐसा चिन्तन या ऐसा कर्म न हो जो आदमी की चेतना को पूरी तरह डुबा ले और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को उठने न दे तब तक संन्यास लेने या मठाधीश हो जाने से आदमी की तृष्णा नहीं जाती। सेक्स और भूख पर विजय पाना सबसे कठिन है। आमतौर पर साधारण संन्यासी भोजन-लोलुप और स्त्री-लोलुप होते हैं। ये बड़े दयनीय भी कभी-कभी लगते हैं। दमन से आदमी दुखी होता है। मठाधीश और सम्पन्न साधु तो भोगी होते हैं। मैंने भी कई स्वामियों को रबड़ी पीते देखा है।
रायपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार देशबन्धु में ’पूछो परसाई से’ श्रंखला के अंतर्गत 12 अक्टूबर, 1986 को प्रकाशित।
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